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आचार्य श्री श्रेयांससागर जी महाराज

June 1, 2022साधू साध्वियांSurbhi Jain

पंचम पट्टाचार्य आचार्य श्री श्रेयांससागर जी महाराज

कौन जानता था कि इतने अल्पकाल में ही संघ के आचार्य अजितसागर जी समाधिस्थ हो जायेंगे? आचार्य पद की समस्या खड़ी हो गई। चतुर्थ पट्टाधीश तक यह परम्परा अक्षुण्ण थी। परन्तु आचार्य अजितसागर महाराज के पश्चात् इस परम्परा में दो विभाग हुए। बहुमत व अधिकांश साधुवर्ग एवं श्रावकवर्ग सहित चतुर्विध संघ द्वारा पंचम पट्टाधीश के रूप में आचार्यकल्प श्री श्रेयांससागर महाराज को स्वीकार किया गया और आषाढ़ शुक्ला द्वितीया वि.सं. २०४६ १० जून १९९० को पूज्य आचार्यश्री अजितसागर जी के पश्चात् आचार्य पद लोहारिया (राज.) में उन्हें अर्पित किया गया पुन: २४ जून १९९० को कतिपय साधुओं, श्रेष्ठी व विद्वानों द्वारा द्वितीय पंचम पट्टाधीश के रूप में मुनि श्री वर्धमानसागर महाराज को आचार्यपद पर प्रतिष्ठापित किया गया।

प्रथम पंचम पट्टाचार्य के रूप में प्रतिष्ठापित आचार्यश्री श्रेयांससागर महाराज, जिनके गृहस्थ जीवन के नाना आचार्यश्री वीरसागर महाराज और बाबा आचार्यश्री चन्द्रसागर महाराज थे, ऐसे मातृ-पितृ पक्ष के धार्मिक संस्कारों से सिंचित बालक पूâलचंद ने वि.सं. १९७६, पौष शु. ४, सोमवार, ६ जनवरी १९१९ में महाराष्ट्र प्रांत के औरंगाबाद जिले के वीरगांव में श्रीमान सेठ बालचंद जी की धर्मपत्नी कुन्दनबाई की कोख से जन्म लेकर उनके मातृत्व को धन्य कर दिया । गृहस्थावस्था में चार संतानों के पिता, पहाड़े सेठ के नाम से प्रसिद्ध फूलचंद जी ने वैराग्य भाव के वृद्धिंगत होने पर वि.सं. २०१८ में मुनि श्री सुपाश्र्वसागर महाराज से दो प्रतिमा ग्रहण कीं, पुन: सन् १९६५ वैशाख शुक्ला एकादशी वि.सं. २०२२ में महावीर जी में शांतिवीरनगर में आयोजित पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के शुभ अवसर पर पत्नी लीलाबाई के साथ जैनाचार्यश्री शिवसागर महाराज से मुनि दीक्षा ग्रहण की, उसी समय उनकी माँ ने भी र्आियका दीक्षा ग्रहण की, उनके नाम क्रमश: श्रेयांससागर महाराज, श्रेयांसमती माताजी, व अरहमती माताजी रखे गये। स्वाध्याय द्वारा ज्ञानार्जन व आत्म निरीक्षण करने वाले पूज्य श्री श्रेयांससागर जी ने निरंतर धर्म के प्रतीक तीर्थों के जीर्णोद्धार कार्य कराए। विशेषकर मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र के जीर्णोद्धार के लिए अपनी प्रेरणा प्रदान करते थे। आचार्यपद प्राप्ति के पश्चात् आपने मात्र डेढ़वर्ष के अल्पकाल तक ही संघ का संचालन किया, उसे संभाला, टूटने से बचाया और नई चेतना दी, पुन: आपकी समाधि चैत्र कृष्ण प्रतिपदा १ वि.सं. २०४८, १९ फरवरी १९९२ को बांसवाड़ा (राज.) में हो गई। ऐसे महान गुरु के श्रीचरणों में शतश: नमन।

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