संसार के प्राणी चार संज्ञा रूपी ज्वर से पीड़ित होकर अनादि काल से दुःख उठा रहे हैं। इन संज्ञा रूपी ज्वरों की उत्पत्ति अनादि कालीन अविद्या-मिथ्याज्ञान रूपी दोषों से होती है अतः सर्वप्रथम मिथ्यात्व मूलक मिथ्याज्ञान को नष्ट कर चार संज्ञाओं को दूर करने का पुरुषार्थ करना चाहिये। जिनसे संक्लेशित होकर जीव इस लोक तथा पर लोक में दारुण दुःख उठाते हैं उन्हें संज्ञाएं कहते हैं ये संज्ञाएँ आहार,भय मैथुन और परिग्रह के भेद से चार प्रकार की होती हैं।
आहार संज्ञा –अन्तरङ्ग में असाता वेदनीय की उदीरणा-तीव्र उदय और बहिरङ्ग में आहार के देखने, उस ओर उपयोग जाने तथा पेट खाली होने से जो आहार की वांछा उत्पन्न होती है उसे आहार संज्ञा कहते हैं।
भय संज्ञा – अन्तरङ्ग में भय नोकषाय की उदीरणा और बहिरङ्ग में अत्यन्त भयज्र्र वस्तु के देखने, उस ओर उपयोग जाने तथा शक्ति की हीनता होने पर जो भय उत्पन्न होता है उसे भय संज्ञा कहते हैं।
मैथुन संज्ञा – अन्तरङ्ग में वेद नोकषाय की उदीरणा और बहिरङ्ग में गरिष्ठरस युक्त भोजन करने, उस ओर उपयोग जाने तथा कुशील मनुष्यों के संसर्ग से जो कामाभिलाषा उत्पन्न होती है उसे मैथुन संज्ञा कहते हैं।
परिग्रह संज्ञा – अन्तरङ्ग में लोभ कषाय की उदीरणा और बहिरङ्ग में विविध उपकरणों के देखने, उस ओर उपयोेग जाने तथा ममता रूप मूच्र्छा परिणामों के होने से जो परिग्रह की इच्छा होती है उसे परिग्रह संज्ञा कहते हैं।
आहार संज्ञा – छठवें गुणस्थान तक, भय संज्ञा आठवें गुणस्थान तक, मैथुन संज्ञा नवम गुण-स्थान तक और परिग्रह संज्ञा दशम गुणस्थान तक रहती है। आगे कोई भी संज्ञा नहीं होती। सप्तमादि गुणस्थानों में जो भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा का सद् भाव बतलाया है वह मात्र उनमें कारणभूत कर्मो का उदय रहने से बतलाया गया है।वह मात्र उनमें कारणभूत कर्मों का उदय रहने से बतलाया गया है, भावना, रतिक्रीड़ा तथा परिग्रह के संचय रूप क्रियाएं उन गुणस्थानों में नहीं होतीं।