पावस काल उपलब्धि का समय माना गया है। देश की सुख—समृद्धि खाद्य पदार्थों पर निर्भर होती है और खाद्य पदार्थ अन्न, जल, शाक—सब्जी, फल—फूल, दूध—घी सबकी प्रचुरता समय पर अनुकूल वर्षा से ही सम्भव है अत: वर्षा ऋतु को प्रेयस का आधार कहा गया है। यह वर्षा ऋतु जीव—जन्तु , तृण—तरू और मानवीय ऊर्जा को वृद्धिंगत करती है। वैदिक सम्प्रदाय में चातुर्मास (पावसकाल) को धर्म और आध्यात्म से जोड़ते हुये विष्णु भगवान के विश्राम, आध्यात्म में लीनता का समय माना गया है और यह अषाढ़ शुक्ला एकादशी/देवशमनी या हरिशमनी एकादशी से कार्तिक शुक्ला एकादशी/ देवोत्थान या देवठान तक का समय निर्धारित किया है। इस समय शादी—विवाह या लोक व्यवहार के काम रोककर धर्म—आराधना को विशेष महत्व दिया जाता है। जैन धर्म में अहिंसा को विशेष महत्व दिया गया है अत: वर्षा की रिमझिम में जीवों की उत्पत्ति अत्यधिक होती है, अत: विहार को रोक आहार को सूक्ष्म व संयमित कर आध्यात्म में रमण करने का प्रयास किया जाता है। यह समय आत्म जागरण व जीवन को प्रशस्त बनाने का काल माना गया है। इस काल को वर्षा योग अथवा चातुर्मास कहा गया । यह अषाढ़ शुक्ला चर्तुदशी—गुरूपूर्णिमा से प्रारम्भ हो कार्तिक कृष्णा चर्तुदशी—दीपावली अमावस्या तक चार्तुमास के रूप में निश्चित है। आगमानुसार ही वर्तमान में श्रमण इस परम्परा का र्निवहन करते हैं। जैन मुनि—अर्यिका पैदल ही विहार करते हैं, वे किसी भी प्रकार के वाहन या पादत्राण (जूते आदि) का प्रयोग नहीं करते तथा अहिंसा महाव्रत का सूक्ष्मता से पालन करते हैं अत: वर्षा काल में विहार—भ्रमण छोड़ सीमित स्थान पर रहकर स्वपर कल्याण में अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा लगा देते हैं। चातुर्मास पर्वकाल का महामहोत्सव मनाने को प्रेरित करता है, आत्म—चिन्तन, आत्मविश्वास के साथ करते हुये दृढ़ संकल्प की ऊर्जा आत्म गौरव को बढ़ा देती है। पर्व के रूप में अषाढ़ माह अष्टान्हिका पर्व भगवान नेमिनाथ के निर्वाण (अ.शु.८) कल्याणक के साथ भक्ति—आराधना में रमण करा देती है। चर्तुदशी का पावन दिवस श्रमण संघ के चातुर्मास स्थापना का पर्व है। श्रावकों की आपाधापी से मुनियों की मनुहार फलित होती है जहाँ ‘श्रमण संघ’ चातुर्मास स्थापना कर लेते हैं, जैसे सूखे खेत—विटप वर्षा जल से हरे—भरे जीवन्त हो उठते हैं। गुरू पूर्णिमा का पावन पर्व जहाँ भ. महावीर के गुरूत्व आकर्षण से खिंचे आये शिष्य इन्द्रभूति गौतम की याद दिलाते हैं वहीं र्निग्रन्थ गुरूओं का वीतराग स्वरूप, ज्ञानामृत बरसाती वाणी श्रावक—शष्यों के अहोभाग्य का पुण्यफल प्रदान करने लगती है। भक्त गुरूओं को शास्त्र भेंट करके व्रत—नियम के संयम में बांधकर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। श्रावण कृष्णा प्रतिपदा ‘वीर शासन’ जयन्ती के रूप में विशेष महत्व रखती है। इस दिन तीर्थंकर महावीर की दिव्यध्वनि केवलज्ञान के बाद छयासठवें दिन खिरी थी, है न विडम्बना। अरिहन्त बनने पर समवशरण रचना, अष्ट प्रतिहार्य में मुख्य प्रतिहार्य दिव्यध्वनि का प्रकट न होना, अनहोनी ही है और हुई, काल का प्रभाव है। इसके बाद ‘मोक्ष सप्तमी’ पर्व, तीर्थंकर पाश्र्वनाथ के जीवन चरित्र, क्रोध पर क्षमा की विजय और उपकृत्य पर प्रत्युकार की कृतज्ञता से साक्षात्कार करा देती है। इधर आ जाती है श्रावण पूर्णिमा रक्षाबंधन, सन्तों की सहनशीलता, महाउपसर्ग में समता—साधना जैसे मानव की आँख खोल देती है। वात्सल्य अंग की उत्कृष्टता जैसे वर्तमान समाज को हिलाकर रख देता है। चातुर्मास में अवस्थित मुनिराज इन रहस्यों को खोल—खोल कर मानव को जीवन जीने की कला सिखाते हैं। सोलह कारण, दश लक्षण पर्व, भाद्रमास का प्रतिदिन इतना महत्वपूर्ण है कि एक—एक दिन के प्रवचन भव्यता की संजीवनी पिलाते दिखते हैं। आगे के महा धार्मिक शिक्षण—शिविर स्वाध्याय/संगोष्ठी, संस्कार—साधना सभी में उत्तरोत्तर तल्लीनता बढ़ाते हैं। आगम के परिप्रेक्ष्य में गिरनार के चन्द्रगुफा वासी आचार्य धरसेन जी के कंठस्थ परम्परा से प्राप्त द्वादशांग वाणी श्रुत साहित्य का पाठ पढ़कर आचार्य भूतबली एवं पुष्पदन्त जी ने गुरू आज्ञा से विहार कर अंकलेश्वर (गुजरात) चातुर्मास में ही गम्भीर चिन्तन—मनन कर षट्खण्डागम (छाक्खंडागम—सुत्त) को लिपिवद्ध किया था। उस समय लेखनोपकरण—सामग्री का अभाव था अत: मुनिद्वि ने श्रुत—साहित्य को कंठस्थ कर लिखा था। आचार्य कुन्दकुन्द आदि अनेक मुनि मनीषियों के ऐसे विशिष्ट कार्यों का होना आगमौल्लेखित है। प्राच्य—विद्या प्रेमियों, जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के सर्वेक्षण से यह प्रमाणित हो चुका है कि श्रमणगण वर्षायोग में अध्ययन—अध्यापन के साथ लेखन कार्य इन्हीं दिनों विशेष रूप से किया करते थे। वर्तमान काल में भी विद्वान सन्त मनीषी वर्षायोग में प्राचीन शास्त्रों के अनुवाद एवं आगम—पुराणों के आधार पर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जो साहित्य सृजन कर रहे हैं उनमें सर्वाधिक कार्य इन्हीं दिनों होता है। संघ के सन्तों को विशेष भाषाओं का ज्ञान कराना, शास्त्रों का अध्ययन —अध्यापन, व्याख्यान माला आदि का महत्कार्य वर्षायोग में सुचारूता से निरापद चलता रहता है अत: ज्ञान की पूँजी संग्रह इन दिनों की विशेष उपलब्धि है। यह काल भागमभाग का नहीं है अपितु पर्वों के स्वर्णकाल का है अत: श्रमण और श्रावक इन दिनों व्रत—उपवास, संयम नियम की पुण्य—पूँजी को जी भरकर संग्रहीत कर लेते हैं। श्रावकों को अपने षट् कर्म देवपूजा, गुरूओं की सेवा—वैयावृत्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन्हें करने में आनंद और तल्लीनता की उत्कृष्टता प्राप्त होती है वे प्रेयस से श्रेयस में लग जाते है ऐसा अमृत योग है यह वर्षायोग का भव्यकाल। हर नगरी में भी हो रही है वर्षायोग की तैयारियाँ, आ रहा है श्रमण संघ जो बरसायेगा ज्ञान का अमृत, श्रावकों को जगाकर लगा देगा आत्मोत्थान में, जन—जन के कल्याण में, उनका र्निग्रन्थ निष्प्रही स्वरूप बदल देगा समाज की विषमता और मानव कलुषता, अन्तर वाहर धर्म का प्रकाश—मंगल ही मंगल दशों—दिशाओं में।
वर्षा योग सुभव्यकाल में, पुण्य की वर्षा होती है, पर्वों का प्रत्यूष काल ये, जिन वृष गंगा श्रोती है।
श्रावक— श्रमण समागम से, त्रैरत्न मंजूषा भरती है, ‘विमल‘ त्रैयोग सर्मपण से, काललब्धि श्रय सुगती है।