यत्र-तत्र विचरण करते हुए श्रीरामचन्द्र, सीता और लक्ष्मण के साथ दशांगपुर नगर के समीप पहुँचते हैं। समीप के उद्यान में एक वृक्ष के नीचे बैठ गये। ऊजड़ होते हुए गाँव को देखकर लक्ष्मण ने पता लगाया और श्री रामचन्द्र से निवेदन किया। ‘‘देव! इस नगर के राजा वङ्काकर्ण ने यह प्रतिज्ञा ली हुई है कि मैं जिनेन्द्र देव और निग्र्रन्थ गुरु के सिवाय किसी को नमस्कार नहीं करूँगा, सो उसने अपने अंगूठे में पहनी हुई अंगूठी में मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा विराजमान कर रखी है। जब वह अपने स्वामी सिंहोदर की सभा में जाता था तब उस प्रतिमा को लक्ष्य कर नमस्कार करता था। किसी ने यह भेद सिंहोदर महाराज से कह दिया तब उसने इस सम्यग्दृष्टि के राज्य पर चढ़ाई करके चारों तरफ से इसे घेर लिया। अब यह यह बेचारा वङ्काकर्ण पूर्ण संकट के मध्य स्थित है।’’ पुनः रामचन्द्र की आज्ञा पाकर लक्ष्मण सिंहोदर की सेना को नष्ट-भ्रष्ट कर सिंहोदर को बाँध लाते हैं। रामचन्द्र वङ्काकर्ण को भी बुला लेते हैं, सिंहोदर द्वेष को छोड़कर जैनधर्म का कट्टर श्रद्धालु हो जाता है। उस समय वङ्काकर्ण, सिंहोदर आदि राजागण लक्ष्मण की तीन सौ कन्याओं के साथ विवाह विधि करना चाहते हैं। किन्तु लक्ष्मण कहते हैं- ‘‘मैं जब तक अपने बाहुबल से अर्जित स्थान प्राप्त नहीं कर लूँ तब तक स्त्रियों को साथ नहीं रखूँगा।’’ कुछ दिन बाद ये लोग अन्यत्र किसी सुन्दर वन में पहुँचते हैं। लक्ष्मण जल हेतु पास के सरोवर पर पहुँचते हैं। उधर एक राजकुमार जलक्रीड़ा के लिए वहाँ आया था सो उन्हें देखकर अपने तम्बू में बुला लेता है तथा वन में विराजे हुए रामचन्द्र और सीता को अपने स्थान पर बुलाकर उन्हें स्नान-भोजन आदि से संतृप्त कर आप एकांत में जाकर अपने स्त्रीरूप को प्रकट कर लेता है।
‘‘हे कन्ये! तू कौन है जो कि नाना वेष को धारण कर रही है?’’ वह कन्या कहती है- ‘हे देव! इस नगर का स्वामी बालिखिल्य है। उसे म्लेच्छ राजा ने जीतकर बंदी बना लिया है। उनके स्वामी सिंहोदर भी जब उन राजा को नहीं छुड़ा सके तब उन्होंने कहा कि इसकी गर्भवती रानी के यदि पुत्र उत्पन्न होगा तो वह इस राज्य का अधिकारी होगा। कुछ पाप के उदय से मैं पुत्री पैदा हुई तब मंत्री ने राजा से पुत्र जन्म की ही सूचना करके मुझे भीतर ही भीतर बड़ा किया है। मेरा नाम कल्याणमाला रखा है। माता और मंत्री के सिवाय ‘मैं पुत्री हूँ’ इस रहस्य को कोई नहीं जानता है। मेरे पिता के बंदी होने से मेरी माता शोक से सूखकर दुबली होती चली जा रही है।’’ इतना बोलकर कन्या खूब जोर से रोने लगी। सीता ने उसके मस्तक पर हाथ फैरकर सान्त्वना दी और रामचन्द्र- लक्ष्मण ने कहा- ‘‘भदे्र! तूने बहुत अच्छा किया है, तू अभी उसी वेष में रह, अति शीघ्र ही अपने पिता को बन्धन मुक्त देखेगी।’’ पुनः रात्रि में ये लोग उस तम्बू से चुपचाप निकल कर चले जाते हैं। कुछ दूर पहुँचकर भीलों से इनका भयंकर युद्ध होता है। भीलों का राजा कोकनन्द इन दोनों के रूप को देखकर इनका परमभक्त हो इन्हें आत्म समर्पण कर देता है।
‘‘ हे भद्र! तू अब शीघ्र ही बालिखिल्य राजा को छोड़ दे।’’ रामचन्द्र की आज्ञानुसार वह उन्हें बंधन मुक्त करके इतने दिनों तक हड़पी गयी उस राज्य की सारी सम्पत्ति भी उन्हें वापस कर देता है। भविष्य में इस कल्याणमाला का विवाह लक्ष्मण के साथ हो जाता है। आगे चलते-चलते एक दिन प्यास से व्याकुल हुई सीता के साथ ये लोग एक ब्राह्मण के आँगन में ठहर जाते हैं। ब्राह्मणी बहुत ही आदर से ठण्डा जल पिलाती है।
कुछ क्षण बाद कपिल ब्राह्मण घर आकर इन लोगों को अपमानित करने लगता है। उस समय लक्ष्मण क्रोध से युक्त हो उसकी टाँग पकड़कर उसे आकाश में घुमाकर जमीन पर पटकने को तैयार होते हैं किन्तु सीता के मना करने पर वे उसे जीवित छोड़कर वापस वन की तरफ चले आते हैं। इधर बहुत तेज बारिश शुरू हो जाती है और ये तीनों लोग भीगते हुए एक वृक्ष के नीचे बैठ जाते हैं। उस वट वृक्ष पर रहने वाला इभकर्ण यक्ष अपने स्वामी को सूचना देता है तब ‘पूतन’ नाम का यक्षराज स्वयं वहाँ आकर इन्हें बलभद्र और नारायण जानकर उनके पुण्य के माहात्म्य से एक सुन्दर नगरी की रचना कर देता है और उसका ‘रामपुर’ यह नाम प्रसिद्ध हो जाता है। जब चारों तरफ एक चर्चा फैल जाती है कि महाराज रामचन्द्र अर्हंत धर्मानुयायी को मनोवाँछित धन देते हैं।
तब वह कपिल ब्राह्मण अपनी ब्राह्मणी के साथ गुरु के पास जैनधर्म ग्रहण कर महाराजा रामचन्द्र के दरबार में प्रवेश करता है किन्तु लक्ष्मण को देखते ही वह घबड़ाकर भागने लगता है।
‘‘डरो मत, डरो मत, इधर आवो।’’ तब वह जैसे-तैसे साहस बटोर कर उनकी स्तुति करके अपनी पूर्व की गलती पर अतीव पश्चात्ताप व्यक्त करता है। रामचन्द्र उसे मालामाल कर देते हैंं। वह घर में आकर राजा जैसे भोगों को भोगता हुआ काल यापन करता है किन्तु उसके हृदय में यह शल्य चुभती रहती है कि मैंने घर में आये हुए इन देवों का अपमान किया था। अंत में वह इस शल्य से निकलने का उपाय ऐसी जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर लेता है। कुछ दिन बाद उस रामपुरी से निकलकर ये लोग वैजयन्तपुर के वन में पहुँच जाते हैं। वहाँ रात्रि में गले में फाँसी लगाकर मरने के लिए तैयार हुई वनमाला की लक्ष्मण रक्षा करके उसका पाणिग्रहण स्वीकार करते हैं। किसी समय ऐसा समाचार मिलता है कि नंद्यावर्त का राजा अतिवीर्य भरत के राज्य पर चढ़ाई करने वाला है, तब रामचन्द्र एकान्त में मंत्रणा करके सीता को एक मंदिर में आर्यिका के समीप छोड़कर आप दोनों भाई सुन्दर नर्तकी का रूप धारण कर अतिवीर्य की सभा में पहुँचकर खूब सुन्दर नृत्य करते हैं। पुनः भरत के गुणों का बखान करके सभा में क्षोभ उत्पन्न कर अतिवीर्य को बाँधकर वापस मंदिर में सीता के पास आ जाते हैं।
‘‘हमेशा आप लोगों की हठ केकड़े की पकड़ के समान विलक्षण ही है उसे दूर करने के लिए भला कौन समर्थ है?’’ वह पुनः श्रीराम के पीछे-पीछे चलने लगती है। अतीव थकान के बाद ऊपर चढ़कर ये लोग चारों तरफ दृष्टिपात करते हैं तो वहाँ क्या देखते हैं कि दो मुनिराज उत्तम ध्यान में आरूढ़ हैं। उनको देखते ही इन लोगों की थकान समाप्त हो जाती है और हर्ष से विभोर हो निकट पहुँचते हैं। उस समय मुनियों के शरीर में अनेक सर्प और बिच्छू लिपटे हुए थे जो अति भयंकर दिख रहे थे। उन्हें देखकर रामचन्द्र और लक्ष्मण जैसे-तैसे उन जन्तुओं को अपने धनुष के अग्रभाग से दूर करते हैं किन्तु पुनः पुनः वे जन्तु वहाँ आ जाते हैं। अनन्तर भक्ति से भरी सीता निर्झर के जल से उन मुनियों के चरणों का प्रक्षालन करती है, गन्ध का लेपन करती है। पुनः लक्ष्मण के द्वारा लाकर दिये गये सुगंधित पुष्पों से उनके चरणों की पूजा करती है।१ पश्चात् अंजलि जोड़कर तीनों जन खूब स्तुति करते हैं। रामचन्द्र वीणा बजाते हैं और सीता भक्ति में विभोर हो सुन्दर नृत्य करती है। धीरे-धीरे सूर्य अस्त हो जाता है और चारों तरफ अंधकार अपना साम्राज्य फैला लेता है। उसी समय ऐसा विचित्र शब्द सुनाई देता है कि मानों यह आकाश ही भेदन कर डालेगा। रुण्ड-मुण्ड विकराल रूप दिखाने लगते हैं। डाकिनी नाचने लगती हैं। राक्षस, भूत, पिशाचों का अट्टहास होने लगता है।
‘‘प्रभो! इस देव ने आप पर अथवा अपने पर ही यह उपसर्ग क्यों किया है?’’ केवली भगवान् की दिव्यध्वनि खिरती है- ‘‘पद्मिनी नगर के राजा विजयपर्वत का एक अमृतस्वर नाम का दूत था उसकी उपयोगा नाम की भार्या थी और उदित और मुदित नाम के दो पुत्र थे। अमृतस्वर का एक वसुभूति नाम का मित्र था, जो उपयोगा के साथ गुप्त रूप से व्यभिचार कर्म करता था। एक दिन उपयोगा की प्रेरणा से उसने अमृतस्वर को मार डाला। पुत्रों को विदित होने से पितृघाती वसुभूति को इन दोनों ने भी जान से मार दिया। कुछ दिन बाद उदित और मुदित दोनों भाई दीक्षा लेकर मुनि हो गये और कई भवों के बाद ये सिद्धार्थ नगर के राजा क्षेमंकर की विमला देवी रानी के पुत्र हो गये। इनका देशभूषण और कुलभूषण ये नाम रखा गया। सागरसेन नामक महाविद्वान के पास ये दोनों विद्याध्ययन करने लगे और उस विद्याध्ययन में ये इतने तन्मय हुए कि इन्हें अपने घर का ही कुछ पता नहीं रहा। विद्याध्ययन के अनन्तर विवाह योग्य देखकर पिता ने राजकन्यायें बुलाई हैं ऐसा इन्हें विदित हुआ। दोनों भाई उस समय नगर की शोभा देखते हुए बाहर जा रहे थे कि अकस्मात् उनकी दृष्टि ऊँचे महल के झरोखे में बैठी हुई एक कन्या पर पड़ी। दोनों ही भाइयों ने उस कन्या के लिए अपने-अपने मन में एक-दूसरे भाई के वध करने का विचार बना लिया। उसी समय बंदी के मुख से यह शब्द निकला कि-‘‘राजा क्षेमंकर और महारानी विमला सदा जयवन्त रहें कि जिनके ये देवों के समान दोनों पुत्र हैं तथा झरोखे में बैठी हुई यह कमलोत्सवा कन्या भी धन्य है कि जिसके ये दोनों भाई हैं।’’ बंदी के मुख से ऐसा सुनकर ‘अरे! यह हमारी बहन है’ ऐसा सोचकर उसी क्षण दोनों भाई परम वैराग्य को प्राप्त हो गये। ‘‘अहो! हम लोगों के द्वारा इस भारी पाप को धिक्कार हो, धिक्कार हो, धिक्कार हो। अहो! मोह की दारुणता तो देखो कि जिससे हमने बहन की ही इच्छा की। हम लोग तो प्रमाद से ऐसा विचार मन में आ जाने से ही दुःखी हो रहे हैं। पुनः जो जानबूझ कर ऐसा पाप करते होंगे उन्हें क्या कहना चाहिए?’’ इत्यादि रूप से सोचते हुए दोनों भाई एक-दूसरे से अपने मन की बात कहकर दीक्षा के लिए तैयार हो गये।
‘‘हे राजन् ! जगत के चन्द्र स्वरूप रामचन्द्र ने उस पर्वत पर भगवान् जिनेन्द्र देव की हजारों प्रतिमाएं बनवाई थीं। जिनमें सदा महामहोत्सव होते रहते थे। ऐसे राम के बनवाये हुए जिन-मंदिरों की पंक्तियाँ उस पर्वत पर जहाँ-तहाँ सुशोभित हो रही थीं। उन मंदिरों में सर्व लोगों द्वारा नमस्कृत पंचवर्ण की जिनप्रतिमाएं अतिशय शोभायमान हो रही थीं।’’ अनन्तर एक दिन रामचन्द्र लक्ष्मण से कहते हैं- ‘‘अब आगे क्या करना है? इस उत्तम पर्वत पर सुख से बहुत समय व्यतीत किया है, जिनमंदिरों के निर्माण से उज्ज्वल कीर्ति प्राप्त की है। हे भाई! देखो, ये राजा उत्तम-उत्तम सेवा के वशीभूत होकर यदि यहीं रहते हैं तो अपना संकल्पित कार्य नष्ट होता है। यद्यपि इन भोगों से हमें कोई प्रयोजन नहीं है तो भी, ये भोग हमें क्षण भर के लिए नहीं छोड़ते हैं। यहाँ रहते हुए हमारे जो भी दिन व्यतीत हो गये उनका फिर से आगमन नहीं होगा। हे लक्ष्मण! सुनते हैं कर्णरवा नदी के उस पार दण्डक वन है जहाँ भूमिगोचरियों का पहुँचना प्रायः कठिन है। अपन वहीं चलें, देशों से रहित उस वन में भरत की आज्ञा का प्रवेश नहीं है इसलिए वहाँ अपना घर बनायेंगें और शोक से व्याकुल हुई अपनी माताओं को वहीं ले आयेंगे।’’ ऐसा सुनकर लक्ष्मण ने कहा- ‘‘जो आज्ञा!’’ उस समय वंशस्थल का राजा बहुत दूर तक उन दोनों को छोड़ने आता है पुनः शोकाकुल हो वापस चला जाता है। ये लोग निर्मोह भाव से आगे बढ़ते जा रहे हैं।