(गणिनी ज्ञानमती माताजी की आत्मकथा)
जब सात-आठ वर्ष की मेरी अवस्था होगी, घर के बाहर प्रांगण में सभी लड़कियाँ सायंकाल में खेलने आ जातीं। उस समय मैं भी बाहर खेलने के लिए जाना चाहती।
माँ से आज्ञा माँगती, तब वे कहतीं-‘‘खेल-कूद कर क्या करना? देखो! यह काम कर लो, यह कर लो, जल्दी निपटकर अभी मन्दिर चलूँगी, वहाँ आरती करूँगी और शास्त्र सुनूँगी।’’
मैं कभी-कभी मन मारकर रह जाती और कभी खुश भी हो जाती। सायंकाल खेल में न जाकर थोड़ी देर बाद माँ के साथ मन्दिर जाती , आरती करती पुनः शास्त्र सुनने बैठ जाती।
उस समय मंदिर में कोई पण्डित शास्त्र बाँचते थे या कभी गाँव के ही कोई बड़े पुरुष बाँचते थे।
मैं प्रौढ़ महिलाओं के बीच में बैठ जाती। कभी-कभी बराबर की लड़कियाँ भी आती थीं किन्तु वे सब प्रायः बातों में लगी रहती थीं अतः मैं उन लड़कियों के साथ नहीं बैठती थी। शास्त्र बाँचने में कभी कुछ, कभी कुछ विशेष बातें अवश्य मिल जाया करती थीं जो कि मेरे हृदय में प्रवेश कर जाया करती थीं।
एक बार प्रकरण आया-‘‘आत्मा में अनन्त शक्ति है।’’
मैंने सोचा ‘‘जब आत्मा अनन्त शक्तिवाली है तो मैं उसको प्रगट क्यों नहीं कर सकती? उस पुरुषार्थ के लिए भला क्या नहीं कर सकती?’’
माँ प्रातः स्वाध्याय करके ही जलपान लेती थीं। वह शास्त्र था ‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’ जिसे खोलकर विधिवत् मंगलाचरण करके एक श्लोक संस्कृत का पढ़कर उसकी हिन्दी पढ़ लेती थीं। कभी-कभी दो श्लोक पढ़ लेती थीं। यही उनका नियम था। वे क्वचित् कदाचित् मेरे से भी पढ़ा लिया करती थीं।
बाद में माँ की आज्ञा से मैंने भी उस ग्रन्थ का स्वाध्याय प्रारम्भ कर दिया जिससे ज्ञान और वैराग्य प्रस्फुुटित होता चला गया। पुनः-पुनः बाहर लड़कियों को खेलते देख खेलने जाना चाहती और वे नहीं जाने देतीं और कभी-कभी कहतीं-‘‘लो यह दर्शनकथा और शीलकथा पढ़ो।’’
मैं उन्हें लेकर पढ़ने बैठ जाती। उन दोनों कथाओं में मुझे बहुत ही रस आता । यहाँ तक कि मैंने उन दोनों कथाओं को सैकड़ों बार पढ़ डाला। बहुत से प्रकरण मुझे याद हो गये थे,
जिनको मैं स्वतः मन ही मन गुना करती थी। शीलकथा की मुझ पर इतनी गहरी छाप पड़ी कि मैं स्वयं एक दिन भगवान के मंदिर में जाकर बैठ गई और बोली-‘‘भगवन्! आज तो कोई दिगम्बर गुरु दिखते नहीं हैं जैसा कि मनोरमा को मिल गये थे अतः अब मैं आपके सान्निध्य में ही शीलव्रत ले रही हूँ। हे देव ! इस जन्म में मैं पूर्णतया शीलव्रत पालन करूँगी।’’
दर्शनकथा पढ़कर भी मैंने ऐसे ही देवदर्शन करने का हमेशा के लिए नियम कर लिया था पुनः एक दिन चुपके से अपनी छोटी बहन शांतिदेवी को भी यह शीलव्रत दे दिया था, कई एक साथ की सहेलियों को भी दे दिया।
उस लघुवय में ही एक बार पाठशाला में लड़कों ने ‘अकलंक निकलंक’ नाटक खेला था। जिसमें अकलंक और उनके पिता के संवाद में अकलंक ने एक पंक्ति कही-
‘‘प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरं।’’
कीचड़ में पैर रखकर धोने की अपेक्षा कीचड़ में पैर नहीं रखना ही अच्छा है, वैसे ही विवाह करके पुनः छोड़कर दीक्षा लेने की अपेक्षा विवाह नहीं करना ही उत्तम है।
यह पंक्ति मेरे हृदय में पूर्णतया उतर गई और उसी क्षण से लेकर मैं हमेशा सोचती रहती तथा यह पंक्ति मन में रटा करती।
कुछ पूर्वजन्म के संस्कार भी ऐसे ही थे कि मैंने इतनी छोटी वय में घर में त्योहारों पर मिथ्यात्व पूजना और बायना निकालना बंद करा दिया था। पद्मनंदिपंचविंशतिका शास्त्र का स्वाध्याय कर तथा छहढाला पढ़कर मैं मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का लक्षण समझ चुकी थी।
कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु को पूजना मिथ्यात्व है जो कि अनंत संसार में घुमाने वाला है और सच्चे देव, शास्त्र, गुरु पर दृढ़ श्रद्धा रखना सम्यग्दर्शन है जो कि संसार के जन्ममरण के दुखों से छुटाने वाला है इतना मैं समझ लेती थी।
एक समय की घटना है-पड़ोस में एक सोलह वर्ष के जवान पुत्र को चेचक निकली। उनकी माँ हर किसी के कहने से नीम के वृक्ष पूजना, ‘‘माता निकली है’’ ऐसा कहकर शीतला माता की पूजा के लिए मालिन को पूजा सामग्री देना आदि करने लगीं। उन्हीं दिनों मेरे घर में छोटे भाई प्रकाशचंद और सुभाषचंद को भी बहुत जोरों से चेचक निकल आई। अड़ोस-पड़ोस के व घर की दादी, बुआ आदि सभी ने माँ से कहा कि-‘‘शीतला माता की पूजा के लिए मालिन को सामग्री दे दो, तुम मिथ्यात्व मत करो, मालिन को सामग्री देने में क्या होता है? बहुत भयंकर माता निकली है। पता नहीं क्या अनिष्ट हो सकता है?’’
किन्तु माँ ने मेरी बात मान ली और दृढ़ता रखी। मिथ्यात्व का सेवन कतई नहीं किया। मैं प्रतिदिन मंदिर मेंं जाकर शीतलनाथ भगवान की पूजा करती और भगवान का गंधोदक लाकर बालकों के सर्वाङ्ग में लगा देती थी। माँ को विचलित करने के लिए बहुतों ने अनेक पुरुषार्थ किये किन्तु किसी की कुछ नहीं चली। इधर दोनों भाइयों के चेचक की हालत बहुत खराब थी। उन दोनों भाइयों के बचने की आशा ही हटती जा रही थी तब कई एक महिलाओं ने कहा-
‘‘यह तुम्हारी मैना, इन भाइयों को खत्म कर देगी। वाह रे धरम!! बच्चे मर रहे हैं और यह धरम-धरम चिल्ला रही है।’’
मैंने ये शब्द सुन लिये, घबड़ा गई और प्रातः काल मंदिर में पहुँचकर मन ही मन भगवान से बोली-
‘‘भगवन् ! अब मेरी लाज और धर्म की लाज आपके ही हाथ में है। यदि ये दोनों बालक मर गये तो सारे गाँव में ही क्या, सारे प्रांत में चेचक निकलने पर शीतला माता जैसी आज पुज रही हैं वैसे ही पुजती रहेंगी! किन्तु सम्यक्त्व को, आपकी भक्ति को कोई भी नहीं समझेगा!’’
इतना सोचते-सोचते मैं भगवान के पास रो पड़ी। अनेक भक्ति स्तोत्र पढ़ कर मैं घर आ गई और भाइयों को गन्धोदक लगाकर उनकी परिचर्या में लग गई।
कुछ दिनों बाद धीरे-धीरे इन दोनों बालकों की हालत सुधरने लगी और धीरे-धीरे ये स्वस्थ हो गये। उधर पड़ोस में जो माँ अपने युवापुत्र के लिए मिथ्यात्व की उपासना करती रही थी उसका पुत्र स्वर्गस्थ हो गया। इस प्रत्यक्ष घटना से सभी के मन पर धर्म का बहुत ही प्रभाव पड़ा। सर्वत्र धर्म की व मेरी भी प्रशंसा होने लगी। धर्म की इस विजय से मैं बहुत ही प्रसन्न हुई।
उस प्रांत में उस समय अग्रवाल वैष्णव के संस्कारों से जैन अग्रवालों के यहाँ भी घर-घर में महिलाएं करुवा चौथ आदि त्यौहार मनाया करती थीं। जिसमें घर में गौरी बनाकर उसको फूल चढ़ाना, सिन्दूर लगाना, माथा झुकाना आदि करतीं पुनः नैवेद्य-पकवान चढ़ाकर सास, ननद आदि को बायना देती थीं।
मैंने इस क्रिया को मिथ्यात्व कहकर माँ से इसका पूर्णतया त्याग करा दिया था। तब दादी अक्सर कहा करतीं- ‘‘पति पुत्रों के यह त्यौहार हैं इन्हें नहीं छोड़ना चाहिए।’’
किन्तु मैं उनको भी उस समय अपनी बुद्धि के अनुसार सम्यक्त्व का उपदेश दिया करती थी और मिथ्यात्व के दोष बताया करती थी।
एक बार पंडित मनोहरलालजी शास्त्री टिवैतनगर आये थे वो अत्यधिक विद्वान् माने जाते थे। माँ ने उन्हें बुलाया और शंका करने लगीं-
‘‘पण्डितजी ! इन त्यौहारों में पूजा करना आदि मिथ्यात्व है तो सासु को बायना देना आदि भी मिथ्यात्व है या नहीं।’’
पण्डित जी ने कहा-‘‘गौरी बनाकर पूजना मिथ्यात्व है उसे तुम छोड़ दो किन्तु त्यौहार मानना व उस दिन पकवान बनाकर सासु को देना मिथ्यात्व नहीं है। उसे तुम कर सकती हो।’’
मुझे बहुत ही आश्चर्य हुआ, मैंने कहा-‘‘पण्डित जी! यह करुवा चौथ आदि त्यौहार जैनधर्म से कुछ भी संबंध नहीं रखते हैं अतः इन त्यौहारों को मानना, उस दिन पकवान बनाना भी मिथ्यात्व है तथा उस त्यौहार के उपलक्ष्य में सासु को बायना देना भी मिथ्यात्व है।
यदि सासु को बायना देना ही है तो अन्य दिनों किसी और निमित्त से दे देना चाहिए। उस दिन कतई नहीं देना चाहिए।’’
पण्डित जी सारी बातें सुनते रहे, फिर कुछ भी नहीं बोले, चुप रहे। पुनः बोले-‘‘यह कन्या कोई ‘देवी’ है। बहुत ही होनहार दिखती है।’’
उन विद्वान् के वे शब्द मेरे कान में बहुत दिनों तक गूँजते रहे हैं। मैं सोचा करती थी-
‘‘भगवन! मैं सारे प्रांत से ही नहीं, सारे देश की जैन समाज से मिथ्यात्व को दूर भगा दूँ ऐसी शक्ति मुझे कब आयेगी?’’ अहो! यह मिथ्यात्व महाशत्रु है।
इसे दूर करने का बलपूर्वक अतीव पुरुषार्थ सभी को करते रहना चाहिए। लोग छहढ़ाला पढ़कर, धार्मिक पुस्तकों का स्वाध्याय करके भी मिथ्यात्व का त्याग क्यों नहीं करते हैं? ‘‘सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं बन जाते हैं?’’
छहढ़ाला का अध्ययन धार्मिक पाठशाला में चल रहा था। इस समय मेरी अवस्था ९-१० वर्ष के लगभग होगी। घर में सभी भाई-बहनों में मैं सबसे बड़ी थी अतः घर के सभी कार्यों में माँ का हाथ बँटाना पड़ता था। परीक्षा का समय निकट था।
पण्डित जमुनाप्रसाद जी ने अनुशासन कर दिया था कि सभी छात्राओं को प्रातः समय से आना होगा और रात्रि में भी एक घंटा कक्षा चलेगी। मैंने माँ से कहा तब उन्होंने पाठशाला में कहला दिया कि-
‘‘मैना को घर में काम अधिक होने से प्रातः भी दो घण्टे देर से पाठशाला पहुँचेगी और रात्रि में तो अवकाश ही नहीं मिलेगा।’’
मैं घर के बहुत कुछ काम निपटा कर दो घण्टे बाद पाठशाला पहुँचती थी। छहढ़ाला के साथ निबंधरत्नमाला आदि और भी कई पुस्तकें पढ़ाई जाती थीं।
एक दिन की बात है-सभी लड़कियाँ पाठ सुनाने के लिए खड़ी थीं। कोई-कोई लड़कियाँ पाठ सुनाते-सुनाते कुछ भूल जाती थीं।
तब पण्डित जी ने कहा-‘‘ मैं प्रतिदिन कहता हूँ कि घर में अच्छी तरह से पाठ याद किया करो परन्तु तुम लोग सुनती नहीं हो। अच्छा जिस-जिस लड़की ने घर में पाठ याद नहीं किया है वह हाथ उठावें।’’
कई एक छात्राओं के साथ मैंने भी हाथ उठा दिया तब पण्डित जी आश्चर्य चकित हो बोले-‘‘ऐं! तुमने क्यों हाथ उठाया? तुम्हें तो पाठ हमेशा ही याद रहता है।’’
तब मैंने कहा-‘‘किन्तु मैं घर में कभी नहीं याद करती हूँ।’’
पण्डित जी ने और अधिक आश्चर्य व्यक्त करते हुये पूछा-
‘‘अरे! फिर तुम पाठ कहाँ याद करती हो? तुम अभी तो घर से ही आ रही हो।’’
मैंने कहा-‘‘यहीं खड़ी-खड़ी जब तक एक दो लड़कियाँ पाठ सुनाती हैं तब तक ही मैं याद कर लेती हूँ।’’
तब पण्डित जी ने कहा-यदि ऐसी बात है तो पिछले सभी पाठ तुम्हें वैसे याद रहते हैं?’’
ऐसा कहकर उन्होंने पिछले एक दो प्रश्न पूछ लिये और मैंने भी सभी के उत्तर श्लोक बोलकर सुना दिये और अच्छी तरह से उनका अर्थ भी बता दिया। पण्डित जी बहुत ही प्रभावित हुए और बोले-‘‘इसका क्षयोपशम बहुत ही अच्छा है।’’
छहढाला आदि सभी पुस्तकों की परीक्षा में मेरे बहुत अच्छे नम्बर आये और पुरस्कार भी मिला था।
इसके बाद हम सभी लड़कियों ने बहुत ही प्रयत्न किया कि आगे कुछ और पढ़ाई हो जावे किन्तु प्रायः सभी के माता-पिता ने अपनी पुत्रियों को आगे पाठशाला में पढ़ने से रोक दिया और मेरी भी पढ़ाई बंद हो गई।
अब मैं घर में अनेक पाठ याद किया करती थी। सीताजी का बारहमासा, राजुल का बारहमासा, बारह भावनायें, वैराग्य भावना, अनेक स्तुतियाँ, ज्ञानपचीसी आदि पाठ जिनवाणी संग्रह से याद किया करती थी।
घर में प्रायःनन्हें-नन्हें भाई बहनों को संभालने, खिलाने-पिलाने व रोते हों तो चुप कराने में सारा समय निकल जाता था। नौकर के अधीन बच्चों को डालना प्रायः मुझे स्वयं ही इष्ट नहीं था अतः मैं स्वयं इन कार्यों को रुचि से किया करती थी। रसोई में काम करना होता था तथा गेहूँ, दाल, चावल आदि भी साफ करने रहते थे। सभी कामों को माँ के साथ मुझे करना होता ही था।
मैं प्रायः चौका साफ करते समय, महरी के मंजे बर्तनों को पुनः धोते हुए और दाल चावल आदि साफ करते हुये कई एक पाठ याद कर लिया करती थी।
पुस्तक या जिनवाणी को विनय से एक उच्चस्थान पर खोल कर रख लेती थी और एक-एक पंक्ति देख कर रट लिया करती थी। उन रटे हुए पाठों को प्रतिदिन सोते समय और उठकर प्रातः पढ़ा करती थी जिससे हृदय में वैराग्य भावना की लहर उठा करती थी।
सीताजी की बारह भावना में एक पंक्ति मुझे बहुत ही प्रिय लगती थी जिसे मन ही मन गुनगुनाया करती थी-
‘‘परवश भोगी भारी वेदना, स्ववश सही नहिं रंच।
शाश्वत सुख जासों पावती, लेई करम ने वंच।।’’
मैंने परवश में अर्थात् कर्म के अधीन होकर बहुत भारी कष्ट सहन किये हैं किन्तु स्ववश-स्वाधीन होकर अर्थात् अपनी इच्छा से रंचमात्र भी दुःख नहीं सहन किये हैं, यदि स्वाधीन होकर अर्थात् अपनी रुचि से धर्म अनुष्ठान में-तपश्चर्या मं किंचित् भी दुःख सहन कर लेती तो शाश्वत अविनाशी सुख प्राप्त कर लेती किन्तु हा ! कर्म ने मुझे ठग लिया है।
वैराग्य भावना की ये पंक्तियां भी बहुत ही अच्छी लगती थीं- ‘‘‘सुख होता संसार विषे तो, तीर्थंकर क्यों त्यागे।
काहे को शिवसाधन करते, संजम सों अनुरागे।।’’’
यदि इस संसार में सच्चा सुख होता तो तीर्थंकर जैसे महापुरुष उसे क्यों छोड़ते? क्यों वन में जाकर तपश्चर्या करते और क्यों संयम से प्रेम करके मोक्ष के साधन में लगते?
जब कभी बैलगाड़ी पर अधिक सामान लदे रहने से बैलों को भार ढोते देखती व इक्का (घोड़ा तांगा) पर बैठने का प्रसंग आता तो घोड़ों पर चाबुक का प्रहार देखते ही रोम-रोम सिहर उठता और सोचने लगती-‘‘इन अनाथ पशुओं का नाथ-रक्षक कौन है? देखो, बेचारे कैसे कष्ट भोग रहे हैं? कोड़ों से पीटे जाना, अधिक भार लादना, समय पर दाना पानी नहीं मिलना आदि।’’
कभी कुत्ते घर में घुसते तो नौकर मार कर भगाते। उस समय भी मेरा जी भर आता, बहुत-दुःख होता। मैं प्रायः रोटी का टुकड़ा ले जाकर बाहर डालकर कुत्तों को घर से भगाती थी और इन पशुओं के नाना दुःख देखकर संसार से वैराग्य भावना भाने लगती थी।
घर में छोटे-छोटे भाई बहनों को कभी नजला, खाँसी आदि देखकर कभी-कभी अन्य कुछ छोटे-मोटे कष्ट देखकर मैं सोचने लगती-‘‘इस शरीर के साथ अनेक रोग, शोक, आधि, व्याधि लगी ही रहती हैं। भगवन् ! ऐसा क्या उपाय है कि जो इस शरीर से ही छुटकारा पाया जा सके?’’
मेरी माँ को दहेज में उनके पिता ने ‘पद्मनंदिपञ्चविंशतिका’ नाम के एक ग्रन्थ को दिया था। माँ सदा ही उसका स्वाध्याय किया करती थीं। कितनी बार वे उसे पढ़ चुकी हैं, शायद उन्हें भी यह याद नहीं होगा। एक बार वह ग्रन्थ पूरा हो जाता पुनः उसी को चालू कर लिया करती थीं। वे कहा करती थीं कि-
‘‘मैंने इसी ग्रन्थ का स्वाध्याय करके सर्वप्रथम आजन्म शीलव्रत और अष्टमी, चौदस का ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया था।’’
उन्हीं की प्रेरणा से मैं भी उस ग्रन्थ का स्वाध्याय करने लगी थी किन्तु मुझे अतिशय प्रिय लगने से मैं १-२ श्लोकों से अधिक पढ़ लिया करती थी अतः वर्ष दो वर्ष के अंतर्गत ही मैंने स्वयं उसका अनेक बार स्वाध्याय कर लिया था और उसमें से अनेक प्रिय श्लोक याद कर लिये थे।
उस ग्रन्थ के शरीराष्टक अधिकार से मुझे शरीर के स्वरूप का ज्ञान हो जाने से वैराग्य बढ़ रहा था और ब्रह्मचर्याष्टक अधिकार पढ़कर तो ऐसी भावना हो रही थी कि-‘‘हे भगवन्! मैं इस जन्म में तो ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर ही लूँ साथ ही ऐसी तपश्चर्या करूँ कि जिससे मैं लौकांतिक देव हो जाऊँ। जहाँ पर पूर्ण ब्रह्मचर्य ही है, जहाँ पर जाने के बाद वापस एक भव ही लेना पड़ता है पुनः संसार में अधिक भ्रमण नहीं करना पड़ता है।’’
कभी-कभी रात्रि में मेरी नींद खुल जाती तब यही सोचने लगती-‘‘ क्या उपाय किया जाये कि जिससे मैं विवाह के बंधन में न पड़ूँ और लौकांतिक देव के पद को प्राप्त करने का पुरुषार्थ कर लूँ इत्यादि।’’
किन्तु इतनी छोटी उम्र में घर वालों से कुछ कहने का और कुछ कर सकने का कुछ उपाय ही नहीं दिखता था।
एक बार मैंने रात्रि के शास्त्र स्वाध्याय में सुना कि ‘‘दक्षिण में मुनि रहते हैं वे तपश्चर्या करते हैं।’’ मैंने सोचा-‘‘वैसे उनके दर्शन किये जायें?’’
इसी बीच मेरी सहेली, उससे एक दिन मैंने अपने मन की बात कह दी। तब उसने भी कुछ ऐसे ही घर से कहीं चलन्ो के भाव व्यक्त किये। धीरे-धीरे हम दोनों की एकांत में चर्चायें चलती रहीं।
आखिर एक दिन-‘‘ हम दोनों घर से निकलकर दक्षिण में चलें’’ ऐसा निर्णय कर लिया। तभी वह सहेली दूसरे दिन आकर बोली-
‘‘मेरा साहस नहीं है, क्योंकि यदि अपन दोनों कहीं गयीं तो तत्काल ही यहाँ गाँव में ढूँढना शुरू हो जायेगा और यदि ढूंढने से हम दोनों मिल गयीं तो क्या होगा? खूब फटकार मिलेगी ।’’
मैं चुप हो गई और मन ही मन सोचने लगी-‘‘घर से निकलकर मुनियों का दर्शन करने, उनसे त्याग मार्ग में चलने को सीखने के लिए कहाँ जाया जाये? क्या उपाय किया जाये?’’ समय व्यतीत होता गया, मेरी आंतरिक विचारधारा बढ़ती ही गई।
एक दिन ऊपर एकांत में बैठी कुछ ऐसे ही सोच रही थी कि तभी मन में एक विचार आया-‘‘क्या कभी मैं सबके बीच में उपदेश करने का अवसर प्राप्त करूँगी?’’ इतना विचार आते ही मेरी अकस्मात् बायीं आँख फड़कने लगी और काफी देर तक फड़कती रही, तब मुझे विश्वास हो गया कि-‘‘मेरे जीवन में ऐसा दिन अवश्य आयेगा।’’
समय व्यतीत हो रहा था। मैं गृहबन्धन के पिंजड़े से उड़ने का अवसर खोज रही थी और परिवार के लोग गृहबन्धन में बाँधने की सोच रहे थे।
दादी जब आकर माँ के पास बैठतीं तब यही कहतीं-
‘‘मैना सयानी हो गई है उसके लिए वर ढूँढना चाहिए।’’
पिता के घर में आते ही माँ यही चर्चा छेड़ देतीं। कभी-कभी बात आई गई हो जाती और कभी-कभी मां-पिता की आपस में खटपट भी हो जाती।
वह समय ऐसा था कि लड़की के सामने माँ-बाप विवाह की चर्चा करते थे तो या तो वे लोग स्वयं लड़की को किसी काम से वहाँ से हटा देते थे या लड़की स्वयं शरम से वहाँ से हट जाती थी। इस स्थिति के अनुसार यद्यपि मैं वहाँ से हट जाया करती थी फिर भी मेरे विवाह के बारे में ये लोग कितनी चिन्ता किया करते हैं, इसके बारे में मैं अच्छी तरह समझती थी।
एक दिन रात्रि में कुछ परामर्श करते हुए माँ मेरे पास बैठी हुई थीं। समय पाकर मैंने उनसे अपने भाव व्यक्त कर दिये कि-
‘‘मैं कथमपि संसार बंधन में नहीं फंसना चाहती हूँ, मैंने गृहत्याग का पूर्ण निर्णय कर लिया है। मुझे अपनी आत्मा का कल्याण करना है। यह मनुष्य भव यूँ ही व्यर्थ नहीं खोना है।’’
माँ मेरे मुख से प्रायः धर्म की चर्चा सुना करती थीं अतः इस बात पर भी उन्होंने विशेष लक्ष्य नहीं दिया और इतना ही कहा-‘‘देखो! लोग कहेंगे कि लड़की सयानी हो गई। विवाह नहीं कर पाए अतएव उसने ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। इसलिए ऐसा कोई कदम नहीं उठाना है।’’
फिर भी कई बार मेरे मुख से मेरे त्याग का निर्णय सुनकर वह भी मन में समझ चुकी थीं कि-‘‘शायद ही यह विवाह करायेगी।’’ फिर भी अपने कर्तव्य में लगी हुई थीं।
एक दिन मुझे भाग्य से ‘जम्बूस्वामी चरित’ मिल गया। मैं उसे रात्रि में पढ़ने बैठ गई। बहुत देर हो गई। माँ-पिता ने कहा-
‘‘क्या पढ़ रही हो? सो जाओ, कल पूरा कर लेना।’’
किन्तु मानों मैं कुछ सुन ही नहीं रही थी। रात्रि में १२-१ बजे तक उस छोटी सी पुस्तक को पढ़कर पूरी कर ली। मुझे उससे बहुत ही शिक्षा मिली। षट्काल परिवर्तन का वर्णन बहुत ही रोमांचकारी था। उसमें आने वाले छठे काल मं कैसे मनुष्य होंगे? उनकी कैसी दुर्दशा रहेगी? पुनः प्रलयकाल में अग्नि की वर्षा! प्राणी कैसे झुलस जायेंगे? यह सब हृदयद्रावक संक्षिप्त वर्णन पढ़कर मैं काँप उठी। सोचने लगी-
‘‘अपने को शीघ्र ही ऐसा प्रशस्त कार्य कर लेना चाहिए कि जिससे उत्तम गति प्राप्त हो जाये और छठे काल में जन्म न लेना पड़े।
जम्बूकुमार के अखण्ड ब्रह्मचर्य का प्रभाव भी मन पर बहुत ही प्रभावकारी रहा तथा उनके पूर्वजन्म के ‘असिधारा’ व्रत को भी मैं बार-बार पढ़ती रहती थी।
जब माता-पिता मेरे मोह से विक्षिप्त हो रोने लगते तब मैं उन्हें जम्बूस्वामी की कथा सुनाने लगती। उनके मन में भी उस समय शांति आ जाती किन्तु घर से बाहर निकलते ही लोगों की चर्चाएं और भाईयों की सलाह से पिता पुनः मोह, क्रोध व अशांति में आ जाते थे।
मुझे आज तक भी स्मृति नहीं है कि कभी पिता ने मुझे क्रोध से डांटा हो, या कुछ कटु शब्द कहे हों। थप्पड़ आदि मारना तो बहुत दूर की बात है, प्रत्युत् जब कभी काम के बिगड़ जाने से बहुत छोटेपन में माँ थप्पड़ मार देती थीं तो पिता उन पर नाराज अवश्य होते थे।
वे हमेशा कहा करते थे-‘‘देखो, कन्या कुछ दिन में पराये घर चली जायेगी अतः पुत्रियों को कभी मत मारो, मत डांटो, इन्हें जितना भी प्यार देवो उतना थोड़ा है।’’
जब मैं घर छोड़ने की बात कर रही थी उस समय तो मेरे चार भाई और चार बहनें थीं। अत्यधिक बचपन की भी मुझे याद है कि जब कभी भी मंदिर के बाहर मैदानों में चार पुरुष एकत्रित हो जाया करते थे और उनके बच्चे खेला करते थे और कदाचित् मैं मंदिर से बाहर निकलती उस समय यदि कोई टोक देता-
‘‘लाला छोटेलाल! देखो, यह तुम्हारा एक लाख का हुण्डा है।’’
तो वे अनाप-सनाप गरम हो जाते। कहते-‘‘भाई! मैं ऐसा शब्द नहीं सुन सकता हूँ। प्रत्येक लड़कियाँ अपने भाग्य को अपने साथ में लेकर आई हैं। वे मेरी कमाई क्या ले जायेंगी? वे अपने भाग्य का ही ले जावेंगी।’’
यदि कदाचित् कोई हँसी में भी कह देते कि-‘‘तुम्हारे पाँच लड़कियाँ हैं’’ तो पिताजी को बहुत ही बुरा लगता था। वे कहते-
‘‘भाई! आज से मेरी लड़कियों की गिनती नहीं करना। वे सब अपना-अपना भाग्य लेकर आई हैं। किसी के भाग्य का नहीं खाती हैं और न किसी के भाग्य का कुछ ले ही जायेंगी।’’ उन्होंने घर में खाने,पीने या पहनने में कभी भी पुत्र और पुत्रियों में भेद-भाव नहीं किया था। वे अक्सर यही कहा करते थे-
‘‘देखो! जैसे पुत्र अपनी सन्तान है वैसे ही पुत्री भी अपनी ही संतान है। उसे मोटा खिलाकर, मोटा पहनाकर लड़कों को अच्छा खिलाना और अच्छा पहनाना मुझे पसंद नहीं है।’’
कभी-कभी तो कहते कि ‘‘पुत्रों की अपेक्षा भी पुत्रियों पर अधिक स्नेह रखना चाहिए क्योंकि वे सदा घर में रहने वाली नहीं हैं।’’
यदि कदाचित् कोई लोग ऐसा भेदभाव रखते और उन्हें पता चलता तो घर में आकर उनकी चर्चा करते और कहते-
‘‘ये लोग कितने अज्ञानी हैं। भला लड़कों से लड़कियों को तुच्छ समझना यह उनकी कहाँ की बुद्धिमानी है ?’’
एक बार एक विद्वान् के सामने ऐसे ही दहेज की चर्चा चल रही थी तब किसी पड़ोसी ने कह दिया-‘‘छोटेलाल के तो चार-पांच कन्यायें हैं।’’
बस पिताजी बोल उठे-‘‘भाई! तुम्हारा पेट क्यों फूल रहा है? क्या मेरी कन्यायें तुम्हारी कमाई का दहेज ले जायेंगी? अरे भाई! सभी अपने-अपने भाग्य में जो कुछ लेकर आई हैं वही तो ले जायेंगी। मेरी कमाई का भी क्या ले जायेंगी ?’’
इतना सुनकर विद्वान् पंडित जी बोल उठे-‘‘लाला छोटेलाल! तुम्हारा नाम तो ‘‘छोटे’’ है, परन्तु तुम्हारा हृदय कितना ‘‘बड़ा’’ है!…..अहो! सचमुच में तुम्हारा हृदय बहुत ही बड़ा है। तुम ‘‘छोटेलाल’’ नहीं हो बल्कि तुम ‘‘बड़ेलाल’’ हो।
पिता ने घर में आकर यह चर्चा मुझे सुनाई और खूब हँसे…..। उनका यह स्वभाव था कि दुकान की या लोगों की कोई भी चर्चा या घटना घर आकर वे मुझे अवश्य ही सुनाते थे पुनः ‘‘मैंने अच्छा किया या बुरा?’’
यह सुनने को उत्सुक हो जाते थे। मैं भी अपनी बुद्धि के अनुसार पिता के अच्छे कार्य को ‘‘अच्छा’’ कहती रहती थी और ‘‘बुरा’’ तो मुझे कभी अनुभव में आया ही नहीं था।
उनकी चर्या थी प्रातः मन्दिर जाकर, घर आकर, खाना खाकर दुकान चले जाना और शाम को पुनः घर आकर, खाना खाकर, घर के बाहर चबूतरे पर लोगों की गोष्ठी में बैठ जाना या घर में छत पर बैठकर बच्चों से मनोरंजन करना। जब कभी कपड़े के व्यापार के सीजन के दिन होते तो वे प्रातः जल्दी दुकान चले जाते और मध्याह्न में जब समय मिलता घर आते, स्नान करते-करते मेरे से कहते-
‘‘बिटिया! जावो पिछवाड़े से मालिन से मंदिर की चाबी ले आओ।’’
मैं चाबी माँग लाती, पिताजी मन्दिर जाकर, दर्शन करके, आकर खाना खाते थे। ऐसे ही कभी जब कानपुर, लखनऊ आदि से देर से आते तो मैं चाबी लाकर देती तब मंदिर जाकर, दर्शन करके ही खाना खाते थे।
धीरे-धीरे मैंने घर में एक शास्त्र उन्हें दे दिया और उनकी स्वाध्याय करने की आदत भी पड़ गई थी। पिताजी जब कभी कानपुर आदि जाते थे तो घर से पूड़ी साग बनवा कर ले जाते थे और यदि कई दिन के लिए जाना होता तो खिचड़ी का सामान बंधवा लेते और वहाँ अंगीठी पर अपने हाथ से बनाकर खा लेते थे। होटल का या बाजार का खाना वे प्रारंभ से ही पसंद नहीं करते थे।
एक दिन पिताजी घर आकर खूब हँसे और सुनाने लगे-
‘‘आज दुकान पर एक व्यक्ति आये। वे बड़ा सा कम्बल ओढ़ रखे थे जबकि आजकल कम्बल के दिन नहीं हैं। वे बहुत देर तक बैठे रहे। मैं ग्राहकों में लगा रहा।
यह कपड़ा निकालो यह दिखाओ, यह नापो, यह देवो यही करता रहा और देखता रहा। उन व्यक्ति ने धीरेधीरे पास में रक्खे हुए साटन के कई एक थान कम्बल में दबा लिए। मैंने उन्हें देख लिया था फिर भी कुछ नहीं बोला और वे व्यक्ति धीरे-धीरे उठकर चलते बने।’
इतना कहकर फिर वे हँसने लगे। जब मैंने पूछा-
‘‘आपने उन्हें ऐसे अपना माल चुराते देखकर क्यों नहीं फटकारा?’’
तब वे बोले-‘‘अरे! बेचारा गरीब है, ले जाने दो, आखिर चोरी का माल बेचकर कितने दिन खायेगा?…..भला चोरों के यहाँ भी कभी बरकत हो सकती है?’’
यह उनकी सरलता और नीति पूर्ण बात सुन मैं आश्चर्य में पड़ गई। ऐसे ही उनकी सरलता के अनेक अनुभव मुझे देखने को मिलते रहते थे। दुकान के मुनीम आदि की भी ऐसी हरकतें वे देख लेते थे किन्तु कभी कुछ भी नहीं कहते थे। घर में आकर यही कह देते-
‘‘बेचारा गरीब है खाने दो, कितना खायेगा? आखिर उसे भी तो पाप का कुछ डर होगा!’
व्यापार में कपड़े का व्यापार करते थे। एक बार आटे की चक्की का काम किया किन्तु उसमें घुन पिसते देखकर उसी दिन उसे बंद कर दिया। संतोष में ही सुख मानते थे और सट्टे को जुआ कहकर उससे दूर रहते थे। उनके हृदय में मायाचारी, कूटनीति का लेश भी नहीं दिखता था। सदा मन के स्वच्छ थे और कहा करते थे-
‘‘मन में होय सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सों करिये।’’
एक बार महावीर जयन्ती के अवसर पर मेरी अत्यधिक प्रेरणा से उन्होंने इन्द्र की बोली ले ली। उस वर्ष हाथी आया था। इन्द्र इन्द्राणी भगवान को लेकर हाथी पर बैठे थे और जुलूस गाँव के बाहर (दराने में) गया था वहीं भगवान का जन्म महोत्सव संबंधी अभिषेक हुआ था। उस समय कई पंडित आए हुए थे। उनमें यह चर्चा का विषय बन गया था कि-
‘‘इन्द्राणी भगवान का अभिषेक करे या न करे?’’
एक पंडित निषेध कर रहे थे तो एक विधान कर रहे थे। जो विधान कर रहे थे वे बोले-‘‘देखो! भगवान के जन्म समय भी इन्द्राणी ही सबसे पहले बालक को प्रसूतिगृह से लाकर इन्द्र को सौंपती हैं। अतः जब इन्द्राणी भगवान का स्पर्श कर सकती है तो भला अभिषेक क्यों नहीं कर सकती है?
दूसरी बात, भगवान को जन्म भी महिला ने ही तो दिया है कोई वे आकाश से थोड़े ही टपके हैं?…..।’’ इस चर्चा को मैं बहुत ही मनोयोग से सुनती रही थी और मैं भी इसी प्रयत्न में थी कि मेरी माँ अभिषेक कर ले।
अन्त में सभी लोगों में इन्द्र इन्द्राणी दोनों के द्वारा अभिषेक करने का निर्णय हो जाने पर मुझे बहुत ही प्रसन्नता हुई। उस समय भी एक पंडित जी यही बोले थे कि-
‘‘छोटेलाल जी! तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारा नाम छोटेलाल क्यों रख दिया था! भाई! तुम तो ‘‘बड़ेलाल’’ हो।’’
तब पिता ने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुये यही कहा था कि-‘‘नहीं, मेरे माता-पिता ने मेरा नाम सोचकर ही रखा है मैं ‘बड़ा’ न होकर ‘‘छोटा’’ ही हूँ। पंडित जी! बड़ा तो कढ़ाई में तला जाता है, तब बड़ा बनता है इसलिए मैं तो ‘‘छोटा’’ ही हूँ।
जब मेरी क्षुल्लिका दीक्षा के बाद पहला चातुर्मास टिवैतनगर में हुआ था और पिता जी आकर आचार्य देशभूषण जी महाराज के सान्निध्य में बैठते थे तब कई बार आचार्यश्री भी कहा करते थे-
‘‘लाला छोटेलाल! तुम ‘‘छोटे’’ नहीं हो, बहुत ‘‘बड़े हो’’। तुमने यह अनुपम ‘‘कन्यारत्न’’ जन्म दिया है कि जिससे भारतवर्ष में बहुत ही धर्मप्रभावना होवेगी ।’’
यह आचार्यदेव की भविष्यवाणी पिता के हृदय को गद्गद कर दिया करती थी।
एक दिन रविवार को तराई से ग्वालिन घी की मटकी लेकर आई। सदा की तरह घी ले लिया गया और कारणवश उस दिन नहीं छाना गया।
दो-तीन दिन बाद जब मैं घी छानकर अपनी मटकी में भरने के लिए तैयार हुई और चूल्हे में आग सिलगा दी। कढ़ाई में घी निकालने के लिए जैसे ही मटकी का कपड़ा खोला कि देखा, उसमें अगणित लाल चीटियाँ भरी हुई हैं जो कि प्रायः सभी मर चुकी थीं।
घी की मटकी वैसे ही बाँध कर माँ को सारी बात बता दी। अगली बार जब वही ग्वालिन अपनी मटकी लेने आई तब माँ ने उसे ज्यों की त्यों घी से भरी मटकी देते हुए चींटियों का हाल बता दिया।
उसी क्षण उसने माथा ठोककर कहा- ‘‘अरे! बहूरानी! यदि मैं स्वयं घी गरम करके छानकर लाती तो मेरा सारा घी बेकार क्यों जाता?’’
मैं यह शब्द सुनकर दंग रह गई।
‘‘अरे! क्या तुम मरी चीटियों सहित घी को गरम कर छान कर ले आतीं?’’
पहले तो वह कुछ नहीं बोली पुनः कुछ देर बाद कहने लगी-‘‘तो क्या बिटिया! हम लोग ऐसा घी पंक देंगे?’’
मैं समझ गई कि बाजार के घी आदि वस्तुओं का यही हाल होता होगा। वह बात तो समाप्त हो गई और मैंने उसी दिन बाजार के घी का त्याग कर दिया।
उस समय टिकेतनगर में जैनों के यहाँ दही जमाकर घी बिलोने की प्रथा ही नहीं मालूम थी। अतः घर में हंगामा मच गया। सभी बड़े-बूढ़े हल्ला मचाने लगे।
माँ ने कहा- ‘‘तुम्हें पता है कि घी के बिना क्या बनेगा? तुम केसे खावोगी?’’
बात बढ़ती गई। बार-बार माँ ने समझाया-‘‘देखो! एक दिन का काम नहीं है कितने दिन बिना घी के रूखी रोटी खाओगी? आखिर पराये घर में यह सब वैâसे निभेगा?’’
अन्त में मेरी दृढ़ता के आगे सब शांत हो गये। क्या करते! तब माँ ताजी-ताजी रोटी को दूध में भिगो दिया करती थी और मुझे खिलाया करती थी। इस दृढ़ता से और त्यागभावना से भी वे समझ चुकी थीं कि ‘‘यह लड़की विवाह नहीं करेगी।’’
एक दिन बढ़िया-बढ़िया गहनों के नमूने लेकर मुनीम घर पर आया और बोला-‘‘लाला ने कहा है, कि जाओ, मैना से गहने की डिजाइन पसंद करा लाओ।’’
मैंने कहा-‘‘जाओ, शान्ति से पसंद करा लो।’’ माँ सब देख रही थीं। बस, उनके हृदय का बाँध टूट गया और वे फूट-फूटकर रोने लगीं। इस वातावरण से सर्वत्र गाँव में यह चर्चा फैल गई कि मैना विवाह नहीं करना चाहती है प्रत्युत् ब्रह्मचर्य व्रत लेना चाहती है।
पिता घर में आये, समझाने-बुझाने का प्रयत्न किया लेकिन मैं उन्हें सदा की तरह अच्छी-अच्छी धर्म की बातें समझाने लगी। तब वे चुप हो गये और अगले दिन ही महमूदाबाद चले गये, मामा महीपालदास को बुला लाये। पहले तो उन्होंने मुझे समझाया, जब कुछ असर नहीं हुआ तब वे प्रश्न-उत्तर करने लगे। बोले- ‘‘तुम्हें वैराग्य कैसे हुआ है?
बताओ! तुमने अभी संसार में क्या देखा है? कल तो तुम्हारी आँखें खुली हैं।’’
मैंने कहा-‘‘मुझे ‘‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’’ ग्रन्थ पढ़कर वैराग्य हुआ है। मामा! देखो, वह ग्रन्थ कितना अच्छा है। उसमें लिखा है-
दुःखं किंचित् सुखं किंचित् चित्ते भाति जडात्मनः।
संसारे तु पुनर्नित्यं, सर्वं दुःखं विवेकिनः।।
संसार में कुछ दुःख है और कुछ सुख है ऐसा मूढ़ात्माओं को ही प्रतिभासित है किन्तु विवेकशालियों को तो संसार में सदा सर्वत्र दुःख ही दुःख दिखता है। इत्यादि प्रकार से अनेक श्लोक सुना दिये।’’
तब मामा के क्रोध का पारा बहुत कुछ चढ़ गया और वे यद्वा-तद्वा कहने लगे, मैं चुप हो गई। जब वातावरण कुछ शान्त हुआ तब उन्होंने पुनः समझाते हुए कहा-
‘‘बेटी मैना! देखो, जैन शास्त्र के अनुसार कुंवारी कन्यायें दीक्षा नहीं लेती हैं?’’
तब मैंने पूछा-‘‘पुनः ब्राह्मी, सुन्दरी, अनंतमती और चंदना आदि ने वैसे दीक्षा ली है?’’तब वे बोले-‘‘बेटी वे सब नपुंसक थीं ।’’
आज तक भी उनके ये शब्द मेरे स्मृतिपटल पर अंकित हैं। मैं एक क्षण तो आश्चर्य में पड़ गई क्योंकि मैं स्वयं बहुत ही सरल थी अतः किसी के माया-प्रपंच और कुटिल व्यवहार को नहीं समझ पाती थी।
पुनः कुछ सोच कर बोली-
‘‘मामा! शास्त्रों में तो उन्हें कन्या ही कहा है। यदि वे नपुंसक होतीं तो उन्हें कन्या क्यों कहते!….’’
अनेक प्रश्नोत्तर के बाद मामा बोले-
‘‘देखो, बेटी! तुम्हारा शरीर बहुत ही कमजोर है अतः तुम दीक्षा वैâसे निभा सकती हो? यह दीक्षा तो ४० वर्ष की उम्र के बाद लेनी चाहिए।’’
मैंने कहा-‘‘मामा! मृत्यु का कुछ भरोसा नहीं है अतः ‘‘यह तन पाय महातप कीजे यामें सार यही है।’’
बहुत कुछ समझाने, तर्जना-भर्त्सना व फटकार करने पर भी जब वे मुझे टस से मस नहीं कर सके तब सारी गुस्सा अपनी जीजी पर उतार दी। बोले-‘‘तुमने ही इसे दर्शन कथा, शील कथा आदि पढ़ा-पढ़ाकर बरबाद कर दिया है।
खूब पढ़ाओ रात-दिन, बस पढ़, बेटी पढ़, इन धर्म कथाओं को ही पढ़। आखिर उसका परिणाम क्या निकलेगा? यही तो जो दिख रहा है।’’ दूसरे दिन मामा महमूदाबाद चले गये। पिता का मन बहुत ही विक्षिप्त हो गया वे जब मेरे से चर्चा करते तब मैं वैराग्य की अच्छी-अच्छी बातें सुनाती-
‘‘देखो, पिताजी! इस अनन्त संसार में मैंने भला कितने जन्म नहीं धारण किये हैं! अतः अब किसको अपने माता-पिता समझना। यह सब झूठा नाता है।
कभी अनन्तमती की कथा सुनाने लगती तो कभी जम्बूस्वामी का चरित्र सुनाती। तब पिता जी कुछ शांत हो जाते और बाहर निकलकर अपने बड़े भाई बब्बूमल से मिलते।
अन्तरंग की वेदना कहते तब वे भी यही कहते-
‘‘अरे कुछ नहीं, जबरदस्ती शादी करो, उसे बकने दो, वह अभी क्या समझती है? अभी दूध के दाँत नहीं टूटे हैं। भला इतनी छोटी लड़की के ब्रह्मचर्य व्रत ले लेने से दुनियाँ हमें-तुम्हें क्या कहेगी? ।’’
पिता सदैव बड़े भाई बब्बूमल और छोटेभाई बालचन्द की बात मानते थे। उनसे परामर्श किये बगैर गृहस्थी का कोई काम नहीं करते थे। वे दोनों भाई भी सदा अच्छी ही सलाह देते थे किन्तु उस समय मेरे मोह से या गृहस्थाश्रम के कर्त्तव्य से अथवा यों कहो लोक व्यवहार से वे दोनों अपने भाई को मेरे प्रतिकूल राय दे रहे थे।
गाँव में तथा आस-पास के लोग प्रायः ऐसा कहते सुने जाते थे कि-‘‘इस इलाके में सैकड़ों वर्षों से ऐसा नहीं सुनने में आया कि किसी लड़की ने घर से निकल कर ब्रह्मचर्यव्रत लिया हो।’’
कोई कहते-‘‘सैकड़ों क्या! हजारों साल का रेकार्ड नहीं है, अतः इस लड़की को कतई व्रत नहीं लेने देना चाहिए।’’ ऐसी तरह-तरह की बातें सुनकर पिताजी घबड़ा जाते थे और मुझे घर में रोकने का उपाय करने लगते थे।
तभी एक बार पिता ने गाँव के प्रमुख श्रावक धर्मात्मा सेठ पन्नालाल जी से कहा-‘‘चलो, आप मेरी लड़की मैना को समझा दो। वह अभी ब्रह्मचर्य व्रत लेने का आग्रह छोड़ दे।’’
पन्नालाल जी आये। उन्होंने बड़े प्यार से कहा-
‘‘मैना बिटिया! तुम्हारा शरीर तो बहुत कमजोर है, एक उपवास करना भी तुम्हारे लिए कठिन है फिर भला तुम यह क्या सोच रही हो? और देखो! आज-कल जमाना बहुत ही खराब है, आजकल घर में रहकर गृहस्थाश्रम में ही धर्म का साधन करना चाहिए।’’
यद्यपि बड़े जनों से मेरी बोलने की आदत नहीं थी फिर भी साहस बटोर कर बोली-‘‘बाबाजी! इस संसार में मनुष्य पर्याय बड़ी कठिनाई से ही मिलती है, इसको पाकर संयम ग्रहण कर लेना चाहिए। देखो! वैराग्य भावना में भी लिखा है-
‘‘पोषत तो दुख दोष करे अति, सोषत सुख उपजावे।
दुर्जन देह स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावे।।
राचन जोग सरूप न याको, विरचन जोग सही है।
यह तन पाय महातप कीजे, यामें सार यही है।।’’
देखो! इस शरीर को पोसने से, खिलाने-पिलाने से, यह दुख और पाप को पैदा करेगा किन्तु जैसा-जैसा इसे सुखाया जायेगा वैसा-वैसा ही यह परलोक में अनेक सुख देवेगा। इसमें राग करने योग्य इसका स्वरूप नहीं है, इससे विरक्त ही होना अच्छा है।
इस मनुष्य शरीर को पाकर महान् तप करना चाहिए, बस यही इस मनुष्य जीवन में सार है।’’ वे बोले-‘‘बिटिया! जब शरीर खूब स्वस्थ होता है तभी तप किया जाता है। तुम तो बहुत ही नाजुक हो ।’’ इसी बीच माँ बोल उठीं-‘‘मन्दिर से आकर इसे हाथ की हाथ दूध न मिले तो चक्कर आने लगते हैं। उपवास करना इसके वश की बात नहीं है।’’
मैंने कहा-‘‘धीरे-धीरे सब अभ्यास हो जावेगा तब अपने आप सहन शक्ति आ जायेगी और फिर जितने उपवास कर सकूंगी उतने ही करूँगी।
प्रतिदिन एक बार खाकर भी तो शरीर चल सकता है। देखो, अनन्तमती ने भी तो कितने कष्ट सहन किये थे, फिर दीक्षा लेकर आत्मकल्याण किया था और स्त्रीपर्याय से छूट कर स्वर्ग में देव हो गई हैं।’’
इत्यादि प्रकार से बहुत देर तक चर्चा होती रही, अन्त में मेरी दृढ़ता को देखकर वे चले गये और पिता से बोले-
‘‘उसे जो समझाने जाता है, वह उसको ही समझा देती है।’’
पुनः कुछ दिन बाद, मन्दिर के निकट में एक धर्मात्मा सेठ बाबूलाल रहते थे, उन्हें बुला लाये। वे भी आकर समझाने लगे-
‘‘देखो बिटिया! आजकल ब्रह्मचारी, त्यागियों की कोई कीमत नहीं है। ये सब खाने के लिए घर छोड़ देते हैं, पुनः समाज में इन्हें कैसे रोटी मिलती है, सो तो हम लोग ही जानते हैं।’’
मैंने कहा-‘‘जिसे आत्मकल्याण करना है उसे समाज के मान-अपमान से क्या सुख-दुःख? अपना भाग्य अच्छा होगा, यशस्कीर्ति कर्म का उदय होगा तो लोग सम्मान करेंगे अन्यथा अपमान और निन्दा करेंगे।
त्यागी व्रतियों का कर्तव्य है कि वे अपने चारित्र को उज्ज्वल रखें, फिर भी कोई अपमान करता है तो क्या हुआ? देखो, शास्त्र में बहुत से उदाहरण हैं कि महामुनियों को दुष्टों ने घानी तक में पेल दिया था-
‘‘अभिनन्दन मुनि आदि पाँच सौ, घानी पेल जु मारे।
तो भी श्रीमुनि समता धारी, पूरब कर्म विचारे।।’’
ऐसे ही मैं पंक्तियों पर पंक्तियाँ सुनाने लगी तो वे सेठ जी कुछ देर तक आश्चर्य से देखते ही रहे तत्पश्चात् उठकर चले गये और जाकर पिता से कहा-
‘‘लाला छोटेलाल! यह मैना अपने नाम के अनुसार ही विदुषी है। इसकी बातों को सुनकर तो हम लोगों को भी एक क्षण के लिए संसार असार दिखने लगता है।’’
इसके बाद पिता ने जितने लोगों को लाना चाहा कोई नहीं आये। प्रत्युत् बोले उसे समझाना-बुझाना व्यर्थ है, वह अपनी लगन की बहुत ही पक्की है।
मुझे भगवान की पूजा करने का बहुत ही प्रेम था। उस समय तक गाँव में महिलाएं मन्दिर में पालथी मारकर नहीं बैठती थीं बल्कि पैर समेट कर बैठकर जाप करतीं और चली आती थीं।
मैंने अपने हाथ से सामग्री धोकर, चौकी पर रखकर तथा सुखासन से बैठकर पूजा करना शुरू कर दिया। कुछ दिन बाद माँ भी मेरे साथ पूजा करने लगीं।
उसके पूर्व यदि कोई एक-दो महिलाएं पूजा करती थीं तो वे सूखे चावल से खड़ी-खड़ी ही पूजा पढ़कर चावल चढ़ा देती थीं। अब वे महिलाएं पहले तो कानाफूसी करने लगीं, पश्चात् हँसना शुरू किया, फिर कहना शुरू किया कि- ‘‘ये तो बहुत धर्मात्मा बन रही है, अब तो पुजारिन बन रही है ?’’
मैंने अच्छे उत्तम कार्य में उनके हँसने व कुछ भी कहने की परवाह नहीं की, अपना क्रम चलता रहा। पूजा करके आसन से ही बैठकर चौकी पर शास्त्र विराजमान कर स्वाध्याय करना शुरू किया, तब तो कुछ वृद्धा महिलाएं कहने लगीं-
‘‘अरे! ये तो पंडिता बन रही है ?’’
उस समय तक ऐसा पिछड़ा वातावरण था कि महिलाएं मन्दिर में आसन से बैठने में भी हिचकिचाती थीं। जब मेरा क्रम ऐसा ही चलता देखा तो कुछ वृद्धा महिलाएं, युवती और धर्मनिष्ठ महिलाएं भी धुली सामग्री लेकर आसन से बैठकर पूजा करने लगीं और शास्त्र स्वाध्याय भी ढंग से होने लगा।
आज उसी गाँव टिवैâतनगर के बारे में सुनने में आता है कि वहाँ पर यदि ४० घर हैं तो प्रायः सभी ही स्त्री-पुरुष शुद्ध वस्त्र पहन कर विधिवत् जिनप्रतिमाओं का पंचामृत अभिषेक करते हैं, पुनः ठाठबाट से पूजा करते हैं।
पूजा-पाठ में, विधिविधान में यदि महिलाएं पुरुषों से आगे हैं तो पुरुष भी पीछे नहीं हैं। सुना था अभी१ इन्द्रध्वज विधान में ५० जोड़े बैठे और भी अनेक स्त्री-पुरुषों ने भाग लिया था। वहाँ पर नित्य पूजा की विशेषता तो है ही तथा नैमित्तिक विधान अनुष्ठान भी सदा ही होते रहते हैं।
वहाँ पर उस समय कितनी ही महिलाओं ने मेरे से ऋषिमण्डल विधान आदि विशेष पूजायें लिखाई थीं और बड़े भाव से उन पूजाओं को करने लगी थीं।
वहाँ महिलाओं में स्वाध्याय की इतनी जागृति आई थी कि बाद में अष्टमी चतुर्दशी को मध्याह्न में कुछ महिलाओं ने मिलकर शास्त्र गोष्ठी चलाना शुरू कर दी थी। यद्यपि यह परम्परा बहुत दिन तक नहीं चली फिर भी महिलाओं ने ज्ञान संचय करने में अपना अच्छा कदम बढ़ा लिया था।
माँ ने सन् १९७१ में दीक्षा ली थी। उसके पूर्व तो वे मंदिर में बहुत-सी महिलाओं को तत्त्वार्थसूत्र, भक्तामर और सहस्रनाम आदि पाठ सुनाती थीं और रात्रि में महिलाओं की सभा में शास्त्र का वाचन करती थीं, यह उनकी दैनिकचर्या थी।
महिलाएं भी उनके शास्त्रवाचन से बहुत ही प्रभावित रहती थीं, अतः उनकी दीक्षा के बाद बहुत सी महिलाओं को उनके पाठ और शास्त्रवाचन का अभाव खटकता रहा है।
मैंने बचपन से ही यह अनुभव किया है कि किसी भी अच्छे कार्य में आगे आने पर प्रायः लोगों का हँसीपात्र बनता पड़ता है, कभी-कभी अपमान भी सहने पड़ते हैं तथा कुछ लोग असहिष्णुता से निन्दा भी करने लगते हैं लेकिन बचपन से ही मेरा स्वभाव था कि मैं इन हँसी, अपमान या निन्दा से न तो घबड़ाती थी और न अपने अच्छे कार्यों से विमुख ही होती थी, प्रत्युत् अपने कर्त्तव्य में लगी रहती थी। यही बात आज भी है। वे ही संस्कार काम कर रहे हैं।
मैं सोचा करती हूँ- ‘‘हो सकता है कि यह दृढ़ता, यह मनोबल, यह शुभ कार्यों को प्रारम्भ कर न छोड़ने का साहस शायद मुझे पूर्वजन्म के विशेष पुण्य से ही उपलब्ध हुआ है।
जब कोई व्यक्ति अच्छे कार्यों के प्रारंभ करने पर निन्दा आदि होने से उसे छोड़ देते हैं तब मुझे उन पर बहुत ही करुणा आती है कि-
‘‘अहो! अच्छे कार्यों में विरोध उपस्थित होने पर इन्हें उसे न छोड़ने का साहस क्यों नहीं है? छोटी-छोटी विघ्न-बाधाओं से ये लोग क्यों घबड़ा जाते हैं?’’
यह अनुभव की बात है कि जिनका मनोबल मजबूत है वे हर एक कार्य में सफलता प्राप्त कर लेते हैं। हाँ, देर भले ही लगे किन्तु उन्हें असफलता नहीं मिलती है।
फिर जिनके हृदय में िजनेन्द्रदेव की भक्ति विद्यमान है और जो आगम के अनुकूल प्रवृत्ति करने वाले हैं, वे यदि आगम के अनुकूल ही कोई कार्य प्रारंभ करते हैं तो उन्हें लोगों के शब्द-प्रहारों से डरना नहीं चाहिए।
एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में मैंने स्वप्न देखा कि-
‘‘मैं श्वेत वस्त्र पहनकर हाथ में पूजन की सामग्री लेकर मन्दिर जा रही हूँं। आकाश में ऊपर पूर्णिमा का पूर्ण चन्द्रमा मेरे साथ-साथ ही चल रहा है।
मेरे ऊपर और मेरे ही आस-पास में खूब अच्छी चाँदनी छिटक रही है किन्तु अन्यत्र कहीं भी चाँदनी नहीं जा रही है। इस दृश्य को देखकर पड़ोस के श्रावक लोग मुख में अंगुली डालकर बहुत ही आश्चर्य कर रहे हैं और साथ ही प्रशंसा भी कर रहे हैं…।’’
इस अद्भुत स्वप्न को देखने से मुझे बहुत ही प्रसन्नता रही और मैंने अपनी इच्छा सफल होती हुई समझी थी। प्रातः जब मैं स्नान और देवपूजन से निवृत्त हुई तब मैंने यह स्वप्न अपने छोटे भाई वैलाशचन्द को कहा। उसने झट से उत्तर दिया-
‘‘जीजी! तुम जल्दी ही अपनी मनोभावना सफल करोगी, ऐसा दिखता है।’’
शाम को जब पिताजी ऊपर आकर छत पर बैठे तब मैंने उन्हें भी अपना यह स्वप्न सुनाया। सुनकर वे जोर से हँसने लगे और फिर बोले-
‘‘बिटिया मैना! तुम तो घर से उड़ जाने के लिए ही मुझे बहकाती रहती हो ।’’
यद्यपि उस समय स्वप्न विनोद की भाषा में बदल गया था किन्तु उस स्वप्न से भी माता-पिता ने यह अच्छी तरह समझ लिया था कि-‘‘अब यह लड़की ज्यादा दिन गृह-बन्धन में नहीं रहेगी, इसके साथ सबकी प्रशंसारूपी चाँदनी भी चलती रहेगी।’’
इसी वैराग्य की चर्चा के बीच एक दिन पिता ने आकर कहा कि-‘‘सुना है, लखनऊ में एक दिगम्बर मुनिराज आये हुए हैं, उनका बहुत ही प्रभाव है।’’
मुझे दर्शनों की उत्कण्ठा जाग उठी किन्तु पिताजी इसलिए दर्शन कराने हेतु ले जाने को राजी नहीं हुए कि-‘‘कहीं यह वहीं न रह जावे ।’’
मेरे वैराग्य की चर्चा आचार्य महाराज तक पहुँच गई। किसी ने कहा-
‘‘टिवैतनगर में एक छोटी लड़की है जो दीक्षा लेना चाहती है।’’ तब महाराज जी ने कहा-
‘‘हाँ, ऐसे-ऐसे श्मशान वैराग्य तो बहुतों के देखे हैं। छोटी उम्र्र में दीक्षा लेना कोई सरल काम नहीं है ।’’
यह महाराज जी का जवाब किसी के द्वारा मेरे पास भी आ गया, फिर भी मैं रंचमात्र भी नहीं घबड़ाई और अपने निर्णय पर अडिग रही।
कुछ ही दिनों के बाद संघ टिवैतनगर आ गया, मानो मेरे मन की मुराद पूर्ण हुई। मैंने अपने जीवन में पहली बार दिगम्बर आचार्य के दर्शन करके अपने नेत्रों को सफल माना और जीवन को भी धन्य समझा।
मध्याह्न में समय पाकर मेरी माँ मुझे साथ लेकर महाराज जी के पास पहुँचीं और हाथ जोड़कर महाराज जी से बोलीं-
‘‘महाराज जी! यह लड़की ब्रह्मचर्य व्रत लेना चाहती है किन्तु हम लोग ऐसा नहीं चाहते हैं, इसलिए आप इसे समझाइये।’’
यद्यपि उस समय तक मैं बहुत ही संकोची स्वभाव की थी, मुझे किसी के सामने बोलने का साहस नहीं होता था फिर भी मैं साहस बटोर कर बोली-
‘‘महाराज जी! मुझे आत्म-कल्याण करने का अधिकार है या नहीं?…’’महाराज जी बोले-‘‘जैन धर्म में सभी को आत्मकल्याण करने का अधिकार है। तुम तो मनुष्य हो, यहाँ पशु-पक्षी तक को भी अधिकार है।’’ मेरा मन खिल उठा। फिर भी माँ बोलीं-
‘‘महाराज जी! वुँवारी कन्या कैसे दीक्षा ले सकती है?’’
तभी मैं बीच में बोल उठी-‘‘महाराज जी! ब्राह्मी-सुन्दरी और चन्दना कुंवारी कन्या थीं या नपुंसक?’’
महाराज जी हँस पड़े और बोले-‘‘वे सब कुवारी कन्यायें ही थीं नपुंसक नहीं, जैन धर्म में तो नपुंसक को दीक्षा लेने का अधिकार ही नहीं है।’’
मुझे शान्ति मिली और एक बला टली, ऐसा महसूस हुआ। पुनः एक दिन समय पाकर मध्याह्न में मेरी माँ मुझे साथ लेकर फिर महाराज जी के पास गईं और बोलीं-‘‘महाराज जी! इसका हाथ देखकर बताओ, इसके भाग्य में विवाह है या नहीं!’’
महाराज जी ने हाथ देखा और बहुत ही प्रसन्न होकर बोले-
इसके हाथ में राजयोग है, यह बहुत ही शीघ्र घर छोड़ देगी और इसका मरण संन्यास में है, घर में नहीं है।’’
तब मेरी प्रसन्नता का तो पार ही नहीं रहा तथा महाराज जी के उन शब्दों से माँ को भी कुछ शांति मिली। यद्यपि मेरी माँ ज्योतिष के नाम से ही चिढ़ती थीं और मैं भी ज्योतिष के प्रति अविश्वास रखती थी फिर भी दिगम्बर मुनि से पूछने में माँ को अविश्वास न होकर विश्वास था, अतएव उन्होंने प्रश्न किया था।
आचार्यश्री ने कहा-‘‘तुम्हें वैराग्य किस कारण से हुआ?’’
तब मैंने कहा-‘‘महाराज जी! पद्मनन्दिपंचविंशतिका ग्रंथ का स्वाध्याय करने से मुझे वैराग्य हुआ है। उसमें आया है-
इन्द्रत्वं च निगोदतां च बहुधा मध्ये तथा योनयः।
संसारे भ्रमता चिरं यदखिलाः प्राप्ता मयानन्तशः।।
तन्नापूर्वमिहास्ति किंचिदपि में हित्वा विकल्पावलिं।
सम्यग्दर्शनबोधवृत्तपदवीं तां देव! पूर्णां कुरु।।३।।
हे देव! मैंने चिरकाल से संसार में परिभ्रमण करते हुये बहुत बार ऊँचे से ऊँचा इन्द्र पद प्राप्त किया है तथा नीचे से नीची निगोद पर्याय को भी अनन्त बार प्राप्त किया है।
बीच में और भी जो समस्त अनन्त भव हैं उन सबको भी अनन्त बार प्राप्त किया है अतः उनमें से मुक्ति को प्रदान करने वाली सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप परिणति को छोड़कर और कोई भी वस्तु अपूर्व नहीं है।
इसलिए रत्नत्रय स्वरूप जिस पदवी को अभी तक मैंने नहीं प्राप्त किया है, हे नाथ! अब मेरे लिए उस अपूर्व पदवी को ही पूर्ण कीजिए।
इसलिए हे महाराज जी! अब मुझे भी इस रत्नत्रय को धारण करने की ही इच्छा हो रही है।
महाराज जी! इस ग्रन्थ के ‘‘अनित्यपंचाशत्’’ और ‘‘एकत्वसप्तति’’ अधिकार तो मुझे बहुत ही प्रिय लगते हैं।
बहिर्विषयसंबंधः सर्वः सर्वस्य सर्वदा।
अतस्तद्भिन्नचैतन्यबोधयोगौ तु दुर्लभौ।।
मोहोदयविषाक्रांतमपि स्वर्गसुखं चलम्।
का कथापरसौख्यानामलं भवसुखेन मे।।’’
इत्यादि प्रकार से मैंने कई एक श्लोक सुना दिये, तब महाराज जी ने कहा- ‘‘ठीक है, यदि तुम्हारा मन विरक्त हो चुका है तब फिर पुरुषार्थ करो।’’
ऐसे ही महाराज जी को आहार देते हुये और उनके दर्शन करते हुए तथा उनका उपदेश सुनते हुए दो-चार दिन निकल गये।
एक दिन बहुत सी लड़कियाँ मध्याह्न में आचार्यश्री के पास ‘‘जिनवाणी’’ नाम की पुस्तक लेकर बैठ गयीं और बोलीं-
‘‘महाराज जी! हमें सहस्रनाम पढ़ा दीजिये।’’
उन लड़कियों में मैं भी थी। महाराज जी ने स्तोत्र पढ़ाना शुरू किया। कुछ ही देर में वह स्तोत्र पूरा का पूरा पढ़ा दिया। आज सर्वप्रथम मैंने दिगम्बर मुनि के मुख से अध्ययन किया था अतः मैं अपने को ‘‘अनन्तमती’’ के समान भाग्यशालिनी समझने लगी, मैं उस समय हर्षविभोर थी।
महाराज जी बोले-‘‘देखो! सभी लड़कियाँ इसे कई बार पढ़कर अच्छा शुद्ध कर लो, मैं कल सबसे अलग-अलग सुनूँगा।’’घर में मुझे काम से फुरसत ही नहीं मिली, फिर भी दूसरे दिन सभी लड़कियों के साथ मैं भी ‘‘जिनवाणी’’ लेकर आ गई। सभी ने क्रम-क्रम से स्तोत्र सुनाना शुरू किया।
महाराज जी ने थोड़ा-थोड़ा सबका सुना और बीच-बीच में रोकते चले गये। जब मैंने सुनाना शुरू किया तब महाराज जी बड़े प्रेम से सुनते ही रहे। मैंने पूरा स्तोत्र सुना दिया तब महाराज जी प्रसन्न मुद्रा में बोले-
‘‘तुमने बहुत ही शुद्ध सुनाया है, देखो! तुम इस स्तोत्र का पाठ प्रतिदिन करना। यह स्तोत्र तुम्हारे सभी मनोरथों को सफल करेगा।’
’ मानों मुझे यह एक वरदान ही मिल गया है। ऐसा समझकर मैंने भी प्रतिदिन उस स्तोत्र का पाठ करना शुरू कर दिया।
मैंने पुनः महाराज जी से निवेदन किया कि-‘‘महाराज जी! आप मुझे कुछ और पढ़ा दें।’’
परन्तु महाराज जी ने टाल दिया क्योंकि वे मेरे वैराग्य की बात अच्छी तरह समझ चुके थे और सामाजिक विरोध भी देख रहे थे।
एक दिन आचार्य महाराज का केशलोंच होना था। मंदिर के बाहर बहुत बड़ा पाण्डाल बना था। इसी स्थान पर कभी-कभी सर्कस आदि दिखाए जाते थे।
जैन घराने की महिलाओं को सर्कस दिखाने के लिए इसी स्थान पर पाण्डाल बनाकर नाटक का रंगमंच बनाया गया था जहाँ पर ‘अकलंक निकलंक’ नाटक दिखाया गया था।
उस समय इसी स्थान पर महान् वैराग्यप्रद केशलोंच के लिए आचार्यश्री का मंच बनाया गया था। आचार्यश्री केशलोंच कर रहे थे, हजारों जैन-जैनेतर लोग इस वैराग्यमयी दृश्य को अपनी आँखों से देख रहे थे।
मैं भी महिलाओं में सभी के आगे ही बैठी इस उत्तम दृश्य को देख रही थी। देखते-देखते मध्य में कुछ लोग दुःख से खेदसूचक शब्द कह रहे थे-
‘‘अरे! देखो, महाराज जी कैसे निर्दय होकर अपने हाथों से घास-फूंस के समान शिर और दाढ़ी मूँछों के बाल उखाड़ रहे हैं!’’
कुछ लोग आश्चर्यचकित हो मुँह फाड़ रहे थे और कह रहे थे-‘‘ओह! यह कैसी साधुचर्या है, जहाँ इतनी निर्ममता!’’
नाना प्रकार के लोग नाना प्रकार की बातें कर रहे थे। इधर मेरे मन में वैराग्य का स्रोत उमड़ता चला आ रहा था। मैं मन ही मन सोचने लगी-‘‘हे भगवन् ! हे तीन लोक के नाथ ! मेरे जीवन में ऐसा दिन कब आयेगा ?’’
इसी विचार के साथ मेरी बायीं आँख और बाईं भुजा फड़कने लगी। मेरे मन में भावों की सफलता की आनन्द लहर दौड़ गई। मैं पुनः सोचने लगी-
‘‘सचमुच में शरीर से निर्ममता की यही तो परीक्षा है और जब इसमें उत्तीर्ण हो जाऊँगी, तब संसार का किनारा पा लूँगी।’’
इस प्रकार से उस समय वैराग्यमयी अनेक उत्तम-उत्तम विचार आते गये। महाराज जी का केशलोंच पूर्ण हो गया और महाराज जी ने बहुत ही सुन्दर उपदेश दिया।
श्रोतागण भाव-विभोर हुए अपने-अपने स्थान चले गये।
उस दृश्य को देखे हुए यद्यपि आज मुझे ५११ वर्ष हो गये हैं फिर भी जब भी मैं केशलोंच करती हूँ प्रायः मुझे उस समय का वह आचार्यश्री का प्रथम केशलोंच दर्शन, उस समय के उठने वाले मेरे अंतःस्थल के विचार और
मेरी शुभ आँख फड़क कर मुझे उज्ज्वल भविष्य की सूचना मिलना आदि सारा दृश्य और सारी बातें चलचित्र के दृश्य के समान मेरे स्मृति पटल पर आज भी ज्यों की त्यों आ जाती हैं।
जब मैं दूसरों का केशलोंच करने लगती हूँ या देखने लगती हूँ तब भी प्रायः वह दृश्य मेरे दृष्टिपथ के सामने उपस्थित हो जाया करता है। आज जो लोग सभा में साधुओं के केशलोंच करने को प्रदर्शन कहते हैं और विरोध करते हैं तब मैं यही सोचा करती हूँ कि-‘‘उपासकाध्ययन’’ में एक पंक्ति आई है-
‘‘हे आत्मन्! तूने कुतूहल बुद्धि से भी सिद्ध धाम का स्पर्श नहीं किया है अन्यथा तू उसे अब तक प्राप्त कर लेता, ऐसे ही यदि कोई मनुष्य कुतूहल की दृष्टि से भी ऐसे वैराग्य के दृश्य देख लेगा और
एक क्षण के लिए भी यदि उसके हृदय में वैराग्य की भावना उत्पन्न होगी तो भी कभी न कभी व्ाह भावना अवश्य ही विकसित होकर बड़ा रूप ले सकेगी।
इसलिए सभा में हजारों नर-नारियों के बीच केशलोंच करना तो हजारों वैराग्य के उपदेश की अपेक्षा भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।
क्या पता कब किसके मन में वैराग्य का अंकुर प्रगट हो जावे और वह कालांतर में केशलोंच करने का दिन ला देवे!
देखो, लोग सिनेमा के दृश्यों को देखकर उसका अनुकरण करना शुरू कर देते हैं। बेमालूम ये सब दृश्य मन पर अपना प्रभाव डाल जाते हैं वैसे ही यह महावैराग्यमयी केशलोंच का दृश्य भी भव्यों के मन पर वैराग्य का प्रभाव डाल देता है और वह प्रभाव आज नहीं तो कल,
एक न एक दिन अथवा इस भव में न सही तो किसी न किसी भव में अपना कार्य अवश्य ही करेगा इसमें कोई संदेह नहीं है, इसलिए सभा के केशलोंच की कभी निन्दा नहीं करनी चाहिए प्रत्युत् निन्दकों को समझाना चाहिए।
एक दिन समय पाकर मैंने महाराज जी से कहा-‘‘महाराज जी! आपके विहार के समय मैं भी आपके साथ चलना चाहती हूँ।’’
महाराज जी सामाजिक वातावरण से कुछ असमंजस में अवश्य थे फिर भी मेरे साहस को बढ़ाते रहते थे। इधर जैसे ही महाराज जी के विहार का समय निकट आया वैसे ही संघ में एक क्षुल्लक सुमतिसागर नाम के थे१, वे समाज के लोगों को अन्दर ही अन्दर भड़काने लगे और बोले-
‘‘इस लड़की को जबरदस्ती ले जाकर कहीं आरा आदि के आश्रम में छोड़ आओ। इसकी इतनी छोटी उमर है। संघ में रहना कदापि उचित नहीं है क्योंकि संघ में कोई एक भी महिला, ब्रह्मचारिणी या आर्यिका नहीं है।’’
किन्तु इससे पूर्व उन्होंने मुझे एक बार यह कहा था कि-‘‘देखो बेटी! तुम आश्रम में कभी भी नहीं जाना क्योंकि काजल की कोठरी में वैâसो हूँ सयानो जाय, एक दाग लागे पर लागे ही लागे है।’’
ऐसी ऐसी अनेक शिक्षायें देकर उन्होंने मेरे उत्साह को बढ़ा दिया था और मेरे दृढ़ वैराग्य की बहुत ही प्रशंसा करते रहते थे पुनः पता नहीं कि उन्हीं क्षुल्लक जी ने ही ऐसी कूटनीति क्यों चलाई? और
समाज को एक तरफ ले-ले जाकर क्यों भड़काने लगे? जो भी हो, मुझे इस बात का आश्चर्य तो अवश्य हुआ किन्तु मैं किंचित् भी घबराई नहीं, धैर्य से अपने घर से निकलने के पुरुषार्थ में लगी रही।
उधर घर में माँ-पिता को जैसे-तैसे समझाती रहती।वे कुछ क्षण के लिए समझ जाते और महाराज जी के साथ भेजने को तैयार हो जाते पुनः क्षुल्लक जी के व समाज के विरोध से तथा मोह, ममता से विक्षिप्त हो जाते।
प्रातः महाराज जी का विहार त्रिलोकपुर की तरफ होना निश्चित था। मेरे चाचा बालचन्द्र आदि सभी ने मिलकर यह निर्णय कर लिया कि-
‘‘आज रात्रि में महाराज जी की आरती व भजन के समय भी मैना को घर से वहाँ नहीं भेजना है।’’ कड़ी पहरेदारी जैसी व्यवस्था थी। मैं उस विरुद्ध वातावरण से घबड़ा गई और रात्रि में घर में महामंत्र का जाप करती रही।
जब रात्रि के १०.३० बज चुके थे, सब लोग अपने-अपने घर पर चले गये थे तब मैं उठी। माँ को समझा-बुझाकर महाराज जी के अंतिम दर्शन करने की आज्ञा लेकर अकेली झट महाराज जी के स्थान पर आ गई।
कुछ भाक्तिक श्रावक, जो कि महाराज जी के पास ही सोते थे, उन्होंने मुझे देखा तो झट अन्दर बुलाकर महाराज जी के दर्शन करा दिये।
मैंने घबड़ाकर महाराज जी से एक स्वर में ही सारी स्थिति सुना दी।
महाराज जी ने मौन से ही मुझे धैर्य रखने का संकेत किया और मेरे मस्तक पर पीछी रखकर बहुत ही वात्सल्य से आशीर्वाद दिया। तब मेरा मन कुछ शांत हुआ। उसके पूर्व दिन भी मैंने दिन में महाराज जी से चाचा-ताऊ के विरोध के शब्द सुनाये थे। तब उन्होंने यही कहा था कि-
‘‘वे सब अपना कर्त्तव्य कर रहे हैं, तुम अपना कर्तव्य करो। तुम्हें उनके शब्दों पर ध्यान ही नहीं देना चाहिए, प्रत्युत् सुनकर मन में उतारना ही नहीं चाहिए।
देखो, अर्जुन का लक्ष्य बाण बेधते समय न पत्तों पर था, न सघन वृक्ष पर और न किसी पर, उसे तो केवल चन्द्रवेध के लक्ष्य की आँख की पुतली ही दिख रही थी और कुछ भी नहीं दिख रहा था।
वैसे ही तुम्हें भी केवल अपना एक लक्ष्य ‘घर से निकलना’ ही दिखना चाहिए, बाकी कौन क्या कह रहे हैं, यह कुछ भी नहीं दिखना चाहिए।’’
महाराज जी की यह शिक्षा पूर्णतया मेरे हृदय में प्रवेश कर चुकी थी। अतः अब मैं निश्च्ािंत हो घर आकर सो गई। प्रातः जल्दी उठकर सामायिक आदि से निवृत्त होकर महाराज जी के विहार में आ गई।
महाराज जी ने मन्दिर के दर्शन किये। बाहर निकलते ही उनकी आरती की गई और पुष्पवर्षा तथा जयकारे के नारों के साथ महाराज जी सरावगी मुहल्ले से निकल कर बाजार में होते हुये गाँव के बाहर आ गये। मैं सभी महिलाओं के साथ थी।
माँ भी साथ ही चल रही थीं। जब महाराज जी गाँव के बाहर पहुँचे तभी श्रावकों ने महाराज जी से प्रार्थना की कि अब आप सब महिलाओं को, बच्चों को आशीर्वाद देकर वापस जाने की आज्ञा देवें। महाराज जी रुके, सबने दर्शन कर वापस प्रस्थान किया
और मैं महाराज जी के साथ आगे चल पड़ी। बस फिर क्या था! ‘हो हल्ला’ मच गया। मेरे ताऊ और चाचा जोर-जोर से मुझे वापस चलने को कहने लगे। जब मैंने उन किसी की एक न मानी तब ताऊ ने समझाना प्रारंभ किया-
‘‘बेटी! अभी वापस चलो, तुम अकेली महाराज जी के साथ कैसे जाओगी? हम चातुर्मास में वहीं पर भेज देंगे।’’
इधर महाराज जी के चातुर्मास के लिए टिवैतनगर के लोग लाखों प्रयत्न कर रहे थे। कुछ संभावना भी टिवैतनगर चातुर्मास की थी, फिर भी मैं उस समय वापस घर नहीं आना चाहती थी।
मैं रोने लग गई। तब भी वहाँ करुणा करने वाला कौन था? माँ भी पहले से ही रो रही थीं। इतने हल्ले-गुल्ले के विषम वातावरण को देखकर महाराज जी तो लम्बे पैरों आगे बढ़ गये। मैं उन्हें चातक पक्षी की तरह आँख फाड़कर देखने लगी और मन ही मन कहने लगी-
‘‘हे तीर्थंकर देव! हे दया के सागर! अब तुम मेरे ऊपर दया करो और मेरी रक्षा करो, मुझे घर जाने से बचाओ।’’
परन्तु शायद अभी मेरी काललब्धि नहीं आई थी। जब मैं आगे बढ़कर भागने को तैयार हुई तभी मेरे ताऊ ने आगे बढ़कर मेरा हाथ पकड़ लिया और जबरदस्ती पकड़कर घर ले आये।
मैं रास्ते में रोते हुए वापस आ रही थी और साथ ही मन में स्त्रीपर्याय की घोर निन्दा कर रही थी तथा यह सोच रही थी कि ‘यदि मैं पुरुष होती तो रात-बिरात कभी भी दक्षिण चली जाती और किसी भी मुनि से दीक्षा ले लेती।
जो भी हो अब मैं इस जन्म में ऐसा ही पुरुषार्थ करूंगी कि जिससे मुझे इस संसार में पुनः स्त्रीपर्याय न मिले।’ उस दिन प्रायः सारे दिन ही मैं रोती रही। खाना-पीना कुछ नहीं किया, मात्र जरा सा दूध पीकर रह गई थी।
यद्यपि मेरे इस प्रकार के रुदन से माँ बहुत ही दुःखी हुईं परन्तु उनके लिए तो इधर वुँआ और उधर खाई दिख रही थी। वे मुझे भेज देतीं तो भी उन्हें दुःख था और नहीं जा पाई सो रोती रही, इसका भी उन्हें दुःख रहा।
समय ऐसी चीज है कि गहरे से गहरे घाव पर भी मलहम-पट्टी करके उसे अच्छा कर देता है, भर देता है किन्तु मेरे लिए समय ने उल्टा ही काम किया।
जैसे-जैसे वह बीतता जाता, वैसे-वैसे मेरी आकुलता और चिन्ता बढ़ती जाती। इधर गांव के इस विषम वातावरण से आचार्यश्री ने यहाँ टिवैतनगर के चातुर्मास का मन ही हटा लिया और कई एक दिन बाद उनके बाराबंकी चातुर्मास होने का समाचार आ गया।
इसके पूर्व इधर मैं घर के सारे कामों को करते हुये भी पढ़ने में अपना उपयोग लगाती रहती थी।
माँ गर्भवती थीं, प्रायः नवाँ महीना चल रहा था, उनसे उठना-बैठना, घर के काम करना कठिन हो रहा था अतः मैं विरक्तमना होकर भी और चिंतित होकर भी, माँ की सेवा, घर के सभी काम व नन्हें-नन्हें भाई-बहनों को सम्भालना अपना कर्तव्य समझकर बड़े प्रेम से कर रही थी।
पिताजी रोज शाम को छत पर बैठकर मनोरंजन किया करते थे। वे एक दिन बोले-‘‘देखो बिटिया! सुना है सम्मेदशिखर जी में बहुत बड़ा संघ ठहरा हुआ है।
लोग कहते हैं कि उसमें बहुत सी आर्यिकाएं भी हैं, अतः तुम्हें मैं वहीं भेज आऊँगा, तुम चिन्ता मत करो।’’
फिर क्या था, मैंने जिद करना शुरू कर दिया और बोली-‘‘आज ही मुझे शिखर जी ले चलो, संघ का दर्शन करा दो।’’
तब पिताजी ने आज-कल, आज-कल कहकर टालना शुरू किया और मुझे रोते देखकर सान्त्वना देना शुरू कर दिया किन्तु मुझे एक-एक दिन क्या, एक-एक क्षण भी निकालना कठिन हो रहा था।
उस समय मैं अपनी पराधीनता की, अपने पूर्वकृत कर्मों की निन्दा करके ही मन को कुछ शान्त कर पाती थी।
एक दिन पिता ने पाठशाला के पण्डित जी को बुलाकर कहा-‘‘बिटिया! तुम इनसे कुछ पढ़ो, जिससे तुम्हारा मन बहल जायेगा।’’
यद्यपि मैंने एक-दो दिन कुछ पढ़ा। पण्डित जी से छहढ़ाला के बाद की पुस्तकों को पढ़ने के नाम लिखे।
पण्डित जी ने बताया कि छहढ़ाला के बाद रत्नकरण्डश्रावकाचार, सिद्धान्त प्रवेशिका, द्र्रव्यसंग्रह, धनंजय नाममाला आदि पढ़नी चाहिए किन्तु मुझे पंडित जी के पास बैठकर पढ़ने का समय नहीं मिल सका।
दूसरी बात महाराज जी ने एक दिन कहा था कि-
‘‘आजकल का समय बहुत खराब है, तुम्हें अन्य किसी से न पढ़कर स्वयं ही अध्ययन करना चाहिए। तुम्हारी उम्र बहुत छोटी है, व्यर्थ ही कोई उँगली न उठा दे।’’
इस गुरु-शिक्षा से भी मैं सावधान थी, अतः पण्डित जी से न पढ़कर मैंने स्वयं ही रत्नकरण्डश्रावकाचार रटना शुरू कर दिया। घर के काम-काज करते हुए तथा नन्हें-नन्हें भाई-बहनों को संभालते हुए, गोद में खिलाते हुए भी मैं प्रतिदिन ४-५ श्लोक याद कर लिया करती थी
और पुनः अपनी छोटी बहन शांति को या भाई वैलाश को सुना दिया करती थी।
मैं उस समय प्रातः जल्दी उठकर नियमित सामायिक करती, मन्दिर में शुद्ध द्रव्य से पूजा करती और घर में शुद्ध भोजन ही बनाकर खाती थी तथा सम्मेदशिखर दर्शन के लिए और आचार्य संघ में रहने के लिए प्रायः समय पाकर माता-पिता से कहा करती थी।
श्रद्धा से मन्त्रित जल का प्रभाव-
जब एक दिन माँ के पेट में बहुत जोरों का दर्द उठा, वे तड़फड़ाने लगीं। मैं जल्दी से उठकर जिनवाणी लाकर उन्हें कुछ वैराग्यवर्धक पाठ सुनाने लगी।
जब दादी आई और उन्होंने उनको ऐसी स्थिति में देखा तब वे झट से उन्हें पहले से ही साफ किये गये ऐसे एक कमरे में ले गयीं, लिटा दिया और पड़ोस से धाय को बुलाकर अन्दर भेज दिया।
दरवाजों पर परदे लगा दिये गये और चारों तरफ से सभी का जाना वहाँ रोक दिया गया।
तब मैं शुद्ध वस्त्र पहन कर एक कटोरी में शुद्ध छना हुआ जल लेकर एकांत में जाकर बैठ गई और जिनवाणी हाथ में लेकर सामने चौकी पर कटोरी रखकर ‘सहस्रनामस्तोत्र’ का पाठ करने लगी।
कुछ देर में सहस्रनाम पूरा पढ़कर वह जल मंत्रित कर दिया। उस समय सहस्रनाम में से एक श्लोक का अर्थ मुझे कुछ समझ में आता था जो यह था-
‘‘पठेदष्टोत्तरं नाम्नां सहस्रं पापशांतये।’’
जो भगवान के इन १००८ नामों को पढ़ता है उसके हजारों पाप शांत हो जाते हैं।
इस श्रद्धा से सहस्रनाम का पाठ करके मैं वह कटोरी हाथ में लेकर कमरे से बाहर आई। दादी को जैसे-तैसे राजी करके मैं अन्दर माँ के पास गई और उन्हें कष्ट में दुःखी देख मैंने वह जल उन्हें पिला दिया।
दादी के हल्ले-गुल्ले से मैं जल्दी ही बाहर आ गई। तभी कुछ देर बाद दादी ने कहा-
‘‘मैना! जल्दी से थाली बजाओ, तुम्हारी एक बहन आ गई है।’’
मैंने थाली बजाई। दुकान पर ‘कन्यारत्न’ के जन्म का समाचार भेज दिया। किसी ने कहा-‘‘लाला जी! छठी लड़की हुई है खूब कमाई करते रहो, ये सब एक-एक लाख के हुण्डा हैं।’’
तभी पिता ने कहा-‘‘चुप रहो, वह कन्या भी मुट्ठी बाँध कर आई है और अपने बड़े भारी भाग्य को साथ में लाई है।’’
पिताजी कन्या जन्म के बाद भी घर के वातावरण को अप्रशस्त, गमगीन कतई नहीं होने देते थे प्रत्युत् स्वयं खुश होते थे और दूसरों को भी खुश करते थे।
कुछ देर बाद धाय ने बाहर आकर कहा-‘‘पता नहीं, इस लड़की ने कटोरी में क्या लाकर पिला दिया जिससे बच्चा सुख से हो गया, नहीं तो आज इन्हें बहुत ही कष्ट दिख रहा था और मुझे तो आज बच्चा होने के लक्षण भी नहीं दिखते थे,
ऐसा लगता था कि इन्हें आज रात्रि भर भी ऐसे ही निकालना पड़ेगा, या डॉक्टरनी को बुलाना पड़ेगा। तभी दादी ने पूछा-
‘‘तुमने क्या पिलाया था?’’
मैंने कहा-‘‘मैंने सहस्रनाम पढ़कर जल पिलाया था।’’
तब सभी ने इसे स्वीकार किया कि स्तोत्र से मंत्रित जल में बहुत बड़ी शक्ति होती है कि जिसने इनकी प्रसव वेदना को कम कर दिया और तत्काल ही सुखपूर्वक बच्चा हो गया।
अब मैं बहुत खुश थी और समझती थी कि माँ मुझे महाराज जी के दर्शन करने अवश्य ही भेज देंगी। इसके पूर्व जब-जब मैं माँ से बाराबंकी जाकर महाराज जी के दर्शन करने का भाव व्यक्त करती तब वे कह दिया करती थीं कि-
‘‘बिटिया मैना! तुम मेरी यह सौर (प्रसूति) और पार कर दो फिर चली जाना दर्शन कर आना ।’’
अतः उनके उन शब्दों को बार-बार याद कर मैं धैर्य धारण कर लिया करती थी। जब माँ को छह दिन हो गये और उधर की भाषा में पहला पानी पड़ गया-छट्ठी हो गई,
तभी से मैंने जाने की आकुलता चालू कर दी, किन्तु दादी से वृद्धावस्था के कारण कुछ काम होता नहीं था। इसके अतिरिक्त रवीन्द्र लगभग……दो साल का था, वह मुझसे बहुत ही हिला हुआ था।
मेरे पास ही सोता था, मेरे हाथ से ही खाना खाता था और मेरे पास ही रहता था। उस समय माँ को न पाकर उसने और भी रोना शुरू कर दिया था। मैं ही उसे बहलाती थी और रात्रि में अपने पास सुलाती थी तथा मेरी जाने-जाने की चर्चा चल रही थी
अतः वह छोटा सा बालक रात्रि में मेरी धोती पकड़ कर ही सोता था तथा रात्रि भर धोती पकड़े ही रहता था कि कहीं जीजी मुझे छोड़कर चली न जाये।
जब-जब मैं कहती थी कि-‘‘ अब मुझे एक बार बाराबंकी भेज दो तब-तब माँ घबड़ातीं और कहतीं-
‘‘बिटिया मैना! एक पानी और डलवा दो फिर कुछ कहो, देखो, भला रवीन्द्र को कौन संभालेगा ?’’
‘‘मैं चुप हो जाती, किन्तु उन दिनों मेरे हृदय से ममता बिल्कुल निकल गई थी और मेरा हृदय इतना निर्मम बन चुका था कि मुझे उस समय उन माँ-पिता आदि की बातें, ममत्व भरे परिणाम और करुणामयी मुद्रा सब कुछ भी केवल वैराग्य बढ़ाने में कारण बनते थे। मैं सोचने लगती थी-
‘‘अहो! संसार समुद्र को पार करना कितना कठिन है। देखो, यह सब मोही जीव वैâसे दुःखी हो रहे हैं? मैं कैसे जल्दी से जल्दी इन सब मोह बन्धनों से छूटकर गुरुदेव की शरण में, धर्म की शरण में पहुँचूँ? क्या करूँ?’’
बस सोचते-सोचते जिनेन्द्र देव का स्मरण कर उन्हीं से प्रार्थना करने लगती-‘‘हे नाथ! हे परमकरुणासागर! मुझे भी अब जल्दी ही अपने हाथ का अवलम्बन देकर गृह कूप से निकालो, मेरा बेड़ा पार करो ।’’
धीरे-धीरे दूसरा और तीसरा पानी पड़ गया। यह वह समय था कि जब बच्चे हुई जच्चा को एक माह तक उसी प्रसूतिगृह में ही रहना पड़ता था। वह कुछ भी छू नहीं सकती थी और न उनको ही कोई छू सकता था। भगवान जाने उधर भी आज क्या हो रहा है ?
रक्षाबन्धन पर्व आ गया था। माँ को २२ दिन हो चुके थे। चौथा पानी१ पड़ चुका था। मैंने उस कन्या का अपना मनपसंद ‘मालती’ यह नाम रखा और उसे ऊपर से नहलाकर उठा लिया। नये कपड़े अपने हाथ से सिले हुए थे सो उसे प्यार से पहनाये।
पुनः उस कन्या के हाथ से भी पिता व सभी भाइयों के हाथ में राखी बंधवाई। बस मैं मानो कृतकृत्य हो चुकी थी। कन्या को वापस माँ को दे दिया और मैं पुनः महाराज जी के दर्शनों के लिए प्रार्थना करने लगी किन्तु पिता से आज्ञा कदापि नहीं मिल पा रही थी। वे जानते थे और खूब जानते थे कि-
‘‘यह बाराबंकी जाकर फिर वापस नहीं आ सकती है।’’ दूसरे ही दिन किसी कार्यवश पिता त्रिलोकपुर चले गये थे। उन्हें एक दिन बाद ही आना था। बस, मैंने अच्छा मौका देखकर बहुत कुछ अनुनय-विनय करके माँ को राजी किया और छोटे भाई वैलाशचन्द्र के साथ बाराबंकी जाने निर्णय बना लिया।
यह वह समय था कि जब सयानी कुवारी कन्या को घर से बाहर भी नहीं निकलने दिया जाता था, तब बाहर दूसरे गाँव, बिना माता-पिता के, अन्य के साथ, अकेली जाना बहुत ही कठिन था फिर भी इतने उत्कण्ठ भावों को आखिर कोई कब तक रोक पाता? शेष में माँ ने कहा-
‘‘देखो बिटिया! तुम पिता के आने से पहले ही आ जाना अन्यथा प्रसूतिगृह (सौर) में ही वो मेरे ऊपर उपद्रव कर डालेंगे कि तुमने मैना को कैसे जाने दिया?….।’’
उसके पूर्व भी जब से मेरा गृहत्याग का विचार बना था तभी से पिता सदैव माँ को यही फटकारा करते थे कि-
‘‘तुमने ही इसे रात-दिन पढ़ा-पढ़ा कर ऐसी बना दिया है। न कभी खेलने जाने दिया और न कभी इच्छानुसार पाठशाला ही भेजा, सदा बन्धन में रख-रखकर ओैर शीलकथा, दर्शन कथा आदि कथाएं पढ़ा-पढ़ा कर इसका मूड खराब कर दिया है…..।’’
अतः इस समय भी वे बहुत ही घबड़ा रही थीं। उस दिन तक घर की तिजोरी व दुकान के रुपयों की सभी चाबियाँ मेरे पास ही रहती थीं। पिताजी मुझे अपना बड़ा पुत्र ही समझते थे और दुकान से बिना गिने ही रुपये लाकर मुझे संभला दिया करते थे।
मैं भी उन रुपयों को गिनकर सौ-सौ की गड्डी बनाकर एक अलग पेटी में रखकर ताला लगा दिया करती थी और चाबी अपने पास रखती थी। जब भी वो रुपये मांगते मैं व्यवस्थित गड्डियाँ लाकर दे देती तो पिताजी बहुत ही खुश होते थे और मेरे ऊपर बहुत ही विश्वास तथा बहुत ही स्नेह रखते थे। अक्सर ही उनके मुख से ये शब्द निकल जाया करते थे-
‘‘यदि यह लड़का होता तो जीवन भर मुझे कितना सुख देता। उस छोटी सी उम्र में भी माता-पिता प्रायः हर किसी विषय में मेरे से सलाह लिया करते थे और मैं उन्हें उचित-योग्य सलाह दिया करती थी।
जिससे वे सदा ही मुझ पर खुश रहते थे और पंडित मनोहरलाल जी के शब्दों में वे मुझे कोई देवी का ही अवतार समझ लेते। यदि पिताजी एक दिन भी स्वाध्याय न करते तो मैं उनके पीछे पड़ जाती और स्वाध्याय कराकर ही मानती थी।
जब वे शास्त्र पढ़ने बैठते, तब मैं भी बैठकर उन्हें खूब अच्छा अर्थ समझाने लगती थी।