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मूलाचार सार

June 2, 2022विशेष आलेखShreya Jain

१२. मूलाचार सार


(१) मूलगुण अधिकार

श्री कुंद्कुंद देव अपरनाम श्री वट्टकेर स्वामी द्वारा रचित मूलाचार ग्रंथ की टीका के प्रारंभ में सिद्धान्त चक्रवर्ती श्री वसुनंदि आचार्य ने भूमिका में कहा है कि यह ग्रंथ आचारांग के आधार से लिखा गया है और आचारांग समस्त श्रुतस्कंध का आधारभूत है। यथा-

‘‘श्रुतस्कंदधाधारभूतमष्टादशपदसहस्रपरिमाणं, मूलगुणप्रत्याख्यान-संस्तर-स्तवाराधना-समयाचार (समाचार)-पंचाचार-पिंडशुद्धिषडावश्यक-द्वादशानुप्रेक्षानगारभावना-समयसार-शीलगुणप्रस्तार-पर्याप्त्याद्यधिकार-निबद्धमहार्थगभीरं लक्षणसिद्धपदवाक्यवर्णोपचितं, घातिकर्मक्षयोत्पन्नकेवलज्ञान-प्रबुद्धाशेषगुणपर्यायखचितषड्द्रव्य-नवपदार्थ जिनवरोपदिष्टं, द्वादशविधतपोनुष्ठानोत्पन्नानेकप्रकारद्र्धिवसमन्वित-गणधरदेवरचितं, मूलगुणोत्तरगुणस्वरूप-विकल्पोपायसाधनसहायफलनिरूपणप्रवणमाचाराङ्गमाचार्य-पारम्पर्यप्रवर्तमानमल्पबलमेधायु:शिष्यनिमित्तं द्वादशाधिकारैरूपसंहर्तुकाम: स्वस्य श्रोतृणां च प्रारब्धकार्य-प्रत्यूहनिराकरणक्षमं शुभपरिणामं विदधच्छ्रीवट्टकेराचार्य: प्रथमतरं तावन्मूलगुणाधिकारप्रतिपादनार्थं मंगलपूर्विकां प्रतिज्ञां विधत्ते मूलगुणेष्वित्यादि-
जो श्रुतस्कंध का आधारभूत है, अट्ठारह हजार पद परिमाण है, जो मूलगुण, प्रत्याख्यान, संस्तर, स्तवाराधना, समयाचार, पंचाचार, पिंडशुद्धि, छह आवश्यक, बारह अनुप्रेक्षा, अनगार भावना, समयसार, शीलगुणप्रस्तार और पर्याप्ति आदि अधिकार के निबद्ध होने से महान अर्थों से गंभीर है, लक्षण-व्याकरण शास्त्र से सिद्धपद, वाक्य और वर्णों से सहित है, घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुए केवलज्ञान के द्वारा जिन्होंने अशेष गुणों और पर्यायों से खचित छह द्रव्य और नव पदार्थों को जान लिया है, ऐसे जिनेन्द्रदेव के द्वारा जो उपदिष्ट है, बारह प्रकार के तपों के अनुष्ठान से उत्पन्न हुई अनेक प्रकार की ऋद्धियों से समन्वित गणधर देव के द्वारा जो रचित है, जो मूलगुणों और उत्तरगुणों के स्वरूप, भेद, उपाय, साधन, सहाय और फल के निरूपण करने में कुशल है, आचार्य परम्परा से चला आ रहा ऐसा यह आचारांग नाम का पहला अंग है। उस आचारांग का अल्प शक्ति, अल्प बुद्धि और अल्प आयु वाले शिष्यों के लिए बारह अधिकारों में उपसंहार करने की इच्छा करते हुए अपने और श्रोताओं के प्रारंभ किए गये कार्यों के विघ्नों को दूर करने में समर्थ शुभ परिणाम को धारण करते हुए श्री वट्टकेराचार्य सर्वप्रथम मूलगुण नामक अधिकार का प्रतिपादन करने के लिए ‘‘मूलगुणेसु’’ इत्यादि रूप मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करते हैं।

मूलगुणेसु विसुद्धे वंदित्ता सव्वसंजदे सिरसा।
इहपरलोगहिदत्थे मूलगुणे कित्तइस्सामि।।१।।

अर्थ–मूलगुणों में विशुद्ध सभी संयतों को सिर झुकाकर नमस्कार करके इस लोक और परलोक के लिए हितकर मूलगुणों का मैं वर्णन करूँगा।।१।।
टीकाकार ने कहा है-

‘‘मूलगुणा प्रधानानुष्ठानि उत्तरगुणाधारभूतानि’’।

मूल-प्रधान, गुण-आचारविशेष को मूलगुण कहते हैं। जो उत्तरगुणों के लिए आधारभूत हैं, ऐसे प्रधान अनुष्ठान को मूलगुण कहते हैं। ये उत्तरगुणों के लिए मूलभूत हैं।

यहाँ ‘‘संयता’’ शब्द से छठे गुणस्थानवर्ती मुनि से लेकर अयोगीपर्यंत सर्व साधुओं को लिया है और भूतपूर्व गति से सिद्धों को भी लिया है। यथा-‘‘सप्ताद्यष्टपर्यंत षण्णव मध्य संख्यया समेतान् सिद्धांश्चानन्तान्’’ तीन कम नव करोड़ संख्या से सहित (८९९९९९९७) सर्व संयतों को और अनंत सिद्धों को नमस्कार किया है।

स्थापना निक्षेप में आकारवान् और बिना आकारवान् दोनों प्रकार की संयमी की प्रतिमाओं में गुणारोपण किया जाता है, ऐसा उल्लेख है। यथा-‘‘संयतस्य गुणान् बुद्ध्या ध्यारोप्याकृतिवति अनाकृतिवति च वस्तूनि स एवायमिति स्थापिता मूर्ति: स्थापनासंयत:।’’

आकारवान् या अनाकारवान् वस्तु में ‘‘यह वही है’’ मूर्ति में ऐसा संयत के गुणों का अध्यारोप करना, इस प्रकार से स्थापित मूर्ति को स्थापना संयत कहते हैं।
ये मूलगुण अट्ठाईस हैं-

पंचय महव्वयाइं समिदीओ पंच जिणवरुदिट्ठा। पंचेविंदियरोहा छप्पि य आवासया लोओ।।२।।
आचेलकमण्हाणं खिदिसयणमदंतघंसणं चेव। ठिदिभोयणेयभत्तं मूलगुणा अट्ठवीसा दु।।३।।

पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, छह आवश्यक, लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, स्थिति भोजन और एकभक्त ये अट्ठाईस मूलगुण जिनेन्द्रदेव ने यतियों के लिए कहे हैं।

चूँकि महान पुरुषों ने इनका अनुष्ठान किया है अथवा ये स्वत: ही महान व्रत हैं इसलिए ये पाँच व्रत महाव्रत कहलाते हैं। ये न छह हैं न चार, पाँच ही हैं ऐसा समझना। इनके नाम हैं-अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचौर्य महाव्रत, ब्रह्मचर्य महाव्रत और अपरिग्रह महाव्रत। पाँचों पापों का पूर्णरूप से त्याग कर देना ही महाव्रत है।

पाँच महाव्रत-

(१) काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल, आयु और योनि, इनमें सभी जीवों को जानकर ठहरने, बैठने, चलने आदि में जीवों के घात आदि हिंसा का त्याग करना अहिंसा महाव्रत है।

(२) रागादि के द्वारा असत्य बोलने का त्याग करना, पर को ताप करने वाले ऐसे सत्य वचन भी नहीं बोलना तथा सूत्र और अर्थ कहने में गलत वचन नहीं बोलना सत्य महाव्रत है। सदाचारी आचार्य के वचन स्खलन होने पर दोष ग्रहण नहीं करना भी सत्य महाव्रत है।

(३) ग्राम आदि में गिरी हुई, भूली हुई इत्यादि जो कुछ भी छोटी-बड़ी वस्तु है और जो पर की पुस्तक, पिच्छी आदि उपकरण या शिष्य आदि हैं ऐसे परद्रव्य-पर वस्तु को ग्रहण नहीं करना अचौर्य महाव्रत है।

(४) तीन प्रकार की स्त्रियों को और उनके चित्र को माता, बहन और पुत्री के समान देखकर जो रागभाव से स्त्रीकथा आदि को छोड़ना है, वह तीन लोक में पूज्य ब्रह्मचर्य महाव्रत कहलाता है। इस व्रत के धारक पुरुष या स्त्री कोई भी हों, इंद्रों द्वारा भी पूज्य हो जाते हैं किन्तु इस व्रत को भंग करने वाले जन यदि अनेक व्रत, तप आदि भी करते रहें, तो भी वे लोक में हीन आचरणी, निंद्य और पापी कहलाते हैं। यही कारण है कि इसे-‘‘तिलोयपुज्जं हवे बंभं’’ तीन लोक में पूज्य यह ब्रह्मव्रत है, ऐसा कहा है। इसके नव, सत्ताईस, इक्यासी और एक सौ बासठ भी भेद होते हैं-देवी, मानुषी और तिर्यंचिनी के बाल, युवती और वृद्धा ये तीन-तीन भेद करने से नव भेद होते हैं। यद्यपि देवांगनाओं में स्वभाव से बाला, वृद्धा भेद नहीं है फिर भी विक्रिया से संभव है।

इन नव भेदों को मन-वचन-काय से गुणा करने पर ९²३=२७ भेद हो जाते हैं। इन २७ को कृत, कारित, अनुमोदना से गुणा करने पर (२७²३·८१) ८१ भेद हो जाते हैं। इन ८१ को चेतन और अचेतन (पुतली या चित्र आदि) ऐसे दो से गुणा करने पर ८१²२=१६२ भेद हो जाते हैं।

(५) जीव से संबंधित मिथ्यात्व आदि या दास-दासी आदि, जीव से असंबंधित क्षेत्र, मकान, धन आदि और जीव से उत्पन्न शंख, सीप आदि ये तीन प्रकार के परिग्रह हैंं इनका पूर्णतया त्याग करना और संयम, ज्ञान तथा शौच के उपकरण पिच्छी, शास्त्र, कमण्डलु में व इतर-तृण, काठ आदि से संस्तर इत्यादि में ममत्व का त्याग करना ये पाँचवां अपरिग्रह महाव्रत है।

गमन, भाषण, भोजन आदि प्रवृत्तियाँ सम्यक् प्रकार से-आगम के अनुवूâल करना ही समिति है। इसके पाँच भेद हैं-ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग।

५ समिति-

(१) प्रयोजन के निमित्त दिन में चार हाथ आगे जमीन देखकर साधुओं द्वारा जो प्रासुक मार्ग से गमन होता है वह ईर्या समिति है। इसमें प्रयोजनवश शास्त्र श्रवण, तीर्थयात्रा, देववंदना, गुरुवंदना आदि के लिए ही गमन करना चाहिए निष्प्रयोजन नहीं, ऐसा कथन है।

(२) चुगली, हंसी, कठोरता, परनिंदा, अपनी प्रशंसा और विकथा आदि को छोड़कर स्व-पर के लिए हितकर जो वचन बोलना है वह भाषा समिति है।

(३) छ्यालीस दोषों से रहित शुद्ध, कारण से सहित, नव कोटि से विशुद्ध और ठंडे-गरम आदि भो

 

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