मूलगुण— मुनियों के प्रधान आचरण को मूलगुण कहते हैं। मूल शब्ध के अनेक अर्थ होते हैं फिर भी यहाँ मूल का प्रधान या मुख्य ऐसा अर्थ लेना चाहिये। गुण शब्द से भी यहाँ पर आचरण विशेष अर्थ लेना है। ये मूलगुण इस लोक और परलोक में हितकर हैं। इस लोक में सर्वजन मान्यता, गुरुपना, सर्वजनों के साथ मैत्री भाव आदि गुण होते हैं और परलोक में देवों का ऐश्वर्य , तीर्थंकर पद, चक्रवर्ती पद आदि प्राप्त होते है। मूलगुण अट्ठाईस होते हैं— पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इंद्रियनिरोध, षट् आवश्यक क्रिया, तथा लोच, आचेलक्य, स्नान का त्याग, क्षितिशयन, दंतधावनत्याग, स्थिति भोजन और एक भक्त। मूलगुणों को वृद्धि करने वाले उत्तर गुण कहलाते हैं। ये उत्तर गुण चौंतीस हैं— बारह तप और बाईस परीषह जय।
आर्यिका की सभी चर्या मुनि के सदृश ही है—‘‘मूलगुणों के अनुरूप आचरण को समाचार कहते हैं। अर्थात् मुनि के समाचार का इससे पूर्व में जैसा वर्णन किया है वैसा ही आर्यिका के समाचार का भी वर्णन समझना
चाहिएएसो अज्जाणं पि य सामाचारो जहाक्खिओ पुव्वं।
सव्वह्मि अहोरत्ते विभासिदव्वो जहाजोग्गं।। ६७।।
(मूलाचार— श्रीकुन्दकुन्दकृत)।
अर्थात् दिवस और रात्रि संबंधी सभी क्रियायें मुनियों के सदृश ही हैं। अंतर इतना ही है कि वृक्षमूल योग, आतापन योग, अभ्रावकाश योग ऐसे योगादिक ३ आचरण का आर्यिकाओं के लिये निषेध हैं, क्योंकि वह उनकी आत्मशक्ति के बाहर हैवर्षाऋतु में वृक्ष के नीचे ध्यान में खड़े हो जाना वृक्षमूल है। गर्मी में पर्वत की चोटी पर ध्यान करना आतापन है और ठंडी में खुले मैदान में ध्यान करना अभ्रावकाश है तथा दिन में सूर्य की तरफ मुख कर खड़े होकर ध्यान करना आदि। ’’ आचारसार में भी कहा है— ‘‘जिस प्रकार यह समाचार नीति मुनियों के लिये बताई गई है , उसी प्रकार लज्जादि गुणों से विभूषित आर्यिकाओं को भी इन्हीं समस्त समाचार नीतियों का पालन करना चाहियेलज्जाविनय—वैराग्य—सदाचार— वभूषिते।
तथा प्रायश्चित ग्रंथ में भी आर्यिकाओं को मुनियों के बराबर प्रायशित का विधान है तथा क्षुल्लकादि को उनसे आधा इत्यादि रूप से है। जैसे— ‘‘जैसा प्रायश्चित साधुओं के लिये कहा गया है वैसा ही आर्यिकाओं के लिये कहा गया है विशेष इतना है कि दिन प्रतिमा (दिन में खड़े होकर ध्यान करना), त्रिकालयोग चकार शब्द से अथवा ग्रन्थांतरों के अनुसार पर्यायच्छेद (दीक्षाच्छेद) मूलस्थान तथा परिहार ये प्रायश्चित भी आर्यिकाओं के लिये नहीं हैं
आर्यिकाओं के लिये दीक्षा विधि भी अलग से नहीं है। मुनिदीक्षा विधि से ही उन्हें दीक्षा दी जाती है। इन सभी कारणों से स्पष्ट है कि आर्यिकाओं के व्रत, चर्या आदि मुनियों के सदृश हैं। विशेष इनकी चर्या क्या है वह भी स्पष्ट करते हैं— आर्यिकायें वसतिका में परस्पर में अनुकूल मत्सरभाव रहित, परस्पर में रक्षण के अभिप्राय में पूर्ण तत्पर, रोष, वैर, माया जैसे विकारों से रहित , लोकापवाद और निंदा से डरती हुई, उभयकुल के अनुरूप, लज्जा, मर्यादा और क्रियाओं से अपने चारित्र की रक्षा करती हुई एक साथ रहती हैं। अध्ययन, पुनरावृत्ति, श्रवण, कथन, अनुप्रेक्षाओं के चिंतन, तप, विनय, संयम तथा ज्ञानाभ्यास में सतत तत्पर रहती हुई मन—वचन—काय से शुभाचरण करती हैं। निर्विकार वस्त्र तथा वेश धारण करती हुई, साज शृंगार से रहित, जल्ल और मल से युक्त रहती हैं। धर्म, कुल, कीर्ति और दीक्षा के अनुरूप निर्मल आचरण करती हैं। रोना, बालक आदि को स्नान कराना, भोजन कराना, रसोई बनाना, वस्त्र सीना, सूत कातना तथा छह प्रकार का आरम्भ आदि कार्य नहीं करती हैं। मुनियों के पैरों में तेल लगाना, धोना, गीत गाना आदि कार्य भी वे नहीं करती हैं।
अण्णोणणुकूलाओ अण्णोण्णहिरक्खणाभिजुत्ताओ।
गयरोसवेरमाया सलज्जमज्जादकिरियाओ।।६८।।
अज्झयणे परियट्टे सवणे कहणे तहाणुपेहाए।
तव—वणय—संजमेसु य अविरहिदुवजोगजुत्ताओ।।६९।।
अविकार—वत्थ—वेसा जल्लमलविलित्तचत्तदेहाओ।
धम्मकुल—कत्तिदिक्खापडिरूव—विसुद्ध—चरियाओ।।७०।।
रोदणहावण—भोयण—पयणं सुत्तं च छब्बिहारंभे।
विरदाण पादमक्खण—धोवण—गेयं च ण वि कुज्जा।।७३।।
(मूलाचार— श्रीकुन्दकुन्दत)
वसतिका स्थान— जो स्थान साधुओं के निवास स्थान से दूर हो, गृहस्थों के स्थान से न अति दूर हो न अति पास हो, जहाँ व्यसनी, चोर आदि का प्रवेश न हो, जिसमें मलोत्सर्ग के योग्य प्रदेश भी हो । ऐसे स्थान में दो, तीन या तीस—चालीस तक भी आर्यिकायें रहती हैं। क्योंकि आर्यिकाओं को अकेली कभी नहीं रहना चाहिये। कम से कम दो अवश्य होना चाहिए तीन, पाँच या सात मिलकर आपस में एक दूसरे की रक्षा करते हुए वृद्ध आर्यिकाओं के साथ—साथ निकल कर आहार के लिए श्रावक के यहाँ प्रवेश करती हैं। गृहस्थों के घर में कभी नहीं जाती हैं केवल आहार के समय ही जाती हैं। कभी कोई विशेष धर्म कार्य होने पर अथवा किसी को सल्लेखना आदि कराने के लिए साध्वी गृहस्थ के घर जा सकती हैं अन्यथा नहीं। उसमें भी गणिनी को पूछकर दो—तीन आदि मिलकर ही जाना चाहिए।
अगिहत्थमिस्सणिलये असण्णिवाए विसुद्धसंचारे।
दो तिण्णि व अज्जाओ बहुगीओ वा सहत्थंति।।७१।।
तिण्णि व पंच व सत्त व अज्जाओ अण्णमण्णरक्खाओ।
थेरेहिं सहंतरिता भिक्खाय समोदरंति सदा।।७४।।
ण य परगेहमकज्जे गच्छे कज्जे अवस्स गमण्ज्जिे।
गणिणीमापुच्छिता संघाडेणेव गच्छेज्ज।।७२।।
(मूला० कुंद०)
आर्यिकाओं के अट्ठाईस मूलगुण कैसे ? प्रश्न— जब आर्यिकाओं के सभी व्रत मुनियों के सदृश हैं पुन: वे वस्त्र कैसे रखती हैं ? इस पर आचार्यों ने ऐसा कहा है कि— ‘‘आर्यिकाओं को अपने पहनने के लिये दो साड़ी रखना चाहिए। इन दो वस्त्रों के सिवाय तीसरा वस्त्र रखने पर उसके लिए प्रायश्चित होता है।
इन दो वस्त्रों का ऐसा मतलब है कि दो साड़ी (लगभग १६—१६ हाथ की) रखती हैं। एक बार में एक ही पहनना होता है दूसरी को धोकर सुखा देती हैं जो कि द्वितीय दिवस बदल जाती है। आचार्य वीरसागर जी महाराज चा०च० आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के पट्टश्ष्यि थे। कहते थे कि दो साड़ी रखने से आर्यिका का एक मूलगुण कम नहीं होता है किंतु उनके लिए आगम की आज्ञा होने से यही मूलगुण है, हाँ ! तृतीय साड़ी रखने से अवश्य ही मूलगुण में दोष आता है। मुनिराज खड़े होकर आहार ग्रहण करते हैं । और आर्यिकाओं को बैठकर आहार लेना होता है । यह भी शास्त्र की आज्ञा होने से उनका मूलगुण ही है। इसलिए उनके भी अट्ठाईस मूलगुण मानने में कोई बाधा नहीं है। यही कारण है कि आर्यिकाओं के महाव्रतों को उपचार संज्ञा दी गई है। यथा— ‘‘गणधर आदि देवों ने उन आर्यिकाओं की सज्जाति आदि को सूचित करने के लिए उनमें उपचार से महाव्रत का आरोपण करना बतलाया है। अर्थात् साड़ी धारण करने से आर्यिकाओं में देशव्रत ही होते हैं परन्तु सज्जाति आदि कारणों से गणधर आदि देवों ने उनके देशव्रतों में उपचार से महाव्रतों का आरोपण किया है।
ये उपचार से महाव्रती हैं अतएव एक साड़ी धारण करते हुए भी लंगोटी मात्र अल्पपरिग्रह धारक ऐलक के द्वारा पूज्य है।श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाओं में से अंतिम ग्यारहवीं प्रतिमाधारी के दो भेद हैं— क्षुल्लक और ऐलक। क्षुल्लक के पास लंगोटी और चद्दर ये दो वस्त्र रहते हैं किन्तु ऐलक के पास लंगोटी मात्र रहती है। यथा— ‘‘अहो आश्चर्य है कि ऐलक लंगोटी में ममत्व परिणाम होने से उपचार से भी महाव्रती नहीं हो सकते हैं, किंतु आर्यिका साड़ी धारण करने पर भी ममत्व परिणाम रहित होने से उपचार से महाव्रतिनी कहलाती है
अर्थात् ऐलक लंगोटी त्याग कर सकता है फिर भी ममत्व आदि कारणों से धारण किये हैं किंतु आर्यिका तो साड़ी का त्याग करने में समर्थ नहीं है। आर्यिकाओं की यह साड़ी बिना सिली हुई होनी चाहिए। अर्थात् सिले हुये वस्त्र पहनने का उनके लिए निषेध है। निष्कर्ष यह निकला कि ये आर्यिकायें एक श्वेत साड़ी पहनती हैं, हाथ में मयूर पंख की पिच्छी रखती हैं तथा शौच के लिये काठ या नारियल का कमंडलु रहता है। ज्ञान साधन के लिए शास्त्र को रखती हैं । सोने या बैठने में बिछाने के लिये घास, पाटा या चटाई भी रख सकती हैं। बाकी कुछ भी परिग्रह उनके पास नहीं रहता है। पठन—पाठन में या ग्रन्थ के लिखने के लिये कलम, स्हायी, कागज आदि भी रख सकती हैं नेत्रज्योति कमजोर हो जाने से पढ़ने के लिये , ईर्यापथ शुद्धि से चलने के लिये और आहार को देखने, शोधने के लिए कदाचित् चश्मा भी ले सकती हैं। (यह व्यवस्था गुरु परंपरागत है।)। मुनियों की अपेक्षा मूलगुणों के पालन में दो ही बातों का अंतर है— एक तो एक साड़ी पहनना और दूसरा बैठकर आहार करना।
दैनिक चर्या— मुनि—आर्यिकाओं के दैनिक अट्ठाईस कायोत्सर्ग होते हैं , जो कि पिछली रात्रि से पूर्वरात्रि तक किये जाते हैं। उनका स्पष्टीकरण—पूर्वाह्न, अपरान्ह, पूर्वरात्रिक और अपररात्रिक। इन चार काल के स्वाध्याय के १२ कायोत्सर्ग होते हैं। दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण के ८, त्रैकालिक देववंदना के ६, रात्रियोग प्रतिष्ठापना और निष्ठापना में २, ऐसे २८ कायोत्सर्ग होते हैं। पिछली रात्रि में अपररात्रिक स्वाध्याय होता है। निद्रा से उठकर हाथ—पैर आदि शुद्ध करके स्वाध्याय शुरू करना चाहिये। स्वाध्याय प्रारंभ करने से पहले श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति संबंधी दो कायोत्सर्ग होते हैं। अनंतर स्वाध्याय के बाद श्रुतभक्ति संबंधी एक कायोत्सर्ग होता है ऐसे एक स्वाध्याय सम्बन्धी तीन कायोत्सर्ग हुये। पुन: सूर्योदय के २ घड़ी आदि से पहले रात्रि सम्बन्धी दोष का शोधन करने के लिये प्रतिक्रमण करना होता है। उसमें सिद्ध भक्ति, प्रतिक्रमणभक्ति, वीर भक्ति और चतुर्विंशतितीर्थंकरभक्ति इन चार भक्ति संबंधी चार कायोत्सर्ग होते हैं । पुन: रात्रियोग निष्ठापन सम्बन्धी एक कायोत्सर्ग होता है। अनंतर पूर्वाण्ह सामायिक (देववंदना) में चैत्यभक्ति और पंचगुरु भक्ति संबंधी दो कायोत्सर्ग होते हैं। पुन: लघु सिद्धभक्ति और लघु आचार्यभक्तिपूर्वक आचार्य वंदना की जाती है। अनंतर सूर्योदय के दो घड़ी बाद पौर्वाण्हिक स्वाध्याय होता है, उसमें भी पूर्वोक्त तीन कायोत्सर्ग हो जाते हैं। पुन: यदि आचार्य के संघ में आर्यिकायें हैं तो शुद्ध वस्त्र बदलकर आचार्य श्री के समीप मंदिर में आ जाती हैं। आचार्य श्री के और क्रम से सभी मुनियों के आहारार्थ निकलने के बाद गणिनी आर्यिका निकलती हैं। उनके पीछे—पीछे सभी आर्यिकायें क्रम से आहार के लिये निकल जाती हैं। आहार से आकर गुरु के पास प्रत्याख्यान ग्रहण करके अपने स्थान पर चली जाती हैं। पुन: मध्यान्ह में सामायिक करती हैं। अनंतर मध्यान्ह, की चार घड़ी बीत जाने पर अपरान्हिक स्वाध्याय किया जाता है। जो नवदीक्षित हैं, अल्पज्ञ हैं वे विद्यार्थिनी के रूप में अपनी गुर्वानी से या उनकी आज्ञानुसार अन्य विद्वानों से गुर्वानी के पास बैठकर अध्ययन करती हैं। व्याकरण, न्याय, सिद्धांत, छंद, अलंकार आदि ग्रंथों को पढ़ती हैं। विदुषी आर्यिकायें भी पढ़ाती हैं। अनंतर दिवस संबंधी दोषों का शोधन करने के लिये सभी साधु—साध्वी मिलकर प्रतिक्रमण करते हैं। बाद में आचार्य की वंदना करते हैं । अनंतर मुनि अपने स्थान पर तथा आर्यिकायें अपनी वसतिका में जाकर रात्रियोग प्रतिष्ठापन करने में योगभक्ति संबंधी कायोत्सर्ग करती हैं। रात्रियोग का मतलब यह है कि ‘‘मैं आज रात्रि में इस वसतिका में ही निवास करूंगा’’ क्योंकि साधुजन रात्रि में यत्र—तत्र विचरण नहीं कर सकते हैं । मल—मूत्रादि विसर्जन के लिये भी दिन में जगह देख लेते हैं जो कि वसतिका से अति दूर नहीं है, वहीं पर जाते हैं। अनंतर आर्यिकायें सूर्यास्त काल में अपरान्हिक सामायिक शुरू करती है । सामायिक के बाद पुन: पूर्वरात्रिक स्वाध्याय करना होता है । जो शिष्यायें अध्ययन करने वाली हैं वे अपना पाठ याद करती हैं। बाद में णमोकार मंत्र का स्मरण करते हुये चटाई, पाटा पर सोती हैं। आर्यिका अकेली शयन नहीं कर सकती है चूँकि लोकापवाद का भयरहता है । दो—चार आदि आर्यिकायें एक कमरे में सोती हैं। दिन में भी मिलकर ही रहती हैं। संक्षेप से यह दिगंबर जैनसंप्रदाय वाली आर्यिकाओं की चर्या है। जो आर्यिकायें विदुषी होती हैं वे प्रात: या मध्यान्ह में अपने स्वाध्याय से समय निकालकर श्रावक—श्राविकाओं की सभा में धर्मोपदेश भी देती हैं।
आर्यिकाओं के लिए कर्तव्य—अकर्तव्य— आर्यिकाये गुरु की वंदना को अकेली नहीं जा सकती हैं । गणिनी के सासथ अथवा दो—चार ाqमलकर ही जाती हैं। अकेले बैठकर दिगंबर मुनियों से चर्चा—वार्तालाप आदि नहीं कर सकती हैं। मुनियों की सेवा, वैयावृत्ति आदि भी नहीं कर सकती हैं । गीत गाना, रोना, बुहारी देना, वस्त्र सीना, आदि कोई भी कार्य नहीं करती हैं । गृहस्थों के बच्चों का लाड—प्यार नहीं करती हैं। गृहस्थ — महिलाओं से गृहस्थ के विवाह, व्यापार, रसोई, खान—पान आदि संबंधी चर्चा भी नहीं करती हैं। प्रत्युत इन्हें धर्म की, वैराग्य की शिक्षा देती हैं। नाटक, उपन्यास, शृंगार संबंधी पुस्तके नहीं पढ़ती हैं। राजनैतिक चर्चाओं में भाग नहीं लेती हैं। केवल परलोक सिद्धि के लिए धर्माराधन में तत्पर रहती हैं।, लौकिक प्रपंच आदि में नहीं पड़ती हैं। आपस में ईष्र्या द्वेष, कलह से दूर रहती हैं। एक दूसरे की अनुकूलता रखते हुए पठन—पाठन में अपना समय व्यतीत करती हैं। आर्यिकाएँ कुछ भी आरंभ नहीं करती हैं जैसे— पानी गरम करना, छानना, लाना, भरना आदि । गृहस्थ संबंधी कार्यों का त्याग रहता है। बीमारी में भी अपने हाथ से औषधि नहीं बनाती हैं। श्रावक—श्राविकाएँ शुद्ध काष्ठादि प्रासुक औषधि तैयार करके आहार के समय ही आहार में दे देते हैं अथवा लगाने के लिए शुद्ध तेल, घी आदि का प्रयोग कर लेती हैं।
श्रावक इनके कमंडलु में गरम जल भर देते हैं।
वे अपनी साड़ी को एक कमंडलु के जल से धो सकती हैं। बिना गरम किया हुआ कच्चा जल हाथ से नहीं छूती हैं। या तो श्राविकायें छने जल से उनकी साड़ी धोकर सुखा देती हैं । आर्यिकाएँ साबुन आदि वस्तुओं का भी प्रयोग नहीं कर सकती हैं। वह आहार के लिये मन—वचन—काय से कुछ भी नहीं कहती हैं। श्रावकों के यहाँ जैसा मिला वैसा दोषों से रहित प्रासुक आहार होना चाहिये नीरस हो या सरस, उन्हीं के द्वारा दिया गया आहार अपने हाथों की अंजुली में ग्रहण करती हैं। वे मुनि के समान दो, तीन या चार महीने में केशलोंच करती हैं। मुनियों की वसतिका में आर्यिकाओं का रहना, लेटना, बैठना, स्वाध्याय करना आदि वर्जित है। मासिक धर्म की अवस्था में आर्यिकायें तीन दिन तक मौन से रहती हैं। जिन मंदिर से अलग वसतिका में रहती हैं। किसी को भी स्पर्श नहीं करती हैं, न कोई पुस्तक आदि ही छू सकती हैं। मौन पूर्वक केवल मन में णमोकार मन्त्र और बारह भावनाओं का चिंतवन करती हैं। षट् आवश्यक क्रियायें— सामायिक, प्रतिक्रमण आदि भी केवल मन में चिंतवन रूप से करती हैं। औष्ठ, जिह्वा आदि न हिलने पाये ऐसा मन्त्र स्तोत्रादि का चिंतवन भी चलता है। यदि उपवास करने की शक्ति है तो तीन दिन उपवास अन्यथा एक या दो उपवास कर लेती हैं । शक्ति न होने से तीनों दिन छहों रस रहित नीरस आहार कर लेती हैं। जो श्राविकायें आहार कराती हैं वे इनका स्पर्श नहीं करती हैं। तीन दिन के बाद श्राविकायें इन्हें गरम जल से स्नान करा देती हैं तब आर्यिका गणिनी के पास आकर यदि आचार्य संघ में है तो गणिनी के साथ आचार्य के पास जाती हैं, गणिनी आचार्य द्वारा इन्हें प्रायश्चित दिला देती हैं अथवा आचार्य के न होने पर गणिनी ही प्रायश्चित देती है।
चतुर्विधसंघ— इस प्रकार चतुर्विध संघ में मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकाओं का समूह अनादिकाल से चला आ रहा है। स्वतन्त्ररूप में भी जैसे मुनियों के संघ रहते हैं वैसे गणिनी आर्यिकाओं के नेतृत्व में आर्यिकाओं के संघ भी रहते हैं। दोनों व्यवस्थायें चतुर्थकाल में भी थीं और आज पंचमकाल में भी आचार्यसंघों में भी आर्यिकायें रहती हैं तथा स्वतन्त्र भी आर्यिकाओं के संघ विद्यमान हैं। यह चतुर्विध संघ पंचमकाल के अन्त तक रहेगा इसमें कोई संदेह नहीं है। इसलिये आज की आर्यिकायें भी पूज्य हैं और नवधाभक्ति की पात्र हैं ऐसा आगमसम्मत मानकर उनकी भक्ति, पूजा करना चाहिये और उन्हें नवधाभक्तिपूर्वक आहारदान देना चाहिये।