Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का स्वरूप

November 23, 2022स्वाध्याय करेंaadesh

सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का स्वरूप


सच्चे देव का स्वरूप


सच्चे देव-सच्चे देव की तीन विशेषताएँ हैं-सर्वज्ञता, वीतरागता और हितोपदेशिता। अत: जिनके अंदर-बाहर, राग-द्वेष और मोह का लेशांश भी न होवे ही हमारे देव हैं। वीतरागी होने से अस्त्र, शस्त्र, वस्त्र और अलंकरण से रहित परम शांत मुद्रा ही सच्चे देव का स्वरूप है। राग-द्वेष-मोह का समूलोच्छेद हो जाने के कारण उनके अज्ञान का सर्वनाश हो जाता है। वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाते हैं। सर्वज्ञ और वीतरागी होने के कारण वे जो उपदेश देते है। वे सबके कल्याण के लिए होता है। उनका उपदेश किसी वर्ग विशेष के लिए न होकर समस्त प्राणीमात्र के लिए होता है। इसलिए उन्हें परम हितोपदेशी कहते हैं। इस प्रकार वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशिता ही सच्चे देव का स्वरूप है। ये ही तीर्थंकर अरहन्त और परमात्मा कहलाते हैं।

सच्चे शास्त्र का स्वरूप


आज लोक में अनेक प्रकार के शास्त्र प्रचलित हैं। अलग-अलग विषयों के अलग-अलग साहित्य भण्डार लगे हैं। अब प्रश्न उठता है इस विपुल भण्डार में कौन से शास्त्र हैं जो हमारे हित के कारण हैं तथा जिन्हें सत्यशास्त्र कहा जा सके ? सत्य को उपलब्ध व्यक्ति द्वारा रचित शास्त्र ही सत् शास्त्र हो सकते हैं। राग-द्वेष और मोह से ग्रसित प्राणी ही असत्य वाणी का प्रयोग करता है। असत्यवाणी हमारे लिए हितकर नहीं है। अत: राग-द्वेष से रहित व्यक्ति द्वारा रचित शास्त्र ही सत् शास्त्र की कोटि में आते हैं। इसलिए सम्यक्दृष्टि आप्तवीतरागी पुरुषों द्वारा रचित शास्त्र को ही सत् शास्त्र मानता है। कहा भी गया है। ‘‘वक्तु: प्रामाण्यात् वचन प्रामाण्यम्’’ अर्थात् वक्ता की प्रामाणिकता से वचनों में प्रामाणिकता आती है। क्या बोला जा रहा है ? यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है कि जितना कि कौन बोल रहा है ? यदि वक्ता अप्रामाणिक है तो वह मिश्री में जहर की तरह अपनी मीठी वाणी के द्वारा अहितकर उपदेश भी दे सकता है। वक्ता के प्रमाणिक होने पर किसी प्रकार का अविश्वास नहीं रहता। इसे निम्न उदारहरण से समझा जा सकता है-

मान लीजिए आप ऐसे जंगल में फंस गये, जहाँ कोई मार्ग नहीं सूझता हो। सोचकर निकले किसी गांव तक पहुँचने का, पर बीच में ही भटक गये। अनेकों पगडंडियाँ फूटी हैं। असमंजस की स्थिति में खड़े हैं कि किधर चलें ? तभी देखते हैं, कि सामने से घुटनों तक मैली-कुचैली धोती पहने अर्द्धनग्नबदन, बिखरे बालों वाला काला-कलूटा भीमकाय व्यक्ति चला आ रहा है। देखते ही मन भयाक्रान्त हो उठता है। फिर भी जैसे-तैसे साहस बटोरकर उससे पूछा भी, तो उसने ऐसा कर्कश उत्तर दिया मानो खाने को ही दौड़ता हो। ‘रास्ता भूल गया है…..मार्ग नहीं जानता था तो क्यों आया यहाँ पर…? तेरे बाप का नौकर हूँ क्या ?…….चले जा अपनी दायीं ओर……।’ आप ही बतायें, उसके बताये मार्ग पर आपके कदम कभी भी बढ़ेंगे। आप रात्रि वहीं बिताने को तैयार हो सकते हैं। मगर उस व्यक्ति के द्वारा इंगित दिशा पर एक कदम भी चलने का साहस नहीं कर सकेंगे।

अब आप निराश खड़े हैं। तभी देखते ही कि सामने से भव्य आकृति वाला मनुष्य चला आ रहा है। धोती-दुपट्टा पहने, हाथ में कमंडल लिए, माथे पर चंदन का तिलक लगाए, मुख से प्रभु के गीत गुनगुनाता, वह दूर से ही कोई भद्र पुरुष प्रतीत हो रहा है। पास आने पर आपने उन्हें नमस्कार किया, प्रत्युत्तर में उसने भी नमस्कार किया। आपके द्वारा मार्ग पूछने पर उन्होंने कहा, ‘बड़े भाग्यवान हो पथिक, जो अब तक सुरक्षित बचे हो। यह वन ही ऐसा है। यहाँ अनेकों प्राणी प्रतिदिन भटक जाते हैं। खैर, घबराने की कोई बात नहीं अभी दिन ढलने में समय शेष है। तुम्हारा गांव भी ज्यादा दूर नहीं है। दांयी ओर जाने वाली इस पगडंडी से निकल जाओ। करीब एक मील आगे जाने पर एक नाला पड़ेगा, उसे पार करके उसके दांयी ओर मुड़ जाना करीब आधा मील और चलोगे तो तुम्हें खेत दिखाई पड़ने लगेंगे। उन खेतों के बगल से बायीं ओर एक पगडंडी जाती है, उसे पकड़कर तुम सीधे चले जाना, करीब एक मील चलने पर तुम अपने गांव पहुँच जाओगे।’

कल्पना कीजिए क्या इस व्यक्ति की बात पर आपको विश्वास नहीं होगा ? सहज ही आप उसकी बात का विश्वास कर लेंगे तथा उसे धन्यवाद ज्ञापित करते हुए आपके कदम अनायास उस दिशा में बढ़ जायेंगे। देवि! कही तो दोनों ने एक ही बात थी। पर पहले व्यक्ति के अप्रमाणिक होने से उसके वचनों पर विश्वास नहीं हुआ तथा दूसरे की प्रमाणिकता ने सहज ही उस पर विश्वास उत्पन्न करा दिया। इसलिए कहा गया है कि वक्ता की प्रमाणिकता से वचनों में प्रमाणिकता आती है।

सत्य शास्त्र आप्त प्रणीत होने के साथ-साथ उसमें कुछ और भी विशेषताएँ होती हैं। यथा वह पूर्वापर विरोध से रहित हो। दूसरों की युक्तियों एवं तर्कों से उसके मूलभूत सिद्धान्त अखण्डनीय हो। प्राणी-मात्र का हितकारी हो। प्रयोजन- भूत बातों का कथन हो तथा वह उन्मार्ग का नाश करने वाला हो। तभी वह सत्यशास्त्र की कोटि में आ सकता है। इसके विपरीत एकान्त मतावलम्बी रागीद्वेषी व्यक्तियों द्वारा लिखे जाने वाले शास्त्र कुशास्त्र की कोटि में आते हैं।

सच्चे गुरु का स्वरूप


गुरु का मोक्षमार्ग में महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये हमारे मार्गदर्शक हैं। देव आज है नहीं और शास्त्र मौन हैं। ऐसी स्थिति में गुरु ही हमारे सहायी होते हैं। गुरु के अभाव में हम शास्त्र के रहस्यों को भी नहीं समझ सकते। जैसे समुद्र का जल खारा होता है हम उसमें नहा भी नहीं पाते और न ही उससे हमारी प्यास बुझती है। लेकिन वही जल सूर्य के प्रताप से वाष्पीकृत होकर बादल बनकर बरसता है तो वह मीठा और तृप्तिकर बन जाता है। हम आनंद के साथ उस जल में अवगाहित होते हैं। वैसे ही शास्त्र भी अगम समुद्र की तरह है। हम अपने क्षुद्र ज्ञान के बल से उसमें अवगाहित नहीं हो पाते। गुरु अपने अनुभव के प्रताप से उसे अवशोषित कर बादल की तरह जब हम पर बरसाते हैं तब महान तृप्ति और आल्हाद उत्पन्न होता है तथा हम सहज ही शास्त्रों के मर्म को समझ जाते हैं। जो प्रेरणा हमें गुरुओं की कृपा से मिलती है, वह शास्त्र और देव से नहीं, क्योंकि गुरु तो जीवित देव होते हैं। शास्त्र और देवप्रतिमा तो अचेतन है।

मान लें आपको किसी अपरिचित रास्ते से गुजरना पड़े, तो आप एकदम साहस नहीं जुटा पाते। भय लगता है। पता नहीं आगे यह रास्ता कैसा है ? कितनी दुर्गम घाटियाँ हैं ? कितने नदी-नाले हैं ? कितने मोड़ हैं ? कहीं जंगली जानवरों का आतंक तो नहीं? ऐसी अनेक आशंकाओं से मन भयाक्रांत हो उठता है। रास्ते का पता लगने के बाद भी पांव आगे नहीं बढ़ पाते। संयोगत: वहीं कोई आपका चिर-परिचित मित्र मिल जाये और वह आपसे कहे-अरे! यह रास्ता तो बहुत अच्छा है। मैं तो रोज ही यहाँ से आया-जाया करता हूँ। इसके चप्पे-चप्पे से मैं परिचित हूँ। यहाँ कोई कठिनाई नहीं, सड़क अच्छी है। रास्ते में पड़ने वाले गांव के लोग सभ्य और सरल हैं। आओ मेरे साथ मुझे भी इधर ही जाना है, मैं तुम्हें तुम्हारे घर पहुँचा देता हूँ। उसकी बात सुनते ही हमारे मन का भय भाग जाता है तथा हमारे कदम सहज ही उस ओर बढ़ जाते हैं।

यही स्थिति गुरु की है। शास्त्र के माध्यम से हम सही मार्ग जान तो लेते हैं लेकिन अवरोधों के भय से उस पर चल पाने का साहस नहीं जुटा पाते। गुरु कहते हैं कि मार्ग तो बहुत सरल है। मुझे देखो…..मैं भी तो चल रहा हूँ। आओ मेरे साथ। उन्हें देखकर सहज ही आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलने लगती है।

लोक में गुरु भी अनेक प्रकार के पाये जाते हैं। अनेक धर्म हैं और अनेकों धर्मगुरु। इनमें सच्चा गुरु किनको समझा जाए ? यह बड़ा ही जटिल प्रश्न है। लौकिक क्षेत्र में तो माता-पिता, अध्यापक आदि गुरु माने जा सकते हैं, किन्तु पारमार्थिक क्षेत्र में किन्हें गुरु माना जाए, हमें यह देखना है।

सच तो सच्चे गुरु की महिमा, अज्ञानी समझ न पाते हैं।
ज्ञानी उनको ब्रह्मा एवं, विष्णू महेश बतलाते हैं।।
भगवान तो ऊपर रहते हैं, गुरु उनका पथ दरशाते हैं।
गुरु के पथ पर चलने वाले, इक दिन खुद गुरु बन जाते हैं।।


सच्चे गुरु का स्वरूप बताते हुए आचार्य श्री समन्त भद्र ने कहा है


विषयाशावशातीतो निरारम्भोपरिग्रह:।
ज्ञान ध्यान तपोरक्त: तपस्वी स प्रशस्ते।।

अर्थात् विषय कषायों से रहित, आरंभ परिग्रहों से परिमुक्त होकर ज्ञान, ध्यान और तप में लवलीन साधु ही सच्चे गुरु हैं।

विषयासक्ति रहितता-यह सच्चे गुरु की पहली विशेषता है। विषयाभिलाषा रागद्वेष व आकुलता की जननी है और पापों में प्रवृत्ति कराने वाली है। पाँचों इन्द्रियों के विषयों के आधीन व्यक्ति कभी भी सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकता। आत्मकल्याण के पथ पर चलने वाले सच्चे गुरु पंचेन्द्रिय विजयी होते हैं। वे पाँचों इन्द्रियों के किसी एक विषय पर भी आसक्त नहीं होते। विषयासक्ति तो साधुत्व पर कलंक है, अत: सच्चे गुरु को पंचेन्द्रिय विजयी होना चाहिए।

आरंभ रहितता-आरंभ का मतलब है नौकरी, व्यापार, उद्यम, सेवा, खेती आदि कार्य जो प्राणियों को दु:ख पहुँचाने वाली प्रवृत्तियाँ हैं। ये कार्य साधारण प्राणियों में भी पाये जाते हैं। मनुष्य इन्हीं के गोरख-धंधे में फंसकर दु:खी हैं। अत: गुरु, जिन्हें हम अपना आदर्श बना रहे हैं, उन्हें इनसे दूर रहना चाहिए।

परिग्रह रहितता-यह सच्चे गुरु की तीसरी विशेषता है। ममत्व भाव को परिग्रह कहते हैं। जिनके पास थोड़ा भी बाह्य या भीतरी पदार्थों के प्रति ममत्व हो, वे सच्चे गुरु नहीं कहला सकते क्योंकि ममत्व तो समस्त विकारों का मूल है। पापों में परिग्रह सबसे बड़ा पाप है, इसके होने पर अन्य पापों में प्रवृत्ति अवश्यंभावी होती है। परिग्रह आकुलता का कारण तथा समता व वीतरागता का विनाशक है। इसलिए सच्चे साधु अपने आप कुछ भी परिग्रह नहीं रखते। यहाँ तक कि वे अपने शरीर पर वस्त्र का एक छोटा-सा टुकड़ा भी नहीं रखते।

सतत ज्ञानार्जन शीलता-सतत ज्ञानाभ्यास सच्चे गुरु की चौथी विशेषता है। विषय कषायों से दूर होकर जब साधुगण अपने आत्म ध्यान से बाहर आते हैं तो सांसारिक प्रपंचों से दूर हट धर्मशास्त्रों में अपने चित्त को रमाये रखते हैं। यही उनकी सतत ज्ञानार्जनशीलता है। ज्ञानाभ्यास से चित्त में निर्मलता, समता व वीतरागता की सिद्धि व वृद्धि होती रहती है।

प्रगाढ़ ध्यानलीनता और तपस्विता-सच्चे गुरु सदा अपनी आत्मा के ध्यान में लीन रहते हैं। वह अपनी साधना की अभिवृद्धि के लिए शक्ति के अनुसार अनेक प्रकार का तप करते रहते हैं। आत्म-साधक गुरु का तपस्वी होना अनिवार्य है। तप से ही आत्मा में निखार आता है। इसके विपरीत भोग-विलासों में रत सुविधा भोगी नामधारी गुरु सच्चे गुरु नहीं कहला सकते। तपस्विता सच्चे गुरु की छठी कसौटी है।

Tags: B.A. IInd Year
Previous post मोक्षमार्ग एवं सम्यग्दर्शन का स्वरूप Next post सम्यग्दर्शन के भेद

Related Articles

अध्यात्म भाषा में नय व्यवस्था

November 25, 2022aadesh

कर्म मुक्ति के उपाय

November 24, 2022aadesh

अनेकांत

November 25, 2022aadesh
Privacy Policy