‘सामाजिक संगठन एवं समरसता पर हुई विशेष चर्चा’
महोत्सव के मध्य दिनाँक २० फरवरी २०१६ को मध्यान्ह में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की भावनानुसार समिति द्वारा साधु सम्मेलन का आयोजन किया गया। यह सम्मेलन आर्ष परम्परा के उन्नयन एवं जैन पुरातत्व के संरक्षण हेतु आयोजित किया गया, जिसमें प्राचीन तीर्थों के जीर्णोद्धार व विकास के संदर्भ में सभी साधुओं ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये। विशेषरूप से आर्ष परम्परा के संरक्षण व उन्नयन हेतु भी इस अवसर पर महत्वपूर्ण चर्चा हुई और सभी साधुओं का एकमत यही कहना रहा कि समाज को बीसपंथ व तेरहपंथ के भेदभाव से बचकर सदैव संगठित रहना चाहिए। निष्कर्ष रूप में सभी मुनि, आर्यिकाओं की यही भावना थी कि जिस तीर्थ पर अथवा जिस मंदिर में जो परम्परा चल रही है, उसका उस क्षेत्र पर सतत ही निराबाध पालन होना चाहिए।
अर्थात् जहाँ बीसपंथ है, महिलाएं अभिषेक करती हैं, वहाँ की परम्परा इसी प्रकार बनी रहकर किसी के द्वारा हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए तथा जहाँ तेरहपंथ की परम्परा चल रही है, वहां उसी परम्परा के सिद्धान्तों के अनुसार पूजा-पाठ-अभिषेक की विधि सम्पन्न होना चाहिए। इसी क्रम में सभी का यह निष्कर्ष मान्य हुआ कि प्राचीन जिनमंदिरों के जीर्णोद्धार एवं विकास के लिए कभी उस मंदिर के पुरातत्त्व को एवं वहां चली आ रही परम्पराओं को मिटाना नहीं चाहिए, अपितु प्राचीनता का संरक्षण रखते हुए उस मंदिर अथवा तीर्थ का विकास होना चाहिए। शासन देवी-देवताओं के विषय में सभी का यही मन्तव्य था कि जिस मंदिर में तीर्थंकर भगवन्तों के शासन देवी-देवताओं की प्रतिमाएं विराजमान हैं, उनको उस मंदिर से हटाने का प्रयास नहीं करना चाहिए, जिससे समाज में किन्हीं की भावनाओं को ठेस न लगे और जिस मंदिर में शासन देवी-देवताओं की प्रतिमाएं नहीं रखने का प्रावधान है, वहाँ भी अनावश्यक प्रतिमाएं विराजमान करने का प्रयास नहीं होना चाहिए।
साधुओं/विद्वानों के निमित्त से अथवा श्रावकों के निमित्त से समाज में यदि दोनों परम्पराओं के प्रति इस प्रकार का समादर प्रतिष्ठापित होता है, तो यह सामाजिक संगठन एवं एकता के लिए दिगम्बर जैन समाज में एक वरदान सिद्ध होगा। इस प्रकार सभी साधुओं द्वारा विभिन्न चर्चाओं के माध्यम से एक प्रस्ताव भी पारित किया गया, जो इस पत्रिका में पृष्ठ क्रमांक २९८ पर समाहित है।