यद्यपि जीव टज्रेत्कीर्ण ज्ञायक स्वभाव वाला है तथापि अनादि काल से कर्मसंयुक्त दशा में रागी द्वेषी होता हुआ स्वभाव से च्युत हो रहा है तथा स्वभाव से च्युत होने के कारण ही चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण कर रहा है। इस जीव का अनन्तकाल ऐसी पर्यायों में व्यतीत हुआ है जहाँ इसे एक श्वास के भीतर अठारह बार जन्म मरण करना पड़ा है। अंतर्मुहूर्त के भीतर इसे छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीस क्षुत्रभव धारण करना पड़े हैं। इन क्षुद्रभवों के भीतर एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक की पर्यायें इसने धारण की हैं। जिस प्रकार आतिशबाजी की चकरी के घूमने में कारण, उसके भीतर भरी हुई बारूद है उसी प्रकार जीव के चतुर्गति में घूमने का कारण, उसके भीतर विद्यमान रागादिक विकारी भाव है। संसार दु:खमय है, इससे छुटकारा तब तक नहीं हो सकता जब तब कि मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो जाती। जीव और कर्म रूप पुद्गल का पृथक्—पृथक् हो जाना ही मोक्ष कहलाता है। मोक्ष प्राप्ति के उपायों का वर्णन करते हुए आचार्यों ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक् चारित्र की एकता का वर्णन किया है। जब तक ये तीनों परिपूर्णरूप से एक साथ प्रकट नहीं हो जाते तबतक मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। सम्यग्दर्शनादिक आत्मा के स्वभाव होने से धर्म कहलाते हैं और इसके विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र अधर्म कहलाते हैं१। अधर्म से संसार और धर्म से मोक्ष प्राप्त होता है। अत: मोक्षाभिलाषी जीवों को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप धर्म का आश्रय लेना चाहिये। यही मोक्षपथ है। यहाँ सम्यग्दर्शनादि का क्रम से वर्णन किया जाता है।
सम्यग्दर्शन
अनुयोगों के अनुसार सम्यग्दर्शन के विविध लक्षण- जैनागम प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के भेद से चार प्रकार का है। इन अनुयोगों में विभिन्न दृष्टिकोणों से सम्यग्दर्शन के स्वरूप की चर्चा की गई है। जिस लक्षण में आचरण की प्रधानता है वह प्रथमानुयोग है और चरणानुयोग का, जिसमें तत्वज्ञान की प्रधानता है वह द्रव्यानुयोग का और जिसमें बाधक कर्म प्रकृतियों के उपशमादि से होने वाले परिणामों की विशुद्धता की अपेक्षा है वह करणानुयोग का लक्षण है, ऐसी यहाँ विवक्षा है। यह विवक्षा ग्राह्य नहीं है कि जो लक्षण जिस अनुयोग के ग्रन्थ में कहा गया है वह उस अनुयोग का लक्षण है, प्रथमानुयोग और चरणानुयोग की अपेक्षा सम्यग्दर्शन का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है कि परमार्थ देव—शास्त्र—गुरु का तीन मूढ़ताओं और आठ मदों से रहित तथा आठ अङ्गों से सहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी व्यक्ति देव कहलाता है। जैनागम में अरहन्त और सिद्ध परमेष्ठी की देव संज्ञा है। वीतराग सर्वज्ञदेव की दिव्यध्वनि से अवतीर्ण तथा गणधरादिक आचार्यों के द्वारा गुम्फित आगम शास्त्र कहलाता है और विषयों की आशा से रहित निग्र्रन्थ—निष्परिग्रह एवं ज्ञान ध्यान में लीन साधु गुरु कहलाते हैं। हमारा प्रयोजन मोक्ष है, उसकी प्राप्ति इन्हीं देव, शास्त्र, गुरु के आश्रय से हो सकती है अत: इनकी दृढ़ प्रतीति करना सम्यग्दर्शन है। भय, आशा, स्नेह या लोभ के वशीभूत होकर कभी भी कुदेव, कुशात्र और कुगुरुओं की प्रतीति नहीं करना चाहिये। द्रव्यानुयोग में प्रमुखता से द्रव्य, गुण, पर्याय अथवा जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों तथा पुण्य पाप सहित नौ पदार्थों की चर्चा आती है अत: द्रव्यानुयोग में सम्यग्दर्शन का लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान को बताया गया है। तत्त्वरूप अर्थ, अथवा तत्त्व—अपने अपने वास्तविक स्वरूप से सहित जीव, अजीवादि पदार्थो का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। अथवा परमार्थ रूप से जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नौ पदार्थ सम्यग्दर्शन है। यहाँ विषय और विषयी में अभेद मानकर जीवादि पदार्थों को ही सम्यग्दर्शन कहा गया है। अर्थात् इन नौ पदार्थों का परमार्थरूप से श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। इसी द्रव्यानुयोग में स्वपर के श्रद्धान को भी सम्यग्दर्शन कहा गया है, क्योंकि आस्रवादिक तत्त्व स्व—जीव और पर—कर्मरूप अजीव के संयोग से होने वाले पर्यायात्मक तत्त्व हैं अत: स्वपर में ही र्गिभत हो जाते हैं। अथवा इसी द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत अध्यात्म ग्रंथों में परद्रव्यों से भिन्न आत्म द्रव्य की प्रतीति को सम्यग्दर्शन कहा है, क्योंकि प्रयोजनभूत तत्त्व तो स्वकीय आत्मद्रव्य ही है। स्व का निश्चय होने से पर स्वत: छूट जाता है। मूल में तत्त्व दो हैं—जीव और अजीव। चेतनालक्षणवाला जीव है और उससे भिन्न अजीव है। अजीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल के भेद से पाँच प्रकार का है परन्तु यहाँ उन सबसे प्रयोजन नहीं है। यहाँ तो जीव के साथ संयोग को प्राप्त हुए नोकर्म, द्रव्यकर्म और भावकर्मरूप अजीव से प्रयोजन है। चैतन्य स्वभाव वाले जीव के साथ अनादि काल से ये नोकर्म—शरीर, द्रव्यकर्म—ज्ञानावरणादिक और भावकर्म—रागादिक लग रहे हैं। ये किस कारण से लग रहे हैं, जब इसका विचार आता है तब आस्रवतत्त्व उपस्थित होता है। आस्रव के बाद जीव और अजीव की क्या दशा होती है, यह बताने के लिए बन्धतत्त्व आता है। आस्रव का विरोधी भावसंवर है, बन्ध का विरोधी भावनिर्जरा है तथा जब सब नोकर्म, द्रव्यकर्म और भावकर्म जीव से सदा के लिए सर्वथा विमुक्त हो जाते हैं तब मोक्षतत्त्व होता है। पुण्य और पाप आस्रव के अन्तर्गत है। इस तरह आत्मकल्याण के लिए उपर्युक्त सात तत्त्व अथवा नौ पदार्थ प्रयोजनभूत हैं। इनका वास्तविक रूप से निर्णय कर प्रतीति करना सम्यग्दर्शन है। ऐसा न हो कि आस्रव और बन्ध के कारणों को संवर और निर्जरा का कारण समझ लिया जाय अथवा जीव की रागादिकपूर्ण अवस्था को जीवतत्त्व समझ लिया जाय या जीव की वैभाविक परिणति (रागादिक) को सर्वथा अजीव समझ लिया जाय, क्योंकि ऐसा समझने से वस्तुतत्त्व का सही निर्णय नहीं हो पाता और सही निर्णय के अभाव में यह आत्मा मोक्ष को प्राप्त नहीं हो पाता। जिन भावों को यह मोक्ष का कारण मानकर करता है वे भाव पुण्यास्रव के कारण होकर इस जीव को देवादि गतियों में सागरों पर्यन्त के लिए रोक लेते हैं। सात तत्त्वों में जीव और अजीव का जो संयोग है वह संसार है तथा आस्रव और बन्ध उसके कारण है। जीव और अजीव का जो वियोग—पृथग्भाव है वह मोक्ष है तथा संवर और निर्जरा उसके कारण है। जिस प्रकार रोगी मनुष्य को, रोग, इसके कारण, रोगमुक्ति और उसके कारण—चारों का जानना आवश्यक है उसी प्रकार इस जीव को संसार, इसके कारण, उससे मुक्ति और उसके कारण—चारों का जानना आवश्यक है। करणानुयोग में, मिथ्यात्व, सम्यङ् मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति और अनन्तानुबन्धी क्रोध—मान—माया—लोभ इन सात प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय से होने वाली श्रद्धागुण की स्वाभाविक परिणति को सम्यग्दर्शन कहा है। करणानुयोग के इस सम्यग्दर्शन के होने पर चरणानुयोग, प्रथमानुयोग और द्रव्यानुयोग में प्रतिपादित सम्यग्दर्शन निमय से हो जाता है। परन्तु शेष अनुयोगों के सम्यग्दर्शन होने पर करणानुयोग प्रतिपादित सम्यग्दर्शन होता भी है और नहीं भी होता है। मिथ्यात्वप्रकृति के अवान्तर भेद असंख्यात लोक प्रमाण होते हैं। एक मिथ्यात्वप्रकृति के उदय में सातवें नरक की आयु का बन्ध होता है और एक मिथ्यात्वप्रकृति के उदय में नौवें ग्रैवेयक की आयु का बन्ध होता है। एक मिथ्यात्वप्रकृति के उदय में इस जीव के मुनिहत्या का भाव होता है और एक मिथ्यात्वप्रकृति के उदय में स्वयं मुनिव्रत धारण कर अट्ठाईस मूलगुणों का निर्दोष पालन करता है। एक मिथ्यात्व के उदय में कृष्णलेश्या होती है और एक मिथ्यात्व के उदय में शुक्ललेश्या होती है। जिस समय मिथ्यात्वप्रकृति का मन्द, मन्दतर उदय चलता है उस समय इस जीव को संसार, इसके कारण, उससे मुक्ति और उसके कारण—चारों का जानना आवश्यक है। करणानुयोग में, मिथ्यात्व, सम्यृङ् मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति और अनन्तानुबन्धी क्रोध—मान—माया—लोभ इन सात प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय से होने वाली श्रद्धागुण की स्वाभाविक परिणति को सम्यग्दर्शन कहा है। करणानुयोग के इस सम्यग्दर्शन के होने पर चरणानुयोग, प्रथमानुयोग और द्रव्यानुयोग में प्रतिपादित सम्यग्दर्शन नियम से हो जाता है। परन्तु शेष अनुयोगों के सम्यग्दर्शन होने पर करणानुयोग प्रतिपादित सम्यग्दर्शन होता भी है और नहीं भी होता है। मिथ्यात्वप्रकृति के अवान्तर भेद असंख्यात लोक प्रमाण होते हैं। एक मिथ्यात्वप्रकृति के उदय में सातवें नरक की आयु का बन्ध होता है और एक मिथ्यात्वप्रकृति के उदय में नौवें ग्रैवेयक की आयु का बन्ध होता है। एक मिथ्यात्व, प्रकृति के उदय में इस जीव के मुनिहत्या का भाव होता है और एक मिथ्यात्वप्रकृति के उदय में स्वयं मुनिव्रत धारण कर अट्ठाईस मूलगुणों का निर्दोष पालन करता है। एक मिथ्यात्व के उदय में कृष्णलेश्या होती है और एक मिथ्यात्व के उदय में शुक्ललेश्या होती है। जिस समय मिथ्यात्वप्रकृति का मन्द, मन्दतर उदय चलता है उस समय इस जीव के करणानुयोग और द्रव्यानुयोग के अनुसार सम्यग्दर्शन हो गया है, ऐसा जान पड़ता है परन्तु करणानुयोग के अनुसार वह मिथ्यादृष्टि ही रहता है। एक भी प्रकृति का उसके संवर नहीं होता है। बन्ध और मोक्ष के प्रकरण में करणानुयोग का सम्यग्दर्शन ही अपेक्षित रहता है, अन्य अनुयोगों का नहीं। यद्यपि करणानुयोग प्रतिपादित सम्यग्दर्शन की महिमा सर्वोपरि है तथापि उसे बुद्धिपूर्वक प्राप्त नहीं किया जा सकता है। इस जीव का बुद्धिप्रयोग चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग में प्रतिपादित सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने के लिये ही अग्रसर होता है। अर्थात् यह बुद्धिपूर्वक परमार्थ देवशास्त्रगुरु की शरण लेता है, उनकी श्रद्धा करता है और आगम का अभ्यास कर तत्त्वों का निर्णय करता है। इन सबके होते हुए अनुकूलता होने पर करणानुयोग प्रतिपादित सम्यग्दर्शन स्वत: प्राप्त हो जाता है और उसके प्राप्त होते ही यह संवर और निर्जरा को प्राप्त कर लेता है।
सम्यग्दर्शन के विविध लक्षणों का समन्वय— उपर्युक्त विवेचन से सम्यग्दर्शन के निम्नलिखित पाँच लक्षण सामने आते हैं :—
(१) परमार्थ देवशास्त्र गुरु की प्रतीति।
(२) तत्वार्थश्रद्धान।
(३) स्वपर का श्रद्धान।
(४)आत्मा का श्रद्धान।
(५) सप्त प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय से प्राप्त श्रद्धागुण की निर्मल परिणति। इन लक्षणों में पाँचवाँ लक्षण साध्य है और शेष चार उसके साधन हैं। जहाँ इन्हें सम्यग्दर्शन कहा है वहाँ कारण में कार्य का उपचार समझना चाहिये। जैसे अरहन्त देव, तत्प्रणीत शास्त्र और निग्र्रन्थ गुरु की श्रद्धा होने से व कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु की श्रद्धा दूर होने से गृहीत मिथ्यात्व का अभाव होता है, इस अपेक्षा से ही इसे सम्यग्दर्शन कहा है, सर्वथा सम्यग्दर्शन का वह लक्षण नहीं है क्योंकि द्रव्यिंलगी मुनि आदि व्यवहारधर्म के धारक मिथ्यादृष्टि जीवों के भी अरहन्तादिक का श्रद्धान होता है। यद्यपि परमार्थ से उनका वह श्रद्धान, श्रद्धान नहीं है तथापि व्यवहार से श्रद्धान भी कहा जाता है अथवा जिस प्रकार क्रियारूप अणुव्रत, महाव्रत धारण करने पर देशचारित्र, सकलचारित्र होता भी है और नहीं भी होता है। परन्तु अणुव्रत और महाव्रत धारण किये बिना देशचारित्र, सकलचारित्र कदाचित् नहीं होता है, इसलिये अणुव्रत, महाव्रत को अन्वयरूप कारण जानकर कारण में कार्य का उपचार कर इन्हें देशचारित्र, सकलचारित्र कहा है। इसी प्रकार अरहन्तदेवादिक का श्रद्धान होने पर सम्यग्दर्शन होता भी है और नहीं भी होता है परन्तु अरहन्तादिक की श्रद्धा के बिना सम्यग्दर्शन कदापि नहीं होता। इसलिये अन्वयव्याप्ति के अनुसार कारण में कार्य का उपचार कर इसे सम्यग्दर्शन कहा है। यही पद्धति तत्त्वार्थश्रद्धानरूप लक्षण में भी संघटित करना चाहिये, क्योंकि द्रव्यिंलगी अपने क्षयोपशम के अनुसार तत्त्वार्थ का ज्ञान प्राप्त कर उसकी श्रद्धा करता है, बुद्धिपूर्वक अश्रद्धा की किसी बात को आश्रय नहीं देता; तत्त्वार्थ का ऐसा विशद व्याख्यान करता है कि उसे सुनकर अन्य मिथ्यादृष्टि सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं, परन्तु परमार्थ से वह स्वयं मिथ्यादृष्टि ही रहता है। उसकी जो सूक्ष्म भूल रहती है उसे प्रत्यक्षज्ञानी जानते हैं। इतना होने पर भी यह निश्चित है कि करणानुयोग प्रतिपादित सम्यग्दर्शन की प्राप्ति तत्त्वार्थ—श्रद्धानपूर्वक होती। अत: कारण में कार्य का उपचार कर इसे सम्यग्दर्शन कहा है। स्थूलरूप से ‘‘शरीर भिन्न है, आत्मा भिन्न है’’ ऐसा स्वपर का भेदविज्ञान द्रव्यिंलगी मुनि का उपयोग भी परपदार्थ से हटकर स्व में स्थिर होने लगता है। स्वद्रव्य—आत्मद्रव्य की वह बड़ी सूक्ष्म चर्चा करता है। आत्मा के ज्ञाता—द्रब्टा स्वभाव का ऐसा भावविभोर होकर वर्णन करता है कि अन्य मिथ्यादृष्टि जीवों को भी आत्मानुभव होने लगता है परन्तु वह स्वयं मिथ्यादृष्टि रहता है। इस स्थिति में इस आत्मश्रद्धान को करणानुयोग प्रतिपादित सम्यग्दर्शन का साधन मानकर सम्यग्दर्शन कहा गया है। कषाय की मन्दता से उपयोग की चञ्चलता दूर होने लगती है, उस स्थिति में द्रव्यिंलगी मुनि का उपयोग भी पर पदार्थ से हट कर स्व में स्थिर होने लगता है। स्वद्रव्य—आत्मद्रव्य की वह बड़ी सूक्ष्म चर्चा करता है। आत्मा के ज्ञाता—दृष्टा स्वभाव का ऐसा भावविभोर होकर वर्णन करता है कि अन्य मिथ्यादृष्टि जीवों को भी आत्मानुभव होने लगता है परन्तु वह स्वयं मिथ्यादृष्टि रहता है। इस स्थिति में इस आत्मश्रद्धान को करणानुयोग प्रतिपादित सम्यग्दर्शन का साधन मानकर सम्यग्दर्शन कहा गया है। इन सब लक्षणों में रहने वाली सूक्ष्म भूल को साधारण मनुष्य नहीं समझ पाते, इसलिये व्यवहार से इन सबको सम्यग्दर्शन कहा जाता है। इनके होते हुए सम्यक्त्व का घात करने वाली सात प्रकृतियों का उपशमादिक होकर करणानुयोग प्रतिपादित सम्यग्दर्शन प्रकट होता है। देव—शास्त्र गुरु की प्रतीति, तत्त्वार्थश्रद्धान, स्वपरश्रद्धान और आत्मश्रद्धान ये चारों लक्षण एक—दूसरे के बाधक नहीं हैं क्योंकि एक के होने पर दूसरे लक्षण स्वयं प्रकट हो जाते हैं। पात्र की योग्यता देखकर आचार्यो ने विभिन्न शैलियों से वर्णन मात्र किया है। जैसे आचरणप्रधान शैली को मुख्यता देने की अपेक्षा देव—शास्त्र—गुरु की प्रतीति को, ज्ञानप्रधान शैली को मुख्यता देने की अपेक्षा तत्त्वार्थश्रद्धात को और कषाय जनित विकल्पों की मन्द—मन्दतर अवस्था को मुख्यता देने की अपेक्षा स्वपरश्रद्धान तथा आत्मश्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है। अपनी योग्यता के अनुसार चारों शैलियों को अपनाया जा सकता है। इन चारों शैलियों में भी यदि मुख्यता और अमुख्यता की अपेक्षा चर्चा की जावे तो तत्त्वार्थश्रद्धानरूप ज्ञानप्रधान शैली मुख्य जान पड़ती है क्योंकि उसके होने पर ही शेष तीन शैलियों को बल मिलता है।
सम्यग्दर्शन किसे प्राप्त होता है— मिथ्यादृष्टि दो प्रकार के हैं—एक अनादि मिथ्यादृष्टि और दूसरे सादि मिथ्यादृष्टि। जिसे आज तक कभी सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है वह अनादि मिथ्यादृष्टि है और जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त होकर छूट गया है वह सादि मिथ्यादृष्टि जीव है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के मोहनीयकर्म की छब्बीस प्रकृतियों की सत्ता रहती है क्योंकि दर्शनमोहनीय की मिथ्यात्व, सम्यङ्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति इन तीन प्रकृतियों में से एक मिथ्यात्वप्रकृति का ही बन्ध होता है, शेष दो का नहीं। प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन होने पर उसके प्रभाव से यह जीव मिथ्यात्वप्रकृति के मिथ्यात्व, सम्यङ्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति के भेद से तीन खण्ड करता है, इस तरह सादि मिथ्यादृष्टि जीव के ही सम्यङ्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति की सत्ता हो सकती है। सादि मिथ्यादृष्टि जीवों में मोहनीय कर्म की सत्ता के तीन विकल्प बनते हैं—एक अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला, दूसरा सत्ताईस प्रकृतियों की सत्ता वाला और तीसरा छब्बीस प्रकृतियों की सत्तावाला। जिस जीव के दर्शनमोह की तीनों प्रकृतियाँ विद्यमान हैं वह अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला है। जिस जीव ने सम्यक्त्वप्रकृति की उद्वेलना कर ली है वह सत्ताईस प्रकृतियों की सत्ता वाला है और जिसने सम्यक्मिथ्यात्वप्रकृति की उद्वेलना कर ली है वह छब्बीस प्रकृतियों की सत्तावाला है। सम्यग्दर्शन के औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इस प्रकार तीन भेद हैं। यहाँ सर्वप्रथम औपशमिक सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति की अपेक्षा विचार करते हैं, क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टि को सर्वप्रथम औपशमिक सम्यग्दर्शन ही प्राप्त होता है। औपशमिक सम्यग्दर्शन भी प्रथमोपशम और द्वितीयोपशम के भेद से दो प्रकार का है। यहाँ प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन की चर्चा है। द्वितीयोपशम की चर्चा आगे की जायेगी। इतना निश्चित है कि सम्यग्दर्शन संज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक भव्य जीव को ही होता है अन्य को नहीं। भव्यों में भी उसी को होता है जिसका संसार भ्रमण का काल अर्धपुद्गल परावर्तन के काल से अधिक बाकी नहीं है। लेश्याओं के विषय में यह नियम है कि मनुष्य और तिर्यञ्चों के तीन शुभ लेश्याओं में से कोई लेश्या हो और देव तथा नारकियों के जहाँ जो लेश्या बतलाई है उसी में औपशमिक सम्यग्दर्शन हो सकता है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये गोत्र का प्रतिबन्ध नहीं है अर्थात् जहाँ उच्च नीच गोत्रों में से जो भी सम्भव हो उसी गोत्र में सम्यग्दर्शन हो सकता है। कर्मस्थिति के विषय में चर्चा यह है कि जिसके बध्यमान कर्मों की स्थिति अन्त:कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण हो तथा सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति संख्यात हजार सागर कम अन्त:कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण रह गई हो वही सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है। इससे अधिक स्थितिबन्ध पड़ने पर सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हो सकता। इसी प्रकार जिसके अप्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग द्विस्थानगत और प्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग चतु:स्थान गत होता है वही औपशमिक सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है। यहाँ इतनी विशेषता और भी ध्यान में रखना चाहिये कि जिस सादि मिथ्यादृष्टि के आहारक शरीर और आहारक शरीराङ्गोपाङ्ग की सत्ता होती है उसे प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन नहीं होता। अनादि मिथ्यादृष्टि के इनकी सत्ता होती ही नहीं है। इसी प्रकार प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन से च्युत हुआ जीव दूसरे प्रथमोपशम सम्यक्त्व को तब तक प्राप्त नहीं कर सकता जब तक कि वह वेदक काल में रहता है। वेदक काल के भीतर यदि उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का अवसर आता है तो वह वेदक—क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन ही प्राप्त करता है। वेदक काल के विषय में यह कहा गया है कि सम्यग्दर्शन से च्युत हुआ जो मिथ्यादृष्टि जीव, एकेन्द्रिय पर्याय में भ्रमण करता है वह संज्ञी पंचेन्द्रिय होकर प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन को तभी प्राप्त कर सकता है जब उसके सम्यक्त्व तथा सम्यङ्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियों की स्थिति एक सागर से कम शेष रह जावे। यदि इससे अधिक स्थिति शेष है तो नियम से उसे वेदक—क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन ही हो सकता है। यदि सम्यग्दर्शन से च्युत हुआ जीव विकलत्रय में परिभ्रमण करता है तो उसके सम्यक्त्व और सम्यङ् मिथ्यात्वप्रकृति की स्थिति पृथकत्वसागरप्रमाण शेष रहने तक उसका वेदककाल कहलाता है। इस काल में यदि उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का अवसर आता है तो नियम से वेदक—क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन को ही प्राप्त होता है। हाँ, सम्यक्त्वप्रकृति की अथवा सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यङ्मिथ्यात्व प्रकृति—दोनों की उद्वेलना हो गई है तो ऐसा जीव पुन: सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का अवसर आने पर प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि अनादिमिथ्यादृष्टि जीव के सर्वप्रथम प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन ही होता है और सादिमिथ्यादृष्टि में २६ या २७ प्रकृतियों की सत्तावाले जीव के दूसरी बार भी प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन होता है किन्तु २८ प्रकृति की सत्ता वाले जीव के वेदक काल के भीतर दूसरी बार सम्यग्दर्शन हो तो वेदक—क्षायोपशमिक ही होता है। हाँ, वेदक काल के निकल जाने पर प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन होता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की योग्यता रखने वाला संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, विशुद्धियुक्त, जागृत, साकार उपयोगयुक्त, चारों गति वाला भव्य जीव जब सम्यग्दर्शन धारण करने के सम्मुख होता है तब क्षायोपशमिक, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण इन पाँच लब्धियों को प्राप्त होता है। इनमें करण लब्धि को छोड़कर शेष चार लब्धियाँ सामान्य हैं अर्थात् भव्य और अभव्य दोनों को प्राप्त होती हैं परन्तु करण लब्धि भव्य जीवको ही प्राप्त होती है। उसके प्राप्त होने पर सम्यग्दर्शन नियम से प्रकट होता है। उपर्युक्त लब्धियों का स्वरूप इस प्रकार है—
(१) क्षायोपशमिक लब्धि — पूर्व संचित कर्मपटल के अनुभाग स्पर्धकों का विशुद्धि के द्वारा प्रतिसमय अनन्तगुणित हीन होते हुए उदीरणा को प्राप्त होना क्षायोपशमिक लब्धि है। इस लब्धि के द्वारा जीव के परिणाम उत्तरोत्तर निर्मल होते जाते हैं।
(२) विशुद्धि लब्धि — साता वेदनीय आदि प्रशस्त प्रकृतियों के बन्ध में कारणभूत परिणामों की प्राप्ति को विशुद्धि लब्धि कहते हैं।
(३) देशना लब्धि — छहों द्रव्य और नौ पदार्थों के उपदेश को देशना कहते हैं। उक्त देशना के दाता आचार्य आदि की लब्धि को और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विचारणा की शक्ति की प्राप्ति को देशना लब्धि कहते हैं।
(४) प्रायोग्य लब्धि — आयुकर्म को छोड़कर शेष कर्मों की स्थिति को अन्त:कोड़ाकोडी सागर प्रमाण कर देना और अशुभकर्मों में से घातिया कर्मों के अनुभाग को लता और दारु इन दो स्थानगत तथा अघातिया कर्मों के अनुभाग को नीम और कांजी इन दो स्थान गत कर देना प्रायोग्य लब्धि है।
(५) करण लब्धि —करण भावों को कहते हैं। सम्यग्दर्शन प्राप्त कराने वाले कारणों—भावों की प्राप्ति को करणलब्धि कहते हैं।
इसके तीन भेद हैं—अथाप्रवृत्तकरण अथवा अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। जो करण—परिणाम इसके पूर्व प्राप्त न हुए हों उन्हें अथाप्रवृत्त करण कहते हैं। इसका दूसरा सार्थक नाम अध:करण है। जिसमें आगामी समय में रहने वाले जीवों के परिणाम पिछले समयवर्ती जीवों के परिणामों से मिलते जुलते हों उसे अध:प्रवृत्तकरण कहते हैं। इसमें समसमयकत्री तथा विषमसमयवर्ती जीवों के परिणाम समान और असमान—दोनों प्रकार के होते हैं। जैसे पहले समय में रहने वाले जीवों के परिणाम एक से लेकर दस नम्बर तक के हैं और दूसरे समय में रहने वाले जीवों के परिणाम छह से लेकर पन्द्रह नम्बर तक के हैं। पहले समय में रहने वाले जीव के छह से लेकर दस नम्बर तक के परिणाम विभिन्न समयवत्र्ती होने पर भी परस्पर मिलते—जुलते हैं। इसी प्रकार प्रथम समयवत्र्ती अनेक जीवों के एक से लेकर दस तक के परिणामों से समान परिणाम हो सकते हैं अर्थात् किन्हीं दो जीवों के चौथे नम्बर का परिणाम है और किन्हीं दो जीवों के पाँच नम्बर का परिणाम है। यह परिणामों की समानता और असमानता नाना जीवों की अपेक्षा घटित होती हैं इस करण का काल अन्तर्मुहूर्त है और उसमें उत्तरोत्तर समान वृद्धि को लिये हुए असंख्यात लोक प्रमाण करण—परिणाम होते हैं। जिसमें प्रत्येक समय अपूर्व अपूर्व—नाये—नाये परिणाम होते हैं—उसे अपूर्वकरण कहते हैं। जैसे पहले समय में रहने वाले जीवों के यदि एक से लेकर दस नम्बर तक के परिणाम है तो दूसरे समय में रहने वाले जीव के ग्यारह से बीस नम्बर तक परिणाम होते हैं। अपूर्वकाल में समसमयवत्र्ती जीवों के परिणाम समान और असमान दोनों प्रकार के होते हैं परन्तु भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम असमान ही होते हैं। जैसे, पहले समय में रहने वाले और दूसरे समय में रहने वाले जीवों के परिणाम कभी समान नहीं होते परन्तु पहले अथवा दूसरे समय में रहने वाले जीवों के परिणाम समान भी हो सकते हैं और असमान भी। यह चर्चा भी नाना जीवों की अपेक्षा है। इसका काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल में भी उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होते हुए असंख्यात लोक प्रमाण परिणाम होते हैं। जहाँ एक समय में एक ही परिणाम होता है उस अनिवृत्तिकरण कहते हैं। इस करण में समसमयवर्ती जीवों के परिणाम समान ही होते हैं और विषमसमयवर्ती जीवों के परिणाम असमान ही होते हैं। इसका कारण है कि यहाँ एक समय में एक ही परिणाम होता है इसलिये उस समय में जितने जीव होंगे उन सबके परिणाम समान ही होंगे और भिन्न समयों में जो जीव होंगे उनके परिणाम भिन्न ही होंगे। इसका काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। परन्तु अपूर्वकरण की अपेक्षा छोटा अन्तर्मुहूर्त है। इसके प्रत्येक समय में एक ही परिणाम होता है। इन तीनों करणों में परिणामों की विशुद्धता उत्तरोत्तर बढ़ती रहती हैं
उपर्युक्त तीन करणों में से पहले अथाप्रवृत्त अथवा अध:करण में चार आवश्यक होते हैं—
(१) समय समय में अनन्तगुणी विशुद्धता होती है।
(२) प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में नवीन बन्ध की स्थिति घटती जाती है।
(३) प्रत्येक समय प्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग अनन्तगुणा बढ़ता जाता है
(४) प्रत्येक समय अप्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग अनन्तवाँ भाग घटता जाता है। इसके बाद अपूर्वकरण परिणाम होता है। उस अपूर्वकरण में निम्नलिखित आवश्यक और होते हैं।
(१) सत्ता में स्थित पूर्व कर्मों की स्थिति प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में उत्तरोत्तर घटती जाती है अत: स्थितिकाण्डकघात होता है
(२) प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में उत्तरोत्तर पूर्व कर्म का अनुभाग घटता जाता है इसलिये अनुभागकाण्डकघात होता है और
(३) गुणश्रेणी के काल में क्रम से असंख्यातगुणित कर्म, निर्जरा के योग्य होते हैं इसलिये गुणश्रेणी निर्जरा होती है। इस अपूर्वकरण में गुणसंक्रमण नाम का आवश्यक नहीं होता। किन्तु चारित्रमोह का उपशम करने के लिए जो अपूर्वकरण होता है उसमें होता है। अपूर्वकरण के बाद अनिवृत्तिकरण होता है उसका काल अपूर्वकरण के काल के संख्यातवें भाग होता है। इसमें पूर्वोक्त आवश्यक सहित कितना ही काल व्यतीत होने पर अंतकरण होता है अर्थात् अनिवृत्तिकरण के काल के पीछे उदय आने योग्य मिथ्यात्वकर्म के निषेकों का अंतर्मुहूर्त के लिए अभाव हाता है। अंतरकरण के पीछे उपशमकरण होता है अर्थात् अंतरकरण के द्वारा अभावरूप किये हुए निषेकों के ऊपर जो मिथ्यात्व के निषेक उदय में आने वाले थे उन्हें उदीरणा के अयोग्य किया गया है। साथ ही अनंतानुबंधी चतुष्क को भी उदय के अयोग्य किया जाता है। इस तरह उदय योग्य प्रकृतियों का अभाव होने से प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है। पश्चात् प्रथमोपशम सम्यक्त्व के प्रथम समय में मिथ्यात्वप्रकृति के तीन खण्ड करता है। परन्तु राजर्वितक में, अनिवृत्तिकरण के चरम समय में तीन खण्ड करता है, सूचित किया है। तदनन्तर चरम समय में मिथ्यादर्शन के तीन भाग करता है—सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक्मिथ्यात्व। इन तीन प्रकृतियों तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ इन चार प्रकृतियों का इस प्रकार सात प्रकृतियों के उदय का अभाव होने पर प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है। यही भाव षट्खण्डागम (धवला पुस्तक ६) के निम्नलिखित सूत्रों में भी प्रकट किया गया है—
अर्थ — अन्तरकरण करके मिथ्यात्व कर्म के तीन भाग करता है—सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक््âमिथ्यात्व।दंसणमोहणीयं कम्मं उवसामेदि।।८।।अर्थ — मिथ्यात्व के तीन भाग करने के पश्चात् दर्शनमोहनीयकर्म को उपशमाता है।
द्वितीयोपशमसम्यग्दर्शन
औपशमिक सम्यग्दर्शन के प्रथमोपशम और द्वितीयोपशम इस प्रकार दो भेद है। इनमें से प्रथमोपशम किसके और कब होता है इसकी चर्चा ऊपर आ चुकी है द्वितीयोपशम की चर्चा इस प्रकार है। प्रथमोपशम और क्षायोपशिक सम्यग्दर्शन का अस्तित्व चतुर्थगुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक ही रहता है। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन को धारण करने वाला कोई जीव जब सातवें गुणस्थान के सातिशय अप्रमत्त भेद में उपशमश्रेणी माँढ़ने के सम्मुख होता है तब उसके द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। इस सम्यग्दर्शन में अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना और दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों का उपशम होता है। इस सम्यग्दर्शन को धारण करने वाला जीव उपशमश्रेणी माँढकर ग्यारहवें गुणस्थान तक जाता है और वहाँ से पतन कर नीचे आता है। पतन की अपेक्षा चतुर्थ, पञ्चम और षष्ठ गुणस्थान में भी इसका सद्भाव रहता है।
क्षायोपशमिक अथवा वेदक सम्यग्दर्शन—मिथ्यात्व, सम्यङ् मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन छह सर्वघाती प्रकृतियों के वर्तमान काल में उदय आने वाले निषेकों का उदयाभावी क्षय तथा आगामी काल में उदय आने वाले निषेकों का सदवस्थारूप उपशम और सम्यक्त्व प्रकृति नामक देशघाती प्रकृति का उदय रहने पर जो सम्यक्त्व होता है उसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। इस सम्यक्त्व में सम्यक्त्वप्रकृति का उदय रहने से चल, मल और अगाढ़ दोष उत्पन्न होते रहते हैं। छह सर्वघाती प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशम को प्रधानता देकर जब इसका वर्णन होता है तब इसे क्षायोपशमिक कहते हैं। और जब सम्यक्त्व प्रकृति के उदय की अपेक्षा वर्णन होता है तब इसे वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं। वैसे ये दोनों हैं पर्यायवाची। इसकी उत्पत्ति सादि मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों के हो सकती है। सादि मिथ्यादृष्टियों में जो वेदककाल के भीतर रहता है उसे वेदक सम्यग्दर्शन ही होता है। सम्यग्दृष्टियों में जो प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि है उसे भी वेदक सम्यकदर्शन ही होता है। प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि जीव को, चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में इसकी प्राप्ति हो सकती है। यह सम्यग्दर्शन चारों गतियों में उत्पन्न हो सकता है।
क्षायिक सम्यग्दर्शन— मिथ्यात्व, सम्यङ्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियों के क्षय से जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है। ‘दर्शनमोहनीय की क्षपणा का आरम्भ कर्मभूमिज मनुष्य ही करता है और वह भी केवली या श्रुत्रकेवली के पादमूल में। परन्तु इसका निष्ठापन चारों गतियों में हो सकता है। यह सम्यग्दर्शन वेदकसम्यक्त्वपूर्वक ही होता है तथा चौथे से सातवें गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में हो सकता है। यह सम्यग्दर्शन सादि अनन्त है। होकर कभी छूटता नहीं है जब कि औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन असंख्यात बार होकर छूट सकते हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टि या तो उसी भव में मोक्ष चला जाता है या तीसरे भव में, या चौथे भव में, चौथे भव से अधिक संसार में नहीं रहता। जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि बद्धायुष्क होने से नरक में जाता है अथवा देवगति में उत्पन्न होता है वह वहाँ से मनुष्य होकर मोक्ष जाता है। इसलिये वह तीसरे भव में मोक्ष जाता है और जो भोगभूमि में मनुष्य या तिर्यञ्च होता है वह वहाँ से देवगति में जाता है और वहाँ से आकर मनुष्य ही मोक्ष प्राप्त करता है, इस प्रकार चौथे भव में उसका मोक्ष जाना बनता है। चारों गतिसम्बन्धी आयु का बन्ध होने पर सम्यक्त्व हो सकता है, इसलिये बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि का चारों गतियों में जाना संभव है। परन्तु यह नियम है कि सम्यक्त्व के काल में यदि मनुष्य और तिर्यञ्च के आयुबन्ध होता है तो नियम से देवायु का ही बन्ध होता है और नारकी तथा देव के नियम से मनुष्यायु का ही बंध होता है।
सम्यदर्शन की उत्पत्ति के बहिरङ्ग कारण— कारण दो प्रकार का होता है एक उपादानकारण और दूसरा निमित्तकारण। जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है वह उपादानकारण कहलाता है। और जो कार्य की सिद्धि में सहायक होता है वह निमित्तकारण कहलाता है। अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग के भेद से निमित्त के दो भेद हैं। सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का उपादानकारण आसन्नभव्यता आदि विशेषताओं से युक्त आत्मा है। अन्तरङ्ग निमित्तकारण सम्यक्त्व की प्रतिबन्धक सात प्रकृतियों का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम है और बहिरङ्ग निमित्तकारण सद्गुरु आदि हैं। अन्तरङ्ग निमित्तकारण के मिलने पर सम्यग्दर्शन नियम से होता है परन्तु बहिरङ्ग निमित्त के मिलने पर सम्यग्दर्शन होता भी है और नहीं भी होता है। सम्यग्दर्शन के बहिरङ्ग निमित्त चारों गतियों में विभिन्न प्रकार के होते हैं। जैसे नरकगति में तीसरे नरक तक जातिस्मरण, धर्मश्रवण और तीव्रवेदनानुभव ये तीन, चौथे से सातवें तक जातिस्मरण और तीव्रवेदनानुभव ये दो, तिर्यञ्च और मनुष्यगति में जातिस्मरण, धर्मश्रवण और जिनबिम्बदर्शन ये तीन, देवगति में बारहवें स्वर्ग तक जातिस्मरण, धर्मश्रवण, जिनकल्याणकदर्शन और देवद्र्धिदर्शन ये चार, तेरहवें से सोलहवें स्वर्ग तक देवद्र्धिदर्शन को छोड़कर तीन और उसके आगे नौवें ग्रैवेयक तक जातिस्मरण तथा धर्मश्रवण ये दो बहिरङ्ग निमित्त हैं। ग्रैवेयक के ऊपर सम्यग्दृष्टि ही उत्पन्न होते हैं, इसलिये वहाँ बहिरङ्गनिमित्त की आवश्यकता नहीं है। इस सन्दर्भ में सर्वार्थसिद्धि का निर्देशस्वामित्व, आदि सूत्र तथा धवला पुस्तक ६ पृष्ठ ४२० आदि का प्रकरण द्रष्टव्य है।
सम्यग्दर्शन के भेद— उत्पत्ति की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो भेद है। जो पूर्व संस्कार की प्रबलता से परोपदेश के बिना हो जाता है वह निसर्गज सम्यग्दर्शन कहलाता है और जो परके उपदेशपूर्वक होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन कहलाता है। इन दोनों भेदों में अन्तरङ्ग कारण—सात प्रकृतियों का उपशमादिक समान होता है, मात्र बाह्यकारण की अपेक्षा दो भेद होते हैं। करणानुयोग की पद्धति से सम्यग्दर्शन के औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक, ये तीन भेद होते हैं। जो सात प्रकृतियों के उपशम से होता है वह औपशमिक कहलाता है। इसके प्रथमोपशम और द्वितीयोपशम की अपेक्षा दो भेद हैं। जो सात प्रकृतियों के क्षय से होता है उसे क्षायिक कहते हैं और जो सर्वघाती छह प्रकृतियों के उदयाभावीक्षय और सदवस्थारूप उपशम तथा सम्यक्त्वप्रकृतिनामक देशघाती प्रकृति के उदय से होता है उसे क्षायोपशमिक अथवा वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं। कृतकृत्य वेदक सम्यग्दर्शन भी इसी क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन का अवान्तर भेद है। दर्शनमोहनीय की क्षपणा करने वाले जिस क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के मात्र सम्यक्त्व प्रकृति का उदय शेष रह गया है, शेष की क्षपणा हो चुकी है उसे कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि कहते हैं। चरणानुयोग की पद्धति से सम्यग्दर्शन के निश्चय और व्यवहार की अपेक्षा दो भेद होते हैं। वहाँ परमार्थ देव—शास्त्र—गुरु की विपरीताभिनिवेश से रहित श्रद्धा करने को निश्चयसम्यग्दर्शन कहा जाता है और उस सम्यग्दृष्टि की पच्चीस दोषों से रहित जो प्रवृत्ति है उसे व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा जाता है। शज्रदिक आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढ़ताएँ ये व्यवहारसम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष कहलाते हैं। द्रव्यानुयोग की पद्धति से भी सम्यग्दर्शन के निश्चय और व्यवहार की अपेक्षा दो भेद होते हैं। यहाँ जीवाजीवादि सात तत्त्वों के विकल्प से रहित शुद्ध आत्मा ही को निश्चयसम्यग्दर्शन कहते हैं और सात तत्त्वों के विकल्प से सहित श्रद्धान को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं। अध्यात्म में वीतराग सम्यग्दर्शन और सराग सम्यग्दर्शन के भेद से दो भेद होते हैं। यहाँ आत्मा की विशुद्धिमात्र को वीतराग सम्यग्दर्शन कहा है और प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य इन चार गुणों की अभिव्यक्ति को सरागसम्यग्दर्शन कहा है। ‘आत्मानुशासन में ज्ञानप्रधान, निमित्तादिक की अपेक्षा १. आज्ञा सम्यक्त्व, २. मार्गसम्यक्त्व, ३. उपदेश सम्यक्त्व, ४. सूत्र सम्यक्त्व, ५. बीज सम्यक्त्व, ६. संक्षेप सम्यक्त्व, ७. विस्तार सम्यक्त्व, ८. अर्थ सम्यक्त्व, ९. अवगाढ़ सम्यक्त्व १०. परमावगाढ़ सम्यक्त्व ये दश भेद कहे हैं। मुझे जिन आज्ञा प्रमाण है, इस प्रकार जिनाज्ञा की प्रधानता से जो सूक्ष्म, अन्तरित एवं दूरवर्ती पदार्थों का श्रद्धान होता है उसे आज्ञा सम्यक्त्व कहते हैं। निग्र्रन्थ मार्ग के अवलोकन से जो सम्यग्दर्शन होता है उसे मार्ग सम्यक्त्व कहते हैं। आगमज्ञ पुरुषों के उपदेश से उत्पन्न सम्यग्दर्शन उपदेश सम्यक्त्व कहलाता है। मुनि के आचार का प्रतिपादन करने वाले आचारसूत्र को सुनकर जो श्रद्धान होता है उसे सूत्र सम्यक्त्व कहते हैं। गणितज्ञान के कारण बीजों के समूह से जो सम्यक्त्व होता है उसे बीज सम्यक्त्व कहते हैं। पदार्थों के संक्षेपरूप विवेचन को सुनकर जो श्रद्धान होता है उसे संक्षेप सम्यक्त्व कहते हैं। विस्ताररूप जिनवाणी को सुनने से जो श्रद्धान होता है उसे विस्तार सम्यक्त्व कहते हैं। जैन शास्त्र के वचन बिना किसी अन्य अर्थ के निमित्त से जो श्रद्धा होती है उसे अर्थ सम्यक्त्व कहते हैं। श्रुतकेवली के तत्त्वश्रद्धान को अवगाढ़ सम्यक्त्व कहते हैं। और केवली के तत्त्वश्रद्धान को परमावगाढ़ सम्यक्त्व कहते हैं। इन दश भेदों में प्रारम्भ के आठ भेद कारण की अपेक्षा और अन्त के दो भेद ज्ञान के सहाकारीपना की अपेक्षा किये गए हैं। इस प्रकार शब्दों की अपेक्षा संख्यात, परिणामों की अपेक्षा असंख्यात और अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के अनन्त भेद होते हैं।
सम्यग्दर्शन का निर्देश आदि की अपेक्षा वर्णन—तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वामी ने पदार्थ के जानने के उपायों का वर्णन करते हुए निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान इन छह उपायों का वर्णन किया है। यहाँ सम्यग्दर्शन के सन्दर्भ में इन उपायों का भी विचार करना उचित जान पड़ता है। वस्तु के स्वरूप निर्देश को निर्देश कहते हैं। वस्तु के आधिपत्य को स्वामित्व कहते हैं। वस्तु की उत्पत्ति के निमित्त को साधन कहते हैं। वस्तु के आधार को अधिकरण कहते हैं। वस्तु की कालावधि को स्थिति कहते हैं और वस्तु के प्रकारों को विधान कहते हैं। संसार के किसी भी पदार्थ के जानने में इन छह उपायों का आलम्बन लिया जाता है।
यहाँ सम्यग्दर्शन का निर्देश स्वरूप क्या है ?
इसका उत्तर देने के लिए कहा गया है कि यथार्थ देव—शास्त्र—गुरु का श्रद्धान करना, अथवा सप्त तत्त्व, नौ पदार्थ का श्रद्धान करना आदि सम्यग्दर्शन का निर्देश है। सम्यग्दर्शन का स्वामी कौन है ? इस प्रश्न का विचार सामान्य और विशेषरूप से किया गया है। सामान्य की अपेक्षा सम्यग्दर्शन संज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक, भव्य जीव के ही होता है अत: वही इसका स्वामी है। विशेष की अपेक्षा विचार इस प्रकार है— गति की अपेक्षा नरकगति के सभी पृथिवियों के पर्याप्तक नारकियों के औपशमिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं। प्रथम पृथ्विी में पर्याप्तकों के औपशमिक क्षायोपशमिक और क्षायिक ये तीन सम्यग्दर्शन होते हैं तथा अपर्याप्तकों के क्षायिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं। द्वितीयादि पृथिवियों में अपर्याप्तकों के एक भी सम्यग्दर्शन नहीं होता तिर्यञ्चगति में औपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्तक तिर्यञ्चों के ही होता है और क्षायिक तथा क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्तक अपर्याप्तक दोनों के होते हैं। अपर्याप्तक तिर्यञ्चों के सम्यग्दर्शन भोगभूमिज तिर्यञ्चों के सम्यग्दर्शन भोगभूमिज तिर्यञ्चों की अपेक्षा होते हैं। तिरश्चियों के पर्याप्तक तथा अपर्याप्तक दोनों ही अवस्थाओं में क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता, क्योंकि दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भ कर्मभूमिज मनुष्य के ही होता है और क्षपणा के पहले तिर्यञ्च आयु का बन्ध करने वाला मनुष्य, भोगभूमि के पुरुषवेदी तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है स्त्रीवेदी तिर्यञ्चों में नहीं। नवीन उत्पत्ति की अपेक्षा पर्याप्तक तिरश्चियों के औपशमिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं। मनुष्यगति में पर्याप्तक और अपर्याप्तक मनुष्यों के क्षायिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं। औपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्तक मनुष्यों के ही होता है, अपर्याप्तक मनुष्यों के नहीं, क्योंकि प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन में किसी का मरण होता नहीं है और द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन में मरा हुआ जीव नियम से देवगति में ही जाता है। मानुषी—स्त्रीवेदी मनुष्यों के पर्याप्तक अवस्था में तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं परन्तु अपर्याप्तक अवस्था में एक भी नहीं होता। मानुषियों के जो क्षायिक सम्यग्दर्शन बतलाया है वह भाववेद की अपेक्षा होता है द्रव्यवेद की अपेक्षा नहीं। देवगति में पर्याप्तक और अपर्याप्तक—दोनों के तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं। द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव मरकर देवों में उत्पन्न होते हैं इस अपेक्षा वहाँ अपर्याप्तक अवस्था में भी औपशमिक सम्यग्दर्शन का सद्भाव रहता है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देव, उनकी देवाङ्गनाओं तथा सौधर्मेशान की देवाङ्गनाओं के अपर्याप्तक अवस्था में एक भी सम्यग्दर्शन नहीं होता, किन्तु पर्याप्तक अवस्था में नवीन उत्पत्ति की अपेक्षा औपशमिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं। स्वर्ग में देवियों का सद्भाव यद्यपि सोलहवें स्वर्ग तक रहता है तथापि उनकी उत्पत्ति दूसरे स्वर्ग तक ही होती है इसलिये आगे की देवियों का समावेश पहले—दूसरे स्वर्ग की देवियों में ही समझना चाहिये। इन्द्रियों की अपेक्षा संज्ञी पञ्चेन्द्रियों को तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं। अन्य इन्द्रियवालों के एक भी नहीं होता। काय की अपेक्षा त्रसकायिक जीवों के तीनों होते हैं परन्तु स्थावर कायिक जीवों के एक भी नहीं होता। त्रियोगियों के तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं परन्तु अयोगियों के मात्र क्षायिक ही होता है। वेद की अपेक्षा तीनों वेदों में तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं परन्तु अपगत वेद वालों के औपशमिक और क्षायिक ही होते हैं। यहाँ वेद से तात्पर्य भाववेद से है। कषाय की अपेक्षा क्रोधादि चारों कषायों में तीनों होते हैं परन्तु अकषाय—कषाय रहित जीवों के औपशमिक और क्षायिक ये दो होते हैं। औपशमिक मात्र ग्यारहवें गुणस्थान में होता है। ज्ञान की अपेक्षा मति, श्रुत अवधि और मन:पर्यय ज्ञान के धारक जीवों के तीनों होते हैं परन्तु केवल ज्ञानियों के एक क्षायिक ही होता है। संयम की अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापना संयम के धारक जीवों के तीनों होते हैं, परिहारविशुद्धि वालों के औपशमिक नहीं होता, शेष दो होते हैं, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात वालों के औपशमिक और क्षायिक ये दो होते हैं। और संयतासंयत तथा असयंतों के तीनों होते हैं। दर्शन की अपेक्षा चक्षु, अचक्षु और अवधि दर्शन के धारक जीवों के तीनों होते हैं। परन्तु केवल दर्शन के धारक जीवों के एक क्षायिक ही होता है। लेश्या की अपेक्षा छहों लेश्या वालों के तीनों होते हैं परन्तु लेश्यारहित जीवों के एक क्षायिक ही होता है। भव्य जीवों की अपेक्षा भव्यों के तीनों होते हैं परन्तु अभव्यों के एक भी नहीं होता। सम्यक्त्व की अपेक्षा जहाँ जो सम्यग्दर्शन होता है वहाँ उसे ही जानना चाहिये। संज्ञा की अपेक्षा संज्ञियों के तीनों होते हैं असंज्ञियों के एक भी नहीं होता। संज्ञी और असंज्ञी के व्यपदेश से रहित सयोगकेवली और अयोगकेवली के एक क्षायिक ही होता है। आहार की अपेक्षा आहारकों के तीनों होते हैं, छद्मस्थ अनाहारकों के भी तीनों होते हैं परन्तु समुद्घातकेवली अनाहारकों के एक क्षायिक ही होता है।
सम्यग्दर्शन के साधन क्या हैं ? इसका उत्तर सम्यग्दर्शन के अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग कारणों के सन्दर्भ में आ चुका है।
सम्यग्दर्शन का अधिकरण क्या है ?
अधिकरण के बाह्य और आभ्यन्तर की अपेक्षा दो भेद हैं। आभ्यन्तर अधिकरण स्वस्वामिसम्बन्ध के योग्य आत्मा ही है और बाह्य अधिकरण एक राजू चौड़ी तथा चौदह राजू लम्बी लोकनाड़ी है।
सम्यग्दर्शन की स्थिति क्या है ?
औपशमिक सम्यग्दर्शन की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट छ्यासठ सागर प्रमाण है। क्षायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न होकर नष्ट नहीं होता, इसलिये इस अपेक्षा उसकी स्थिति सादि अनन्त है परन्तु संसार में रहने की अपेक्षा जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त सहित आठ वर्ष कम दो करोड़ पूर्व वर्ष तथा तेतीस सागर की है।
सम्यग्दर्शन का विधान क्या है ?
सम्यग्दर्शन के विधान—भेदों का वर्णन पिछले स्तम्भ में आ चुका है।
सम्यक्त्व मार्गणा और उसका गुणस्थानों में अस्तित्व— सम्यक्त्व मार्गणा के औपशमिक सम्यग्दर्शन, क्षायिक सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन, सम्यङ् मिथ्यात्व, सासादन और मिथ्यात्व ये छ: भेद हैं। औपशमिक सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं प्रथमोपशम और द्वितीयोपशम। इनमें प्रथमोपशम चौथे से लेकर सातवें तक और द्वितीयोपशम चौथे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक होता है। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन चौथे से लेकर सातवें तक होता है और क्षायिक सम्यग्दर्शन चौथे से लेकर चौदहवें तक तथा सिद्ध अवस्था में भी रहता है। सम्यङ्मिथ्यात्व मार्गणा तीसरे गुणस्थान में, सासादनमार्गणा दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्वमार्गणा पहले गुणस्थान में ही होती है। सम्यङ्मिथ्यात्वमार्गणा, सम्यङ्मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से होती है। इसमें जीव के परिणाम दही और गुड़ के मिले हुए स्वाद के समान सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों रूप होते हैं। इस मार्गणा में किसी का मरण नहीं होता और न मारणान्तिक समुद्घात ही होता है। औपशमिक सम्यक्त्व का काल एक समय से लेकर छह आवली तक शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी क्रोध—मान—माया—लोभ में से किसी एक कषाय का उदय आने से जिसका सम्यक्त्व आसादना—विराधना से सहित हो गया है वह सासादन कहलाता है। जहाँ मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से अतत्त्वश्रद्धानरूप परिणाम होता है वह मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के अगृहीत और गृहीत की अपेक्षा दो भेद, एकान्त, विपरीत, संशय, अज्ञान और वैनयिक की अपेक्षा पाँच भेद अथवा गृहीत, अगृहीत और सांशयिक की अपेक्षा तीन भेद होते हैं। ==सम्यग्दर्शन के आठ अङ्ग—== जिन्हें मिलाकर अङ्गी की पूर्णता होती है अथवा अङ्गी को अपना कार्य पूर्ण करने में जो सहायक होते हैं उन्हें अंग कहते हैं। मनुष्य के शरीर में जिस प्रकार हाथ, पैर आदि आठ अंग होते हैं उन आठ अंगों के मिलने से ही मनुष्य के शरीर की पूर्णता होती है और वे अंग ही उसे अपना कार्य पूर्ण करने में सहायक होते हैं उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के नि:शज्र्ति आदि आठ अंग हैं। इन आठ अंगों के मिलने से ही सम्यग्दर्शन की पूर्णता होती है और सम्यग्दर्शन को अपना कार्य करने में उनसे सहायता मिलती है। कुन्दकुन्दस्वामी ने अष्टपाहुड़ के अन्तर्गत चारित्रपाहुड़ में चारित्र के सम्यक्त्वाचरण और संयमाचरण इस तरह दो भेद कर सम्यक्त्वाचरण का निम्नलिखित गाथाओं में वर्णन किया है।
एवं चिय णाऊण य सब्बे मिच्छत्तदोससंकाई।
परिहरि सम्मत्तमला जिणभणिया तिविहजोएण।।६।।
णिस्संकिय णिक्वंखिय णिव्विदिगिंछा अमूढ़दिट्ठी य।
उवगूहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा य ते अट्ठ।।७।।
तं चेव गुणविसुद्धं जिणसम्मत्तं सुमुक्खठाणाय।
जं चरइ णाणजुत्तं पढमं सम्मत्तचरणचारितं।।८।।
ऐसा जानकर हे भव्य जीवों। जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए तथा सम्यक्त्व में मल उत्पन्न करने वाले शज्र आदि मिथ्यात्व के दोषों का तीनों योगों से परित्याग करो। नि:शज्र्ति, नि:काङ्क्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ सम्यक्त्व के गुण हैं। नि:शज्र्तिादि गुणों से विशुद्ध वह सम्यक्त्व ही जिनसम्यक्त्व कहलाता है तथा जिनसम्यक्त्व ही उत्तम मोक्षरूप स्थान की प्राप्ति के लिये निमित्तभूत है। ज्ञानसहित जिनसम्यक्त्व का जो मुनि आचरण करते हैं वह पहला सम्यक्त्वाचरण नामक चारित्र है। तात्पर्य यह है कि शंकादिक दोषों को दूर कर नि:शंकितादि गुणरूप प्रवृत्ति करना सम्यक्त्वाचरण कहलाता है, यही दर्शनाचार कहलाता है। स्वरूपाचरण इससे भिन्न है। अष्टपाहुड़ के अतिरिक्त समयसार की गाथाओं (२२९ से लेकर २३६) में भी कुन्दकुन्द स्वामी ने सम्यग्दृष्टि के नि:शंकित आदि गुणों का वर्णन किया है। यही आठ गुण आगे चलकर आठ अंगों के रूप में प्रचलित हो गये। रत्नकरण्डश्रावकाचार में समन्तभद्रस्वामी ने इस आठ अंगों का संक्षिप्त किन्तु हृदयग्राही वर्णन किया है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय में अमृतचन्द्रस्वामी ने भी इनके लक्षण बतलाने के लिए आठ श्लोक लिखे हैं। यह आठ अंगों की मान्यता सम्यग्दर्शन का पूर्ण विकास करने के लिए आवश्यक है। अंगों की आवश्यकता बतलाते हुए समन्तभद्रस्वामी ने लिखा है कि जिस प्रकार कम अक्षरों वाला मन्त्र विष—वेदना को नष्ट करने में असमर्थ रहता है उसी प्रकार कम अंगों वाला सम्यग्दर्शन संसार की सन्तति के छेदने में असमर्थ रहता है। अंगों का स्वरूप तथा उनमें प्रसिद्ध पुरुषों का चरित रत्नकरण्ड श्रावकाचार के प्रथम अधिकार से ज्ञातव्य है।
सम्यग्यदर्शन के अन्य गुणों की चर्चा— प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये सम्यग्दर्शन के चार गुण हैं। बाह्य दृष्टि से ये भी सम्यग्दर्शन के लक्षण हैं। इनके स्वरूप का विचार पञ्चाध्यायी के उत्तरार्ध में विस्तार से किया गया है। संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है— पंचेन्द्रियों के विषयों में और असंख्यात लोक प्रमाण क्रोधादिक भावों में स्वभाव से मन का शिथिल होना प्रशम भाव है। अथवा उसी समय अपराध करने वाले जीवों के विषय में कभी भी उनके मारने आदि की प्रयोजक बुद्धि का न होना प्रशमभाव है। धर्म में और धर्म के फल में आत्मा का परम उत्साह होना अथवा समानधर्म वालों में अनुराग का होना या परमेष्ठियों में प्रीति का होना संवेग है। अनुकम्पा का अर्थ कृपा है या सब जीवों पर अनुग्रह करना अनुकम्पा है या मैत्री भाव का नाम अनुकम्पा है या मध्यस्थभाव का रखना अनुकम्पा है या शत्रुता का त्याग कर देने से नि:शल्य हो जाना अनुकम्पा है। स्वत: सिद्ध तत्त्वों के सद्भाव में निश्चय भाव रखना तथा धर्म, धर्म के हेतु और धर्म के फल में आत्मा की अस्ति रूप बुद्धि का होना आस्तिक्य है। उपर्युक्त प्रशमादिगुणों के अतिरिक्त सम्यग्दर्शन के आठ गुण और भी प्रसिद्ध हैं। जैसा कि निम्नलिखित गाथा से स्पष्ट है—
संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा ये सम्यक्त्व के आठ गुण हैं। वास्तव में ये आठ गुण उपर्युक्त प्रशमादि चार गुणों से अतिरिक्त नहीं हैं क्योंकि संवेग, उपशम और अनुकम्पा ये तीन गुण तो प्रशमादि चार गुणों में नामोक्त ही हैं। निर्वेद, संवेग का पर्यायवाची है। तथा भक्ति और वात्सल्य संवेग के अभिव्यंजक होने से उसमें गतार्थ हैं तथा निन्दा और गर्हा उपशम (प्रशम) के अभिव्यंजक होने से उसमें गतार्थ हो जाते हैं।
सम्यग्दर्शन और स्वानुभूति—सम्यग्दर्शन दर्शनमोहनीय का त्रिक और अनन्तानुबन्धी का चतुष्क इन सात प्रकृतियों के अभाव (अनुदय) में प्रकट होने वाला श्रद्धागुण का परिणमन है और स्वानुभूति स्वानुभूत्यावरण नामक मतिज्ञानावरण के अवान्तरभेद के क्षयोपशम से होने वाला क्षायोपशमिक ज्ञान है। ये दोनों सहभावी हैं, इसलिए कितने ही लोग स्वानुभूति को ही सम्यग्दर्शन कहने लगते हैं वह वस्तुत: बात ऐसी नहीं है। दोनों ही पृथक्—पृथक् गुण हैं। छद्मस्थ का ज्ञान लब्धि और उपयोगरूप होता है अर्थात् उसका ज्ञान कभी तो आत्मा के विषय में ही उपयुक्त होता है और कभी संसार के अन्य घट—पटादि पदार्थों में भी उपयुक्त होता है। अत: सम्यग्दर्शन और उपयोगात्मक स्वानुभूति की विषम व्याप्ति है। जहाँ स्वानुभूति होती है वहाँ सम्यग्दर्शन अवश्य होता है पर जहाँ सम्यग्दर्शन है वहाँ स्वानुभूति भी होती है और घट—पटादि अन्य पदार्थों की भी अनुभूति होती है। इतना अवश्य है कि लब्धिरूप स्वानुभूति सम्यग्दर्शन के साथ नियम से रहती है। यहाँ यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि जीव को ज्ञान तो उसके क्षयोपशम के अनुसार स्व और परकी भूत, भविष्यत्, वर्तमान की अनेक पर्यायों का हो सकता है परन्तु उसे अनुभव उसकी वर्तमान पर्यायमात्र का ही होता है। वस्तुत: सम्यग्दर्शन सूक्ष्म है और वचनों का अविषय है इसलिये कोई भी जीव विधिरूप से उसके कहने और सुनने का अधिकारी नहीं है अर्थात् यह कहने और सुनने को समर्थ नहीं है कि यह सम्यग्दृष्टि है अथवा इसे सम्यग्दर्शन है। किन्तु ज्ञान के माध्यम से ही उसकी सिद्धि होती है। यहाँ ज्ञान से स्वानुभूतिरूप ज्ञान विवक्षित है। जिस जीव के यह स्वानुभूति होती है उसे सम्यग्दर्शन अवश्य होता है क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना स्वानुभूति नहीं होती। प्रश्न उठता है कि जिस समय सम्यग्दृष्टि जीव विषयभोग या युद्धादि कार्यों में संलग्न होता है उस समय उसका सम्यग्दर्शन कहाँ रहता है ? उत्तर यह है कि उसका सम्यग्दर्शन उसी में रहता है परन्तु उस काल में उसका ज्ञानोपयोग स्वात्मा में उपयुक्त न होकर अन्य पदार्थों में उपयुक्त हो रहा है। इसलिए ऐसा जान पड़ता है कि इसका सम्यग्दर्शन नष्ट हो गया है पर वास्तविकता यह है कि उस अवस्था में भी सम्यग्दर्शन विद्यमान रहता है। लब्धि और उपयोगरूप परिणमन ज्ञान का है सम्यग्दर्शन का नहीं। सम्यग्दर्शन तो सदा जागरूक ही रहता है।
सम्यग्दर्शन को घातने वाली प्रकृतियों की अन्तर्दशा— मुख्यरूप से सम्यग्दर्शन को घातने वाली दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियाँ हैं—मिथ्यात्व, सम्यङ्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति। इनमें मिथ्यात्व का अनुभाग सबसे अधिक है, उसके अनन्तवें भाग सम्यङ् मिथ्यात्व का है और उसके अनन्तवें भाग सम्यक्त्वप्रकृति का है। इसमें सम्यक्त्व प्रकृति देशघाती है। इसके उदय से सम्यग्दर्शन का घात तो नहीं होता, किन्तु चल, मलिन और अगाढ़ दोष लगते हैं। यह अरहन्तादिक मेरे हैं यह दूसरे के हैं इत्यादिक भाव होने को चल दोष कहते हैं। शंकादिक दोषों का लगना मल दोष है और शान्तिनाथ शान्ति के कर्ता है इत्यादि भाव का होना अगाढ़ दोष है। ये उदाहरण व्यवहारमात्र है नियमरूप नहीं। परमार्थ से सम्यक्त्वप्रकृति के उदय में क्या दोष लगते हैं, उन दोषों के समय आत्मा में वैâसे भाव होते हैं, यह प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय है। इतना नियमरूप जानना चाहिये कि सम्यक्त्वप्रकृति के उदय में सम्यग्दर्शन निर्मल नहीं रहता। क्षायोपशमिक या वेदक सम्यग्दर्शन में इस प्रकृति का उदय रहता है। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन को धारण करने वाला कर्मभूमिज मनुष्य जब क्षायिक सम्यग्दर्शन के सम्मुख होता है तब वह तीन करण करके मिथ्यात्व के परमाणुओं को सम्यङ् मिथ्यात्वरूप और सम्यक्त्व प्रकृति रूप परिणमाता है। उसके बाद सम्यङ्मिथ्यात्व के परमाणुओं को सम्यक्त्वप्रकृति रूप परिणमता है, पश्चात् सम्यक्त्वप्रकृति के निषेक उदय में आकर खिरते हैं। उसकी अधिक स्थिति को स्थितिकाण्डकादि घात के द्वारा घटाता है। जब उसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त की रह जाती है तब कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि कहलाता है। पश्चात् क्रम से इन निषेकों का नाशकर क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है। अनन्तानुबन्धी का स्वमुख प्रदेश क्षय नहीं होता किन्तु अप्रत्याख्यानावरणादिरूप करके उसकी सत्ता का नाश करता है जिसे विसंयोजन कहते हैं। इस प्रकार इन सात प्रकृतियों को सर्वथा नष्ट कर क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है। सम्यक्त्व होते समय अनन्तानुबन्धी की दो अवस्थाएँ होती हैं—या तो स्तुबुक संक्रमण होता है या विसंयोजन हो जाता है। अपूर्वादि करण करने पर उपशम विधान से जो उपशम होता है। उसे प्रशस्त उपशम कहते हैं और उदयाभाव काल में जो प्रति समय संक्रमण होता है उसे स्तुबुक संक्रमण कहते हैं। इनमें अनन्तानुबन्धी का तो प्रशस्त उपशम होता नहीं है, मोह की अन्य प्रकृतियों का होता है। इसका जो विसंयोजन होता है उसे प्रशस्तोपशम भी कहते हैं। तीन करण कर अनन्तानुबन्धी के परमाणुओं को जो अन्य चारित्रमोहनीय की प्रकृतिरूप परिणमाया जाता है उसे विसंयोजन कहते हैं। प्रथमोपशम सम्यक्त्व में अनन्तानुबन्धी का स्तुबुक संक्रमण होता है। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति में अनन्तानुबन्धी को विसंयोजना नियम से होती है ऐसा किन्हीं आचार्यों का मत है और किन्हीं आचार्यों का मत है कि विसंयोजना का नियम नहीं है। क्षायिक सम्यक्त्व में नियम पूर्वक विसंयोजना होती है। जिस उपशम और क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि के विसंयोजना के द्वारा अनन्तानुबन्धी की सत्ता का नाश होता है वह सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट होकर मिथ्यात्व में आने पर अनन्तानुबन्धी का जब नवीन बन्ध करता है तब ही उसकी सत्ता होती है। अथवा सासादन गुणस्थान में आने पर अप्रत्याख्यानावरणादि प्रकृतियों से अपना अवशिष्ट द्रव्य वापिस लेकर अपनी सत्ता बना लेती है। यहाँ कोई प्रश्न कर सकता है कि जब अनन्तानुबन्धी चारित्रमोहनीय की प्रकृति है तब उसके द्वारा चारित्र का ही घात होना चाहिये, सम्यग्दर्शन का घात उसके द्वारा क्यों होता है ? इसका उत्तर यह है कि अनन्तानुबन्धी भी सम्यक्त्व की घातक है। दूसरी बात यह है कि इसके उदय में जो विपरीताभिनिवेश होता है वह सम्यक्त्व का घात करता है इसीलिये द्वितीय गुणस्थान के ज्ञान को कुज्ञान कहा है। इसका विपरीताभिनिवेश मिथ्यात्व के विपरीताभिनिवेश से भिन्न है अत: सम्यक्त्व का घात तो करता है किन्तु मिथ्यात्व को उत्पन्न नहीं करता।
प्रश्न—यदि अनन्तानुबन्धी चारित्रमोहनीय की प्रकृति है तो उसके उदय का अभाव होने पर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में भी कुछ चारित्र होना चाहिये, उसे असंयत क्यों कहा जाता है ?
उत्तर — अनन्तानुबन्धी का उदय अप्रत्याख्यानावरणादि के द्वारा रोके हुए संयम में मात्र अनन्त प्रवाह देता है, चारित्र को रोकता नहीं है इसीलिये इसके अभाव में चारित्र प्रकट नहीं होता, मात्र अनन्त प्रवाह समाप्त हो जाता है। यदि अनन्तानुबन्धी के अभाव में संयम माना जाय तो तृतीयगुणस्थान में एवं विसंयोजन करके गिरने वाले मिथ्यादृष्टि जीव के प्रथम गुणस्थान में भी एक आवली तक संयम का प्रसंग आ जायेगा जो इष्ट नहीं है। जो एकदेश चारित्र का घात करे वह प्रत्याख्यानावरण है, जो सकलचारित्र का घात करे वह प्रत्याख्यानावरण है और जो यथाख्यात चारित्र का घात करे वह संज्वलन है। असंयत सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबन्धी का अभाव होने से यद्यपि कषाय की मन्दता होती है तथापि ऐसी मन्दता नहीं होती कि जिससे चारित्र नाम प्राप्त कर सके। कषाय के असंख्यातलोक प्रमाण स्थान हैं उनमें सर्वत्र पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर मंदता पायी जाती है परन्तु उन स्थानों में व्यवहार की अपेक्षा तीन मर्यादाएँ की गई हैं—१ प्रारम्भ से लेकर चतुर्थगुणस्थान तक के कषाय स्थान असंयम के नाम से, २ पञ्चमगुणस्थान के कषाय स्थान देश चारित्र के नाम से और षष्ठादि गुणस्थानों के कषाय स्थान सकलचारित्र कहे जाते हैं। यहाँ परमार्थ इतना जानना चाहिये कि कषायस्थान का नाम चारित्र नहीं है वह तो उसकी निर्मलता का घातक ही है किन्तु अप्रत्याखानावरण और अप्रत्याख्यानावरण के अनुदय से परिणामों में जो निर्मलता प्रकट होती है वह देशसंयम और सकल संयम है।
सम्यग्दर्शन का महिमा— सम्यग्दर्शन की महिमा बतलाते हुए समन्तभद्रस्वामी ने कहा है— ‘ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा सम्यग्दर्शन श्रेष्ठता को प्राप्त होता है इसलिये मोक्षमार्ग में उसे कर्णधार—खेवटिया कहते हैं। जिस प्रकार बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल की प्राप्ति नहीं होती उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल की प्राप्ति नहीं होती। ‘निर्मोह—मिथ्यात्व से रहित—सम्यग्दृष्टि गृहस्थ तो मोक्षमार्ग में स्थित है परन्तु मोहवान—मिथ्यादृष्टि मुनि मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है। मोही मुनि की अपेक्षा मोहरहित गृहस्थ श्रेष्ठ है।’ ‘तीनों कालों और तीनों लोकों में सम्यग्दर्शन के समान अन्य कोई वस्तु देहधारियों के लिए कल्याणरूप और मिथ्यात्व के समान अकल्याणरूप नहीं है।’ ‘सम्यग्दर्शन से शुद्ध पूर्वाबद्धायुष्क मनुष्य व्रत रहित होने पर भी नरक और तिर्यञ्च गति, नपुंसक और स्त्री पर्याय, नीचकुल, विकलाङ्गता, अल्पायु और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होते।’ ‘यदि सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के पहले किसी मनुष्य ने नरक आयु का बन्ध कर लिया है तो वह पहले नरक से नीचे नहीं जाता है। यदि तिर्यञ्च और मनुष्यायु का बन्ध कर लिया है तो भोगभूमि का तिर्यञ्च और मनुष्य होता है और यदि देवायु का बन्ध किया है तो वैमानिक देव ही होता है, भवनत्रिकों में उत्पन्न नहीं होता। सम्यग्दर्शन के काल में यदि तिर्यञ्च और मनुष्य के आयुबन्ध होता है तो नियम से देवायु का ही बन्ध होता है और नारकी तथा देव के नियम से मनुष्यायु का ही बन्ध होता है। सम्यक्दृष्टि जीव किसी भी गति की स्त्री पर्याय को प्राप्त नहीं होता। मनुष्य और तिर्यञ्च गति में नपुंसक भी नहीं होता। सम्यग्दर्शन से पवित्र मनुष्य, ओज, तेज, विद्या, वीर्य, यश, वृद्धि, विजय और वैभव से सहित उच्च कुलीन, महान् अर्थ से सहित श्रेष्ठ मनुष्य होते हैं। ‘सम्यग्दृष्टि मनुष्य यदि स्वर्ग जाते हैं तो वहाँ अणिमा आदि आठ गुणों की पुष्टि से सन्तुष्ट तथा सातिशय शोभा से युक्त होते हुए देवाङ्गनाओं के समूह में चिरकाल तक क्रीडा करते हैं। ‘सम्यग्दृष्टि जीव स्वर्ग से आकर नौ निधि और चौदह रत्नों के स्वामी समस्त भूमि के अधिपति तथा मुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा वन्दित चरण होते हुए सुदर्शन चक्र को वर्ताने में समर्थ होते हैं— चक्रवर्ती होते हैं। सम्यग्दर्शन के द्वारा पदार्थों का ठीक—ठीक निश्चय करने वाले पुरुष अमरेन्द्र, असुरेन्द्र, नरेन्द्र तथा मुनीन्दों के द्वारा स्तुतचरण होते हुए लोक के शरण्यभूत तीर्थंकर होते हैं। ‘सम्यग्दृष्टि जीव अन्त में उस मोक्ष को प्राप्त होते हैं जो जरा से रहित हैं, रोग रहित हैं, जहाँ सुख और विद्या का वैभव चरम सीमा को प्राप्त है तथा जो कर्ममल से रहित है। सम्यग्दर्शन की वास्तविक महिमा यह है कि वह अनन्त संसार को काट कर अर्ध पु. कर देता है अर्थात् अपरिमित संसार की परिमित कर देता है। (ध. पु. ५ पृ. ११) ‘जिनेन्द्र भगवान् में भक्ति रखने वाला—सम्यग्दृष्टि भव्य मनुष्य, अपरिमित महिमा से युक्त इन्द्रसमूह की महिमा को, राजाओं के मस्तक से पूजनीय चक्रवर्ती के चक्ररत्न को और समस्त लोक को नीचा करने वाले धर्मेन्द्रचक्र—तीर्थंकर के धर्मचक्र को प्राप्त कर निर्वाण को प्राप्त होता है।
सम्यग्दर्शन और अनेकान्त— पदार्थ द्रव्यपर्यायात्मक है। अत: उसका निरूपण करने के लिये आचार्यों ने द्रव्र्यािथक नय और पर्यार्यािथक नय इन दो नयों को स्वीकृत किया है। द्रव्र्यािथक नय मुख्य रूप से द्रव्य का निरूपण करता है और पर्यार्यािथक नय मुख्यरूप से पर्याय को विषय करता है। अध्यात्मप्रधान ग्रंथों में निश्चयनय और व्यवहारनय की चर्चा आती है। निश्चयनय गुण—गुणी के भेद से रहित तथा पर के संयोग से शून्य शुद्ध वस्तुतत्त्व को ग्रहण करता है और व्यवहारनयु गुण—गुणी के भेदरूप तथा परके संयोग से उत्पन्न अशुद्धता से युक्त वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन करता है। द्रव्र्यािथक और पर्यार्यािथक तथा निश्चय और व्यवहार नय के विषय परस्पर विरोधी हैं। द्रव्र्यािथकनय पदार्थ को नित्य तथा एक कहता है तो पर्यार्यािथकनय अनित्य तथा अनेक कहता है। निश्चयनय आत्मा को स्वभावरूप तथा अभेदरूप वर्णन करता है तो व्याहारनय विभावरूप पर्यायों का तथा भेदरूप बतलाता है। नयों के इस विरोध को दूर करने वाला अनेकान्त है। विवक्षावश परस्पर विरोधी धर्मों को गौणमुख्यरूप से जो ग्रहण करता है उसे अनेकान्त कहते हैं। सम्यग्दृष्टि मनुष्य इसी अनेकान्त का आश्रय लेकर वस्तु स्वरूप को समझता है और पात्र की योग्यता देखकर दूसरों को समझाता है। सम्यग्दर्शन के होती ही इस जीव की एकान्त दृष्टि समाप्त हो जाती है। क्योंकि निश्चय और व्यवहार के वास्तविक स्वरूप को समझकर दोनों नयों के विषय में मध्यस्थता को ग्रहण करने वाला मनुष्य ही जिनागम में प्रतिपादित वस्तुस्वरूप को अच्छी तरह समझ सकता है। सम्यग्दृष्टि जीव निश्चयाभास, व्यवहाराभास और उभयाभास को समझ कर उन्हें छोड़ता है तथा वास्तविक वस्तुस्वरूप को ग्रहणकर कल्याणपथ में प्रवर्तता है।
सम्यग्दर्शन की अन्तर्दृष्टि— श्री अमृतचन्द्र स्वामी ने कहा है—‘सम्यग्दृष्टिेर्भवति नियतं ज्ञान—वैराग्यशक्ति:’ सम्यग्दृष्टि जीव के नियम से ज्ञान और वैराग्य की शक्ति प्रकट हो जाती है इसलिए वह संसार के कार्य करता हुआ भी अपनी दृष्टि को अन्तर्मुखी रखता है। ‘मैं अनन्त ज्ञान का पुञ्ज, शुद्ध—रागादि के विकास से रहित चेतन द्रव्य हूँ, मुझमें अन्य द्रव्य नहीं हैं, मैं अन्य द्रव्य में नहीं हूँ और आत्मा के अस्तित्व में दिखने वाले रागादिक भाव मेरे स्वभाव नहीं है।’ इस प्रकार स्वरूप की ओर दृष्टि रखने से सम्यग्दृष्टि जीव, अनन्त संसार के कारणभूत बन्ध से बच जाता है। प्रशम—संवेगादि गुणों के प्रकट हो जाने से उसकी कषाय का वेग र्इंधनरहित अग्नि के समान उत्तरोत्तर घटता जाता है। जहाँ तक कि बुराई होने पर उसकी कषाय का संस्कार छह महीने से ज्यादा नहीं चलता। यदि छह माह से अधिक कषाय का संस्कार किसी मनुष्य का चलता है तो उसके अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय है और उसके रहते हुए वह नियम से मिथ्यादृष्टि है ऐसा समझना चाहिये। सम्यग्दृष्टि जीव अपनी वैराग्यशक्ति के कारण सांसारिक कार्य करता हुआ भी जल में रहने वाले कमलपत्र के समान र्नििलप्त रहता है। वह मिथ्यात्व, अन्याय और अभक्ष्य का त्यागी हो जाता है। भय, आशा, स्नेह या लोभ के वशीभूत होकर कभी भी कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरुओं की उपासना नहीं करता। किसी पर स्वयं आक्रमण नहीं करता। हाँ, किसी के द्वारा अपने ऊपर आक्रमण होने पर आत्मरक्षा के लिये युद्ध आदि भी करता है। माँस—मदिरा आदि अभक्ष्य पदार्थों का सेवन नहीं करता। तात्पर्य यह है कि सम्यक््âदृष्टि की चाल—ढाल ही बदल जाती है।
सम्यग्ज्ञान
मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत जीवाजीवादि सात तत्त्वों को संशय विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित जानना सम्यग्ज्ञान है। यह सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन के साथ ही होता है—जिस प्रकार मेघपटल के दूर होने पर सूर्य का प्रताप और प्रकाश एक साथ प्रकट हो जाते हैं उसी प्रकार मिथ्यात्व का आवरण दूर होने पर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ प्रकट हो जाते हैं। यद्यपि ये दोनों एक साथ प्रकट होते हैं फिर भी दीपक और प्रकाश के समान दोनों में कारण कार्यभाव है। अर्थात् सम्यग्उदर्शन कारण है और सम्यग्ज्ञान कार्य है।
यहाँ प्रश्न उठता है कि जब पदार्थ का सम्यग्ज्ञान होगा तभी तो सम्यक श्रद्धा होकर सम्यग्दर्शन हो सकेगा, इसलिए सम्यग्ज्ञान को कारण और सम्यग्दर्शन को कार्य मानना चाहिए ?
उत्तर —यह है कि सम्यग्दर्शन होने के पहले इतना ज्ञान तो होता ही है कि जिसके द्वारा तत्त्वस्वरूप का निर्णय किया जा सके, परन्तु उस ज्ञान में सम्यक्पद का व्यवहार तभी होता है जब सम्यग्दर्शन हो जाता है। पिता और पुत्र साथ—ही—साथ उत्पन्न होते हैं क्योंकि जब तक पुत्र नहीं हो जाता तब तक उस मनुष्य को पिता नहीं कहा जा सकता, पुत्र के होते ही पिता कहलाने लगता है। पुत्र होने के पहले वह, मनुष्य तो था, पर पिता नहीं। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन के होने के पहले ज्ञान तो रहता है पर उसे सम्यग्ज्ञान नहीं कहा जा सकता। सम्यग्ज्ञान का व्यवहार सम्यग्दर्शन के होने पर ही होता है। जिस प्रकार पिता—पुत्र साथ—साथ होने पर भी पिता कारण कहलाता है और पुत्र कार्य, उसी प्रकार साथ—साथ होने पर भी सम्यग्दर्शन कारण और सम्यग्ज्ञान कार्य कहलाता है। यह सम्यग्ज्ञान मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल के भेद से पाँच प्रकार का है। इनमें मति और श्रुत ज्ञान परोक्ष ज्ञान कहलाते हैं क्योंकि उनकी उत्पत्ति इन्द्रियादि परपदार्थों की सहायता से होती है और अवधि, मन:पर्यय तथा केवल ये तीन प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाते हैं क्योंकि इनकी उत्पत्ति इन्द्रियादि परपदार्थों की सहायता से न होकर स्वत: होती हैं। इनमें भी अवधि और मन:पर्ययज्ञान एक देश प्रत्यक्षज्ञान कहलाते हैं क्योंकि सीमित क्षेत्र और सीमित पदार्थों को ही जानते हैं परन्तु केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष कहलाता है क्योंकि वह लोकालोक के समस्त पदार्थों को स्पष्ट जानता है।
मतिज्ञान
जो पाँच इन्द्रियों और मन की सहायता से पदार्थ को जानता है वह मतिज्ञान कहलाता है। इसके मूल में अवग्रह ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद होते हैं। ये चार भेद बहुआदि बारह प्रकार के पदार्थों के होते हैं इसलिये बारह में चार का गुणा करने पर अड़तालीस में छह का गुणा करने पर दो—सौ अट्ठासी भेद होते हैं। अवग्रह के व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह इस प्रकार दो भेद हैं। व्यञ्जनावग्रह—अस्पृष्ट पदार्थ का अवग्रह चक्षु और मन से नहीं होता, इसलिए बहु आदि बारह पदार्थों में चार का गुणा करने पर उसके अड़तालीस भेद होते हैं। अर्थावग्रह के बहत्तर भेद दो—सौ अठासी में र्गिभत हो चुके हैं। उन्हीं दो सौ अठासी में व्यञ्जनावग्रह के अड़तालीस भेद जोड़ देने से मतिज्ञान के कुल भेद तीन सौ छत्तीस होते हैं। मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध—अनुमान आदि मतिज्ञान के ही विशिष्ट रूपान्तर हैं। धवला पुस्तक १३, पृष्ठ २४०-२४१ पर मतिज्ञान के उत्तरभेदों की चर्चा करते हुए कहा गया है— ‘तं जहा ४, २४, २८, ३२ एदे पुव्वुप्पाइदे भंगे दोसु ट्ठाणेसु ट्ठविय छहि बारसेहि य गुणिय पुणरुत्तमवणिय परिवाडीए ट्ठइदे सुत्तपरूविदभंगपमाणं होदि। तं च एदं—४, २४, २८, ३२, ४८, १४४, १६८, १९२, २८८, ३३६, ३८४। जत्तिया मदिणाणवियप्पा तत्तिया चेव आभिविबोहियणाणावरणीयस्स पयडिवियप्पा त्ति वत्तव्वं। इसका भावार्थ विशेषार्थ में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है—यहाँ मतिज्ञान के अवान्तरभेदों का विस्तार के साथ विवेचन किया गया है। मूल में अवग्रह, ईहा, अवाय और धारण ये चार भेद हैं। इन्हें पाँच इन्द्रिय और मन से गुणित करने पर २४ भेद होते हैं। इनमें व्यञ्जनावग्रह के ४ भेद मिलाने पर २८ भेद होते हैं। ये २८ उत्तरभेद हैं, इसलिए इनमें अवग्रह आदि ४ मूलभंग मिलाने पर ३२ भेद होते हैं। ये तो इन्द्रियों और अवग्रह आदि की अलग—अलग विवक्षा से भेद हुए। अब जो बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनि:सृप, अनुक्त और ध्रुव ऐसे ६ प्रकार के पदार्थ तथा इनके प्रतिपक्षभूत ६ इतर पदार्थों को मिलाकर बारह प्रकार के पदार्थ बतलाये हैं उनसे अलग उक्त विकल्पों को गुणित किया जाता है तो सूत्रोक्त मतिज्ञान के सभी विकल्प उत्पन्न होते हैं। यथा—४ ² ६ · २४, २४ ² ६ · १४४, २६ ² -६ · १९२; ४ ² १२ · ४८, २४ ² १२ · २८८, २८ ² १२ · ३३६, ३२ ² १२ · ३८४। उक्त सन्दर्भानुसार विवक्षावश मतिज्ञान के ३८४ भेद भी होते हैं। धवला के इसी सन्दर्भ में अवग्रह के अवग्रह, अवधान, सान, अवलम्बना और मेधा, ईहा के—ईहा, ऊहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा और मीमांसा, अवाय के—अवाय, व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञप्ति, आमुण्डा और प्रत्यामुण्डा तथा धारणा के — धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा ये एकार्थक—पर्यायवाची नाम दिये है। इनका शब्दार्थ धवला से ही ज्ञात करना चाहिये।
श्रुतज्ञान
मतिज्ञान के बाद अस्पष्ट अर्थ की तर्वâणा को लिये हुए जो ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। यह श्रुतज्ञान पर्याय, पर्यायसमास आदि बीस भेदों में क्रम से वृद्धि को प्राप्त होता है। दूसरी शैली से श्रुतज्ञान के अङ्गबाह्य और अङ्गप्रविष्ट की अपेक्षा दो भेद होते हैं। इनमें अङ्गबाह्य के अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्ट के १. आचाराङ्ग २. सूत्रकृतांग, ३. स्थानांग, ४. समवायांग, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ६. धर्मकथांग, ७. उपासकाध्ययनांग, ८. अन्तकृद्दशांग, ९. अनुत्तरौपपादिकदशांग, १०. प्रश्नव्याकरणांग, ११. विपाकसूत्रांग और १२. दृष्टिवादांग ये बारह भेद हैं। इनमें बारहवें दृष्टिवाद अंक के १. परिकर्म, २. सूत्र, ३. प्रथमानुयोग, ४. पूर्वगत और ५. चूलिका इस प्रकार पाँच भेद हैं। परिकर्म के १. चन्द्रप्रज्ञप्ति, २. सूर्यप्रज्ञप्ति, ३. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ४. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति इस प्रकार पाँच भेद हैं। पूर्वगम के १. उत्पाद पूर्व, २. अग्रायणीयपूर्व, ३. वीर्यानुवादपूर्व, ४. अस्तिनास्तिपर्वू, ५. ज्ञानप्रवादपूर्व, ६. सत्यप्रवादपूर्व, ७. आत्मप्रवादपूर्व, ८. कर्मप्रवादपूर्व, ९. प्रत्याख्यानपूर्व, १०. विद्यानुवादपूर्व, ११. कल्याणवादपूर्व, १२. प्राणावादपूर्व, १३. क्रियाविशालपूर्व और १४. त्रिलोकबिन्दुसार ये चौदह भेद हैं। चूलिका के १. जलगता, २. स्थलगता, ३. मायागता, ४. आकाशगता और ५. रूपगता इस प्रकार पाँच भेद हैं। सूत्र और प्रथमानुयोग का एक—एक ही भेद हैं। अङ्गबाह्य के १. सामायिक, २. चर्तुिवशशतिस्तव, ३. वन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५. वैनयिक, ६. कृतिकर्म, ७. दशवैकालिक, ८. उत्तराध्ययन, ९. कल्पव्यवहार, १०. कल्प्याकल्प्य, ११. महाकल्प, १२. पुण्डरीक, १३. महापुण्डरीक और १४. निषिद्धका ये चौदह भेद हैं। इन सबके वर्णनीय विषय तथा पद आदि की संख्या के लिये जीवकाण्ड की श्रुतज्ञान मार्गणा देखना चाहिये। यह श्रुतज्ञान स्वार्थ और परार्थ की अपेक्षा दो प्रकार का है। उनमें पदार्थ श्रुतज्ञान द्रव्र्यािथक, पर्यार्यािथक, नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द समभिरूढ और एवंभूतनय, अर्थनय, शब्दनय, निश्चयनय तथा व्यवहारनय आदि भेदों को लिये हुए अनेक नयरूप है। समन्तभद्रस्वामी ने रत्नकरण्डश्रावकाचार में सम्यग्ज्ञान का अधिक विस्तार न कर मात्र श्रुतज्ञान को मुख्तया देते हुए समस्त शास्त्रों को १. प्रथमानुयोग, २. करणानुयोग, ३. चरणानुयोग और ४. द्रव्यानुयोग के भेद से चार अनुयोगों में विभक्त किया है। मनुष्य, इन चार अनुयोगों का अभ्यास कर अपने श्रुतज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान को पुष्ट कर सकता है। अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान तो तत्तत् आवरणों का अभाव होने पर स्वयं प्रगट हो जाते हैं, उनमें मनुष्य का पुरुषार्थ नहीं चलता। पुरुषार्थ चलता है सिर्फ अनुयोगात्मक श्रुतज्ञान में। अत: आलस्य छोड़कर चारों अनुयोगों का अभ्यास करना चाहिये।
अवधिज्ञान
परपदार्थों की सहायता के बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा लिये हुए रूपी पदार्थों को जो स्पष्ट जाने उसे अवधिज्ञान कहते हैं यह अवधिज्ञान, भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय के भेद से दो प्रकार का होता है। भवप्रत्ययनाम का अवधिज्ञान देव और नारकियों के होता है, मनुष्यों में तीर्थंकरों के भी होता है। सर्वांग से होता है। गुणप्रत्यय अवधिज्ञान पर्याप्त मनुष्य संज्ञी और पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तिर्यञ्चों के होता है। यह नाभि के ऊपर स्थित शंखादि चिह्नों से होता है। इसके अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित इस प्रकार छ: भेद होते हैं। इनकी परिभाषाएँ नामों से स्पष्ट है। भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय—दोनों ही अवधिज्ञानों में अन्तरंग कारण अवधिज्ञानावरणाकर्म का क्षयोपशम है। इनके सिवाय अवधिज्ञान के देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ये तीन भेद और होते हैं। ऊपर कहा हुआ भवप्रत्यय अवधिज्ञान देशावधि के अन्तर्गत होता है। देशावधि चारों गतियों में हो सकता है परन्तु परमावधि और सर्वावधि चरमशरीरी मुनियों के ही होते हैं। देशावधिज्ञान प्रतिपाती है, शेष दो ज्ञान अप्रतिपाती हैं। इन्हें धारण करने वाले मुनि मिथ्यात्व और असंयम अवस्था को प्राप्त नहीं होते। इन तीनों अवधिज्ञानों का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट विषय आगम से जानना चाहिये। गुणप्रत्यय का दूसरा नाम क्षयोपशमनिमित्तक भी है। मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान यदि मिथ्यादर्शन के साथ होते हैं तो मिथ्याज्ञान कहलाते हैं और यदि सम्यग्दर्शन के साथ होते हैं तो सम्यग्ज्ञान कहलाते हैं।
मन:पर्ययज्ञान
इन्द्रियादिक की सहायता के बिना दूसरे के मन में स्थित रूपी पदार्थों को जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा लिये हुए स्पष्ट जानता है उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान मुनियों के ही होता है गृहस्थों के नहीं। इसके दो भेद हैं—एक ऋजुमति और दूसरा विपुलमति। ऋजुमति, सरल मन—वचनकाय—वचन काय से चिन्तित, परके मन में स्थित, रूपी पदार्थ को जानता है और विपुलमति सरल तथा कुटिलरूप मन—वचन काय से चिन्तित परके मन में स्थित रूपी पदार्थ को जानता है। ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति में विशुद्धि अधिक होती है। ऋजुमति सामान्य मुनियों को भी जाता है परन्तु विपुलमति उन्हीं मुनियों के होता है जो उपरितन गुणस्थानों से गिर कर नीचे नहीं आते। तथा तद्भवमोक्षगामी होते हैं। इसमें दोनों भेदों का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट विषय आगमग्रंथों से जानना चाहिये। मन:पर्ययज्ञान ईहामतिज्ञानपूर्वक होता है। इसका अन्तरङ्ग कारण मन:पर्ययज्ञानावरण का क्षयोपशम है।
केवलज्ञान
जो बाह्य पदार्थों की सहायता के बिना लोकालोक के समस्त पदार्थों को उनकी त्रिकाल सम्बन्धी अनन्त पर्यायों के साथ स्पष्ट जानता है उसे केवलज्ञान कहते हैं इसकी उत्पत्ति मोहनीय तथा शेष तीन घातियाकर्मों का क्षय होने पर तेरहवें गुणस्थान में होती है। यह क्षायिक ज्ञान कहलाता है और तद्भवमोक्षगामी मनुष्यों के ही होता है। इसे सकलप्रत्यक्ष भी कहते हैं। यह ज्ञानगुण की सर्वोत्कृष्ट पर्याय है तथा सादि अनन्त है। इसे प्राप्त कर मनुष्य देशोनकोटि वर्ष पूर्व के भीतर नियम से मोक्ष चला जाता है। यह ज्ञान इच्छा के बिना ही पदार्थों को जानता है।
प्रमाण और नय
तत्त्वार्थसूत्रकार ने जीवाजीवादि तत्त्वों तथा सम्यग्दर्शनादि गुणों के जानने के उपायों की चर्चा करते हुए ‘प्रमाणनयैरधिगम:’ इस सूत्र द्वारा प्रमाण और नयों का उल्लेख किया है। जो वस्तु में रहने वाले आस्ति—नास्ति, एक—अनेक, भेद—अभेद आदि समस्त धर्मों को एक साथ ग्रहण करता है उसे प्रमाण कहते हैं और जो उपर्युक्त धर्मों को गौणमुख्य करता हुआ क्रम से ग्रहण करता है उसे नय कहते हैं। प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष की अपेक्षा दो भेद हैं। प्रत्यक्ष भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष के भेद से दो प्रकार का है। अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान ये दो ज्ञान एकदेशप्रत्यक्ष कहलाते हैं और केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष कहलाता है। परोक्ष प्रमाण के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्व, अनुमान और आगम के भेद से पाँच भेद हैं। इन सबके लक्षण अन्य ग्रन्थों से जानना चाहिये। नय के मुख्यरूप से द्रव्यार्थिक और पर्यार्यािथक इस प्रकार दो भेद हैं। द्रव्र्यािथक के नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन भेद हैं और पर्यायार्थिक नय के ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत इस प्रकार चार भेद हैं। अथवा अर्थनय और शब्दनय की अपेक्षानय के दो भेद हैं। नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार अर्थनय हैं और शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत ये तीन शब्दनय हैं।
सम्यक चरित्र
समन्तभद्र स्वामी ने सम्यक् चारित्र प्राप्त होने का क्रम, स्वामी और उद्देश्य का वर्णन करते हुए रत्नकरण्डकश्रावकाचार में कहा है—
मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञान:।
रागद्वेषनिवृत्त्यौ चरणं प्रतिपद्यते साधु:।।
मोह
मिथ्यात्व रूपी अन्धकार का नाश होने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने से जिसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त हो चुका है ऐसा साधु—भव्यजीव, राग—द्वेष को दूर करने के लिए चारित्र को प्राप्त होता है। जिनागम में मिथ्यादृष्टि के ज्ञान और चारित्र की कुछ भी प्रतिष्ठा नहीं है। मिथ्यात्व रूपी अन्धकार के नष्ट होने पर ही इस जीव को स्व—पर का भेदविज्ञान होता है—मैं ज्ञाता द्रष्टास्वभाव वाला चेतन द्रव्य हूँ और मेरे साथ लग रहे भावकर्म, द्रव्यकर्म तथा नोकर्म अचेतन द्रव्य हैं। इस भेद विज्ञान के होने पर ही इस जीव का लक्ष्य अपने स्वभाव तथा उस पर लगे हुए विभाव की ओर जाता है। अहो ! रागद्वेष रूप विभाव अनादि काल से साथ लगकर मेरे वीतराग स्वभाव को दबाये हुए हैं इनके नष्ट करने का मैंने आज तक पुरुषार्थ किया ही नहीं। सच बात तो यह है कि उस मिथ्यात्व रूपी तिमिर में मुझे स्वभाव और विभाव की परख हुई ही नहीं, उनके नष्ट करने का भाव वैâसे होता? परन्तु आज पुण्योदय से वह मिथ्यात्व रूपी अन्धकार नष्ट हो गया है। इसलिये मुझे स्पष्ट रूप से स्वभाव और विभाव की परख हो रही है। अब मैं इस विभाव को अपने शुद्ध चैतन्य से दूर करने का पुरुषार्थ करता हूँ। ऐसा दृढ़ निश्चय कर भद्र पुरुष चारित्र को प्राप्त होता है। लोक में मेरी प्रतिष्ठा बढ़े, ऐसा भाव संसार का ही कारण है। चारित्र धारण करने का मूल प्रयोजन तो रागद्वेष को दूर करना है। उपर्युक्त विचार के उत्पन्न होते ही भव्य जीव संसार शरीर और भोगों से र्नििवघ्ण—उदासीन हो जाता है। वह शास्त्रानुसार बन्धुवर्ग से गृहपरित्याग की आज्ञा प्राप्त करने के लिये पिता, माता, स्त्री तथा पुत्र आदि की आत्मा को सम्बोधित करता हुआ कहता है कि हे पिता आदि की आत्माओ! आप सब के साथ मेरी आत्मा का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। मैं तो अनादि—अनन्त चैतन्यपुञ्ज आत्मा है। मेरा आत्मा आपसे उत्पन्न नहीं हुआ है, अद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिरहं—आज मेरे ज्ञानज्योति प्रकट हुई है उसके दिव्य प्रकाश में मुझे दिख रहा है कि मेरे आत्मद्रव्य का आपके साथ जन्म जनक सम्बन्ध नहीं है। मेरा शरीर की उत्पत्ति आपके शरीर से अवश्य हुई थी परन्तु वह शरीर मेरा है कहाँ ? उसके साथ तो मेरा परत्वभाव ही है। इस तरह बन्धुवर्ग से निर्ममत्व होता हुआ; गुणी, कुल, रूप तथा अवस्था से विशिष्ट सुयोग्य गणी—आचार्य के पास जाकर गदगद कण्ठ से प्रार्थना करता है। हे प्रभो! माँ प्रतीच्छ—हे प्रभो ! मुझे स्वीकृत करो, मैं संसार के इस जन्म मरण से भयभीत हो चुका हूँ, मेरी रक्षा करो। मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं किसी अन्य का नहीं हूँ और न कोई अन्य मेरा है। मैंने अपनी इन इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है। मैं यथाजात—दिगम्बर मुद्रा धारण करना चाहता हूँ। आचार्य की कृपापूर्ण दृष्टि को प्राप्त कर वह उनकी आज्ञानुसार उस जिनलिङ्ग—दिगम्बर वेष को धारण करता है जो तत्कालोत्पन्न बालक के समान निग्र्रन्थ होता है, जिसमें पहिले केशलोच करना पड़ता है, जो सादि पापों से रहित है, जिसमें किसी सजावट की आवश्यकता नहीं है सब प्रकार के आरम्भ और मूच्र्छाभाव—ममत्व परिणाम जिसमें छूट जाते हैं। जो उपयोग और योग सम्बन्धी शुद्धि से सहित है, परकी अपेक्षा से रहित है तथा अपुनर्भव का कारण है—मोक्ष प्राप्ति का परम सहायक है। ‘पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पंचेन्द्रियनिरोध, षडावश्यक, केशलोंच, वस्त्रत्याग, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधावन, स्थिति भोजन और एक बार भोजन इदन अट्ठाईस मूलगुणों को धारण करता है। सप्तम गुणस्थान की भूमिका में पहुँच कर भावलिङ्गी मुनिराज बनकर अप्रमत्त दशा के उस आत्मीक आनन्द का अनुभव करता है जो आज तक उसे प्राप्त हुआ ही नहीं था। आचार्य कहते हैं कि ऐसा भावलिङ्ग इस जीव को बत्तीस बार से अधिक धारण नहीं करना पड़ता। उतने के मध्य ही यह जीव संसार सागर से पार हो जाता है। द्रव्यलिङ्ग धारण करने की कुछ सीमा नियत नही है। उसे यह जीव अनन्त बार धारण करता है परन्तु संसार सागर से पार होने का अवसर नहीं आता। अन्तर्मुहूर्तवाद प्रमाद का उदय आने के कारण सप्तम गुणस्थान की भूमिका से उतर कर छठवें गुणस्थान की भूमिका में आता है परन्तु फिर अपनी अप्रमत्त दशा का चिन्तन कर सप्तम गुणस्थान की भूमिका में प्रवेश करता है। इस प्रकार षष्ठ और सप्तम गुणस्थान की भूमिका में हजारों बार आरोहण और अवरोहण कर कदाचित् यह जीव उपरितन गुणस्थानों में प्रवेश कर उपशम श्रेणी का क्षपश्रेणी मांडता है। उपशम श्रेणी से चढ़कर ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँचता है किन्तु चारित्रमोह का उदय आने के कारण वहाँ से पतन कर नीचे आता है। पुन: पुरुषार्थ करता है और क्षपकश्रेणी का आलम्बन प्राप्त कर दशम गुणस्थान के अन्त में पतन का कारण जो मोह कर्म था उसके अस्तित्व को समाप्त कर छद्मस्थ वीतराग दशा को प्राप्त होता है। वहाँ उस निर्विकल्प यथाख्यात चारित्र को प्राप्त कर स्वरूप में समावेश करता है जिसमें कि ध्यान, ध्याता आदि का कुछ भी विकल्प शेष नहीं रह जाता। शुक्ल ध्यानरूपी अग्नि में घातियाकर्मरूपी र्इंधन को भस्म कर वीतराग सर्वज्ञ दशा को प्राप्त हो जाता है। आचार्य कहते हैं कि वीतराग भाव की अपरम्पार महिमा को देख, उसके प्राप्त होने पर यह आत्मा नियम से अन्तर्मुहूर्त के भीतर सर्वज्ञ दशा को प्राप्त करता है। क्षपक श्रेणी वाला जीव दशम गुणस्थान के बाद बारहवें गुणस्थान में जाता है और वहाँ अन्तर्मुहूर्त रुककर शेष घातिया कर्मों का क्षय कर तेरहवें गुणस्थान में अरहन्त अवस्था प्राप्त करता है। उसके प्राप्त करने पर यदि आयु कर्म के निषेक अधिक है तो अधिक से अधिक आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम एक करोड़ वर्ष पूर्व तक इस मनुष्य शरीर में रहता है उसके बाद नियम से अशरीर अवस्था को प्राप्त होता है। इस प्रकार मोक्ष का साक्षात् कारण सम्यक्चारित्र है इसके बिना मोक्ष प्राप्त होने वाला नहीं। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कर तो यह जीव सागरों पर्यन्त इस संसार में वास करता है परन्तु सम्यक् चारित्र प्राप्त कर अन्तर्मुहूर्त में भी संसार से पार हो जाता है। मोह—मिथ्यात्व और क्षोभ—रागद्वेष से रहित आत्मा की जो निर्मल परिणति है वही चारित्र कहलाती है। इस निर्मल परिणति को प्राप्त करने के लिये सहायक महाव्रतादि के आचरण रूप जो प्रवृत्ति है वह भी उपचार से सम्यक्चारित्र कहलाती है। चरणानुयोग हमें आज्ञा देता है कि हे भव्य! तूं संसार सागर से पार होना चाहता है तो बुद्धिपूर्वक महाव्रतादि के आचरण रूप व्यवहार चारित्र का आलम्बन ले। इसका आलम्बन लेकर ही तू उस र्नििवकल्प निश्चयचारित्र को प्राप्त कर सकता है। इसके बिना उसकी प्राप्ति सम्भव ही नहीं है। यहाँ प्रसंग पाकर व्यवहार चारित्र के अन्तर्गत मुनि के २८ मूल गुणों का कुछ विशद वर्णन किया जाता है—
महाव्रत
हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँच पापों का सर्वदेश त्याग करना महाव्रत कहलाता है इसके निम्न प्रकार पाँच भेद हैं—
१. आहिंसा महाव्रत — त्रस और स्थावर जीवों की संकल्पी, आरम्भी, विरोधी और उद्यमी चारों प्रकार की हिंसा का मन वचन काय और कृत, कारित, अनुमोदना इन नौं कोटियों से त्याग करना अिंहसा महाव्रत है। इस व्रत का धारी, वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, अदाननिक्षेपणसमिति और आलोकितपान भोजन इन पाँच भावनाओं का सदा ध्यान करता है।
२. सत्य महाव्रत — कषाय जन्य असत्य का नौ कोटियों से त्याग करना सत्य महाव्रत है। इस व्रत का धारक मुनि क्रोध, लोभ, भय तथा हास्य के निमित्त से कभी असत्य बोलने का प्रसंग नहीं लाता तथा सदा आगमानुमोदित वचन कहने का विचार रखता है।
३. अचौर्य महाव्रत — अदत्त वस्तु का नौ कोटियों से त्याग करना अचौर्य महाव्रत है। इस व्रत का धारी मनुष्य अपने स्थान पर किसी दूसरे के ठहर जाने पर उसका उपरोध नहीं करता तथा पर्वत की गुहा आदि निर्जन स्थानों में रहने की भावना रखता है।
४. ब्रह्मचर्य महाव्रत — चेतन अचेतन स्त्रियों का मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना से परित्याग करना ब्रह्मचर्य महाव्रत है इस व्रत का धारक जीव स्त्री सम्बन्धी राग को बढ़ाने वाली कलाओं का श्रवण, उनके मनोहर अंग को देखना, कामोत्तेजक, गरिष्ठ आहार पूर्वरतस्मरण तथा शरीरसंस्कार आदि का त्याग करता है। सहस्रों सुरसुन्दरियों के बीच र्नििवकार रहने वाला नग्न—निग्र्रन्थ मुनि ब्रह्मचर्य का महान् आदर्श उपस्थित करता है।
५. अपरिग्रह महाव्रत — मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ तथा हास्यादिक नौ कषाय इन चौदह प्रकार के अन्तरङ्ग परिग्रह, तथा चेतन, अचेतन और उभय के भेद से तीन अथवा क्षेत्र, वस्तु आदि दश प्रकार के परिग्रह का मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना से त्याग करना अपरिग्रह महाव्रत है। इस व्रत का धारी पुरुष तिलतुष मात्र भी परिग्रह अपने पास नहीं रखता और न उसके लेने देने का स्वामित्व स्वीकृत करता है। समिति—‘सम्यगयनं समित:—इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रमाद रहित प्रवृत्ति को संयम कहते हैं। गुप्ति—मन वचन काय का सम्यक् प्रकार से निरोध करना उत्कृष्ट संयम है परन्तु उसका पालन करना सरल नहीं है अत: प्रवृत्ति करना पड़ती है ? मनुष्य को गमन, वचन, भोजन, वस्तुओं का रखना उठाना तथा मलोत्सर्ग, ये पाँच काम करना पड़ते हैं इनमें सावधानी बरतने से निम्नलिखित पाँच समितियाँ होती है।
१. ईर्या समिति — दिन में जब मार्ग चालू हो जावे तब चार हाथ भूमि अच्छी तरह देखकर गमन करना ईर्या समिति है। जो मुनि ईया समिति से नहीं चलते वे आहिंसा महाव्रत का भी पालन नहीं करते हैं।
२. भाषा समिति — हित मित प्रिय—प्रामाणिक वचन बोलना भाषा समिति है।
३. एषण समिति — दिन में एक बार शुद्ध—छ्यालीस दोष और बत्तीस अन्तराय रहित आहार ग्रहण करना एषणा समिति है।
४. आदान निक्षेपण समिति — पांख की पीछी, कमण्डलु तथा शास्त्रों को देखभाल कर उठाना रखना तथा बन्द करना आदान निक्षेपण समिति है।
५. उत्सर्ग समिति — जन्तु रहित स्थान में मल मूत्र आदि छोड़ना उत्सर्ग समिति है।
इन्द्रिय दमन
इन्द्रिय सम्बन्धी विषयों से राग द्वेष नहीं करना इन्द्रिय दमन है। इसके निम्नांज्र्ति पाँच भेद हैं—
१. स्पर्शनेन्द्रियदमन — शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, कोमल, कड़ा, लघु तथा गुरु इन आठ प्रकार के स्पर्शों में रागद्वेष नहीं करना स्पर्शनेन्द्रिय दमन है।
२. रसनेन्द्रियदमन — खट्टा, मीठा, कडवा, कषायला और चरपरा इन पाँच अथवा घी, दूध, दही, गुड़, तेल और नमक इन छह रसों में रागद्वेष नहीं करना रसनेन्द्रिय दमन है।
३. घ्राणेन्द्रियदमन — सुगन्ध और दुर्गन्ध में हर्ष विवाद नहीं करना घ्राणेन्द्रिदमन है।
४. चक्षुरिन्द्रियदमन — काला, पीला, नीला, लाल, सपेद इन पाँच मूल वर्णों तथा इनके संयोग से बनने वाले अनेक वर्णों में रागद्वेष नहीं करना चक्षुरिन्द्रिय दमन है।
५. श्रवणेन्द्रियदमन-निषाद, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, मध्यम, धैवत और पञ्चम इन सात प्रकार के स्वरों में अथवा स्तुति और निन्दा विषयक शब्दों में रागद्वेष नहीं करना श्रवणेन्द्रियदमन है।
आवश्यक
अवश—मुनि के करने योग्य अथवा अवश्य अनिवार्य रूप से कराने योग्य कार्यों को आवश्यक कहते हैं। मुनि के लिये प्रतिदिन निम्नाज्र्ति छह आवश्यक अवश्य ही करने के योग्य है।
१. समता — सब जीवों अथवा इष्ट अनिष्ट वस्तुओं में मध्यस्थभाव रखना समता है।
२. स्तुति — चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन करना स्तुति है।
३. वन्दना — किसी एक तीर्थंकर की प्रमुखरूप से वन्दना करना, वन्दना है।
४. प्रतिक्रमण —दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक तथा साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण करना प्रतिकमण कहलाता है। सूर्योदय के समय रात्रिक और सूर्यास्त के पूर्व दैवसिक प्रतिक्रमण किया जाता है। प्रतिक्रमण में लगे हुए दोषों पर पर्यालोचन किया जाता है।
५. स्वाध्याय — अकाल को छोड़कर विधिपूर्वक शास्त्र पढ़ना, सुनना, चिन्तन करना तथा दूसरे से चर्चा करना स्वाध्याय है। ६. कायोत्सर्ग — सामायिक, स्वाध्याय तथा शरीर सम्बन्धी क्रियाओं के आदि अन्त में होने वाले कायोत्सर्ग को प्रमादरहित होकर करना कायोत्सर्ग है।
६ कायोत्सर्ग — सामायिक, स्वाध्याय तथा शरीर सम्बन्धी क्रियाओं के आदि अन्त में होने वाले कायोत्सर्ग को प्रमादरहित होकर करना कायोत्सर्ग है।
१ केशलोंच —जघन्य २ माह, मध्यम ३ माह और उत्कृष्ट ४ माह में दाढ़ी मूंछ और शिर के केशों का लोंच करना केशलोंच नाम का मूलगुण है।
१ आचेलक्य — सर्वथा नग्न दिगम्बर मुद्रा में रहना तथा शीत ऋतु आदि के समय भी किसी प्रकार के वस्त्र को धारण नहीं करना आचेलक्य मूलगुण है।
१ अस्नान — जीव हिंसा से बचने तथा शरीर सम्बन्धी विराग की बढ़ाने के उद्देश्य से जीवन पर्यन्त के लिये स्नान का त्याग करना अस्नान मूलगुण है।
१ भूमिशयन — पृथिवी पर अथवा पलाल के संस्तर पर पिछली रात्रि में शयन करना भूमिशयन मूलगुण है।
१ अदन्तधावन — दातौन नहीं करना अदन्तधावन गुण है। १ स्थिति भोजन — खड़े खड़े पाणिपात्र आहार करना स्थिति भोजन कहलाता है।
१ एक भक्त — दिन में एक बार ही आहार करना एक भक्त है। इस प्रकार पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियदमन, छह आवश्यक तथा केशलोंच आदि शेष सात गुण—सब मिलाकर २८ मूल गुण होते हैं। मुनि को इनका पालन करना अनिवार्य है। जो मुनि इन २८ मूलगुणों में बुद्धिपूर्वक दोष लगाते हैं वे चरणानुयोग की अवहेलना करते हैं अत: वन्दनीय नहीं है।
चौरासी लाख उत्तर गुण
यहाँ प्रसङ्गोपात्त मुनियों के चौरासी लाख उत्तर गुणों का दिग्दर्शन करना भी अपेक्षित जान पड़ता है— १ हिंसा २ असत्य ३ चोरी ४ मैथुन ५ परिग्रह ६ क्रोध ७ मान ८ माया ९ लोभ १० जुगुप्सा ११ भय १२ अरति १३ रति १४ मनोदुष्टता १५ वचन दुष्टता १६ कायदुष्टता १७ मिथ्यात्व १८ प्रमाद १९ पिशुनता २० अज्ञान और इन्द्रियानिग्रह ये इक्कीस दोष छोड़ने के योग्य हैं। इनकी अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार इन चार दोषों द्वारा प्रवृत्ति होती है अत: इक्कीस में चार का गुणा करने पर चौरासी होते हैं। उपर्युक्त चौरासी दोष दशकाय सम्बन्धी दश असंयमों से होते हैं अत: ८४ में १०० का गुणा करने पर चौरासी सौ भेद होते हैं। उनमें शील की दश विराधनाओं का गुण करने पर चौरासी हजार भेद होते हैं। इनमें आकम्पित आदि आलोचना के दश दोषों का गुणा करने पर आठ लाख चालीस हजार भेद होते हैं। इनमें उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों का गुणा करने पर चौरासी लाख भेद होते हैं। सामान्य मुनियों से इनका पूर्ण पालन नहीं होता परन्तु उनके पालन करने की श्रद्धा अवश्य रखते हैं। एषणा समिति का पालन करने के लिये मुनि को आहार सम्बन्धी ४६ दोषों का परिहार करना आवश्यक है। सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादन दोष, दश एषण दोष और चार संयोजन, अप्रमाण, अंगार तथा धूम दोष, सब मिलाकर ४६ दोष होते हैं। सोलह उद्गम दोष इस प्रकार है—१ उद्दिष्ट २ अध्यवधि ३ पूति ४ मिश्र ५ स्थापित ६ बलि ७ प्राभृत ८ प्राविष्कृत ९ क्रीत १० प्राभृष्य ११ परिवर्त १२ अभिहृत १३ उद्भिव १४ मालिकारोहण १५ आच्छेद्य और १६ अनिसृष्ट। इनका स्वरूप इस भाँति है—
१. उद्दिष्ट — जो आहार संयतो अथवा पाषण्डियों को उद्दिष्ट कर बनाया गया है वह उद्दिष्टाहार है।
२. अध्यधि — तैयार होते हुए भोजन में मुनि के पहुँचने पर और अधिक चाँवल तथा जल डाल कर जो भोजन तैयार किया जाता है वह अध्यधि दोष कहलाता है। अथवा जब तक भोजन बन कर तैयार नहीं हो जाता तब तक मुनि को उच्चासन पर ही रोके रखना अध्यधि दोष है।
३. पूतिदोष — मिथ्यादृष्टि पड़ौसी, कांसे आदि ेस र्नििमत जिन पात्रों में भोजन रखकर मिथ्या गुरुओं को दिया करते हैं उन्हीं पात्रों को पड़ौसी के यहाँ से लेकर उनमें आहार रख मुनियों को देना पूति दोष कहलाता है।
४. मिश्रदोष —जो आहार अप्रासुक आहार से मिला हो वह मिश्र दोष से दूषित है जैसे अधिक गर्म जल को शीतल जल के साथ मिलाकर पीने के योग्य बनाना।
५. स्थापित दोष — पकाने के बर्तन से निकाल कर जो अन्न, अन्य बर्तन में रखा जाता है और शोधने के लिये तीसरे बर्तन में रखा जाता है वह स्थापित दोष से दूषित है। पकाने के बर्तन से निकाल कर सीधा उस बर्तन में रखना जिसमें से मुनि के लिये आहार दिया जा रहा हो उचित है अन्यथा स्थापित दोष होता है।
६. बलि — यक्ष आदि को देने के लिये जो अन्न निकाल कर रक्खा है वह बलि कहलाता है ऐसा अन्न मुनियों के लिये अयोग्य है।
७. प्राभृत — मैं अमुक समय, अमुक दिन अथवा अमुक मास में मुनि के लिये आहार दूंगा इस प्रकार के नियम से दिया हुआ आहार प्राभृत दोष से दूषित है।
८. प्राविष्कृत — ‘भगवन् ! यह मेरा घर है’ इस प्रकार गृहस्थ द्वारा जिसमें अपने घर का प्रकाश प्रकटीकरण किया जाता है। वह प्राविष्कृत दोष है।
९. क्रीत — नृत्यगान आदि विद्या अथवा वस्त्र या बर्तन आदि के द्वारा तैयार आहार खरीद कर देना क्रीत दोष है।
१०. प्रामृष्य — ऋण लेकर जो आहार तैयार किया जाता है वह प्रामृष्य दोष से दूषित है।
११. परिवत्र्त —अपने मोटे चाँवल देकर बले में लिये हुए महीन चाँवल आदि से र्नििमत आहार परिवर्त दोष से दूषित कहलाता है।
१२. अभिहत — दूसरे गाँव, मोहल्ला अथवा घर से लाया हुआ आहार अभिहत कहलाता है।
१३. उद्भिन्न — जो आहार उघड़ा पड़ा हो वह उद्भिन्न कहलाता है।
१४. मालारोहण —जो वस्तु आहार के समय ऊपर अटारी आदि पर चढ़कर नीचे लाई गई हो वह मालारोहण दोष से दूषित है जैसे नीचे की भूमि में आहार हो रहा हो आवश्यकता देख ऊपर जाकर घी आदि निकाल लाना। इस तरह से लाई हुई वस्तु मुनि के योग्य नहीं है।
१५. आच्छेद्य — राजा अथवा चोर आदि के भय से जो वस्तु छिपाकर दी जाती है वह आच्छेद्य कहलाती है।
१६. अनिसृष्ट — घर के स्वामी अथवा अन्य सदस्यों की सम्मति के बिना जो आहार दिया जाता है वह अनिसृष्ट कहलाता है। ये सोलह दोष आहार—देय पदार्थ से सम्बद्ध हैं तथा श्रावक के आश्रित है अर्थात् इनका दायित्व श्रावक के ऊपर है।
सोलह उत्पादन दोषों के नाम इस प्रकार है—१ धात्रीवृत्ति २ दूतत्व ३ भिषग्वृत्ति ४ निमित्त ५ इच्छा विभाषण ६ पूर्व स्तुति ७ पश्चात् स्तुति ८—९—१०—११ क्रोधादि चतुष्क, १२ वश्यकर्म १३ स्वगुणस्तवन १४ विद्योपजीवन १५ मन्त्रोपजीवन और १६ चूर्णोपजीवन।
इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
१. धात्रीवृत्ति — बालकों के लालन पालन तथा शिक्षा आदि के द्वारा गृहस्थों को प्रभावित कर जो आहार प्राप्त किया जाता है वह धात्रीत्व दोष है।
२. दूतत्व —दूरवर्ती बन्धुजनों अथवा सम्बन्धियों के सन्देश वचन ले जाना अथवा ले आना, और इस विधि से गृहस्थों को प्रभावित कर आहार प्राप्त करना दूतत्व दोष है।
३. भिषग्वृत्ति —गजचिकित्सा, विषचिकित्सा, झाड़ना फूकना आदि बालचिकित्सा तथा इसी प्रकार की अन्य चिकित्साओं से गृहस्थों को प्रभावित कर आहार प्राप्त करना भिषग्वृत्ति है।
४. निमित्त —स्वर, अन्तरिक्ष (ज्योतिष) भौम, अङ्ग, व्यञ्जन, छित्र, लक्षण और स्वप्न इन अष्टाङ्गनिमित्तों से गृहस्थों को आकृष्ट कर आहार प्राप्त करना निमित्त दोष है।
५. इच्छा विभाषण — गृहस्थ की इच्छानुकूलभाषण कर जो आहार प्राप्त किया जाता है वह इच्छाविभाषण दोष है।
६. पूर्व स्तुति — आहार के पूर्व गृहस्थ की स्तुति करना कि आप बड़े दोनी हैं धर्मात्मा है आदि, पूर्वस्तुति दोष है।
७. पश्चात् स्तुति — आहार के पश्चात् दातार की प्रशंसा करना कि ऐसे ही लोगों से धर्म का मार्ग चलता है आदि पश्चात् स्तुति है।
८—९—१०—११—क्रोधादि चतुष्क — क्रोध, मान, माया अथवा लोभ दिखाकर आहार प्राप्त करना क्रोधादि चतुष्क है।
१२. वश्यकर्म — वशीकरण के मन्त्र तन्त्र आदि के उपदेश द्वारा गृहस्थ को प्रभावित कर जो आहार प्राप्त किया जाता है वह वश्यकर्म है।
१३. स्वगुणस्तवन — अपना तप, शास्त्रज्ञान, जाति तथा कुल आदि का वर्णन कर जो आहार प्राप्त किया जाता है वह स्वगुणस्तवन है।
१४. विद्योपजीवन — स्वयं सिद्ध अथवा अनुष्ठान के द्वारा सिद्ध की हुई अपनी विद्याओं का प्रदर्शन कर जो आहार प्राप्त किया जाता है वह विद्योपजीवन दोष है।
१५. मन्त्रोपजीवन —गृहस्थों को नाना प्रकार के मन्त्र तन्त्र सिखा कर जो आहार प्राप्त किया जाता है वह मन्त्रोपजीवन है।
१६. चूर्णोपजीवन — चूर्ण आदि बनाने का उपदेश देना चूर्णोपजीवन है। ये सोलह दोष आहार प्राप्त करने के उपायों से सम्बन्ध हैं और मुनि के आश्रित है अर्थात् इनका दायित्व मुनि पर निर्भर है। एषणा सम्बन्धी दश दोष इस प्रकार हैं— १ शज्र्ति २ ग्रक्षित ३ निक्षिप्त ४ पिहित ५ उज्झित ६ व्यवहार ७ दातृ ८ मिश्र ९ अपक्व १० लिप्त। इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है—
१ शज्र्ति — ‘यह अन्न सेवन करने योग्य है अथवा अयोग्य है’ ऐसी शज्र जिसमें हो गई हो वह शज्र्ति नाम का दोष है।
२ म्रक्षित — चिकने हाथ अथवा पात्र आदि से जो आहार दिया जाता है वह भ्राक्षित दोष है।
३ निक्षिप्त — सचित्त कमल पत्र आदि पर रखकर जो आहार दिया जाता है वह निक्षिप्त दोष है।
४ पिहित —सचित्त कमल पत्र आदि से ढककर जो आहार दिया जाता है वह पिहित दोष है।
५ उज्झित — ऐसा आहार जिसका कि बहुत भाग गिर जाता है और थोड़ा भाग ग्रहण में आता है उज्झित दोष से दूषित है।
६ व्यवहार — मुनियों के आ जाने से उत्पन्न सम्भ्रम—हड़बड़ाहट अथवा आहार की अधिकता से वस्त्र तथा बर्तन आदि को बिना देखे जल्दी घसीटना व्यवहार नाम का दोष है।
७ दातृ — ऐसा दाता दान देने का अधिकारी नहीं है—जो निर्वस्त्र हो, अथवा एक वस्त्र का धारक हो, मद्यपायी हो, पिशाच की बाधा से पीड़ित हो, अन्ध हो, जाति का पतित हो, मृतक की शव यात्रा में गया हो, तीव्ररोगी हो, जिसे कोई घाव हो रहा हो, कुिंलगी—मिथ्या साधु का वेष रखे हो, जहाँ मुनि खड़े हों उससे बहुत नीचे अथवा ऊँचाई पर खड़ा हो, आसन्न् गर्भिणी हो, प्रसूता हो, वेश्या हो, दासी हो, परदे के भीतर छिपकर खड़ी हो, मूत्र आदि की बाधा से निवृत्त होकर जिसने शुद्धि नहीं की हो तथा अभक्ष्य भक्षण करने वाली हो। इन अयोग्य दाताओं के द्वारा दिया हुआ दान दातृ दोष से दूषित है।
८ मिश्र —जिस आहार में छह काय के जीव मिल गये हों उसे मिश्र कहते हैं।
९ अपक्व — जो आहार अच्छी तरह पका न हो उसे लेना अपक्व दोष है।
१० लिप्त — घी आदि से लिप्त चम्मच आदि के द्वारा जो आहार दिया जाता है वह लिप्त दोष से दूषित है।
चार अतिरिक्त दोष इस प्रकार है
१ संयोजना — स्वाद के निमित्त भोजन को जो एक दूसरे के साथ मिलाया जाता है वह संयोजना नाम का दोष है जैसे शीत वस्तु में उष्ण तथा उष्ण में शीत वस्तु का मिलाना। यह संयोजन अनेक रोग तथा असंयम का स्थान है।
२ अप्रमाण —प्रमाण का उल्लंघन कर गृध्रतावश अधिक आहार ग्रहण करना अप्रमाण दोष है।
३ अङ्गार — इष्ट अन्न पान के मिलने पर रागभाव से सेवन करना अंगार दोष है।
४ धूम — अनिष्ट आन पान के मिलने पर द्वेष भाव से सेवन करना धूम दोष है। एषणा समिति की रक्षा के लिये जिस प्रकार उपर्युक्त ४६ दोष टाले जाते हैं उसी प्रकार निम्नलिखित अन्तरायों का भी बचाव किया जाता है— ‘आहार करते समय गीले पीव हड्डी मांस रक्त चमड़ा तथा विष्ठा आदि पदार्थ देखने में आ जावे, शरीर पर कौआ आदि पक्षी बीट कर दे, अपने आपको वमन हो जावे, कोई आहार करने से रोक दे, दु:ख के कारण अश्रुपात हो जावे, हाथ से ग्रास गिर जावे, कौवा आदि पक्षी झपट कर हाथ से ग्रास उठा ले जावे, आहार करने वाला दुर्बलता से गिर पड़े, छोड़ी हुई वस्तु सेवन में आ जावे, मुनि के पैरों के बीच से कोई पंचेन्द्रिय जीव निकल जावे, अपने उदर से कृमि, विष्ठा, मूत्र, रक्त तथा पीव आदि निकल आवे, थूंक देना, डाढ़ों वाले कुत्ता आदि प्राणि काट खावे, दुर्बलता के कारण बैठ जाना पड़े, हाथ अथवा मुख में किसी मृत जन्तु हड्डी, नख अथवा रोम आदि दिख जावे, कोई किसी को मार दे, गाँव में आग लग जावे, अशुभ कठोर अथवा घृणित शब्द सुनने में आवें, उपसर्ग आ जावे, दाता के हाथ से पात्र गिर जावे, अयोग्य मनुष्य के घर प्रवेश हो जावे, और घुटने से नीचे के भाग का स्पर्श हो जावे…….इत्यादि अनेक अन्तराय माने गये हैं। इन अन्तरायों में कितने ही अन्तराय लोक रीति से उत्पन्न होते हैं जैसे ग्राम दाह आदि। यदि इस समय मुनि आहार नहीं छोड़ते हैं तो लोक में अपवाद हो सकता है कि देखों गाँव के लोग विपत्ति में पड़े हैं और ये भोजन किये जा रहे हैं। कुछ संयम की अपेक्षा होते हैं जैसे जीव जन्तुओं का निकलना आदि। कुछ वैराग्य के कारण होते हैं जैसे साधु का गिर पड़ना आदि। इस समय साधु सोचते हैं कि देखो यह शरीर इतना अशक्त हो गया कि स्ववश खड़ा रहा नहीं जाता और मैं आहार किये जा रहा हूँ। कुछ अन्तराय जुगुप्सा—ग्लानि की अपेक्षा होते हैं जैसे पेट से कृमि तथा मलमूत्र के निकलने पर ग्लानि का भाव होता है। और कितने ही अन्तराय संसार के भय से उत्पन्न होते हैं जैसे काक आदि पक्षियों के द्वारा हाथ का ग्रास झपट ले जाना। इस समय साधु विचार करते हैं कि देखो, संसार कितना दु:खमय है जहाँ क्षुधा से पीड़ित हुए जन्तु आहार की घात में निरत्न लीन रहते हैं। यह सकल चारित्र का वर्णन है जिसके धारण करने के अधिकारी मुनि हैं अब प्रसंग वश देखचारित्र के ऊपर भी थोड़ा प्रकाश डाला जाता है जिसके धारण करने के अधिकारी गृहस्थ है।
देशचारित्र
हिसादि पाँच पापों का स्थूलरूप से त्याग करना देशचारित्र है करणानुयोग की दृष्टि में यह अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ के अनुदय में होता है। इसके पूर्व इस जीव के मिथ्यात्व, सम्यङ्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम होने से सम्यग्दर्शन प्राप्त हो चुकता है। देशचारित्र के पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत के भेद से बारह भेद होते हैं। पाँच अणुव्रत निम्न प्रकार हैं—
१ आहिंसाणुव्रत— त्रस जीवों की संकल्पीहिंसा का त्याग करना तथा स्थावर जीवों के निरर्थक घात से दूर रहना अिंहसाणुव्रत है। अहिंसाणुव्रत का धारक श्रावक त्रस जीवों की आरम्भी, विरोधी, और उद्यमीहिंसा का त्याग नहीं कर पाता है।
२ सत्याणुव्रत — लोक में जो असत्य के नाम से प्रसिद्ध है ऐसे स्थूल असत्य का त्याग करना सत्याणु व्रत है।
३ अचौर्याणुव्रत — सार्वजनिक उपयोग के लिये निर्मुक्त जल और मिट्टी के सिवाय अन्य अदत्त वस्तुओं के ग्रहण का त्याग करना अचौर्याणुव्रत है।
४ ब्रह्मचर्याणुव्रत — जिसके साथ धर्मानुकूल विवाह हुआ है ऐसी स्वस्त्री को छोड़कर अन्य स्त्रियों का त्याग करना ब्रह्मचर्याणुव्रत है।
५ परिग्रहपरिमाणाणुव्रत — आवश्यकतानुसार परिग्रह का परिमाण करना परिग्रहपरिमाणाणुव्रत है।
गुणव्रत
जो अणुव्रतों का उपकार करे उसे गुणव्रत कहते हैं। उमास्वामीमहाराज के निर्देशानुसार गुणव्रत के तीन भेद निम्न प्रकार हैं।
१ दिग्व्रत — जीवन पर्यन्त के लिये दशों दिशाओं में आने जाने की सीमा निश्चित करना दिग्व्रत है।
२ देशव्रत — दिग्व्रत में की हुई विस्तृत सीमा को समय की अवधि लेकर संकोचित करना देशव्रत है।
३ अनर्थदण्डव्रत — निरर्थक कार्यों का त्याग करना अनर्थदण्डव्रत है। इसके पापोपदेश,हिंसादान, दु:श्रुति, अपध्यान और प्रमादचर्या इन पाँच निरर्थक कार्यों का त्याग करने से पाँच भेद होते हैं। समन्तभद्रस्वामी ने दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाणाव्रत इन तीन को गुणव्रत माना है। यहाँ समन्तभद्र स्वामी का ऐसा अभिप्राय जान पड़ता है कि भोगोपभोग की वस्तुओं का परिमाण करने से परिग्रहपरिमाणाणव्रत की रक्षा होती है इसलिये इसे गुणव्रत में सम्मिलित करना चाहिये। जो वस्तु एक बार भोगने में आवे उसे भोग कहते हैं। जैसे भोजनादि और जो बार बार भोगने में आवे उसे उपभोग कहते हैं जैसे वस्त्र आदि। अपनी आवश्यकतानुसार भोग और उपभोग की वस्तुओं का यम अथवा नियम रूप से परिमाण करना भोगोपभोग परिमाणाव्रत है। जीवन पर्यन्त के लिये किसी वस्तु का त्याग करना यम है तथा समय की मर्यादा लेकर त्याग करना नियम है।
शिक्षाव्रत
जिनसे मुनिव्रत की शिक्षा मिले उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं। उनकी संख्या चार है इस विषय में सर्वं आचार्य सहमत हैं परन्तु उनके नाम निर्धारण में विभिन्न मत हैं। सर्वप्रथम कुन्दकुन्दाचार्य ने १ सामायिक, प्रोषध, ३ अतिभिपूजा और ४ सल्लेखना इन चार को शिक्षाव्रत माना है। तत्पश्चात् उपमास्वामी ने. १ सामायिक, २ प्रोषधोपवास, ३ भोगोपभोगपरिमाण और ४ अतिथिसंविभाग, इन चार की शिक्षाव्रत कहा है। इनके अनन्तर समन्तभद्रस्वामी ने १ देशावकाशिक, २ सामायिक, ३ प्रोषधोपवास और ४ वैयावृत्य, इन चार की शिक्षाव्रतों में परिगणित किया है। आचार्य वसुनन्दी ने १ भोगपरिमाण, २ उपभोगपरिमाण, ३ अतिथिसंविभाग और ४ सल्लेखना इन चार को शिक्षाव्रत माना है। यतश्च सामायिक और प्रोषध को तृतीय और चतुर्थ प्रतिमा का रूप दिया गया है, इसलिये वसुनन्दी ने उन्हें शिक्षाव्रतों में शामिल नहीं किया है। कुन्दकुन्दस्वामी ने देशावकाशिक का वर्णन गुणव्रतों में किया है। इसी प्रकार समन्तभद्रस्वामी ने भोगोपभोग परिमाणव्रत को भी गुणव्रतों में शामिल किया है। कुन्दकुन्द स्वामी की सल्लेखना को शिक्षाव्रत मानने सम्बन्धी मान्यता अन्य आचार्यों को संमत नहीं हुई क्योंकि सल्लेखना मरण काल में ही धारण की जा सकती है और शिक्षाव्रत सदा धारण किया जाता है। इसी दृष्टि से अन्य आचार्यों ने सल्लेखना का वर्णन बारह व्रतों के अतिरिक्त किया है। इसके स्थान पर उमास्वामी ने अतिथिसंविभाग और समन्तभद्र ने वैयावृत्य अतिथिसंविभाग व्रत का ही विस्तृत रूप है। कुन्दकुन्द स्वामी ने सल्लेखना को जो शिक्षाव्रत में सम्मिलित किया है इसमें उनका अभिप्राय सल्लेखना को भावना से जान पड़ता है अर्थात् शिक्षाव्रत में सदा ऐसी भावना रखनी चाहिये कि मैं जीवनान्त में सल्लेखना से मरण करूं। ऐसी भावना सदा रक्खी जा सकती है। सामायिक आदि का स्वरूप इस प्रकार है—
सामायिक शिक्षाव्रत — प्रतिदिन प्रात: सायं और मध्याह्न में कम से कम दो घड़ी तक समता भाव से सामायिक करना सामायिक शिक्षाव्रत है।
प्रोषधोपवास —प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को उपवास, अनुपवास अथवा एकाशन करना प्रोषधोपवास है।
भोगोपभोगपरिमाण — शक्ति अनुसार भोग और उपभोग की वस्तुओं की सीमा निश्चित कर अधिक का त्याग करना भोगोपभोग परिमाणव्रत है।
अतिथिसंविभागव्रत — सत्पात्र के लिये चार प्रकार का दान देना अतिथिसंविभाव्रत है।
ग्यारह प्रतिमाएँ
प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय की हीनाधिकता के कारण देशचारित्र, निम्नाज्र्ति ११ प्रतिमाओं में विभक्त होता है—१ दर्शन, २ व्रत, ३ सामायिक, ४ प्रोषध, ५ सचित्तत्याग, ६ रात्रिभुक्तित्याग, ७ ब्रह्मचर्य, ८ आरम्भत्याग, ९ परिग्रहत्याग, १० अनुमतित्याग और ११ उद्दिषृत्याग। इनका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है—
१ दर्शनप्रतिमा — सम्यग्दर्शन के साथ आठ मूलगुण धारण करना तथा सात व्यसनों का त्याग करना दर्शन प्रतिमा है।
२ व्रतप्रतिमा —पाँच अणुव्रत, तीनगुणव्रत और चार शिक्षा व्रत, इस प्रकार बारह व्रतों का धारण करना व्रत प्रतिमा है।
३ सामायिकप्रतिमा —प्रतिदिन तीनों संध्याओं में विधिपूर्वक सामायिक करना सामायिक प्रमिता है।
४ प्रोषधप्रतिमा — प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को उपवास करना प्रोषध प्रतिमा है।
५ सचित्तत्यागप्रतिमा — सचित्त वस्तुओं के सेवन का त्याग करना सचित्तत्यागप्रतिमा है।
६ रात्रिभुक्तित्यागप्रतिमा — मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना से रात्रिभोजन का त्याग करना रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमा है। अथवा इस प्रतिमा का दूसरा नाम दिवामैथुन त्याग भी है जिसका अर्थ है नव कोटियों से दिन में मैथुन का त्याग करना।
७ ब्रह्मत्यागप्रतिमा — स्त्री मात्र का परित्याग कर ब्रह्मचर्य से जीवन व्यतीत करना ब्रह्मचर्य प्रतिमा है।
८ आरम्भत्यागप्रतिमा — व्यापार आदि आरम्भ का त्याग करना आरम्भ त्याग प्रतिमा है।
९ परिग्रहत्यागप्रतिमा — निर्वाह के योग्य वस्त्र तथा बर्तन रखकर समस्त परिग्रह का स्वामित्व छोड़ना परिग्रहत्यागप्रतिमा है।
१० अनुमति त्याग प्रतिमा — व्यापार आदि लौकिक कार्यों की अनुमति का त्याग करना अनुमति त्याग प्रतिमा है।
११ उद्दिष्ट त्यागप्रतिमा — अपने निमित्त से बनाये हुए आहार का त्याग करना उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा है। इस प्रतिमा धारी के ऐलक और क्षुल्लक के भेद से दो भेद हैं। ऐसलक, मात्र एक लंगोट रखते हैं तथा क्षुल्ल्क लंगोट के अतिरिक्त एक छोटी चादर भी रखते हैं। क्षुल्ल्क, पात्र में भोजन करते हैं और ऐलक, बैठकर हाथ में भोजन करते हैं।
व्यवहार सम्यक् चारित्र
उपर्युक्त सकल चारित्र और देशचारित्र व्यवहार चारित्र में र्गिभत है। इनमें सकल चारित्र संयम और देशचारित्र संयमासंयम कहलाता है। अन्य दृष्टि से संयम के सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार—विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात ये पाँच भेद होते हैं।
निश्चय चारित्र
रागद्वेष जनित चञ्चलता के समाप्त हो जाने से आत्मस्वरूप में जो स्थिरता होती है उसे निश्चय चारित्र कहते हैं। यह निश्चय चारित्र साध्य है और व्यवहार चारित्र साधन है। जो व्यवहार चारित्र, निश्चय चारित्र की प्राप्ति में सहायक नहीं है वह नाम मात्र का चारित्र है उससे यथार्थ लाभ नहीं होता। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की पूर्णता ही मोक्ष का साक्षात् मार्ग है।