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सिद्ध और सिद्धि शब्द का महत्व

July 20, 2017ज्ञानमती माताजीjambudweep

सिद्ध और सिद्धि शब्द का महत्व


(ज्ञानमती माताजी की आत्मकथा)


कल्पद्रुम विधान


सन् १९८३ से कई बार मन में यह भाव आया था कि एक ‘कल्पद्रुम’ विधान बनावें। कुछ रूपरेखा बनायी, डायरी में लिखकर भी रखा। १९८५ की जम्बूद्वीप प्रतिष्ठा के पूर्व एक बार नांदणी के भट्टारक जिनसेन स्वामी भी यहाँ पधारे थे।
 
उन्होंने मुझसे कहा-‘‘माताजी! जैसे आपने इन्द्रध्वज महाविधान बनाया है, वैसे ही क्या आपने ‘कल्पद्रुम’ के बारे में कभी सोचा है?’’ मैंने कहा-‘‘२-३ वर्षों से कुछ रूपरेखा तो बनायी है, इस प्रतिष्ठा के बाद सोचूँगी।’’
 
अस्वस्थ अवस्था में मैंने माधुरी से एक-दो बार कहा- ‘‘माधुरी! मेरी एक डायरी में कल्पद्रुम विधान की कुछ रूपरेखा बनाकर रखी हुई है। मेरे बाद में तुम एक कल्पद्रुम विधान बनाना।
 
माधुरी कहने लगती- ‘‘माताजी! अभी तो आप अच्छी हो जायेंगी, तब आप ही बनायेंगी आपको कल्पद्रुम विधान क्या, अभी बहुत काम करने हैं।’’
 
धीरे-धीरे मैं स्वस्थता का अनुभव कर रही थी अतः कल्पद्रुम विधान की रूपरेखा मस्तिष्क में खींचती रहती थी। ८ जुलाई १९८६, आषाढ़ शु. १ को रात्रि में मेरे मस्तिष्क में जो कुछ रूपरेखा प्रस्फुटित हुई तदनुसार प्रातः उठकर आवश्यक क्रिया से निवृत्त होकर, ९ जुलाई, आषाढ़ शु. २ को प्रातः ५ बजकर ४५ मिनट पर मैंने लेखनी उठाई और रत्नत्रय निलय में सुमेरु के सामने बैठकर ‘ॐ नमः सिद्धेभ्यः’ लिखकर पूजा बनाना प्रारंभ कर दिया।
 
उस दिन मुझे इतना हर्ष हुआ है कि मैं शब्दों में न कह सकती हूँ और न लिख सकती हूँ। अब मैं धारावाहिक यह विधान बनाने में लग गई। समवसरण का प्रकरण मैं तिलोयपण्णत्ति, आदिपुराण, हरिवंशपुराण और समवसरण स्तोत्र से समझती रहती थी।
 
मैं कई बार सोचा करती थी कि- ‘‘जब ‘भक्तामर स्तोत्र, के बनाने से श्रीमानतुंगाचार्य के अड़तालिस ताले टूट गये थे और ‘एकीभावस्तोत्र’ की रचना से श्रीवादिराज मुनिराज के शरीर से कुष्ठ रोग दूर होकर शरीर स्वर्ण के समान हो गया था, तब मैं समवसरण वैभव से सहित चौबीस तीर्थंकरों की भक्ति में विभोर हो पूजा, मंत्र और जयमाला की रचना कर रही हूँ तो क्या मेरे अशुभ कर्म निर्जीर्ण नहीं होंगे?
 
अर्थात् अगर मेरा शरीर स्वस्थ हो जावे, तो भला इसमें आश्चर्य ही क्या है?’’ वास्तव में विधान की रचना के समय परिणामों में कितनी एकाग्रता, कितनी तन्मयता आती है और कितना आनन्द उत्पन्न होता है वह अनिर्वचनीय ही है।
 
मुझे शायद सामायिक में भी इतनी एकाग्रता नहीं आती है कि जितनी विधान पूजा आदि की पंक्तियों के बनाते समय आती है। इस विधान में मैंने २४ पूजाएँ बनायी हैं। इसमें २४ की संख्या १०८ बार आयी है जिसे कि मैंने प्रस्तावना में स्पष्ट किया है।
 
इस प्रकार आश्विन शुक्ला पूर्णिमा-शरद पूर्णिमा के दिन, दिनाँक १७ अक्टूबर १९८६ को प्रातः छह बजकर १० मिनट पर मैंने यह विधान पूर्ण किया और तत्काल ही भगवान महावीर के दर्शन कर खुशी हुई।
 
इसी दिन मैंने ‘तीन लोक विधान’ की रचना प्रारंभ कर दी क्योंकि सन् १९७६ में मैं तीन लोक विधान बनाने का निश्चय कर चुकी थी किन्तु मोतीचन्द रवीन्द्र कुमार की प्रार्थना से उस समय ‘इन्द्रध्वज विधान’ बनाया था,
 
तब से लेकर भावना भाते हुए इस मंगल दिवस पर उस विधान को शुरू करने का अवसर आया था। मध्यान्ह में इस कल्पद्रुम विधान के पृष्ठ को काँच में दिखाकर, काँच पर पंचामृत अभिषेक किया गया पुनः मोतीचन्द ने श्रुतस्कंध विधान करके इस ‘कल्पद्रुम विधान’ ग्रंथ की पूजा की।

जन्मजयंती समारोह


 इसके बाद यद्यपि शरदपूनो को ही मेरा जन्मदिवस था और माधुरी आदि ने दूध से मेरा चरण प्रक्षालन आदि किया था, रात्रि में ५३ दीपकों से आरती भी की थी, फिर भी दिल्ली वालों की राय के अनुसार रविवार कार्तिक कृ. २, १९ अक्टूबर का मेरे जन्म दिवस का विशेष कार्यक्रम रखा गया था।
 
वैसे १७ अक्टूबर से १९ अक्टूबर तक त्रिदिवसीय कार्यक्रम मनाया गया। यहाँ हस्तिनापुर में दिल्ली, मेरठ, मवाना, सरधना, बड़ौत, खतौली आदि स्थानों से अनेक बसें आ गई । सनावद, टिकैतनगर आदि से भी अनेक भक्तगण आ गये। प्रातः ६ बजे से १० बजे तक पूजन, नशिया के दर्शन आदि किये गये।
 
यहाँ पर रहने वाले अनंतवीर्य जैन ने आगंतुक यात्रियों के लिए प्रीतिभोज का आयोजन किया था। यहाँ जंबूद्वीप स्थल पर पांडाल बनाया गया था। मध्यान्ह वहाँ पांडाल में श्री इलमचंद एंड पार्टी दिल्ली और अशोक कुमार भोपाल वालों के संगीत हुए पुनः मंच पर मेरे उपस्थित होने के बाद मंगलाचरणपूर्वक विद्वानों के भाषण हुए।
 
अनेक विद्वानों और श्रीमानों ने मेरे प्रति विनयांजलि अर्पण करते हुए मेरे दीर्घ जीवन की कामना की। मंच पर ५३ विद्युत दीपों को जलाकर राजकुमार जैन दिल्ली ने कार्यक्रम का उद्घाटन किया। हस्तिनापुर की ५३ गरीब महिलाओं को मदन कुमार जैन टिकैतनगर ने साड़ियाँ बांटी पुनः रेनु जैन धर्मपत्नी अरुणकुमार जैन दिल्ली वालों ने भी ५३ साड़ियाँ वितरित कीं। इसी प्रकार मोतीचन्द जैन कासलीवाल दिल्ली ने ५३ महिलाओं को ५३ थालियाँ वितरित कीं।
 
मुझे प्रदान करने के लिए पिच्छी, कमंडलु और शास्त्र की बोलियाँ हुई , जिन्होंने बोलियाँ लीं, उन श्रावकों ने मुझे नूतन पिच्छी देकर मेरी पुरानी पिच्छी प्राप्त कर ली और कमंडलु तथा शास्त्र भी मुझे प्रदान किये। इसके सिवाय चरण प्रक्षालन और आरती की बोली लेने वालों ने चरण प्रक्षालन किये और आरती उतारी। मंच पर मेरा मंगल आशीर्वाद हुआ। इसके बाद रथयात्रा के लिए बोलियाँ होकर रथयात्रा निकाली गई।
 
इसमें प्रद्युम्न कुमार छोटीशाह टिकैतनगर वालों ने मेरे द्वारा रचित कल्पद्रुम विधान ग्रंथ को लेकर रथ में बैठने का सौभाग्य प्राप्त किया और उन्होंने इस विधान को छपाने के लिए सहयोग देने की स्वीकृति दे दी।
 
रथयात्रा वापस आने के बाद श्रीजी का अभिषेक होकर फूलमाला हुई। इसके बाद कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। शरदपूनो के दिन अन्यत्र भी भक्तगण मेरा जन्मजयंती दिवस मनाते हैं, ऐसी सूचनाएँ आती रही हैं।
 
जैसे कि सन् १९८६ में झालरापाटन में मनाया गया आदि।

सिद्ध और सिद्धि शब्द का महत्व


 मैंने सन् १९५४ में कातंत्र व्याकरण पढ़ते समय पढ़ा था ‘सिद्धो वर्ण समाम्नायः’ उसमें यह समझा था कि प्रारंभ में ‘सिद्ध’ शब्द के आ जाने से ही मंगलाचरण हो गया।
 
उसी प्रकार से सन् १९५७ में जैनेन्द्र व्याकरण पढ़ी, उसमें भी प्रारंभ में सूत्र था ‘सिद्धिरनेकांतात्’ तब भी यह समझ में आया कि प्रारंभ में ‘सिद्धि’ शब्द के आ जाने से ही मंगलाचरण हो गया।
 
वास्तव में ‘सिद्ध’ शब्द अनंत संसार से छूटकर मुक्ति का वाचक है। यह दोनों शब्द हमेशा मंगल, उत्तम और शरणभूत हैं अतः मैंने भी सर्वत्र ग्रंथ रचनाओं के प्रारंभ में ‘सिद्ध’ या ‘सिद्धि’ शब्द का प्रयोग अवश्य किया है।
 
सर्वप्रथम बाहुबलि स्तोत्र में- ‘सिद्धिप्रदं मुनिगणेन्द्रशतेन्द्रवंद्यं’ ऐसे ही अंत में भी सिद्ध या सिद्धि शब्द को लाने का प्रयास रहा है,
 
जैसे कि इसी स्तोत्र में अंतिम लाइन है-‘
 
‘ज्ञानेन शोभितमतिः समुपैति सिद्धिं।’
 
ऐसे ही इन्द्रध्वज विधान के प्रारंभ में  सिद्धों की करूँ वंदना।
 
‘सिद्धान् त्रैलोक्यमूर्धस्थान्’।
 
ऐसे ही समाप्ति में-
 
‘‘सो जन मनवांछित लहें, वरें अंगना सिद्धि।।’’
 
जंबूद्वीप विधान प्रारंभ मेें-
 
‘सिद्धि के दाता कल्पवृक्ष’
 
कल्पद्रुम विधान के प्रारंभ में-
 
‘सिद्धों को कर नमस्कार’
 
मंगलस्तोत्र में-
 
‘सिद्धेः कारणमुत्तमाः जिनवरा’
 
प्रशस्ति के अंत में-
 
‘जिससे हो जावे स्वात्मसिद्धि।’
 
इसी प्रकार नियमसार की स्याद्वाद चन्द्रिका टीका के प्रारंभ में-
 
‘‘सिद्धेः साधनमुत्तमं जिनपतेः श्रीपादपद्मद्वयम् ।’’
 
इसी प्रकार अंत में देखिये-
 
‘दत्वा ज्ञानमतीं जगत्त्रयनुतां स्युर्मेऽचिरात् सिद्धये।’’
 
मेरा विश्वास है कि प्रारंभ में ‘सिद्ध या सिद्धि’ शब्द सिद्धों को शब्द और भावपूर्वक नमस्कार करने वाला है अतः यह प्रारंभ में किये गये ग्रंथों को पूर्ण करने वाला है और अंत में आने वाले ‘सिद्ध या सिद्धि’ शब्द ग्रंथकर्ता को सिद्धि प्रदान करने वाले हैं।
 
इस सिद्धि शब्द से लोक में समस्त मनोरथों की सफलता और परलोक में परम्परा से मुक्तिपद की प्राप्ति होवेगी, इसमें कोई भी संदेह नहीं है।
 

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