अयोध्या एवं भगवान ऋषभदेव
जैनधर्म अनादिनिधन धर्म है और तीर्थंकर परम्परा भी शाश्वत है। इस सार्वभौम धर्म में अनंतानंत तीर्थंकर हो चुके हैं, होते हैं और आगे भी होते रहेंगे। पूर्वाचार्य प्रणीत प्राचीन ग्रंथों में जैनधर्म में दो ही शाश्वत तीर्थ माने गए हैं—(१) शाश्वत जन्मभूमि अयोध्या, जहाँ तीर्थंकर भगवन्तों के जन्म होते हैं और (२) शाश्वत निर्वाणभूमि सम्मेदशिखर, जहाँ अष्टकर्मों को नष्ट कर तीर्थंकर भगवान शाश्वत मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं।
अवर्सिपणी-उत्सर्पिणी के भेद से यह कालचक्र गतिमान रहता है। ऐसी अनेकों अवर्सिपणी-उत्सर्पिणी के बीत जाने पर एक हुण्डावसर्पिणी काल आता है जिसमें अघटित घटनाएँ घटती रहती हैं। वर्तमान में हुण्डावसर्पिणी काल चल रहा है जिसके कारण ही इस शाश्वत जन्मभूमि अयोध्या में मात्र ५ ही तीर्थंकर जन्मे—श्री ऋषभदेव, श्री अजितनाथ, श्री अभिनन्दननाथ, श्री सुमतिनाथ एवं श्री अनन्तनाथ भगवान, शेष उन्नीस तीर्थंकर भारतवर्ष की वसुधा पर अलग-अलग स्थानों पर जन्मे और मात्र बीस तीर्थंकर ही सम्मेदशिखर पर्वत से मोक्ष पधारे, शेष चार तीर्थंकर अलग-अलग स्थानों से मोक्षधाम को प्राप्त हुए। इस अवसर्पिणी के तृतीय काल में इस युग के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव का जन्म हुआ।
सर्वार्थसिद्धि से च्युत हो अहमिन्द्र का वह भावी तीर्थंकर जीव जब अयोध्या नगरी में महाराजा नाभिराय की महारानी मरुदेवी के पवित्र गर्भ में अवतीर्ण हुआ उसके छ: माह पूर्व से ही इन्द्र की आज्ञा से धनपति कुबेर ने आकर माता के आंगन में निरन्तर साढ़े सात करोड़ रत्नों की वर्षा की, भगवान के जन्म तक लगातार १५ माह तक हुई इस रत्नवृष्टि से यह पृथ्वी ‘रत्नगर्भा’ इस पवित्र नाम को प्राप्त हुई। आज भी इस अयोध्या नगरी में एक कुबेर टीला नाम से स्थान है, कहते हैं यहीं से कुबेर रत्नों की वर्षा करता था। एक समय रात्रि के पिछले प्रहर में माता मरुदेवी ने अत्यन्त उत्तम सोलह स्वप्न देखे जिसका फल ‘तीर्थंकर सुत’ जानकर वे अत्यन्त प्रसन्नमना हुईं । उस समय अवसर्पिणी काल के सुषमा दु:षमा नामक तृतीय काल में चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष, आठ मास और एक पक्ष शेष था, आषाढ़ कृष्णा द्वितीया तिथि थी, उत्तराषाढ़ नक्षत्र था जब स्वर्ग से इन्द्रों ने आकर भगवान का गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया था।
नौ महीने व्यतीत हो जाने पर चैत्र कृष्णा नवमी की पवित्र तिथि में सूर्योदय के समय माता मरुदेवी ने मति-श्रुत-अवधि ऐसे तीन ज्ञान के धारक तीर्थंकर शिशु को जन्म दिया जिससे तीनों लोकों में हर्ष की लहर छा गई। इन्द्रों के आसन कम्पित हो उठे, कल्पवृक्षों से पुष्पवृष्टि होने लगी, चतुर्निकाय देवों के यहाँ स्वयमेव बाजे बज उठे तब भगवान का जन्म जान सौधर्म इन्द्र-इन्द्राणी अपने विशाल परिकर के साथ ऐरावत हाथी पर चढ़कर अयोध्या नगरी में आए और नगरी की तीन प्रदक्षिणा देकर भगवान बालक को सुमेरू पर्वत पर ले जाकर क्षीरसागर से लाए हुए जल से भगवान का जन्माभिषेक किया, १००८ कलशों से हुए जिनशिशु के उस जन्माभिषेक को इन्द्र, देव, विद्याधर, चारणऋद्धिधारी मुनिवर, ऋषिगण, मनुष्य सभी देख-देखकर हर्ष से फूले नहीं समा रहे थे। पुन: वस्त्राभरणों से प्रभु को अलंकृत कर भगवान का ‘ऋषभदेव’ नामकरण करके वापस जिनबालक को माता-पिता को सौंपकर इन्द्रादि समूह स्तुति, पूजा, ताण्डव नृत्य आदि करके अपने स्वर्गलोक को चले गए।
भगवान ऋषभदेव बाल्यावस्था से कुमारावस्था और क्रमश: यौवनावस्था को प्राप्त हो गए, उस समय आदरपूर्वक महाराजा नाभिराज ने भगवान की स्वीकृति प्राप्त करके इन्द्र की अनुमति से कच्छ, सुकच्छ राजाओं की बहन यशस्वती, सुनन्दा के साथ श्री ऋषभदेव का विवाह सम्पन्न कर दिया। यशस्वती देवी ने चैत्र कृष्णा नवमी के दिन भरत चक्रवर्ती को जन्म दिया, साथ ही क्रम से ९९ और पुत्रों और एक पुत्री ब्राह्मी को जन्म दिया। दूसरी महारानी सुनन्दा ने कामदेव बाहुबली और सुनन्दा नामक कन्या को जन्म दिया। इस प्रकार एक सौ तीन पुत्र और दो पुत्रियों सहित भगवान ऋषभदेव देवों द्वारा लाई गई दिव्य उपभोग सामग्री का अनुभव करते हुए गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहे थे।
एक समय अवधिज्ञानी भगवान ने अपनी ब्राह्मी-सुन्दरी पुत्रियों को गोद में लेकर आशीर्वादपूर्वक दाहिने हाथ से अ, आ आदि वर्णमाला लिखकर ब्राह्मी को लिपि लिखने का एवं बाएं हाथ से सुन्दरी को इकाई, दहाई आदि अंकविद्या लिखने का उपदेश दिया था। इसी प्रकार भगवान ने अपने भरत, बाहुबली आदि सभी पुत्रों को सभी विद्याओं का अध्ययन कराया था।
काल के प्रभाव से जब कल्पवृक्षों ने शक्तिहीन होकर फल देना बन्द कर दिया और बिना बोए धान्य भी उगना बंद हो गए तब व्याकुल प्रजा को महाराज नाभिराय ने भगवान ऋषभदेव के पास भेजा, उस समय भगवान ने अपने अवधिज्ञान से पूर्व-पश्चिम विदेह की वर्तमान स्थिति के अनुसार प्रजा को असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प द्वारा जीवन जीने की कला सिखाई, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण व्यवस्था का प्रतिपादन किया। साथ ही ग्राम, नगर आदि की रचना हेतु इन्द्र का स्मरण किया तब इन्द्र ने अयोध्यापुरी के बीच में जिनमंदिर की रचना करके चारों दिशाओं में जिनमंदिर बनवाए और अंग, बंग, कलिंग आदि देश, नगर, ग्राम, खर्वट, मटंब, पत्तन आदि की रचना की और वापस स्वर्गलोक चले गए। इस प्रकार अनेकों कलाओं-विद्याओं-क्रियाओं के जनक भगवान श्री ऋषभदेव युगादिपुरुष, आदिब्रह्मा, विश्वकर्मा, सृष्टा, कृतयुग विधाता आदि नामों से पूज्य हुए। उस समय इन्द्र ने भगवान का साम्राज्य पद पर अभिषेक कर दिया। किसी समय नीलांजना के नृत्य को देखते समय उसकी आयु समाप्त हो जाने से संसार की क्षणभंगुरता को जानकर भगवान को वैराग्य हो गया और अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत का राज्याभिषेक कर बाहुबली को युवराज पद पर अभिषिक्त कर शेष पुत्रों को अलग-अलग राज्य देकर भगवान वैराग्य भाव से इन्द्र द्वारा लाई गई ‘सुदर्शना’ नामक पालकी पर आरूढ़ होकर ‘‘सिद्धार्थक’’ नामक वन में पहुँचे और वटवृक्ष के नीचे ‘ऊँ नम: सिद्धेभ्य:’ मन्त्र का उच्चारण कर पंचमुष्टि केशलोंच कर तीर्थंकर महामुनि सर्व परिग्रह से रहित हो गए, प्रकृष्ट रूप से त्याग करने के कारण इन्द्रों द्वारा पूजा को प्राप्त वह स्थल ‘प्रयाग’ नाम से प्रसिद्ध हो गया। भगवान के साथ चार हजार राजाओं ने भी भक्तिवश दीक्षा ले ली। भगवान छ: माह का योग लेकर ध्यान में लीन हो गए किन्तु भगवान के साथ दीक्षित वे चार हजार राजा क्षुधा, तृषा आदि परीषहों को सहन न कर सकने के कारण पथभ्रष्ट हो जंगली फल-फूल खाने लगे, उस समय वनदेवताओं ने उन्हें ऐसा करने से रोका तब उन सबने तपस्वियों के अनेक रूप बनाकर वल्कल वस्त्र, जटा, दण्ड आदि धारण कर लिए। इन सबमें अग्रणी रहा भगवान का पौत्र मारीचिकुमार, जिसने ३६३ पाखण्ड मतों की स्थापना कर दी। ये मारीचिकुमार ही आगे सत्कर्म करके अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर हुए हैं।
छ: मास व्यतीत हो जाने पर मुनिचर्या का परिज्ञान कराने हेतु भगवान आहारचर्या के लिए निकले किन्तु किसी को चर्या की विधि ज्ञात न होने से सात महीने नौ दिन और निकल गए। एक वर्ष उनतालीस दिन के पश्चात् भगवान कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में पहुँचे, जहाँ उसी रात्रि राजा सोमप्रभ के लघु भ्राता राजा श्रेयांस को जातिस्मरण हो जाने से पड़गाहन की सम्पूर्ण विधि का परिज्ञान हो गया तब उन्होंने भाई के साथ नवधाभक्तिपूर्वक भगवान को इक्षुरस का आहार दिया। वह तिथि थी—वैशाख सुदी तीज, जो आज भी अक्षय तृतीया के नाम से प्रसिद्ध है।
एक हजार वर्ष तक तपश्चरण करने के पश्चात् भगवान को पुरिमतालपुर के उद्यान में अर्थात् उसी प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे दिव्य केवलज्ञान की प्राप्ति हुई, वह पवित्र तिथि थी फाल्गुन कृष्णा एकादशी। भगवान को दिव्यज्ञान की प्राप्ति होते ही इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने बारह योजन प्रमाण, पृथ्वी से ५००० धनुष ऊपर, अधर आकाश में दिव्य समवसरण की रचना कर दी। उस समवसरण में चार परकोटे, आठ भूमियाँ आदि थीं, बारह सभाएँ थीं जिसमें गणधर, मुनिगण, आर्यिकाएं , श्राविकाएँ, श्रावक, चारों निकाय के देव-देवियाँ, पशु-पक्षी अपने-अपने स्थान पर बैठकर दिव्यध्वनि का पान करते थे। भगवान के पुत्र ऋषभदेव उनके प्रथम गणधर हुए तथा ब्राह्मी भी दीक्षा लेकर आर्यिकाओं में प्रधान गणिनी हुईं । भगवान ऋषभदेव के समवसरण में कुल ८४ गणधर, ८४००० मुनि, ३५००० आर्यिकाएं , ३०००० श्रावक, ५०००० श्राविकाएँ, असंख्यातों देव-देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच थे। तीर्थंकर भगवान की दिव्यध्वनि ७१८ भाषाओं में खिरती है जिसमें से १८ महाभाषा एवं ७०० लघु भाषाएँ हैं। उनकी दिव्यध्वनि ऊँकारमयी होती है।
भगवान ऋषभदेव ने असंख्यों भव्य जीवों को अपनी दिव्यध्वनि के माध्यम से सम्बोधित कर उनका आत्मकल्याण किया, जब भगवान की आयु चौदह दिन शेष रह गई तब वे कैलाशपर्वत पर जाकर विराजमान हो गए और योग निरोध कर माघ कृष्णा चतुर्दशी की उषा बेला में पूर्व दिशा की ओर मुख करके अनेकों मुनियों के साथ सभी कर्मों का नाशकर सिद्धशिला पर जाकर विराजमान हो गए जहाँ से वे पुन: संसार में लौटकर नहीं आएँगे, जहाँ अनन्त सुख है। प्रभु का निर्वाण हुआ जान इन्द्रों ने अपने परिकर सहित आकर निर्वाणकल्याणक महोत्सव मनाते हुए अगणित दीपमालिका सजाईं । जिस समय भगवान मोक्ष गए उस समय भी तृतीय काल था, उसके तीन वर्ष, आठ मास, एक पक्ष शेष व्यतीत हो जाने पर चतुर्थ काल का प्रवेश हुआ है। वैसे तो तीर्थंकर भगवान चतुर्थकाल में ही जनमते और चतुर्थकाल में ही मोक्ष प्राप्त करते हैं परन्तु यह हुण्डावसर्पिणी काल का दोष था जिससे वे तृतीय काल में ही जन्मे और तृतीय काल में मोक्ष गए।
भगवान ऋषभदेव के प्रथम पुत्र भरत के नाम से ही यह देश ‘‘भारत’’ नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा भगवान के सभी १०१ पुत्रों ने दीक्षा लेकर उसी भव से मोक्ष प्राप्त किया और ब्राह्मी-सुन्दरी ने भी दीक्षा लेकर कर्मों को क्रमश: नष्टकर मुक्तिधाम को प्राप्त किया है।
आज इन सब इतिहासों को हुए करोड़ों वर्ष व्यतीत हो गए परन्तु वह शाश्वत तीर्थ अयोध्या आज भी विद्यमान है। काल के थपेड़ों ने उस अयोध्या का दायरा सीमित तो कर दिया लेकिन उसे नष्ट नहीं कर सका। अयोध्या के बारे में शास्त्रों में वर्णन आता है ‘‘अरिभि: योद्धुं न शक्यते इति अयोध्या’’ अर्थात् जिसे कोई शत्रु जीत न सके वह अयोध्या नगरी है। इसका कण-कण पावन है। यहाँ कभी असंख्यातों जिनमंदिर थे, सर्वत्र जिनधर्म की जयकार गूँजती थी, आज कालदोषवश वह नगरी इतनी उपेक्षित हो गई कि लोग भूल ही गए कि यह प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की जन्मभूमि है। भगवान ऋषभदेव के ही वंश में भगवान मुनिसुव्रतनाथ के काल में इसी अयोध्या नगरी में जन्म लेने वाले राजा दशरथ एवं महारानी कौशल्या के पुत्र मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र के नाम से तो यह नगरी प्रसिद्धि को प्राप्त हो गई परन्तु जैन धर्मावलम्बियों का आगमन यहाँ नहीं के बराबर रह गया। जिन पाँच तीर्थंकरों के जन्म वर्तमान में इस अयोध्या नगरी में हुए उनके साक्ष्य रूप ५ टोंक और वहाँ उन-उन भगवान के चरण बस इतना ही अस्तित्व मात्र रह गया। पुन: सन् १९५२ में आचार्यरत्न श्री देशभूषण महाराज ने अपने धर्मोपदेशामृत से भव्यों के पुण्य को जाग्रत करके हुए कटरा मंदिर में भगवान ऋषभदेव-भरत-बाहुबली की मूर्ति विराजमान कराई तथा आगे सन् १९६५ में रायगंज मंदिर के विशाल परिसर में ३१ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की श्वेत नयनाभिराम प्रतिमा विराजमान कराके अयोध्या में जैनत्व का बिगुल बजाया, उसके पश्चात् जैन धर्मावलम्बियों का थोड़ा-थोड़ा इस नगरी पर आना प्रारम्भ हुआ परन्तु इस नगरी को इंतजार था किसी और भी दिव्यात्मा का, जिनके माध्यम से तीर्थ का प्राचीन स्वरूप फिर से विश्व से पटल पर छाने वाला था।
कहते हैं जब-जब धर्म की हानि होने लगती है तब-तब कोई दिव्यात्मा इस भूतल पर जन्म लेकर धर्म और संस्कृति की रक्षा-संरक्षण-संवर्धन करती है। कौन जानता था कि उन्हीं आचार्यरत्न श्री देशभूषण महाराज के सानिध्य में सन् १९५२ में होने वाली प्रतिष्ठा में श्रीदेवी बनने वाली अयोध्या के ही निकट टिकैतनगर ग्राम में जन्मीं लाला श्री छोटेलाल जी एवं माता श्रीमती मोहिनी देवी की प्रथम कन्या कु. मैना उन्हीं पूज्य गुरुदेव के करकमलों से क्षुल्लिका दीक्षा प्राप्त कर वीरमती के रूप में अपनी वीरता का परिचय देते हुए कुमारी कन्याओं के लिए त्याग का मार्ग प्रशस्त करेंगी और पुन: गुरुआज्ञा से इस युग के प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के तीन बार दर्शन कर ‘उत्तर की अम्मा’ के रूप में पूज्य गुरुदेव से वात्सल्यमयी सम्बोधन और अनेक अमूल्य शिक्षाएँ प्राप्त कर उनकी सद्प्रेरणा से उनके प्रथम पट्टाचार्य चारित्र चूड़ामणि श्री वीरसागर महाराज से आर्यिका दीक्षा प्राप्त कर ‘‘ज्ञानमती माताजी’’ के रूप में जिनधर्म का ऐसा अलख जगाएँगी जिससे पूरे विश्व में जैनधर्म की पताका विस्तारित हो जाएगी।
सन् १९५३ में क्षुल्लिका वीरमती माताजी के रूप में, पुन: सन् १९५६ में आर्यिका ज्ञानमती माताजी के रूप में जिनधर्म की सेवा हेतु बढ़े उन कदमों ने भारत के हर प्रांत को अपनी दिव्य देशना से अभिभूत कर अपने दिव्य कार्यकलापों से, अपने व्यक्तित्व-कृतित्त्व से अचंभित कर दिया। पूज्य माताजी की दृष्टि जिस भूमि पर पड़ी वह सृष्टि में छा गई, जिस तीर्थ पर माताजी के चरण कमल पड़े वह आकाश की ऊँचाइयों को छू गया, जिस भव्यात्मा पर उनकी कृपा हुई उसकी आत्मा का उद्धार हो गया। अपनी प्रासुक लेखनी से ५०० ग्रंथों का लेखन करने वाली उन लौहबाला के निकट जो भी आता है आश्चर्यचकित रह जाता है कि इतना ज्ञान, इतनी महान होते हुए ऐसी निश्छल, निर्मल, सरल, सदैव मंद मुस्कान बिखेरती, हर एक को अपना वात्सल्यमयी आशीर्वाद प्रदान करती, विराट व्यक्तित्व की धनी गुरु माता, जिनका क्षण भर का सानिध्य ही प्राणी के जीवन की दिशा बदल देता है।
सन् १९९२ में धनत्रयोदशी के दिन जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में ध्यान में आए अयोध्या के भगवान ऋषभदेव और उस ओर पूज्य माताजी का विहार, फिर तो यह अयोध्या आज सम्पूर्ण विश्व में ‘ऋषभजन्मभूमि’’ के नाम से विख्यात हो गई है। जहाँ कभी यात्री ठहरने में डरता था, जहाँ एक दीपक जलाने वाला कोई नहीं था, जहाँ सांप और बिच्छू घूमते थे वहाँ इन विशल्या समान माताजी के आ जाने से जंगल में मंगल हो गया, आज यहाँ यात्रियों का तांता लगा रहता है। पहले इस पावन धरा पर तीन चौबीसी मंदिर एवं भगवान ऋषभदेव समवसरण मंदिर का निर्माण हुआ, पुन: सन् १९९३ से लेकर २०१९ के अंदर शाश्वत भूमि की पाँचों टोकों का जीर्णोद्धार होकर इतने सुन्दर जिनमंदिर बन गए जिसे देखते मन नहीं भरता है। सन् १९९३, सन् २०१९ और सन् २०२३ में पूज्य माताजी के मंगल पदार्पण से यह तीर्थ एक दिव्य स्वरूप को प्राप्त हुआ है। सन् १९९३ के मंगल चातुर्मास के पश्चात् अब होने वाले २०२३ के चातुर्मास में जैसे एक बालक जन्म लेकर अपनी युवावस्था में पहुँचता है ऐसे ही यह तीर्थ अब और भी महिमा के साथ, दिव्यता के साथ सम्पूर्ण विश्व को भगवान ऋषभदेव, जैनधर्म एवं उसके सर्वोदयी कल्याणकारी सिद्धांतों से अभिसिंचित करने वाला है जिसके पीछे प्रबल पुरुषार्थ है जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का जो आज ८९ वर्ष की अवस्था में अपने आत्मबल से पुन: विहार कर यहाँ पधारी हैं और अब इनकी प्रेरणा से यहाँ भगवान भरत जिनमंदिर, तीन लोक रचना, तीस चौबीसी रत्नमयी जिनमंदिर, सर्वतोभद्र महल, विश्वशांति जिनमंदिर आदि रचनाओं का निर्माण कार्य चल रहा है तथा इनमें विराजमान होने वाली जिनप्रतिमाओं का भव्य पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव ३१ अप्रैल से ५ मई २०२३ तक सम्पन्न होने जा रहा है।
आप सबने कभी ध्यान से देखा होगा तो पाया होगा कि पूज्य माताजी की डिक्शनरी में असंभव नाम का शब्द नहीं है, वह जो चाहती हैं उनकी उत्कट जिनभक्ति से वह पूर्ण होता है और जिनमंदिर बाद में बनते हैं, यहाँ तक कि तीर्थ की भूमि बाद में क्रय होती है पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पहले ही सम्पन्न हो जाती है फिर तो भगवान अपना स्थान स्वयं ही बना लेते हैं।
आज ऋषभजन्मभूमि अयोध्या का जो स्वरूप विश्व के सम्मुख आया है उसमें कतिपय दिव्यात्माओं का अविस्मरणीय योगदान सदैव वंदनीय है। जहाँ परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने अपना प्रबल पुरुषार्थ इसको आलोकित करने में किया है वहीं पूज्य माताजी के शिष्य पीठाधीश क्षुल्लक श्री मोतीसागर महाराज भी सदैव स्मरणीय रहेंगे जिन्होंने सदैव पूज्य माताजी की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए उनके स्वप्न को साकार किया। आज वे हमारे मध्य नहीं हैं लेकिन उनके दो शिष्यरत्न ऐसे विद्यमान हैं जिन्होंने दिन को दिन और रात को रात न मानकर पूज्य माताजी की प्रत्येक आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए अर्जुन, एकलव्य और चन्द्रगुप्त के समान अहर्निश गुरुभक्ति का परिचय देते हुए जो अविस्मरणीय कार्य किए हैं इतिहास सदैव उनको प्रणमन करते हुए उनके प्रति चिरऋणी रहेगा। वे अनूठे शिष्यरत्न हैं—प्रज्ञाश्रमणी, मर्यादा शिष्योत्तमा, आर्यिकारत्न श्री चन्दनामती माताजी एवं जगतगुरु पीठाधीश स्वस्ति श्री रवीन्द्रर्कीित स्वामी जी, जिनका नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। जो जिनशासन के ऐसे देदीप्यमान नक्षत्र हैं जिनके कार्यकलाप हम पूज्य माताजी की प्रेरणा से विकसित प्रत्येक तीर्थ के माध्यम से देख सकते हैं। उनकी अनोखी कार्यक्षमता, कार्यप्रणाली, आइने सा स्वच्छ व्यक्तित्व, निरभिमानता, सरलता-सहजता, वत्सलता, ख्याति-लाभ पूजा से दूर जिनधर्म-जिनागम के प्रति अगाध श्रद्धा ही है जो माताजी की प्रेरणा से विकसित प्रत्येक तीर्थ आज अद्भुत शोभा को धारण करते हैं।
इन शिष्य त्रिवेणी ने उसी प्रकार पूज्य माताजी की गरिमा को महिमामण्डित किया है जैसे गंगा, यमुना और सरस्वती के त्रिवेणी संगम से भगवान ऋषभदेव का तीर्थ महिमामण्डित है, जैसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी तीन रत्नों से आलोकित प्राणी की आत्मा मोक्षरूपी महल को प्राप्त कर लेती है। ऐसे दिव्य महापुरुषों के चरण में वंदन कर उनके सदृश आचरण की भावना हमें भी सदैव अपने मन में भानी चाहिए और पूज्य माताजी ने जो इस तीर्थ के विकास का शंखनाद किया है जिसको आकाश की ऊँचाइयों तक पहुँचाने में ऐसी दिव्य शक्तियाँ लगी हैं उनके स्वप्न को साकार करते हुए हम भी जितना बन सके अपना तन, मन, धन इस तीर्थ के प्रति समर्पित कर प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के प्रति अपनी श्रद्धा भक्ति प्रस्तुत करें तभी हमारा भगवान ऋषभदेव एवं भगवान भरत की जन्मजयंती मनाना सार्थक होगा। ये दिव्यात्माएँ दीर्घायु, स्वस्थ रहकर सदैव इस भूतल को सनाथ करते हुए यूँ ही भगवान ऋषभदेव आदि चौबीसों तीर्थंकरों एवं उनके सार्वभौम सिद्धांतों की अनुगूंज सम्पूर्ण विश्व में करती रहें, जिनशासन को सुवासित करती रहें यही जिनेन्द्रदेव से मंगल प्रार्थना है।