पूज्य पीठाधीश क्षुल्लकरत्न श्री मोतीसागर महाराज का संक्षिप्त परिचय
-डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन ‘वास्तु सलाहकार’, भोपाल (म.प्र.)
गुरु और शिष्य के उपकार तथा कृतज्ञता के सम्राट चन्द्रगुप्त और एकलव्य जैसे अनेकों उदाहरण हमें प्राचीन इतिहास में मिल जाते हैं किन्तु आज के पंचमकाल में जब भौतिकता की चकाचौंध में डूबा और स्वार्थ में अंधा व्यक्ति रिश्ते नातों को भी भूलकर अपने में मग्न है तब वर्तमान में हमें बिरले ही ऐसे व्यक्ति मिलेंगे, जिन्होंने अपने जीवन में कृतज्ञता का अद्वितीय आदर्श उपस्थित किया हो। ऐसे ही विरले व्यक्तियों में से एक, गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के सुयोग्य शिष्य परमपूज्य पीठाधीश क्षुल्लकरत्न श्री मोतीसागर जी महाराज थे, जिन्होंने प्रारंभ से ही गुरु के प्रति अपना सर्वस्व समर्पित कर अपने कत्र्तव्य का परिपालन करना अपने जीवन का ध्येय बनाया और उसमें सदा सफल भी रहे।
गुरु के द्वारा रात को दिन कहने पर दिन मानने वाले पूज्य पीठाधीश क्षुल्लक श्री मोतीसागर महाराज में कृतज्ञता के साथ-साथ सहिष्णुता गुण भी विशेष थे और ये दोनों गुण बहुधा एक व्यक्ति में मिलना दुर्लभ ही होता है। अगर हम यह कहें कि पूज्य क्षुल्लक जी के इन्हीं गुणों के कारण आज हमें विश्व की अद्वितीय और नयनाभिराम कृति जम्बूद्वीप रचना के दर्शन हो रहे हैं, तो शायद यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। गुरुभक्ति का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करने वाले पूज्य श्री का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करने का मेरा यह लघु प्रयास है क्योंकि ऐसे व्यक्तित्व का तो पूरा जीवन ही एक इतिहास होता है। जन्म-मध्यप्रदेश की धर्मपरायण नगरी सनावद में श्रेष्ठी श्री अमोलकचंद जी सर्राफ की धर्मपत्नी सौ. रूपाबाई ने आश्विन वदी चतुर्दशी, सोमवार वि.सं. १९८६, ३० सितम्बर १९४० ई. के दिन एक पुत्ररत्न को जन्म दिया, जिसका नाम उन्होंने बड़े प्यार से ‘मोतीचन्द’ रखा। बड़े पुत्र के रूप में जन्में मोतीचंद के ३ भाई और ३ बहनों में बड़ी २ बहनें सौ. गुलाब बाई, चतुरमणी बाई व छोटी बहन सौ. किरणबाई हैं तथा छोटे भाई इन्दरचंद, प्रकाशचंद हैं व एक सबसे छोटे भाई अरुण कुमार तथा प्रकाशचंद जी का स्वर्गवास हो चुका है। पूरे परिवार का मूल व्यवसाय सर्राफ का व्यापार है।
वैराग्य एवं ब्रह्मचर्यव्रत
इतने सम्पन्न परिवार के मध्य रहते हुए भी मोतीचंद जी को सांसारिक वैभव में रंचमात्र भी रुचि नहीं रही फलत: सन् १९५८ में १८ वर्ष की लघुवय में इन्होंने स्वरुचि से जिनप्रतिमा के सम्मुख आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण कर लिया। चूँकि प्रत्येक माता-पिता पुत्र जन्म के साथ ही यह सुखद स्वप्न संजोते हैं कि मेरा बेटा बड़ा होकर घर के सभी कार्यभार को संभालते हुए विवाह कर गृहस्थी का कुशलतापूर्वक संचालन करे और सदा खुश रहे अत: घर वालों को पता लगने पर उन्होंने मोतीचंद जी को बहुत प्रकार से समझाया किन्तु दृढ़तापूर्वक अपने पथ का चयन कर लेने वाले अपने सुयोग्य पुत्र को जब वे नहीं समझा सके, तब पिता ने व्यापार का सम्पूर्ण भार इन पर छोड़ दिया। ९ वर्षों तक व्यापार के कार्यों में रचे-पचे रहने पर भी वे सदैव चक्रवर्ती वङ्कानाभि की वैराग्य भावना का चिंतन करते हुए अपने में दृढ़ रहे।
धार्मिक कार्यकलाप
ब्र. मोतीचंद जी का गृहस्थ जीवन बड़ा सुकुमाल था अत: ब्रह्मचर्यव्रत होते हुए भी इनके मन में कभी साधु संघ में रहने का विचार नहीं आया। व्यापार के साथ ही यह अपनी रुचि से सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में सदा अग्रणी रहे। समय-समय पर धार्मिक झांकियों व नाटकों के माध्यम से समाज में धार्मिक अभिरुचि को जागृत करते हुए आप स्वयं भी नाटकों में भाग लेते थे। एक बार नाटक में किया गया निकलंक के पात्र का अभिनय आपके जीवन में अमिट छाप छोड़ गया कि संघर्षों में भी अपने पथ से विचलित नहीं होना व्यक्ति को उन्नति के शिखर पर ले जाता है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में रुचि रखने के साथ-साथ ये रात्रि में शास्त्रसभा एवं पाठशाला का संचालन भी करते थे।
संघ में प्रवेश व धार्मिक शिक्षण
आपके जीवन में एक नया अध्याय तब जुड़ा जब सन् १९६७ में पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी का ससंघ चातुर्मास सनावद में हुआ। यहाँ यह लिखना प्रासंगिक होगा कि मोतीचंद जी स्वधर्मी बंधुओं का पूरा ध्यान रखते थे। जब पूज्य माताजी का संघ सनावद से १८ किलोमीटर दूर बेड़िया ग्राम पहुँचा, वह दिन रविवार का था। मुझे ऐसा लगता है कि पूज्य क्षुल्लक से मेरा कोई पूर्व जन्म का संबंध रहा होगा अत: मुझे दुपहर में घर से बुलाकर पूज्य माताजी का सनावद की ओर आने का प्रोग्राम मालूम करने के लिए भेजा। उस समय हमारे पास किराये के लिए पैसे नहीं थे तब भाई सा. ने दो रुपये देकर मुझे पूज्य माताजी के पास भेजकर मेरे जीवन की दिशा बदलने का जो उपकार किया है वह ऋण मैं अपने इस जन्म में शायद ही चुका पाऊँ। उसके २ दिन बाद जब माताजी का संघ सनावद आया, तब से आप पूज्य माताजी के संघ से पूर्णत: जुड़े रहे और उस ७ माह में पूज्य माताजी ने इन्हें घर से निकालने का प्रयास प्रारंभ किया। पूज्य माताजी का कहना रहा कि जब तुम्हें आजीवन ब्रह्मचर्य दिया है, तो गृहस्थी का प्रपंच छोड़ो और सर्वप्रथम सनावद में ही इन्हें गोम्मटसार जीवकाण्ड आदि ग्रंथों का अध्ययन कराना प्रारंभ किया। पूज्य माताजी की शिक्षाप्रद नीतियों से प्रभावित होकर सन् १९६८ में मोतीचंद जी अध्ययन के उद्देश्य से संघ में आए और तभी से माताजी की विशेष प्रेरणा और आचार्यश्री शिवसागर महाराज का स्नेह प्राप्त कर संघस्थ शिष्य के रूप में रहने लगे। अध्ययन के फलस्वरूप मात्र ३-४ वर्षों के अन्दर ही इन्होंने शास्त्री व न्यायतीर्थ की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर लीं और चारों अनुयोगों के स्वाध्याय में संलग्न रहे।
जम्बूद्वीप रचना का श्रेय
सन् १९६५ में माताजी के मस्तिष्क में जम्बूद्वीप रचना की योजना आई, जिसे साकार करने हेतु माताजी के निर्देशानुसार कई स्थानों का निर्णय हुआ किन्तु जिस भूमि पर इसका योग था रचना का निर्माण वहीं हुआ। सन् १९६७ में हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना निर्माण के समय आपने माताजी को यह वचन दिया कि ‘‘मैं तन-मन-धन से इस योजना को साकार करूँगा, आपके संयम में किसी प्रकार की बाधा नहीं आने दूँगा’’ और उन्होंने अपने वचनों का पूर्णरूपेण पालन करके अथक परिश्रम पूर्वक हस्तिनापुर की पावन धरा पर जम्बूद्वीप रचना को साकार रूप दिया। ज्ञानज्योति रथ के साथ भारत भ्रमण-४ जून १९८२ को भारत की राजधानी दिल्ली के लालकिला मैदान से पूज्य माताजी के आशीर्वाद व तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरागांधी के कर-कमलों से प्रवर्तित जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ के १०४५ दिन तक हुए भारत भ्रमण के मध्य आपने लगभग पूरे हिन्दुस्तान में अहिंसा व जैनधर्म के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार करते हुए कुशलतापूर्वक ज्ञानज्योति का प्रवर्तन कराया।
दीक्षा की ओर बढ़ते कदम
माताजी इनकी सुकुमारता देखकर कभी इन्हें त्याग की प्रेरणा नहीं देती थीं किन्तु इन्होंने प्रारंभ से ही स्वरुचि से शोध का भोजन करना प्रारंभ किया और सन् १९८१ से ८५ तक नमक और मीठा इन दोनों सुस्वादु रसों का त्याग कर दिया था। इनका यह अभ्यास त्यागमार्ग की उत्तरोत्तर वृद्धि के लिए ही था, यही कारण है कि ४-५ वर्षों से दीक्षा हेतु आतुर मोतीचंद जी को जम्बूद्वीप रचना निर्माण की पूर्णता के बाद माताजी ने दीक्षा हेतु सहर्ष स्वीकृति प्रदान की।
जम्बूद्वीप स्थल पर प्रथम ऐतिहासिक दीक्षा समारोह
पूज्य माताजी की भावनानुसार १२ अक्टूबर १९८६ आसोज शुक्ला दशमी को फिरोजाबाद में आपने आचार्य श्री विमलसागर महाराज के समक्ष क्षुल्लक दीक्षा प्रदान करने हेतु विनम्र निवेदन किया, तब आचार्य श्री ने उसे स्वीकार कर अपने विशाल संघ सहित जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर आने की स्वीकृति दी। पुन: आचार्यश्री ने फाल्गुन शुक्ला नवमी, ८ मार्च १९८७ के शुभ मुहूर्त में विशाल जनसमुदाय के बीच आपको क्षुल्लक दीक्षा प्रदान कर ‘मोतीसागर’ संज्ञा प्रदान की और अपने आशीर्वाद में इन्हें ज्ञानज्योति भारत भ्रमण से धर्म का डंका बजाने के कारण चक्रवर्ती की उपमा प्रदान कर परम प्रसन्न हुए।
पीठाधीश पद
दीक्षा के पश्चात् संस्थान की गतिविधियों के पूर्ववत् निर्देशन व इसके संरक्षण-संवर्धन हेतु माताजी ने आगम ग्रंथों के अनेक प्रमाण निकालकर २ अगस्त १९८७ श्रावण शुक्ला सप्तमी के शुभ दिन आपको संस्थान के ‘पीठाधीश’ पद पर आसीन किया। आपने सदैव अपनी आगम चर्या का निर्बाधरूप से पालन करते हुए पूज्य क्षुल्लक के रूप में संस्थान की प्रत्येक गतिविधियों में अपना कुशल निर्देशन प्रदान किया। प्रत्येक कार्य में अग्रणी थे-पूज्य माताजी द्वारा प्रारंभ किए गए प्रत्येक कार्यों में क्षुल्लक श्री मोतीसागर महाराज का विशेष योगदान रहता था। प्रत्येक कार्य को अनुशासनबद्ध तरीके से सफलतापूर्वक सम्पन्न करना ही आपका एकमात्र लक्ष्य रहा, फिर चाहे वह अयोध्या, हस्तिनापुर, मांगीतुंगी, प्रयाग, कुण्डलपुर आदि तीर्थों का विकास कार्य हो, भगवान ऋषभदेव मस्तकाभिषेक महोत्सव, भगवान ऋषभदेव जन्मजयंती महामहोत्सव, अन्तर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव, चौबीस कल्पद्रुम महामण्डल विधान, विश्वशांति महावीर विधान, भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार, भगवान महावीर ज्योति रथ भ्रमण आदि वृहद् आयोजन हों अथवा समय-समय पर आयोजित अनेक लघु व वृहत् कार्यक्रम ही क्यों न हों, उसमें सदैव आपका कुशल दिशानिर्देश रहता था।
धर्म दिवाकर क्षुल्लकरत्न की उपाधि से अलंकृत
आपके इन्हीं सब कार्यकलापों को देखते हुए पूज्य माताजी ने चौबीस कल्पद्रुम विधान के समापन अवसर पर आपको सन् १९९७ में दिल्ली के लाल मंदिर की सभा में ‘‘धर्म दिवाकर-क्षुल्लकरत्न’’ की उपाधि से विभूषित किया था।समाधि सतत ज्ञानाराधना एवं अपनी आगमचर्या में संलग्न ऐसे गुरुभक्ति का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करने वाले पूज्य पीठाधीश क्षुल्लकरत्न धर्मदिवाकर श्री मोतीसागर महाराज का जीवन हमारे लिए सदा आदर्श रहा है और हमेशा आदर्श रहेगा। उनके जीवन वृत्त से हमेशा प्रेरणाएँ प्राप्त कर हम भी अपने जीवन को सफल कर सकें, जिनेन्द्र पभु से यही मंगल प्रार्थना है।