उस समय आचार्यश्री ‘‘नीरा’’ गाँव में विराजमान थे। मैंने आकर दर्शन किये। सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, आचार्यभक्ति पढ़कर विधिवत् वंदना की। आचार्यश्री ने आशीर्वाद दिया। क्षुल्लिका विशालमती जी ने रत्नत्रय कुशल पूछा। अनंतर महाराज जी तो आसन पर बेैठे हुए थे। ब्रह्मचारी जिनदास जी कोई शास्त्र पढ़कर सुना रहे थे। मैं बैठी थी कि मेरी आँखों में हर्ष के आँसू आ गये। महाराज जी ने मेरा परिचय पूछा।
विशालमती जी ने सब बताया और उम्र भी बताई कि अभी यह १९-२० वर्ष की है। दो वर्ष हुए आचार्य देशभूषण महाराज जी से दीक्षा ली है। इसकी दीक्षा के समय सामाजिक विरोध तो बहुत ही हुआ था किन्तु इसकी दृढ़ता गजब की थी। आचार्य महाराज जी प्रसन्न हुए, पुनः स्वाध्याय के बाद उन्होंने बड़े ही प्रेम से मुझे कुछ शिक्षायें दीं। वे बोले- ‘‘अभी तुम्हारी उम्र बहुत ही छोटी है, तीस वर्ष तक किसी न किसी के साथ ही रहना, अकेली नहीं रहना, खूब धार्मिक अध्ययन करना, अनगारधर्मामृत, भगवती आराधना और समयसार अवश्य पढ़ना।
मैंने भगवती आराधना ३६ बार पढ़ी है।’’ और भी बहुत कुछ शिक्षायें दीं। उस समय मुझे ऐसा लगा कि मानों मैंने संसार का अन्त करने वाले महान् गुरु को ही पा लिया। उनकी शिक्षायें मुझे अमृत से भी अधिक प्रिय लगीं। मैंने मन ही मन अपने भाग्य को सराहा और सोचने लगी कि- ‘‘यद्यपि दीक्षा लेने के बाद मुझे रेल-मोटर पर बैठना बहुत ही अखरा था पर आज वह सफल हो गया चूँकि मैं पद विहार से तो आज आचार्यदेव के दर्शन नहीं कर सकती थी।’’
दूसरे दिन प्रातःकाल आकर गुरुदेव की वंदना की। वहीं बैठी रही। एक ब्रह्मचारी पाठ सुना रहे थे, मैं भी सुनती रही। अनंतर स्वाध्याय सुनाया। महाराज जी बीच-बीच में चर्चा करते थे। कोई विशेष बात समझाते भी थे। इसके बाद आचार्यश्री का आहार देखा, अनंतर स्वयं आहार लिया पुनः दो बजे आचार्यश्री के निकट आकर बैठ गई। उस समय चार-पाँच प्रमुख श्रावक आचार्यश्री के पास कुछ विज्ञप्ति लेकर आये थे।
वे लोग निवेदन कर रहे थे- ‘‘पूज्य गुरुदेव! मुनि जंबूसागर जी के बारे में क्या करना है? समाज चिंतित है। महाराज जी ने गंभीर मुद्रा में उत्तर दिया-‘‘यदि वह मेरे पास आये तो कुछ समझाऊँ अथवा प्रायश्चित्त देकर सुधार भी करूँ।…..फिर भी दिगम्बर मुद्रा का अपमान या बहिष्कार, श्रावकों को कुछ भी करने का अधिकार नहीं है। आप लोगों को उन्हें समझाना चाहिए। नहीं मानते हैं तो उपेक्षा कर देनी चाहिए। बस, इसके आगे उनकी निंदा अखबारों में निकालना गलत है। इससे मोक्ष-मार्ग में चलने वाले निर्दोष साधुओं की भी कीमत घटती है। इत्यादि।’’
आचार्य महाराज के इन शब्दों को सुनकर श्रावक हँसने लगे और अन्य भी कुछ शंका का समाधान प्राप्त कर वे लोग चले गये। मुझे जब वह दृश्य याद आता है तब मानो आचार्यश्री के वे शब्द मेरे कानों में गूँजने ही लगते हैं कि उपगूहन अंग का उपदेश उन्होंने कितने अच्छे ढंग से दिया था। आज के भी सुधारवादियों को वे शब्द ध्यान देने योग्य हैं। बहुत से प्रमुख सुधारक श्रावक आज अपनी संतान को मद्य, मांस, मधु, वेश्यासेवन आदि से नहीं रोक पा रहे हैं किन्तु उन्हें सारे साधुओं के चारित्र की और धर्म की चिंता हो रही है। अखबारों में ९९ प्रतिशत गलत मुनि-निंदा छाप-छाप कर मोक्षमार्ग को सुधारने की डींग भर रहे हैं।
भला ऐसे लोग मोक्ष-मार्ग को कैसे चलायेंगे? आचार्यश्री ने किसी चर्चा के प्रसंग पर यह भी बताया कि-‘‘उत्तर प्रान्त के पंडित वर्ग शास्त्रों के बहुत से अंश को भट्टारक द्वारा प्रक्षिप्त कहकर निकाल देते हैं। सचमुच में उन्हें नरक निगोद का भय नहीं है।’’ और भी अनेक शिक्षास्पद अमृत कणों को प्राप्त कर तीन दिन बाद हम दोनों क्षुल्लिकाएं आचार्य देव का आशीर्वाद ग्रहण कर वहाँ से निकलकर अन्यत्र कोल्हापुर, बेलगाँव आदि घूमकर वापस जयपुर आ गर्इं। यहाँ अकस्मात् समाचार मिला कि- ‘‘चाकसू गाँव में आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज की समाधि हो गई है।’’
गुलाबचन्द जी सेठी हम दोनों क्षुल्लिकाओं को अपनी गाड़ी में ले गये। वहाँ जाकर देखा, आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज अपने आसन पर विराजमान हैं। स्वाध्याय चल रहा है। समाधि का समाचार झूठा ही फैल गया था। हाँ, वे उन दिनों ज्वर से अस्वस्थ चल रहे थे। आचार्यश्री के दर्शन कर हम दोनों को बहुत ही प्रसन्नता हुई। स्वाध्याय के मध्य क्षुल्लक चिदानन्दसागर जी अनेक शंकायें रखते थे। आचार्यश्री भी बहुत ही धीमे स्वर से सीमित शब्दों में समाधान कर देते थे। उनके समाधान को सुनकर क्षुल्लिका विशालमती जी भी बहुत ही प्रभावित हुर्इं।
उन्होंने भी कुछ शंकायें रखीं। आचार्यश्री ने उनका भी समाधान किया। आहार के समय मैं दैवयोग से उन्हीं क्षुल्लक जी के साथ एक चौके में पड़ग गई। मुझे देखते ही वे उस चौके से निकल गये, मेरा तो वहीं आहार हो गया। बाद में पता चला कि ‘‘इस संघ के साधु रेल, मोटर पर बैठने वाले साधुओं के साथ आहार नहीं लेते हैं। इस नीति से क्षुल्लिका विशालमती जी को कुछ खेद हुआ परन्तु मेरे मन में दुःख नहीं हुआ, प्रत्युत् इस ‘कठोर नीति’ से हमें अच्छा लगा।
अनन्तर हम दोनों आचार्यश्री का आशीर्वाद ग्रहण कर वापस जयपुर आ गर्इं। यहाँ से निकट ही किसी गाँव में शायद जोबनेर में आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज विराजमान थे। वहाँ से जाकर गुरुदेव के दर्शन कर अपने भ्रमण के अनुभव सुना दिये पुनः उनकी आज्ञा लेकर विशालमती जी गुजरात प्रान्त में सूरत शहर में आ गर्इं। मैं भी उनके साथ ही थी। एक दिन समाचार विदित हुआ कि-‘‘आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज इसी वर्ष सल्लेखना ग्रहण करेंगे।’’
तब पुनः हम दोनों ने आपस में परामर्श किया कि-‘‘यह चातुर्मास हम दोनों उसी सोलापुर के निकट ही करें जिससे आचार्यश्री की सल्लेखना देखने के अवसर प्राप्त हो जायें।’’ ऐसा निर्णय कर हम दोनों फल्टन आ गर्इंं। वहाँ पर श्रुत पंचमी का महोत्सव देखा और आचार्यश्री ने जिन षट्खण्डागम सूत्रों को ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण कराकर प्रतिष्ठा करायी थी वे ग्रन्थ सरस्वती भवन में विराजमान थे उनके दर्शन किये। श्रुत पंचमी के दिन उनका अभिषेक पूजन देखा। उस प्रान्त में श्रुत पंचमी के दिन सभी महिलाएं थाल में २४-२४ आम्रफल लेकर आती हैं, जो कि पूजा में चढ़ाती हैं।
अनन्तर श्रुत पंचमी के मंगल अवसर पर मेरा भी १० मिनट प्रवचन हुआ। इतनी छोटी वय में मेरा प्रवचन सुनकर लोग प्रभावित हुए और चातुर्मास के लिए आग्र्रह करने लगे। यहाँ पर माणिकचंद्र वीरचंद्र गांधी के घर का चैत्यालय अच्छा लगा और श्रावकों की भक्ति-भावना भी सुन्दर थी। यहाँ पर सुना-‘‘आचार्य पायसागर जी महाराज सोलापुर में विराजमान हैं।’’ उनके दर्शन की भावना से मैं विशालमती जी के साथ सोलापुर आ गई। आचार्यश्री के दर्शन कर आशीर्वाद प्राप्त किया। आचार्यश्री का उपदेश बहुत ही रोचक, हास्यरस से परिपूर्ण और आध्यात्मिक होता था। सुनकर मन बहुत ही प्रसन्न हुआ। आचार्यश्री एक बार उपदेश में बोले- ‘‘देखो! महिलायें रोटी बनाती हैं, तवे पर डालती हैं, उलट-पलट देती हैं, झट से फूल जाती है। उनके दो भाग हो जाते हैं। फिर ये कुशल महिलायें जब दोनों तरफ पक जाती हैं तब उतारकर नीचे अंगारे पर डाल देती हैं और वह उसकी राख को झाड़ने के लिए चूल्हे के उपर एक तरफ पटक देती हैं।
अनन्तर उसमें घी चुपड़ कर आपको खाने को दे देती हैं। वह रोटी आपको स्वादिष्ट लगती है और स्वास्थ्य के लिए भी अच्छी रहती है। उसी प्रकार से पहले इस शरीर सहित आत्मा को बाह्य-अभ्यंतर तप में पका लो, फिर उपसर्ग-परीषह आदि अग्नि पर पड़ते ही या ध्यान रूपी अग्नि में पड़ते ही उसके दो भाग हो जाते हैं अर्थात् ‘‘आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है’’ ऐसा अनुभव होने लगेगा पुनः वह भेद-विज्ञान तुम्हें आत्मा से उत्पन्न परमानंदरूपी अमृत का स्वाद दिलायेगा और तुम्हें शरीर से भिन्न कर-छुड़ाकर शाश्वत स्वस्थता प्राप्त करा देगा।’’
ऐसे ही खूब उदाहरण देते थे जिससे आबाल-गोपाल सभी को उनके उपदेश में आनन्द आता था। एक बार का उपदेश बहुत ही महत्व का था, वे बोले-‘‘कोई मूर्ति यदि चमत्कारी है तो भले ही खण्डित हो वह पूज्य मानी जाती है। उसी प्रकार से कोई मुनि भी यदि कदाचित् व्रतों में कुछ अतीचार आदि लगा देता है तो भी यदि वह प्रभावशाली है-उपदेशक है, जनता को उनसे विशेष लाभ मिल रहा है तो वह साधु भी मनोज्ञ है, पूज्य है।
आप नवलखा प्रतिमा को पूजते हैं या नहीं?’’ इत्यादि उपदेश को सुनकर मन प्रसन्न हो गया। एक दिन आचार्य महाराज ने बताया कि- ‘‘मैं अस्वस्थ रहता था तब मैंने प्रति क्षण मंत्रों का सहारा लिया। मन-मन मैं हर वक्त मंत्र जपता रहता। ॐ सिद्धोऽहं, सिद्धाय नमः, परमहंसाय नमः, चिच्चैतन्यज्योतिः स्वरूपाय नमः, ॐ परम ज्योतिःस्वरूपाय नमः’’ आदि कुछ भी मंत्र जपते रहना ऐसी ही मैंने अपनी चर्या बना ली। इसी से मुझे स्वास्थ्य लाभ हुआ है।’’ आचार्य पायसागर जी के हृदय में आचार्यदेव चारित्रचक्रवर्ती शान्तिसागर जी के प्रति अकाट्य भक्ति थी।
जब श्रावक उनकी पूजा करने बैठे। उन्होंने कहा- ‘‘मेरे आचार्य देव गुरु महाराज की पूजा करो मैं भी सुनूँगा।’’ ये पायसागर जी महाराज आचार्य देशभूषण जी के गुरु के गुरु थे अर्थात् आचार्य जयकीर्ति महाराज जी ने इनसे दीक्षा ली थी और देशभूषण जी महाराज ने आचार्य जयकीर्ति महाराज जी से दीक्षा ली थी। क्षुल्लिका विशालमती जी इन्हीं पायसागर महाराज जी की शिष्या थीं।