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04.गति मार्गणा!

January 20, 2018जैनधर्म प्रश्नोत्तरीHarsh Jain

ॐ गति मार्गणा ॐ


प्रश्न1-गति मार्गणा किसे कहते हैंं 

उत्तर-गति नाम कर्म के उदय से उस-उस गाति विषयक भाव के कारणभूत जीव की अवस्था विशेष को गति कहते हैंं “

प्रश्न2–गति मार्गणा कितने प्रकार की हैंं 

उत्तर-गति मार्गणा चार प्रकार की होती है- (1) नरकगति (2) तिर्यव्यगति (3) मनुष्यगति (4) देवगति । ६३- द्रसै. 13 टी.) नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, देवगति ० सिद्धगति में भी जीव होते हैं । (य.7ा522)

प्रश्न3-नरकगति किसे कहते हैं?

उत्तर-जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में स्वय तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते हैं उनको नारक कहते हैं । नारक की गति को नरकगति कहते हैं । (गो. जी. 147) नीचे अधोलोक में घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवा तथा माघवी नामकी सात पृथिवियाँ हैं । उनमें नारकी जीव रहते हैं । वे नारकी क्षेत्रजनित, मानसिक और शारीरिक आदि अनेक प्रकार के दुःखों को दीर्घ काल तक भोगते हैं, उनकी गति को नरकगति कहते हैं ।

प्रश्न4-तिर्यज्जगति किसे कहते हैं?

उत्तर- देव, नारकी तथा मनुष्यों को छोड्‌कर शेष सभी तिर्यव्व कहलाते हैं। तियब्बों की गति को तिर्यव्यगति कहते हैं । (त. सू ’27) (1) जो मन-वचन-काय की कुटिलता से युक्त हो। (2) जिनकी आहारादि संज्ञा व्यक्त (स्पष्ट) हो । (3) जो निकृष्ट अज्ञानी हो । (4) जिनमें अत्यन्त पाप का बाहुल्य पाया जाय वे तिर्यब्ज है । इन तिर्यञ्च की गति को तिर्यज्जगति कहते हैं । (गो. जी. 148)

प्रश्न5-_ मनुष्यगति किसे कहते हैं?

उत्तर-जिनके मनुष्यगति नामकर्म का उदय पाया जाता है उन्हें मनुष्य कहते हैं ( उनकी गति को मनुष्य गति कहते है । जो नित्य हेय-उपादेय, तत्त्व-अतत्त्व, आप्त- अनाप्त, धर्म-अधर्म आदि का विचार करे जो मन से गुण-दोषादि का विचार, स्मरण आदि कर सके, जो मन के विषय में उत्कृष्ट हो, जो शिल्प-कला आदि में कुशल हो तथा जो युग की आदि में मनुओं से उत्पन्न हों, वे मनुष्य हैं उनकी गति को मनुष्यगति कहते हैं । (गो. जी. 149)

प्रश्न:6-देवगति किसे कहते हैं?

उत्तर-भवनवासी आदि चार प्रकार के देवों की गति को देवगति कहते हैं । ( 1) जो देवगति में पाये जाने वाले परिणाम से सदा सुखी हों, (2) जो अणिमादि गुणों से सदा अप्रतिहत (बिना रोक-टोक) विहार करते हौं, ( 3) जिनका रूप-लावण्य-यौवन सदा प्रकाशमान हो, वे देव हैं । उन देवों की गति को देवगति कहते हैं । (गो. जी. 151 मै.)

प्रश्न:7-सिद्धगति किसे कहते हैं?

उत्तर-यद्यपि सिद्ध भगवान के किसी गति नामकर्म का उदय नहीं है फिर भी आठ कर्मों का नाश करके सिद्ध भगवान लोक के अग्र भाग में गमन करते हैं । ( 1) जो एकेन्द्रिय आदि जाति, बुढ़ापा, मरण तथा भय से रहित हों, ( 2) जो इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोग से रहित हों, (3) जो आहारादि संज्ञाओं से रहित हों, (4) जो रोग, आधि-व्याधि से रहित हों, वे सिद्ध भगवान हैं, उनकी गति को सिद्धगति कहते हैं । (गो. जी. 152) जो ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित हैं, अनन्त सुख रूप अमृत के अनुभव करने वाले शान्तिमय हैं, नवीन कर्म बन्ध के कारणभूत मिथ्यादर्शनादि भाव कर्म रूपी अञ्जन से रहित हैं, नित्य हैं, जिनके सम्बल्लादि भाव रूप मुख्य गुण प्रकट हो चुके हैं, जो कृतकृत्य हैं, लोक के अग्रभाग में निवास करने वाले हैं, उनको सिद्ध कहते हैं और उनकी गति को सिद्धगति कहते हैं । ( गो. जी. 68) 

नरकगति

== तालिका संख्या 1 { class=wikitable width=100% – ! क्रम!! स्थान !! संख्या !!विवरण !!विशेष –  1  गति  1  नरकगति – 2  इन्द्रिय  1 पंचेन्द्रिय  –  3  काय  1  त्रस  – 4 योग 11  4 मनो. 4 वच.3 काय.औदारिकद्विक तथा आहारकद्विक नहीं हैं । – 5 वेद 1 नपुसक  – 6 कषाय 23 16 कषाय 7 नोकषाय स्त्रीवेद तथा पुरुषवेद नहीं हैं – 7 ज्ञान  6  3 कुज्ञान, 3 ज्ञान मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं है। – 8संयम  1 असंयम  – 9 दर्शन 3 चक्षु, अचक्षु, अवधि केवलदर्शन नहीं है । – 10 लेश्या 3  कृ. नी. का.  शुभ लेश्याएँ नहीं है । – 11 भव्यत्व 2  भव्य, अभव्य  – 12 सम्यक्त्व 6  क्षा. क्षयो. उप. सा सा. मिश्र. मि. – 13 संज्ञी 1  सैनी  – 14 आहार 2  आहारक, अनाहारक  – 15 गुणस्थान 4 मि. सा. मिश्र अविरत  – 16 जीवसमाास 1  सैनी पंचेन्द्रिय  – 17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा. भा. मन. –  18 प्राण10  5 इन्दि., 3 बल, श्वा. आयु. – 19 संज्ञा  4 आ. भ. मै. पीर. – 20 उपयोग  9 6 ज्ञानो. 3 दर्शनोपयोग – 21 ध्यान 9 4 आ. 4 री. 1 धर्म.आज्ञाविचय धर्मध्यान होता है । – 22 आस्रव  51  5मि. 12 अ. 23 क. 11 यो. – 23 जाति 4 लाख नरक सम्बन्धी तिर्य., मनुष्य तथा देवों की जातियाँ नहीं हैं । – 24कुल 25 लाख क. नरक सम्बन्धी तिर्य., मनुष्य तथा देवों की कुल नहीं हैं । }

प्रश्न:8- नरक कितने हैं?

उत्तर-नरक सातहैं – (1) रत्नप्रभा (2) शर्कराप्रभा (3) बालुकाप्रभा (4) पंकप्रभा (5) कूप्रभा (6) तमःप्रभा (7) महातमःप्रभा । ये सात पृथिवियाँ हें । इनमें सात नरक हैं- (1) घम्मा (2) वंशा (3) मेघा (4) अंजना (5) अरिष्टा (6) मघवा (7) माघवी । (ति प. 1/153)

प्रश्न:9-नरकों में सभी पंचेन्द्रिय ही होते हैं तो वहाँ कीड़ों से भरी नदी कैसे बताई गई है?

उत्तर- यह सत्य है कि नरकों में सभी पंचेन्द्रिय ही होते हैं । एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव तिर्यञ्चगति में ही पाये जाते हैं । नरकों में जो वैतरणी नदी को कीड़ों से भरी हुई बतलाया है वे कीड़े स्वय नारकी अपनी विक्रिया के बल से बन जाते है । उनका कीड़ों का आकार आदि होने पर भी वे नारकी ही होते हैं क्योंकि उनके नरकगति, नरकायु आदि प्रकृतियों का उदय होता है । जैसे- नारकी हांडी, वसूला, करीत, भाला आदि रूप विक्रिया कर लेने से अजीव नहीं हो जाते, गाय आदि की विक्रिया कर लेने से गाय आदि के समान दूध देने में समर्थ नहीं हो जाते हैं वैसे ही कीड़ों के बारे में भी समझना चाहिए । (ति. प. 2? 318 – 322 के आधार से)

प्रश्न:10-क्या नरक में स्थावर जीव नहीं पाये जाते हैं?

उत्तर-सूूूूक्ष्म स्थावर जीव सर्व लोक में ठसाठस भरे हुए हैं । (गो. जी. 184) अत: यदि नरकों में स्थावर जीव होवे तो कोई आश्चर्य नहीं है, लेकिन वे स्थावर जीव नरक की भूमि में रहने मात्र से नारकी नहीं हो जाते और न वे नरकगति के जीव ही कहला सकते हैं, क्योंकि नारकी तो वही होता है जिसके नरकायु आदि का उदय होता है । इन स्थावरों के इन प्रकृतियों का उदय नहीं होता है । अत: वे नरक भूमि में रहकर भी नारकी नहीं कहलाते हैं । जैसे- असुरकुमार आदि देव भी नरक में जाते हैं । कुछ समय तक वहाँ रुकते भी हैं । इसका अर्थ यह नहीं कि वे नारकी हो जाते हैं क्योंकि उनके देवगति नामकर्म का उदय है ।

प्रश्न:11-नारकियों के कार्मण- काययोग में कौन- कौनसा गुणस्थान हो सकता है?

उत्तर-नारकियों के कार्मण काययोग में दो गुणस्थान हो सकते हैं- ( 1) मिथ्यात्व (2) अविरत सम्यग्दृष्टि । नोट- ( 1) कोई भी जीव दूसरे गुणस्थान को लेकर नरक गति में नहीं जाता तथा तीसरे गुणस्थान में मरण नहीं होता (ध. 1) अत: ये दोनों गुणस्थान नारकियों की कार्मण काययोग अवस्था में नहीं होते हैं । (2) चौथा गुणस्थान मात्र प्रथम नरक की कार्मण अवस्था में ही होता है, अन्य नरकों में नहीं ।

प्रश्न:12-नारकियों के निर्वृत्यपर्याप्तावस्था में सासादन गुणस्थान क्यों नहीं होता?

उत्तर-सासादन गुणस्थान वाला नरक में उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि सासादन गुणस्थान वाले के नरकायु का बन्ध नहीं होता है । जिसने पहले नरकायु का बन्ध कर लिया है, ऐसे जीव भी सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर नारकियों में उत्पन्न नहीं होते हैं; क्योंकि नरकायु का बन्ध करने वाले जीव का सासादन गुणस्थान में मरण नहीं होता है । (ध.1/325-26)

प्रश्न:13-नारकियों की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में कितने योग होते हैं?

उत्तर-नारकियों की निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में एक योग ही होता है- वैकियिकमिश्रकाय योग । क्योंकि कार्मण-काययोग विग्रहगति में तथा शेष योग पर्याप्त अवस्था में ही होते हैं ।

प्रश्न:14- नारकियों के आहारक अवस्था में कितने योग होते हैं?

उत्तर-नारकियों के आहारक अवस्था में दस योग होते हैं – 4 मनोयोग, 4 वचनयोग, 2 काययोग (वैक्रियिक द्विक)

प्रश्न:15-नारकियों के नपुंसक वेद ही क्यों होता है?

उत्तर-नरक गति पाप के उदय से प्राप्त होती है । वहाँ जीवों को दुःख ही दुःख होते है । लीवेद वाला पुरुष के साथ तथा पुरुषवेद वाला स्त्री के साथ रमण करके सुख प्राप्त कर लेता है । नपुंसकवेद वाले की वासनाएँ सी-पुरुष वेद वालों की अपेक्षा कई गुणी होती है, लेकिन वह न पुरुष के साथ रम सकता है और न स्त्री के साथ इसलिए वह वासनाओं से संतप्त रहता है । नरकों में यदि खी-पुरुष वेद होगा तो उन्हें सुख मिल जायेगा । परन्तु वहाँ पंचेन्द्रियजनित विषयों से उत्पन्न. कोई सुख नहीं होता है, शायद इसीलिए उनके नर्गुसक वेद ही होता है । निरन्तर दुःखी होने के कारण उनके दो (स्त्री-पुरुष) वेद नहीं होते हैं । (ध. 1 ‘ 347)

प्रश्न16- चतुर्थ नरक के नारकियों के कितनी कषायें होती हैं?

उत्तर-चतुर्थ नरक के नारकियों के अधिक से अधिक 23 कषायें होती है – अनन्तानुबन्धी चतुष्क, अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क, संज्वलन चतुष्क तथा स्वीवेद- पुरुषवेद के बिना हास्यादि 7 नोकषाय । कम-से-कम 19 कषायें होती हैं । अनन्तानुबन्धी चतुष्क का अभाव होने पर सम्यग्दृष्टि जीव के 19 कषायें होती हैं ।

नोट : इसी प्रकार सभी नरकों में जानना चाहिए ।

प्रश्न:17-क्या कोई ऐसा सम्यग्दृष्टि नारकी है जिसके अवधिज्ञान नहीं होता है?

उत्तर-हाँ, जो सम्यग्दृष्टि जीव (मनुष्य) अवधिज्ञान लेकर नरक में नहीं जाता है, उस सम्यग्दृष्टि नारकी के विग्रहगति में निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में तथा पर्याप्त अवस्था में जब तक अवधिज्ञान उत्पन्न नहीं होता तब तक उस सम्यग्दृष्टि नारकी के अवधिज्ञान नहीं होता है ।

प्रश्न:18-क्या सभी नारकियों के छहों ज्ञान होते हैं?

उत्तर-नहीं, सभी नारकियों के छहों ज्ञान नहीं होते हैं- सम्यग्दृष्टि नारकी के तीन ज्ञान होते हैं – मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान । मिथ्यादृष्टि तथा सासादन सम्यग्दृष्टि के तीन – कुशान (अज्ञान) होते है कुमतिशान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिशान मिश्र गुणस्थानवर्ती नारकी के तीनों ही ज्ञान मिश्र रूप होते हैं ।

प्रश्न:19-क्या सभी नारकियों के समान रूप से तीनों अशुभ लेश्याएँ होती हैं?

उत्तर-नहीं, सभी नरकों में अलग- अलग लेश्याएँ होती हैं –

{” class=”wikitable” “- ! क्रम !! नरक !! लेश्या “- ” 1″”प्रथम नरक में “” जघन्य कापोत “- ” 2 “”दूसरे नरक में “” मध्यम कापोत “- ” 3 “”तीसरे नरक में “” उत्कृष्ट कापोत तथा जघन्य नील “- ” 4 “”चतुर्थ नरक में “” मध्यम नील “- “5 “”पंचम नरक में “” उत्कृष्ट नील तथा जघन्य कृष्ण “- ” 6 “” छठे नरक में “” मध्यम कृष्ण “- ” 7 “” सातवें नरक में “” उत्कृष्ट कृष्ण । (त. सा.. 2० टी. “}

प्रश्न:20-नारकियों के अशुभ लेश्या ही क्यों होती है?

उत्तर-नारकियों के नित्य संफ्लेश परिणाम ही होते हैं, इसलिए उनके अशुभ लेश्याएँ ही होती हैैँ”

प्रश्न:21-क्या नारकियों के द्रव्य और भाव से अशुभ लेश्या ही होती है?

उत्तर-हाँ, नारकियों के शरीर नियम से हुण्डक संस्थान वाले ही होते हैं, इसलिए उनके द्रव्य से अशुभ लेश्या ही होती है । सभी नारकियों के पर्याप्तावस्था में द्रव्य से कृष्ण लेश्या ही होती है । (ध. 2745०) नारकानित्याशुभ. (त. सू 3) के अनुसार उनके भाव भी हमेशा अशुभतर ही रहते हैं इसलिए उनके भाव से भी अशुभ लेश्या ही होती है ।

प्रश्न:22-नारकियों की अपर्याप्त- अवस्था में कितने सम्य? होते हैं?

उत्तर-नारकियों की अपर्याप्त-अवस्था में तीन सम्यक्त्व होते हैं- ( 1) मिथ्यात्व (2) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ( 3) क्षायिक सम्यक्त्व। (1) घम्मा नरक की अपर्याप्त अवस्था में तीनों सम्यक्त्व होते हैं । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कृतकृत्यवेदक की अपेक्षा समझना चाहिए । वैशा आदि माघवी पर्यन्त नरकों की अपर्याप्त अवस्था में केवल म्स्क मिथ्यात्व ही होता नोट – बद्धायुष्क तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाला भी क्षायोपशमिक सभ्यक्ल को लेकर प्रथम नरक में नहीं जा सकता है । क्योंकि बद्धायुष्क कृतकृत्य वेदक तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि को छोड्‌कर शेष कोई भी जीव सम्यग्दर्शन को लेकर नरक में नहीं जा सकता है । ( 2) प्रथमोपशम सम्यक्त्व तथा मिश्र सम्यक्त्व में मरण नहीं होता और सासादन को लेकर जीव नरक में नहीं जाता इसलिए नारकियों की अपर्याप्त अवस्था में ये तीनों सम्यक्त्व नहीं होते हैं । प्रश्न:23-नारकी कौन-कौनसा सम्यग्दर्शन उत्पन्न कर सकते हैं? उत्तर-नारकी दो सम्यग्दर्शन उत्पन्न कर सकते हैं- ( 1) प्रथमोपशम-सम्यग्दर्शन (2) क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन । नारकी क्षायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं कर सकते; क्योंकि क्षायिक सम्यग्दर्शन का प्रारम्भ कर्मभूमिया मनुष्य ही करते हैं । कृतकृत्य वेदक वहाँ जाकर सम्यक् प्रकृति का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दर्शन का निष्ठापन कर सकता है । नोट – सम्यक्त्व मार्गणा में से नारकी मिथ्यात्व, सासादन तथा मिश्र सम्यक्त्व को भी उत्पन्न कर सकते है । प्रश्न:24-नारकियों की पर्याप्त अवस्था में कितने सम्यक्त्व होते हैं? उत्तर-प्रथम नरक के नारकियों की पर्याप्त अवस्था में सभी सम्यक्त्व होते है । दूसरे से सातवें नरक तक क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव मरकर प्रथम नरक से आगे नहीं जाता है । अर्थात् प्रथम नरक में सभी सम्मल्ल होते हैं और शेष नरकों में क्षायिक सम्यक्त्व के बिना पाँच ही सम्यक्त्व होते हैं । प्रश्न:25-नारकियों में पंचमादि गुणस्थान क्यों नहीं होते? उत्तर-अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सहित हिंसा में आनन्द मानने वाले और नाना प्रकार के प्रचुर दुःखों से संयुक्त उन सब नारकी जीवों के देशविरत आदिक उपरितन दश गुणस्थानों के हेतुभूत जो विशुद्ध परिणाम हैं, वे कदाचित् भी नहीं होते हैं । (नि. प. 2 – 76) प्रथमादि चार गुणस्थानों के अतिरिक्त ऊपर के गुणस्थानों का नरक में सद्‌भाव नहीं है; क्योंकि संयमासंयम और संयम पर्याय के साथ नरकगति में उत्पत्ति होने का विरोध है । ४- 172०8) प्रश्न:26-नारकियों के आर्तध्यान कैसे घटित होते हैं? उत्तर-नारकियों मेंआर्तध्यान – इष्ट वियोगज : नारकी जब अपनी विक्रिया से शस्रादि बनाते हैं, उसको यदि दूसरे नारकी छीन ले, ध्वस्त (नष्ट) कर दे तो इष्ट वियोग हो सकता है, हो जाता है । तीसरे नरक तक कोई देव किसी को सम्बोधन करने गया । वह जब संबोधन करके चला जाता है तो उसके वियोग में नारकी को इष्ट वियोग आर्त्तध्यान हो सकता है । अनिष्ट संयोगज : एक नारकी को जब दूसरे नारकी मारते हैं, दुःख देते हैं तो उन्हें दूर करने के लिए बार-बार विचार उत्पन्न होते हैं तब उस नारकी के अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान हो सकता है । वेदना- आर्तध्यान : नारकियों के शीत-उष्ण आदि वेदनाओं को दूर करने की भावनाओं से वेदना आर्त्तध्यान सभव है । निदान- आर्तध्यान : नारकी जातिस्मरण से भोगों को जानकर भावी भोगों की आकांक्षा कर सकते हैं । तीसरे नरक तक आये हुए देवों के वैभव को देखकर निदान कर सकते हैं । नारकियों में ऐसे ही और भी आर्त्तध्यान हो सकते हैं । प्रश्न27-नारकी जीव भगवान के दर्शन, पूजा, स्वाध्याय, गुरुओं की भक्ति, आहारदान आदि कुछ नहीं कर सकता है, तो उसके धर्मध्यान कैसे हो सकता है? उत्तर-भगवान की पूजा, दर्शनादि कार्य एकान्त से धर्मध्यान नहीं हैं । पूजा आदि कार्य धर्मध्यान प्राप्त करने की पूर्व भूमिका है । इन सब कार्यों को करते हुए भी मिथ्यादृष्टि जीव के धर्मध्यान नहीं होता है । सम्यग्दृष्टि नारकी के ” जो जिनेन्द्र भगवान ने सच्चे देव-शास्त्र -गुरु, तत्त्व द्रव्य, मोक्षमार्ग आदि का स्वरूप बताया है वही सच्चा है, उसी से मेरा कल्याण अर्थात् मुझे शाश्वत सच्चे सुख की प्राप्ति हो सकती है’ ‘ इस प्रकार की श्रद्धा (आज्ञा सम्यक्त्व) होती है और इसी रूप में नारकी के द्ग्ल आज्ञाविचय धर्मध्यान होता है । प्रश्न:28-सम्यग्दृष्टि नारकी के आसव के कितने प्रत्यय होते हैं? उत्तर-प्रथम नरक में सम्यग्दृष्टि नारकी के आसव के 42 प्रत्यय होते हैं- 12 अविरति, 19 कषाय (अनन्तानुबन्धी चतुष्क तथा दो वेद रहित) तथा 11 योग (औदारिकद्बिक तथा आहारकल्कि बिना) । दूसरे आदि नरकों में वैक्रियिक मिश्र तथा कार्मण काय योग सम्बन्धी आसव के प्रत्यय भी निकल जाने से 4० प्रत्यय ही होते हैं ” ==

तिर्यंचगति

== तालिका संख्या 2 {” class=”wikitable” width=”100%” “- ! क्रम !!स्थान !!संख्या !! विवरण !!विशेष “- “1 “”गति “”1″”तिर्यंचगति “” “- “2 “”इन्द्रिय “”5″”ए,द्वी,,त्री,चतु,पंचे.”” “- ” 3 “” काय “”6″”1. त्रस. 5 स्थावर “” “- “4 “”योग “”11″”4 मन. 4 वचन 3 काय. “”वैक्रियिकद्विक तथा आहारकद्विक नहीं हैं । “- “5 “”वेद “”3″”स्त्री., पू., नपु. “” “- ” 6 “”कषाय “”25″”16 कषाय 9 नोकषाय “” “- “7 “”ज्ञान “”6″”3 कुज्ञान, 3 ज्ञान “”मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं है । “- “8 “”संयम “”2″”सयमासयम, असंयम “”सामायिकादि संयम नहीं हैं । “- ” 9 “”दर्शन लेश्य “”3″”चक्षु, अचक्षु, अवधि “” केवलदर्शन नहीं है “- “10 “”लेश्या “” 6 “”द्रव्य और भावरूप से सभी लेश्याएँ “” “- ” 11 “”भव्यत्व “”2 “”भव्यत्व, अभव्यत्व “” “- ” 12 “”सम्यक्त्व “”6 “”क्षा. क्षयो. उप. सासा.मिश्र. मि. “”क्षायिक सम्यक भोगभूमि की अपेक्षा होता है । “- ” 13 “”संज्ञी “”2 “”सैनी, असैनी “” “- ” 14 “”आहार “”2 “”आहारक, अनाहारक “” “- ” 15 “”गुणस्थान “”5 “”मि. सा. मिश्र.अवि. सयमा. “” “- ” 16 “”जीवसमास “”19 “” 14 स्थावर तथा 5 त्रस सम्बन्धी “” “- “17 “” पर्याप्ति “”6 “”छहों पर्यातियाँ “” “- “18 “” प्राण “”10 “”5 इन्दिय., 3 बल,श्वा. आयु.””1० प्राण संज्ञी पंचेन्द्रिय के ही होते हैं । “- “19 “” संज्ञा “”4 “”चारों संज्ञाएँ “” “- ” 20 “”उपयोग “”9 “”6 ज्ञानो. 3 दर्शनोपयोग “” “- “21 “” ध्यान “”11 “”4 आ. 4 रौ. 3 धर्म. “”संस्थान विचय धर्मध्यान नहीं है। “- ” 22 “”आसव “”53 “”5 मि. 12 अ. 25 क. 11 यो.”” “- ” 23 “”जाति “”62 लाख””एकेन्द्रिय से संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच तक “”नरक, मनुष्य तथा देव सम्बन्धी जातियाँ नहीं हैैं । “- ” 24 “”कुल “”134 1/2 ला.क.””एकेन्द्रिय से संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच तक “”नरक, मनुष्य तथा देव सम्बन्धी कुल नहीं हैं । “} प्रश्न:29-तिर्यंंच कितने प्रकार के होते ईं? उत्तर-तिर्यञ्चगति के जीव पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय के भेद से, शम्बूक, दू मच्छर आदि विकलेन्द्रिय के भेद से, जलचर-थलचर, नभचर, द्विपद, चतुष्पदादि पंचेन्द्रिय के भेद से बहुत प्रकार के होते हैं । (पं. का. ता. 118) जन्म की अपेक्षा तिर्यञ्च दो प्रकार के होते हैं- ( 1) गर्भज ( 2) सम्मूछन जन्म वाले (का. अ. 13०) प्रश्न:30-तिर्यञ्च जीव कहाँ- कहाँ रहते ई? उत्तर-पन्द्रह कर्म-भूमियों में भी तिर्यब्ज रहते हैं । ढाईद्वीप के बाहर असंख्यात द्वीप-समुद्रों में स्थित सभी भोगभूमियों तथा आधे स्वयँमूरमण द्वीप और स्वयंभूरमण समुद्र में तिर्यच्च ही रहते हैं । भोग-भूमियों में भी तिर्यच्च रहते हैं । विशेष रूप से एकेन्द्रिय तिर्यव्व सर्वलोक में ठसाठस भरे हुए हैं । प्रश्न:31-किन-किन तिर्यञ्च के नपुंसक वेद ही होता है? उत्तर-एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव और समर्चन पर्याप्त पंचेन्द्रिय तथा लस्थ्यपर्यातक पंचेन्द्रिय तिर्यब्ज भी नपुंसकवेद वाले ही होते हैं । (त. सू 275०) प्रश्न:32-तिर्यंंच की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में कितनी लेश्याएँ होती हैं? उत्तर-तिर्यञ्च की निर्वृत्यपर्यातक अवस्था में तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं क्योंकि तेजोलेश्या और पसलेश्या वाले देव यदि तिर्यञ्च में उत्पन्न होते हैं तो नियम से उनकी शुभ लेश्याएँ नष्ट हो जाती हैं इसलिए तिर्यब्जों के निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं । (ध. 27473) प्रश्न:33-तिर्यञ्चोंं में क्षायिकसम्यग्दर्शन किस अपेक्षा से होता है? उत्तर-जिस मनुष्य ने तिर्यब्ज आयु का बन्ध कर लिया है फिर क्षायिकसम्यक्त्व का प्रतिष्ठापक हुआ है या क्षायिक सम्बक्म प्राप्त किया है तो वह मरकर भोगभूमि में तिर्यब्ज बनता है । कर्मभूमिया तिर्यञ्च के किसी भी अपेक्षा क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता है । प्रश्न:34-क्या बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि मनुष्य के समान बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि तिर्यस्थ्य भी भोगभूमि में जा सकता है? उत्तर-नहीं, तिर्यञ्च क्षायिक सम्यग्दर्शन का प्रतिष्ठापक नहीं होता और न कर्मभूमिया तिर्यञ्च को क्षायिकसम्यग्दर्शन ही होता है, क्योंकि, क्षायिक-सम्यग्दर्शन का प्रारम्भ कर्मभूमिया मनुष्य ही केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में करते हैं । तथा जिसने तिर्यब्ज, मनुष्य और नरकायु को बाँध लिया है वह मिथ्यात्व के साथ ही मरणकर तिर्यव्यादि गतियों में जाताहै, क्योंकि सम्यग्दृष्टि मनुष्य (बद्धायुष्क मनुष्य को छोड्‌कर) और तिर्यब्ज नियम से स्वर्ग में ही जाते हैं । प्रश्न:35-बद्धायुष्क किसे कहते हैं? उत्तर-जिसने अगले भव की आयु बाँध ली है वह बद्धायुष्क कहलाता है । बद्धायुष्क का कथन क्षायिक एवं कृतकृत्यवेदक की मुख्यता से ही किया गया है । प्रश्न:36-क्या इसी प्रकार बद्धायुष्क मुनि भी भोगभूमिया तिर्यञ्च बन सकता है? उत्तर-नहीं, जिस मनुष्य ने देवायु को छोड्‌कर शेष किसी भी आयु का बनय कर लिया है, वह अणुव्रत तथा महाव्रत धारण नहीं कर सकता है, ऐसा नियम है । इसलिए बद्धायुष्क मुनि भी भोगभूमि में उत्पन्न नहीं हो सकता है । (गो. क. 334) इसी प्रकार देवायु को छोड़कर शेष आयु बाँधने वाला तिर्यञ्च भी अणुव्रत धारण नहीं कर सकता है । प्रश्न:37-क्या मत्स्य भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो सकता है? उत्तर-नहीं, मत्स्य क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है क्योंकि तिर्यञ्च में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव भोग-भूमियों में ही होते हैं । भोग- भूमि में जलचर जीव नहीं पाये जाते हैं (ति. प. 47328) इसलिए मत्स्य क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है । मख्स नियम से कर्मभूमि में ही होते हैं । नोट – इसी प्रकार समर्थन मक्य के प्रथमोपशम सम्यक्त्व भी नहीं होता है क्योंकि प्रथमोपशमसम्यक्त्व गर्भज जीवों के ही होता है । (ध. पु.) प्रश्न:१-सम्मूर्च्छन तिर्यञ्च के कौन- कौनसे सम्यक्त्व हो सकते हैं? समर्चन तिर्यञ्च के चार सम्यक्त्व हो सकते हैं- ( 1) मिथ्यात्व (2) सासादन (3) सम्यग्मिथ्यात्व (4) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व । भोगभूमि में सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय जीव नहीं होते हैं, इसलिए सम्मूर्च्छन तिर्यञ्च में क्षायिक-सम्यक्त्व नहीं कहा है । प्रश्न:38-यदि सम्मूर्च्छन जीवों के उपशम-सम्य? नहीं होता है, तो उनके सासादन- सम्यक्त्व कैसे हो सकता है, क्योंकि उपशम सम्यक्त्व के बिना सासादन सभ्य? नहीं हो सकता है? उत्तर-यद्यपि सब्रुर्च्छन जीवों के प्रथमोपशम सम्बक्च नहीं होता है फिर भी पूर्व भव से अर्थात् कोई मनुष्य-तिर्यब्ज सासादन-सम्यकव को लेकर सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होता है तो उसके सासादन-सम्यक्त्व का अस्तित्व बन जाता है । प्रश्न:39-क्या तिर्यञ्च की निर्वृत्यपर्याप्तक- अवस्था में भी सभी सम्यक्त्व होते हैं? उत्तर-नहीं, तिर्यञ्च की निर्वृत्यपर्याप्तक-अवस्था में चार सम्बक्च होते हैं- ( 1) मिथ्यात्व ( 2) सासादन ( 3) क्षयोपशम और (4) क्षायिक सम्यक्त्व । उपशम और मिश्र नहीं होते हैं । नोट – क्षयोपशम सम्यक्त्व भोगभूमि में जाते समय कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा कहा गया हे । क्षायिक- सम्यक्त्व भोगभूमि की अपेक्षा है । प्रश्न:40-किन-किन तिर्यञ्च के पंचमगुणस्थान नहीं होता है? उत्तर-( 1) एकेन्द्रियादि असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों के । (2) संज्ञी पंचेन्द्रिय में भी लब्ध्यपर्यातक जीवों के । (3) समस्त भोगभूमिज तथा कुभोगभूमिज जीवों के हुण्डावसर्पिणी काल के प्रभाव से भगवान आदिनाथ स्वामी के समय में भोगभूमि में ही तीर्थंकर, संयमी, संयमासंयमी आदि हुए थे” । तथा (4) म्लेच्छखण्ड में तिर्यञ्च में पचम गुणस्थान प्राप्त करने की योग्यता नहीं है । नोट – म्लेच्छखण्ड से यहाँ आकर हाथी-घोड़ा आदि कोई पंचमगुणस्थान प्राप्त कर सकते हैं । (मनुष्यों के समान तिर्यञ्च का कथन आगम में नहीं आता है) क्या भोगभूमि में किसी भी अपेक्षा पंचमगुणस्थानवर्ती तिर्यल्थ नहीं हो सकते हैं? भोगभूमि में भी पंचमगुणस्थानवर्ती तिर्यव्व हो सकते हैं । वैर के सम्बन्ध से देवों अथवा दानवों के द्वारा कर्मभूमि से उठाकर लाये गये कर्मभूमिज तिर्यञ्च का सब जगह सद्‌भाव होने में कोई विरोध नहीं आता है, इसलिए वहाँ पर अर्थात् भोग-भूमि में भी पंचम गुणस्थानवर्ती तिर्यल्द का अस्तित्व बन जाता है । ४- 1 ‘ 4०4) नोट : इसी प्रकार संयतासंयत मनुष्य व संयत मुनि भी पाये जा सकते हैं । प्रश्न:41-क्या क्षायिक सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च के संयतासंयत गुणस्थान हो सकता है? उत्तर-नहीं; क्योंकि तिर्यञ्च में यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं तो वे भोगभूमि में ही उत्पन्न होते हैं, दूसरी जगह नहीं । परन्तु भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रतों की उत्पत्ति नहीं होती है, वहाँ पर अणुव्रत होने में आगम से विरोध है । (ध.1/4०5) प्रश्न 42: किन- किन तिर्यञ्च के कितने-कितने प्राण होते हैं? उत्तर-: तिर्यञ्च के प्राण – {” class=”wikitable” width=”100%” “- ! निर्वृत्य-पर्याप्तावस्था !! पर्याप्तावस्था !!निर्वृत्य- पर्याप्तावस्था!! “- ” एकेन्द्रियों के “” 3 “” 4 “”(स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल,श्वासोच्छवास, आयु) “- ” द्वीन्द्रियों के “”4 “” 6″” (2 इन्द्रिय, वचन-कायबल,श्वासोच्छवास, आयु) “- “त्रीन्द्रियों के “”5 “”7″”(3 इन्द्रिय, 2 बल श्वासो. आयु) “- “चतुरिन्द्रियों के “”6 “” 8″”(4 इन्द्रिय, 2 बल श्वासो. आयु) “- ” असैनी पचेन्द्रियों के “” 7 “” 9″” (5 इन्द्रिय, 2 बल श्वासो. आयु) “- “सैनी पंचेन्द्रियों के “”7 “”10 “” 5 इन्द्रिय, 3 बल,श्वासो. आयु) “} नोट-:सभी जीवों के निर्वृत्यपर्यासक अवस्था में श्वासोच्चवास, वचनबल तथा मनोबल नही होते हैं ।. असैनी पर्यन्त जीवों के मनोबल नहीं होता है । प्रश्न 42: सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च के आसव के कितने प्रत्यय हो सकते हैं? उत्तर-चतुर्थगुणस्थानवर्ती तिर्यञ्च के आसव के 44 प्रत्यय हो सकते हैं- 12 अविरति 21 कषाय (अनन्तानुबन्धी बिना) तथा11 योग (4 मनो. 4 वचन. 3 काय.) प्रश्न:44-औदारिकमिश्र तथा कार्मण काययोग भोगभूमि की अपेक्षा बन जायेंगे । तिर्यञ्च की बासठ लाख जातियों कौन-कौन सी हैं? उत्तर-तिर्यञ्चों की जातियाँ – (1) नित्यनिगोद की – 7 लाख (2) इतर निगोद की – 7 लाख (3) पृथ्वीकायिक की – 7 लाख (4) जलकायिक की – 7 लाख (5) अग्रिकायिक की – 7 लाख (6) वायुकायिक की – 7 लाख (7) वनस्पतिकायिक की -10 लाख (8) द्वीन्द्रिय की – 2 लाख (9) त्रीन्द्रिय की – 2 लाख (1०) चतुरिन्द्रिय की – 2 लाख (1) पंचेन्द्रिय की -4 लाख कुल =62 लाख प्रश्न45 :तिर्यञ्चों के 134 1/2 लाख करोड़ कुल कौन-कौन से हैं? उत्तर : तिर्यञ्चों के कुल- (1) पृथ्वीकायिक के -22 लाख करोड़ (2) जलकायिक के – 7 लाख करोड़ (3) अग्रिकायिक के – 3 लाख करोड़ (4) वायु कायिकक- 7 लाख करोड़ (5) वनस्पतिकायिक के – 28 लाख करोड़ (6) द्वीन्द्रिय के – 7 लाख करोड़ (7) त्रीन्द्रिय के -8 लाख करोड़ (8) चतुरिन्द्रिय के -9 लाख करोड़ (9) जलचर के – 12 1/2 लाख करोड़ (1०) थलचर के – 19 लाख करोड ( 11) नभचर के – 12 लाख करोड़ योग=134 1/2 लाख करोड़ कुल प्रश्न:46-भोगभूमिया तिर्यंंच के कितने कुल होते हैं? उत्तरभोगभूमिया तिर्यञ्चों के 31 लाख करोड़ कुल होते हैं- थलचर के – 19 लाख करोड़ तथा नभचर के 12 लाख करोड़ । भोगभूमि में एकेन्द्रिय, विकलत्रय तथा जलचर जीव नहीं पाये जाते हैं । इसलिए उनके कुल ग्रहण नहीं किये है । नोट – यद्यपि वहाँ एकेन्द्रिय जीव होते हैं, लेकिन वे भोगभूमिया नहीं होते हैं, सामान्य एकेन्द्रिय हैं, इसलिए यहाँ उनके कुलों का ग्रहण नहीं किया है । ==

मनुष्य-गति

== तालिका संख्या 3 {” class=”wikitable” width=”100%” “- ! क्रम !!स्थान !! संख्या !! विवरण !! विशेष “- ” 1 “” गति “” 1 “” मनुष्य-गति “” “- “2 “”इन्द्रिय “”1 “”पंचेन्द्रिय “” “- “3 “”काय “”1 “” त्रस “” “- ” 4 “”योग “”13 “” 4 मन. 4 बच, 5 काय. “”आहारकद्विक 6 ठे गुणस्थान में ही होते हैं “- “5 “”वेद “”3 “”स्त्री. पु. नपुँ. “” “- “6 “”कषाय “”25 “”16 कषाय 9 नोकवाय “” “- “7 “”ज्ञान “”8 “”3 कुज्ञान, 5 ज्ञान “”5 ज्ञान सम्यग्दृष्टि के ही होते है “- “8 “”सयम “”7 “”सा.छे.पीर.सू.यथा.संय.अस.”” “- “9 “”दर्शन “”4 “”चक्षु, अचक्षु, अव. केव.”” “- “10 “”लेश्या “”6 “”कृ-नी.का.पी.प. शुक्ल “” “- “11 “”भव्यत्व “” 2 “”भव्य, अभव्य “” “- “12 “” सम्यक “”6 “”क्षा. क्षयो. उप. सा. मिश्र.मि.”” “- “13 “”संज्ञी “”1 “” संज्ञी “” “- “14 “” आहार “”2 “” “” “- “15 “”गुणस्थान “”14 “”पहले से चौदहवें तक”” “- “16 “”जीवसमास “”1 “” संज्ञी पंचेन्द्रिय”” “- “17 “”पर्याप्ति “”6 “”आ.श.इ.श्वा.भा. मन.”” “- “18 “” प्राण””10 “”5 इन्दि., 3 बल, श्वा.आयु.”” “- “19 “”संज्ञा “”4 “”आ .भ.मै.परि.”” “- “20 “”उपयोग “”12″” 8 ज्ञान,4 दर्शन “” “- “21 “”ध्यान “”16 “”4 आ. 4 री. 4 ध.4 शुक्ल”” “- “22 “”आस्रव “”55 “”5 मि. 12 अवि. 25 क.13.यो.””वैक्रियिकद्विक नहीं होते हैं । “- ” 23 “”जाति “”14 लाख “”मनुष्य सम्बन्धी “” “- “24 “”कुल “”14 ला.क. “”मनुष्य सम्बन्धी”” “} प्रश्न:47-मनुष्य कितने प्रकार के होते हैं? उत्तर-मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- ( 1) आर्य मनुष्य ( 2) म्लेच्छ मनुष्य ( त. सू. 3/36) ( 1) कर्मभूमिज मनुष्य (2) भोग भूमिज मनुष्य (नि. सा. 16) मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं- ( 1) पर्यातक मनुष्य (2) निर्वृत्यपर्यातक मनुष्य ( 3) लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य । (ति. प. 4) मनुष्य चार प्रकार के होते हैं- ( 1) कर्मभूमिज (2) भोगभूमिज (3) अन्तरद्बीपज ( 4) सम्पूर्च्छनज । (भ. आ. 7807 क्षेपक) प्रश्न:48-आर्य आदि मनुष्य किसे कहते हैं।? उत्तर-आर्य मनुष्य – गुण और गुणवानों से जो सेवित हैं वे आर्य कहलाते हैं । (रा. वा. 3736) म्लेच्छ मनुष्य – पाप क्षेत्र में जन्म लेने वाले म्लेच्छ कहलाते हैं । उनका आचार खान- पान आदि असभ्य होता है । (निसा. 16) कर्म भूमिज – जहाँ शुभ और अशुभ कर्मों का आसव हो उसे कर्मभूमि कहते हैं । वहाँ उत्पन्न होने वाले कर्मभूमिज कहलाते हैं । (स. सि. 3) भोगभूमिज ए भोगभूमि में रहने वाले मनुष्यों को भोगभूमिज कहते हैं । (भ. आ.) लब्ध्यपर्याप्तक – जो जीव श्वास के अठारहवें भाग में मर जाते है वे लस्थ्यपर्याप्तक जीव हैं । (गो. जी. 122) अंतर्द्वीपज – जो अंतर्द्वीपों में उत्पन्न होते हैं वे अंतर्द्वीपज मनुष्य कहलाते हैं । (सर्वा. 3? 39) सम्मूर्च्छनज – लब्ध्यपर्याप्तक ही होते हैं । (का. अ. 132 – 33) प्रश्न:49-क्या मनुष्य के पेट में जो कीड़े पाये जाते हैं वे भी मनुष्य हैं? उत्तर-नहीं, मनुष्य के पेट, घाव आदि में पड़ने वाले कीड़े मनुष्य नहीं हैं यद्यपि मनुष्य के पेट में पड़ने वाले कीड़े, पटार आदि औदारिक शरीर तथा मल-मूत्र, भोजन आदि में उत्पन्न होते हैं लेकिन वे दो इन्द्रिय ही होते हैं इसलिए वे तिर्यञ्चगति के जीव ही हैं, मनुष्य नहीं । प्रश्न:50-किन- किन मनुष्यों को केवलज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता है? उत्तर-जिनको केवलज्ञान नहीं हो सकता है वे मनुष्य हैं- ( 1) लब्ध्यपर्यातक (2) आठ वर्ष से कम उम्र वाले ( 3) 126 भोगभूमियों में उत्पन्न ( 4) पाँचवें-छठे नरक से आये हुए ( 5) न्ल्यू निगोद से आये हुए ( 6) अभव्य तथा अभव्यसम भव्य (7) वब्रवृषभनाराचसंहनन को छोड्‌कर शेष सहनन वाले (8) बद्धायुष्क मनुष्य (9) द्रव्य सी एवं द्रव्य नपुंसक वेद वाले आदि । प्रश्न:51-एक सौ छब्बीस भोगभूमियों कौन-कौन सी हैं? उत्तर-एक सौ छब्बीस भोगभूमियाँ- 1० जघन्य भोगभूमियाँ – 5 हैमवत, 5 हैरण्यवत क्षेत्र की । 1० मध्यम भोगभूमियाँ – 5 हरिवर्ष, 5 रम्यक क्षेत्र की । 1० उत्तम भोगभूमियाँ – 5 देवकुरु, 5 उत्तरकुरु की । 96 अन्तरद्वीपों में पाई जाने वाली कुभोगभूमियाँ । कुल 126 भोगभूमियाँ । इनमें मनुष्य भी रहते हैं । शेष ढाईद्वीप के बाहर असंख्यात द्वीप-समुद्रों में जघन्य भोगभूमियाँ हैं, जहाँ केवल तिर्यस्थ ही रहते हैं । (तिप.) नोट- 48 लवण समुद्र सम्बन्धी तथा 48 कालोदधिसमुद्र सम्बन्धी इस प्रकार 96 अन्तरद्वीप प्रश्न:52-क्या कुभोगभूमियों में तिर्यथ्य भी पाये जाते हैं? उत्तर-ही, कुभोगभूमियों में तिर्यव्व भी पाये जाते है । यद्यपि इन भोगभूमियों में किस-किस आकृति वाले तिर्यव्व रहते हैं, क्या खाते हैं आदि वर्णन जिस प्रकार मनुष्यों के बारे में आता है, वैसा तिर्यञ्चों के बारे में नहीं मिलता है, फिर भी वहाँ तिर्यब्ज पाये जाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है क्योंकि आचार्य यतिवृषभमहाराज तिलोयपण्णत्ति ग्रन्य के चौथे अध्याय की 2515 वीं गाथा में कहते हैं कि इन द्वीपों में जिन मनुष्य-तिर्यञ्च ने सम्यग्दर्शन रूप रत्न को ग्रहण किया है वे मरकर सौधर्म-ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं । इससे सिद्ध है कि वहाँ तिर्यब्ज भी पाये जाते हैं । प्रश्न:53-क्या अंधे, काणे, लूले-लँगड़े मनुष्य को भी केवलज्ञान हो सकता है? उत्तर-ही, अंधे, काले, ज्जे, लँगड़े आदि मनुष्यों को भी केवलज्ञान हो सकता है । यद्यपि अंधा, काणा, ख्ता, लँगड़ा व्यक्ति दीक्षा की पात्रता नहीं रखता और दीक्षा लिये बिना केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता, लेकिन यदि कोई मनुष्य दीक्षा लेने के बाद अर्थात् मुनि बनने के बाद अखि फूटने के कारण काणा, मोतियाबिन्द आदि के कारण अंधा हो जावे, लकवा आदि के कारण ख्ता-लँगड़) हो जावे तो केवलज्ञान होने में कोई बाधा नहीं है । कभी- कभी उपसर्गादि के कारण भी ऐसा हो सकता है । केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए तो वब्रवृषभनाराचसंहनन, द्वितीयशुक्ल ध्यान, चार घातिया कर्मों का क्षय होना आवश्यक है । केवलज्ञान होने पर शरीर सांगोपांग हो जायेगा प्रश्न:54-क्या कुबड़े-बने आदि को भी केवलज्ञान हो सकता है? उत्तर-ही, कुबड़े-बौने आदि बेडौल शरीर वाले को भी केवलज्ञान हो सकता है, क्योंकि तेरहवें गुणस्थान तक छहों संस्थानों का उदय पाया जाता है (गो. क.) फिर भी मुनि बनने के योग्य संस्थान होना आवश्यक है । ==

मनुष्यों में लेश्याएँ

== प्रश्न:55-किन-किन मनुष्यों के कौन-कौन सी लेश्याएँ होती हैं? उत्तर-मनुष्यों में लेश्याएँ- {” class=”wikitable” WIDTH=”100%” “- ! क्रम !! मनुष्य !! पर्याप्तापर्याप्त !! लेश्या “- ” 1 “” कर्मभूमिया “” पर्याप्तक “” 6 लेश्या “- “2 “”कर्मभूमिया “”निर्वृत्यपर्यातक “”6 लेश्या “- “3 “”लब्ध्यपर्याप्तक “”3 अशुभलेश्या “” “- “4 “”भोगभूमिया सम्यग्दृष्टि””निर्वृत्यपर्यातक “”1 कापोत लेश्या (ति.प.4/424) “- “5 “” भोगभूमिया मिथ्यादृष्टि “”निर्वृत्यपर्यातक””3 अशुभलेश्या (ति.प.4/424) “- “6 “”भोगभूमिया सासादन सम्यग्दृष्टि “”निर्वृत्यपर्यातक “”3 अशुभलेश्या (ति.प.4/426) “- “7 “”भोगभूमिया “” पर्यातक “” 3 शुभलेश्या “- “8 “”कुभोग भूमि “” निर्वृत्यपर्यातक “”3 अशुभलेश्या “- “9 “”कुभोग भूमि “” पर्यातक “”1 पीतलेश्या “- “10 “”अन्तरद्वीपज म्लेच्छ “”- “”4 पीतलेश्या “- “11 “” कर्मभूमिया म्लेच्छ “”- “”6 पीतलेश्या “- ” 12 “”विद्याधर “”पर्याप्तापर्याप्त “”6 पीतलेश्या “} प्रश्न:56-क्या म्लेच्छ खण्ड के मनुष्यों को सम्यग्दर्शन हो सकता है? उत्तर-हाँ, म्लेच्छ खण्ड के मनुष्यों को भी सम्यग्दर्शन हो सकता है । दिग्विजय के लिए गये हुए चक्रवर्ती के स्कन्धावार (कटक सेना) के साथ जो म्लेच्छ राजा आदिक आर्यखण्ड में आ जाते हैं, और उनका यहाँ वालों के साथ विवाहादि सम्बन्ध हो जाता है, तो उनकेसंयम धारण करने में कोई विरोध नहीं है । अथवा दूसरा समाधान यह भी किया है कि चक्रवर्ती आदि को विवाही गई म्लेच्छ कन्याओं के गर्भ से उत्पन्न हुई सन्तान की मातृपक्ष की अपेक्षा यहाँ ‘ अकर्मभूमिथ’ पद से विवक्षा की गई है, क्योंकि अकर्मभूमिज सन्तान को दीक्षा लेने की योग्यता का निषेध नहीं पाया जाता है । (य. पु.) अन्तर्द्वीपों में रहने वाले म्लेच्छों को भी सम्यग्दर्शन होता है, वे मरकर सौधर्म-ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं । (ति. प. 4? 2515) प्रश्न:57-पाँच वर्ष के बच्चे को सभ्यक्ल मार्गणा क्त कौन-कौनसा स्थान हो सक्ता है? उत्तर-पाँच वर्ष का बच्चा यदि पुरुष है तो उसके मिथ्यात्व, क्षायोपशमिकएवं क्षायिक सम्यक्त्व हो सकता है और यदि वह खी या नपुसक है तो मात्र मिथ्यात्व ही होगा; क्योंकि सम्यग्दृष्टि सी तथा नपुंसक नहीं बनता है । यदि वह बच्चा सादि मिथ्यादृष्टि है, तो उसके सम्बइत्मथ्यात्व प्रकृति का उदय आ

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