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कषाय मार्गणा

June 17, 2018स्वाध्याय करेंHarsh Jain

कषाय मार्गणा ( चौबीस ठाणा )

 


प्रश्न – कषाय और कषाय मार्गणा किसे कहते हैं?

उत्तर- जो तत्त्वार्थश्रद्धान रूप सम्बक्ल, अणुव्रत रूप देशचारित्र, महाव्रत रूप सकल चारित्र और यथाख्यात चारित्र रूप आत्मा के विशुद्ध परिणामों को कषती अर्थात् घातती है उसे कषाय कहते हैं । (गो. जी. 282 – 83) जो संसारी जीव के ज्ञानावरण आदि मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृति के भेद से भिन्न शुभ- अशुभ कर्म रूप क्षेत्र को कवति अर्थात् जोतती हैं वे कषायें हैं । क्रोधादि कषायों में अथवा कषाय और अकषाय में जीवों की खोज करने को कषाय मार्गणा कहते हैं ।

प्रश्न- मार्गणा कितने प्रकार की होती है?

उत्तर-खास मार्गणा चार प्रकार की होती है – ( 1) क्रोध (2) मान (3) माया (4) लोभ । चूके- सं. 13 टी.) कषायें पच्चीस होती हैं – अनन्तानुबन्धी – क्रोध, मान, माया, लोभ । अप्रत्याख्यानावरण – क्रोध, मान, माया, लोभ । प्रत्याख्यानावरण – क्रोध, मान, माया, लोभ । संज्वलन – क्रोध, मान, माया, लोभ । ८ कुल 16 नौ नोकषाय – हास्य, रति, अरति, शोक, भय-जुगुप्सा, खीवेद, पुरुषवेद और नपुसक वेद । 16 स् 9८25 (त. सू- 8? 9) कषाय मार्गणा के अनुवाद से क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी तथा कवायरहित जीव होते हैं । ( थ. 17348)

प्रश्न-क्या कषायरहित जीव भी होते हैं?

उत्तर-ही, कषायरहित जीव भी होते हैं । 11 वें, 1 दवे, 13 वें, 1 वें गुणस्थान वाले तथा सिद्ध भगवान कषाय से रहित होते हैं ।

प्रश्न-नोकषाय किसे कहते हैं?

उत्तर-ईषत् कषाय को नोकषाय कहते हैं । यहाँ ईषत् अर्थात् किंचित् अर्थ में नम का प्रयोग होने से किंचित् कषाय को नोकषाय कहा है । (सर्वा. 879) जिस प्रकार कुत्ता स्वामी का इशारा पाकर बलवन्त हो जाता है और जीवों को मारने के लिए प्रवृत्ति करता है तथा स्वामी के इशारों से वापिस आ जाता है; उसी प्रकार क्रोधादि कषायों के बलपर ही ईषत् प्रतिषेध होने पर हास्यादि नोकषायों की प्रवृत्ति होती है । क्रोधादि कषायों के अभाव में निर्बल रहती हैं इसलिए हास्यादि को ईषत्- कषाय, अकषाय या नोकषाय कहते हैं । (रा. वा. 8? 9)

प्रश्न-ये चारों चौकड़ी किसका घात करती हैं?

उत्तर-अनन्तानुबन्धी क्रोधादि कषायें – सभ्यक्च एव चारित्र का घात करती हैं । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि कषायें देशसंयम – अणुव्रतों का घात करती हैं । प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि कवायें सकल संयम – महाव्रतों का घात करती हैं । संज्वलन क्रोधादि कषायें यथाख्यात सयम का घात करती हैं ।

प्रश्न-क्रोध कषाय किसे कहते हैं?

उत्तर-युक्तायुक्त विचार से रहित दूसरे के घात की वृत्ति, शरीर में कम्पन, दाह, नेत्रों में लालिमा तथा मुख की विवर्णता लक्षण वाला क्रोध है । अपने या पर के अपराध से अपना या दूसरों का नाश होना या नाश करना क्रोध है । ४, ति. च. 87467) जिसके उदय से अपने और पर के घात करने के परिणाम हों तथा पर ० उपकार ०० अभाव रूप भाव ० पर का उपकार ० छ भाव न वा कूर भाव हो सो क्रोध कषाय है ।

प्रश्न-मान कषाय किसे कहते हैं?

उत्तर-मन में कठोरता, ईर्षा, दया का अभाव, दूसरों के मर्दन का भाव, अपने से बड़ों को नमस्कार नहीं करना, अहंकार, दूसरों की उन्नति को सहन नहीं करना मान है । जाति आदि के मद से दूसरे के तिरस्कार रूप भाव को मान कषाय कहते हैं । युक्ति दिखा छ पर भी दुराग्रह नहीं छोड़ना मान है । (रावा. 8) 9) रोष से या विद्या आदि के मद से दूसरे के तिरस्कार रूप भाव को मान कषाय कहते हैं । ( ध. 1? 349)

प्रश्न-माया कषाय किसे कहते हैं?

उत्तर-नाना प्रकार के प्रतारण के उपायों द्वारा ठगने के लिए आकुलित मति और विनय, विश्वासाभास से चित्त को हरण करने के लिए बनी आकृति माया है । दूसरों को ठगने के लिए जो छल-कपट और कुटिल भाव होता है वह माया है । (रा. वा. – भग ६०४ क ।वचारा का छपाने को जो छ ०’ ‘ ० माया ० । (ध. 12)

प्रश्न -लोभ कषाय किसे कहते हैं?

उत्तर- परिग्रह के ग्रहण में अतीव लालायित मानसिक भावना, परिग्रह के लाभ से अतिप्रसन्नता, ग्रहण किये हुए परिग्रह के रक्षण से उत्पन्न आर्त्तध्यान लोभ है । चेतन स्त्री-पुत्रादि में और अचेतन धन- धान्यादिक पदार्थों में ये ” मेरे हैं’ ‘ इस प्रकार की चित्त में उत्पन्न हुई विशेष तृष्णा को लोभ कहते हैं । अथवा इन पदार्थों की वृद्धि होने पर जो विशेष संतोष होता है, इनके विनाश होने पर महान् असंतोष होता है वह लोभ है । ४. ति. च. 8) 467)

प्रश्न-कषायों का वासना काल कितना है?

उत्तर-कषायों का वासना काल – कषाय वासना काल संज्वलन चतुष्क का एष्क अन्तर्मुहूर्त्त प्रत्याख्यानावरण चतुष्क का. एक पक्ष अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क का 2 छह माह अनन्तानुबन्धी चतुष्क का? संख्यात भव, असंख्यात भव, अनन्त भव । ( गो. क. जी. 46 – 47)

प्रश्न-वासना काल किसे कहते हैं?

उत्तर-उदय का अभाव होते हुए भी कषाय का सस्कार जितने काल तक रहता है, उसे ५११४४४ काल कहते हैं । (गो. क. जी. 46 – 47) जैसे – किसी पुरुष ने क्रोध किया । फिर करा; छूट कर वह अपने काम में लग गया । वहाँ क्रोध का उदय तो नहीं है परन्तु वासना ० है इसलिए जिस पर क्रोध किया था, उस पर क्षमा रूप भाव उत्पन्न नहीं हुआ है । ०’ प्रकार सभी कषायों का वासना काल जानना चाहिए ।

प्रश्न-किस गति के प्रथम समय में कौनसी कषाय की प्रधानता है?

उत्तर-नरक गति में उत्पन्न जीवों के प्रथम समय में क्रोध का उदय, मनुष्यगति में मान का, ‘न् गति में माया का और देव गति में लोभ के उदय का नियम है । ऐसा आचार्य उपदेश है । ४.) विशेष : महाकर्मप्रकृति प्रामृत प्रथम सिद्धान्त के कर्त्ता भूतबली आचार्य के ०८० किसी भी कषाय का उदय हो सकता । तालिका संख्या 24

क्र. स्थान संख्या विवरण विशेष
1 गति 4 न,ति.म.दे.

स्थान?….? गति इन्द्रिय काय का…? वेद कषाय ज्ञान सयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सभ्यक्ल संज्ञी आहार गुणस्थान जीवसमास पर्याप्ति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति 84 ला. 1 कुल 199 – ला., 2 अनन्तानुबन्धी चतुष्क विवरण नतिमदे. ए,द्वीत्रीचप. 5 स्थावर 1 श्स 4 म. 4 व. 5 का. सी. पुरु. नपुं. स्वकीय तथा 9 नोक. कुमति, कुश्रुत, कुअव. असयम चक्षु. अचक्षु. कृ. नी. का. पी. प. शु. भव्य, अभव्य मिथ्या. सा. सैनी, असैनी आहारक, अनाहारक पहला, दूसरा 14 एके. विक.2 पंचे. आ. श. इ. श्वा. भा. म. 5 इन्द्रिय उबल. श्वा. आ. आ. भ. मै. पीर. 3 ज्ञानो. 2 दर्शनो. मै आ. 4 रौ. 5 मि. 1 अ. ०क. 13 यो चारों गति सम्बन्धी चारों गति सम्बन्धी विशेष आहारकद्विक नहा है। क्रोध में क्रोध अवधि तथा केवलदर्शन नहीं हैं। 5 ज्ञानो. नहीं हैं । 15 कषाय तथा 2 योग रूप प्रत्यय नहीं हैं ।

प्रश्न- अनन्तानुबन्धी कषाय किसे कहते हैं?

उत्तर- अनन्त ससार का कारण होने से मिथ्यादर्शन को अनन्त कहते हैं । उस अनन्त को बांधने वाली कषाय अनन्तानुबन्धी कषाय कहलाती है । (रा. वा. 5 – भग ६०४ क ।वचारा का छपाने को जो छ ०’ ‘ ० माया ० । (ध. 12)

प्रश्न- लोभ कषाय किसे कहते हैं?

उत्तर-परिग्रह के ग्रहण में अतीव लालायित मानसिक भावना, परिग्रह के लाभ से अतिप्रसन्नता, ग्रहण किये हुए परिग्रह के रक्षण से उत्पन्न आर्त्तध्यान लोभ है । चेतन स्त्री-पुत्रादि में और अचेतन धन- धान्यादिक पदार्थों में ये ” मेरे हैं’ ‘ इस प्रकार की चित्त में उत्पन्न हुई विशेष तृष्णा को लोभ कहते हैं । अथवा इन पदार्थों की वृद्धि होने पर जो विशेष संतोष होता है, इनके विनाश होने पर महान् असंतोष होता है वह लोभ है । ४. ति. च. 8) 467)

प्रश्न- कषायों का वासना काल कितना है?

उत्तर-कषायों का वासना काल – कषाय वासना काल संज्वलन चतुष्क का एष्क अन्तर्मुहूर्त्त प्रत्याख्यानावरण चतुष्क का. एक पक्ष अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क का 2 छह माह अनन्तानुबन्धी चतुष्क का? संख्यात भव, असंख्यात भव, अनन्त भव । ( गो. क. जी. 46)

प्रश्न- वासना काल किसे कहते हैं?

उत्तर-उदय का अभाव होते हुए भी कषाय का सस्कार जितने काल तक रहता है, उसे ५११४४४ काल कहते हैं । (गो. क. जी. 46 – 47) जैसे – किसी पुरुष ने क्रोध किया । फिर करा; छूट कर वह अपने काम में लग गया । वहाँ क्रोध का उदय तो नहीं है परन्तु वासना ० है इसलिए जिस पर क्रोध किया था, उस पर क्षमा रूप भाव उत्पन्न नहीं हुआ है । ०’ प्रकार सभी कषायों का वासना काल जानना चाहिए ।

प्रश्न- गति के प्रथम समय में कौनसी कषाय की प्रधानता है?

उत्तर-नरक गति में उत्पन्न जीवों के प्रथम समय में क्रोध का उदय, मनुष्यगति में मान का, ‘न् गति में माया का और देव गति में लोभ के उदय का नियम है । ऐसा आचार्य उपदेश है । ४.) विशेष : महाकर्मप्रकृति प्रामृत प्रथम सिद्धान्त के कर्त्ता भूतबली आचार्य के ०८० किसी भी कषाय का उदय हो सकता । मायाचार करने वाले की चित्तवृत्ति बाँस की जड़ों के समान हो जाती है । इसी कारण उसके चाल-चलन और स्वभाव अत्यन्त उलझे तथा कुटिल हो जाते हैं और उनमें कभी भी सीधापन नहीं आता है । (व. चा. 4)

प्रश्न-कृमिराग सदृश लोभ किसे कहते हैं?

उत्तर-कृमिराग एक कीट विशेष होता है । वह नियम से जिस वर्ण के आहार को ग्रहण करता है उसी वर्ण के अतिचिक्कण डोरे को अपने मल त्यागने के द्वार से निकालता है । क्योंकि उसका वैसा ही स्वभाव है । उस सूत्र (धागे) द्वारा जुलाहे अतिकमिती अनेक वर्ण वाले नाना वस्र बनाते हैं । उस के रग को यद्यपि हजार कलशों की सतत धारा द्वारा प्रक्षालित किया जाता है, नाना प्रकार के सारयुक्त जलों द्वारा धोया जाता है तो भी उस रग को थोड़ा भी दूर करना शक्य नहीं है क्योंकि वह अतिनिकाचित स्वरूप है, अग्रि में जलाये जाने पर भी भस्मपने को प्राप्त होते हुए उस कृमिराग से रंजित हुए वस का रग कभी छूटने योग्य न होने से वैसा ही बना रहता है । इसी प्रकार जीव के हृदय में स्थित अतितीव्र लोभ परिणाम, जिसे कृश नहीं किया जा सकता, वह कृमिराग के रग के सदृश कहा जाता है । (ज. य. 127156)

प्रश्न-जहाँ अनन्तानुबन्धी क्रोध होता है वहाँ चारों क्रोध होते हैं अत: यहाँ पर भी चारों क्रोधों को लेना चाहिए? ]

उत्तर-जहाँ अनन्तानुबन्धी क्रोध होता है वहाँ अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन क्रोध होता ही है फिर भी यहाँ पर अनन्तानुबन्धी क्रोध की विवक्षा होने से अन्य क्रोधों को गौण करके मात्र अनन्तानुबन्धी क्रोध को ही आसव के कारणों में ग्रहण किया है । इसी प्रकार मान आदि में भी जानना चाहिए । अनन्तानुबन्धी चतुष्क में से भी एक समय में एक का ही उदय आता है अर्थात् क्रोध के साथ मान, माया आदि का उदय नहीं हो सकता ।

प्रश्न-क्या अनन्तानुबन्धी को कभी भी नष्ट नहीं किया जा सकता है?

उत्तर-यद्यपि अनन्तानुबन्धी कषाय का वासना काल अनन्त काल है, अनन्तानुबन्धी कषाय पत्थर की रेखा के समान है फिर भी पुरुषार्थ के माध्यम से उसे नष्ट किया जा सकता है । जिस प्रकार पत्थर पर बनी हुई लकीर को भी घिसकर साफ किया जा सकता है, उसी प्रकार अनन्तानुबन्धी कषाय को भी करण (अध: करण आदि) रूप परिणामों के द्वारा एक अन्तर्मुहूर्त में नष्ट किया जा सकता है । क्या ऐसे कोई जीव हैं जिनके अनन्तानुबन्धी कषाय का कभी नाश नहीं होगा? ही, अभव्य जीवों के अनन्तानुबंधी कषाय का कभी नाश नहीं होगा तथा वे भव्य जीव जो सती विधवा के समान हैं अर्थात् अभव्य सम भव्य जीवों के भी कभी अनन्तानुबन्धी कषाय का नाश नहीं होगा, क्योंकि इनमें मोक्ष जाने की क्षमता होते हुए भी इन्हें कभी अनन्तानुबंन्थी चतुष्क को क्षय, उपशम करने के योग्य निमित्त नहीं मिलेंगे । जिस प्रकार सती विधवा को पुत्रप्राप्ति के योग्य निमित्त नहीं मिलेंगे इसलिए उसमें पुत्रप्राप्ति की क्षमता होने पर भी उसे कभी पुत्र की प्राप्ति नहीं होगी ।

प्रश्न-क्या ऐसे कोई जीव हैं जिनके अब कभी अनन्तानुबंधी सम्बन्धी आसव के प्रत्यय नहीं होंगे?

उत्तर-ही, वे जीव जिन्होंने क्षायिक-सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है तथा जो कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि हैं उनको भी कभी अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी आसव नहीं होगा । तथा दूसरे-तीसरे नरक में जाने के सम्मुख मिथ्यादृष्टि (तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाला) जीव जब तक नरक में पहुँचकर सम्यक प्राप्त नहीं कर लेते उन जीवों को छोड्‌कर शेष जिन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया है उनके भी कभी अनन्तानुबन्धी कषाय के निमित्त से आसव नहीं होगा, क्योंकि ये कभी सम्बक्म से क्षत (होकर पहले-दूसरे गुणस्थान को प्राप्त) नहीं होते हैं । ‘

प्रश्न-अनन्तानुबन्धी का क्षय कौनसी गति में किया जा सकता है?

उत्तर-अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय मात्र मनुष्यगति में ही किया जा सकता है । उसमें भी कम- से-कम आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त की आयु वाला कर्मभूमिया मनुष्य ही केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में कर सकता है, अन्य कोई नहीं ।

नोट – ( 1) अनन्तानुबन्धी कषाय का कभी सीधा क्षय नहीं होता है । अनन्तानुबन्धी कषाय का विसंयोजन अर्थात् अन्य कषाय में परिवर्तित करके ही उसका क्षय किया जाता है । (2) वह दुखमा-सुखमा काल में जन्मा जीव ही होना चाहिए ।

प्रश्न-अनन्तानुबन्धी कषाय वाले के मति आदि ज्ञान क्यों नहीं होते हैं?

उत्तर-अनन्तानुबन्धी कषाय के साथ मिथ्यात्व का उदय रहता है। उस मिथ्यात्व के कारण प्राणी जीवादि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को नहीं समझ सकता है, उसको इनका यथार्थ श्रद्धान नहीं हो सकता है इसलिए उसके मति, धुत तथा अवधिज्ञान विपरीत हो जाते हैं । कहा भी है- ‘ ‘सदसतोरविशेषाद्यइच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्’ ‘ तस. 1732) उन्मत्त पुरुष के समान मिथ्यादृष्टि जीव भी पदार्थों का सही स्वरूप नहीं समझ सकता है । उसका ज्ञान कड़वी ल्पी में रखे गये मीठे दूध के समान मिथ्या रूप हो जाता है । दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं है, फिर भी वहाँ मिथ्याज्ञान ही कहे गये हैं 1 यद्यपि वे तीसरे गुणस्थान को भी प्राप्त नहीं करते हैं लेकिन यहाँ अनन्तानुबन्धी कषाय की विवक्षा होने से उसे यहाँ ग्रहण नहीं किया है ।

प्रश्न-अप्रत्याख्यानावरण कषाय किसे कहते हैं?

उत्तर-जिसके उदय से यह प्राणी ईषत् भी देशविरत (संयमासंयम) नामक व्रत को स्वीकार नहीं कर सकता है, स्वल्प मात्र भी व्रत धारण नहीं कर सकता है वह देशविरत प्रत्याख्यान का आवरण करने वाली अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय है । (रा. वा. 879) जो देशसंयम को अल्प मात्र भी न होने दे उसे अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि कषाय कहते हैं । (गो. क. जी. 133)

प्रश्न-अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि को किसकी उपमा दी गई है?

उत्तर-अप्रत्याख्यानावरण क्रोध – पृथ्वी रेखा सदृश । अप्रत्याख्यानावरण मान – हडी के समान, अस्थिस्तम्भ सदृश । अप्रत्याख्यानावरण माया – बकरी के सींग या मेंड़े के सींग सदृश । अप्रत्याख्यानावरण लोभ – नील रंग? अक्षमल या कज्जल सदृश । (ज. ध. 12 । 153 – 155 वैचा.)

प्रश्न-पृथ्वीरेखा सदृश क्रोध किसे कहते हैं?

उत्तर-यह क्रोध पूर्व क्रोध (नगराजि सदृश क्रोध) से मन्द अनुभाग वाला है, क्योंकि चिरकाल तक अवस्थित होने पर भी इसका पुन: दूसरे उपाय से सन्धान जुड़ना हो जाता है । यथा ग्रीष्म काल में पृथिवी का भेद हुआ गाड़ी गडारादरार बन गई) पुन: वर्षा काल में जल के प्रवाह से वह दरार भरकर उसी समय सधान को प्राप्त हो गई । इसी प्रकार जो क्रोध परिणाम चिरकाल तक अवस्थित रहकर भी पुन: दूसरे कारण से तथा गुरु के उपदेश आदि से उपशम भाव को प्राप्त होता है वह इस प्रकार का तीव्र परिणाम भेद पृथिवी रेखा सदृश है । जि. ध. 12153 ये सस्कार काफी समय बीतने पर अथवा शास्त्र रूपी जल वृष्टि से चित्त स्नेहार्द्र हो जाने पर उपशम को प्राप्त हो जाता है । (वचा. 4)

प्रश्न-अस्थिस्तम्भ सदृश मान किसे कहते है?

उत्तर-पुराण पुरुष कहते हैं कि दूसरे मान का उदय आत्मा में हहुईा के समान कर्कशता ला देता है, परिणाम यह होता है कि जब जीव ज्ञान रूपी अत्ना में काफी तपाया जाता है तो उसमें कुछ-कुछ विनम्रता आ ही जाती है । (व. चा. 4? 71)

प्रश्न-मेढ़े के सींग सदृश माया किसे कहते हैं?

उत्तर-इस माया का आत्मा पर पड़ने वाला सस्कार मेढ़े के सींग के समान गुड़ीदार होता है उत्तर-जो सती विधवा के समान हैं अर्थात् अभव्य सम भव्य जीवों के भी कभी अनन्तानुबन्धी कषाय का नाश नहीं होगा, क्योंकि इनमें मोक्ष जाने की क्षमता होते हुए भी इन्हें कभी अनन्तानुबंन्थी चतुष्क को क्षय, उपशम करने के योग्य निमित्त नहीं मिलेंगे । जिस प्रकार सती विधवा को पुत्रप्राप्ति के योग्य निमित्त नहीं मिलेंगे इसलिए उसमें पुत्रप्राप्ति की क्षमता होने पर भी उसे कभी पुत्र की प्राप्ति नहीं होगी ।

प्रश्न-क्या ऐसे कोई जीव हैं जिनके अब कभी अनन्तानुबंधी सम्बन्धी आसव के प्रत्यय नहीं होंगे?

उत्तर-ही, वे जीव जिन्होंने क्षायिक-सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है तथा जो कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि हैं उनको भी कभी अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी आसव नहीं होगा । तथा दूसरे-तीसरे नरक में जाने के सम्मुख मिथ्यादृष्टि (तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाला) जीव जब तक नरक में पहुँचकर सम्यक प्राप्त नहीं कर लेते उन जीवों को छोड्‌कर शेष जिन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया है उनके भी कभी अनन्तानुबन्धी कषाय के निमित्त से आसव नहीं होगा, क्योंकि ये कभी सम्बक्म से क्षत (होकर पहले-दूसरे गुणस्थान को प्राप्त) नहीं होते हैं ।

प्रश्न-अनन्तानुबन्धी का क्षय कौनसी गति में किया जा सकता है?

उत्तर-अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय मात्र मनुष्यगति में ही किया जा सकता है । उसमें भी कम- से-कम आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त की आयु वाला कर्मभूमिया मनुष्य ही केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में कर सकता है, अन्य कोई नहीं ।

नोट – ( 1) अनन्तानुबन्धी कषाय का कभी सीधा क्षय नहीं होता है । अनन्तानुबन्धी कषाय का विसंयोजन अर्थात् अन्य कषाय में परिवर्तित करके ही उसका क्षय किया जाता है ।

(2) वह दुखमा-सुखमा काल में जन्मा जीव ही होना चाहिए ।

प्रश्न-अनन्तानुबन्धी कषाय वाले के मति आदि ज्ञान क्यों नहीं होते हैं?

उत्तर-अनन्तानुबन्धी कषाय के साथ मिथ्यात्व का उदय रहता है। उस मिथ्यात्व के कारण प्राणी जीवादि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को नहीं समझ सकता है, उसको इनका यथार्थ श्रद्धान नहीं हो सकता है इसलिए उसके मति, धुत तथा अवधिज्ञान विपरीत हो जाते हैं । कहा भी है- ‘ ‘सदसतोरविशेषाद्यइच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्’ ‘ तस. 1732) उन्मत्त पुरुष के समान मिथ्यादृष्टि जीव भी पदार्थों का सही स्वरूप नहीं समझ सकता है । उसका ज्ञान कड़वी ल्पी में रखे गये मीठे दूध के समान मिथ्या रूप हो जाता है । दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं है, फिर भी वहाँ मिथ्याज्ञान ही कहे गये हैं 1 यद्यपि वे तीसरे गुणस्थान को भी प्राप्त नहीं करते हैं लेकिन यहाँ अनन्तानुबन्धी कषाय की विवक्षा होने से उसे यहाँ ग्रहण नहीं किया है । फलत: इस कषाय से आक्रान्त व्यक्ति मन में कुछ सोचता है और जो करता है वह इससे बिस्कूल भिन्न होता है । (वचा. 4775)

प्रश्न-अक्षमल सदृश लोभ किसे कहते हैं?

उत्तर-अक्ष (रथ का चक्का) का मल अक्षमल है । अक्षांजन के स्नेह से गीला हुआ मषीमल अति चिक्कण होने से उस अजमल को सुखपूर्वक दूर करना शक्य नहीं है । उसी प्रकार यह लोभ परिणाम भी निधत्त स्वरूप होने से जीव के हृदय में अवगाढ़ होता है इसलिए उसे दूर करना शक्य नहीं है । (ज. ध. 127156) जैसे ही जीव अपने आपको ज्ञान रूपी जल में धोता है वैसे ही आत्मा तुरन्त शुचि और स्वच्छ हो जाता है । (व. चा. 4779)

प्रश्न-अप्रत्याख्यानावरण कषाय वाले क्षायिक सम्यग्दृष्टि के कितने उपयोग हो सकते हैं?

उत्तर-अप्रत्याख्यानावरण कषाय वाले क्षायिक सम्यग्दृष्टि के 6 उपयोग हो सकते हैं” 3 ज्ञानो. – मतिज्ञानो., श्रुतज्ञानो., अवधिज्ञानो. । 3 दर्शनो. – चखुदर्शनो., अचखुदर्शनो., अवधिदर्शनो. । अप्रत्याख्यानावरण कषाय वाले कार्मण काययोगी के कितने आसव के प्रत्यय हो सकते हैं? उत्तर-कार्मण काययोग में स्थित अप्रत्याख्यानावरण कषाय वाले के 22 आसव के प्रत्यय होते हैं” 9 कषाय (8 नोकषाय स्त्रीवेद बिना), 1 स्वकीय अर्थात् क्रोधादि में से एक) 1 योग – कार्मण काययोग 12 अविरति – छहकाय के जीवों…… । अप्रत्याख्यानावरण कषाय वाले व्यंतर देव के कितने आसव के प्रत्यय होते हैं? अप्रत्याख्यानावरण कषाय वाले व्यंतरदेव के 29 आसव के प्रत्यय होते हैं – 12 अविरति 8 कषाय – 7 नोकषाय (देव है इसलिए सीवेद नहीं है) 1 स्वकीय कषाय है । 9 योग (4 मनोयोग, 4 वचनयोग, वैक्रियिक काययोग) 12 -४४ 8 -४४ 9 zZ 29 स्वकीय कषाय के साथ प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन क्रोधादि को भी ग्रहण करने पर आसव के दो प्रत्यय और हो जाते हैं । तालिका संख्या 26 स्थान गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान सयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्बक्म संज्ञी आहार गुणस्थान जीवसमास पर्याति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति 1० मैं 6 11 3० 18 ला 57 ?? लार्क. प्रत्याख्यानावरण चतुष्क तिर्यव्व, मनुष्य पंचेन्द्रिय त्रस 4 मन. 4 व. 1 का सीपुन. 1 स्वकीय 9 नोक मति, सुत, अवधि । सयमासयम चक्षु. अव. अव. पीपशु. भव्य क्षाक्षायोउप. सैनी आहारक पंचम सैनी पंचे. आशइश्वाभाम. 5 इ. 3 बल. श्वाआ. आभमैपरि. 3 ज्ञानो. 3 दर्शनो. मै आ. 4 री. 3 धर्म 11 अ. 1० क. 9 वो. 4 ला. तिर्य. 14 ला. मनुष्यों की 43 -? ला.क. तिर्यच्चों के 2 14 लाक. मनुओं.! फें विशेष औदारिक काययोग 3 कुशान, मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं है । अशुभ लेश्याएँ नहीं हैं। संस्थानविचय धर्मध्यान नहीं है। एकेन्द्रिय आदि चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जाति नहीं है । कषाय मार्गणा? 159

प्रश्न-प्रत्याख्यानावरण कषाय किसे कहते हैं?

उत्तर-जिसके उदय से सकल संयम विरति या सकल संयम को धारण नहीं कर सकता, वह समस्त प्रत्याख्यान का आवरण करने वाली प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि कषाय है । (रा. वा. 5) प्रत्याख्यान का अर्थ महाव्रत है । उनका आवरण करने वाला कर्म प्रत्याख्यानावरणीय कषाय है । (ध. 137360)

प्रश्न-प्रत्याख्यानावरणीय क्रोधादि को किसकी उपमा दी जा सकती है?

उत्तर-प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध – धूलिरेखा सदृश’ बालुकाराजि सदृश । प्रत्याख्यानावरणीय मान – दारुस्तम्भ सदृश । प्रत्याख्यानावरणीय माया – गोद्ब सदृश । प्रत्याख्यानावरणीय लोभ – शरीर के मल के सदृश? पांशु लेप सदृश जि, ध. 127 153 – 155 वै. चा.)

प्रश्न-धूलिरेखा सदृश क्रोध कैसा होता है?

उत्तर-यथा नदी के पुलिन आदि में बालुकाराजि के मध्य पुरुष के प्रयोग से या अन्य किसी कारण से उत्पन्न हुई रेखा जिस प्रकार हवा के अभिघात आदि दूसरे कारण द्वारा शीघ्र ही पुन: समान हो जाती है अर्थात् रेखा मिट जाती है । इसी प्रकार यह क्रोध परिणाम भी मन्द रूप से उत्पन्न होकर गुरु के उपदेश रूपी पवन से प्रेरित होता हुआ अति शीघ्र उपशम को प्राप्त हो जाता है । जि. य. 12)

प्रश्न-दारु स्तम्भ सदृश मान कैसा होता है?

उत्तर-इस मान में इतनी कठोरता आ जाती है जितनी गीली लकड़ी में आती है । फलत: जब ऐसा जीव रूपी काष्ठ ज्ञान रूपी तेल से सराबोर कर दिया जाता है, उसके उपरान्त ही वह सरलता से झुक सकता है । (व. चा. 4)

प्रश्न-गोमूत्र सदृश माया कैसी होती है?

उत्तर-इस माया की तुलना चलते हुए बैल के अ से बनी टेढ़ी-मेढ़ी रेखा से होती है । परिणाम यह होता है कि उसकी सभी चेष्टाएँ बैल के अ के समान आधी-सीधी और आधी कुटिल एव कपटपूर्ण होती है । (व. चा. 4)

प्रश्न-पांशु लेप सदृश लोभ कैसा होता है?

उत्तर-जिस प्रकार पैर में लगा धूलि का लेप पानी के द्वारा धोने आदि उपायों द्वारा सुखपूर्वक दूर कर दिया जाता है वह चिरकाल तक नहीं ठहरता । उसी के समान उत्तरोत्तर मन्द स्वभाव वाला वह लोभ का भेद भी चिरकाल तक नहीं ठहरता । यह अप्रत्याख्यानावरण लोभ से अनन्तगुणा हीन सामर्थ्य वाला होता हुआ थोड़े से प्रयत्न द्वारा दूर हो जाता है । (ज. ब. 127156) इस लोभ वाला प्राणी जैसे ही आत्मा को शास्त्राभ्यास रूपी जल से भली- भाँति धोता है तत्काल इस लोभ का नामोनिशान ही नष्ट हो जाता है । (व. चा. 4)

प्रश्न-क्या प्रत्याख्यानावरण कषाय वाले तिर्यल्व-मनुष्य दोनों के क्षायिक सम्बक्च होता है?

उत्तर-नहीं, प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय वाले तिर्यच्चों के क्षायिक सम्बक्म नहीं हो सकता है । केवल मनुष्यों में ही क्षायिक सम्यग्दृष्टि पचम गुणस्थान को प्राप्त कर सकते हैं क्योंकि तिर्यच्चों में क्षायिक सम्यक भोगभूमि में ही होता है अर्थात् कर्मभूमिया तिर्यच्चों के क्षायिक सम्बक्म नहीं होता है । भोगभूमि में सयम नहीं है इसलिए प्रत्याख्यानावरण कषाय वाले तिर्यल्द के क्षायिक सम्बक्ल नहीं हो सकता है ।

प्रश्न-क्या ऐसे कोई प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय वाले तिर्यस्थ्य हैं जिनके उपशम सम्य? नहीं हो सकता है?

उत्तर-ही, सर्न्च्छन जन्म वाले पंचेन्द्रिय तिर्यल्द जो प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय वाले हैं उनके उपशम सम्बक्ल नहीं हो सकता है (क्योंकि उपशम सम्बक्ल गर्भजो के ही होता हे) (य. 6? 429)

प्रश्न-प्रत्याख्यानावरण कषाय में कम- से- कम कितने प्राण हैं?

उत्तर-प्रत्याख्यानावरण कषाय में कम-से-कम भी 1० प्राण ही होते हैं क्योंकि इस कषाय का उदय पंचम गुणस्थान में कहा गया है । वह पंचम गुणस्थान पर्याप्त जीवों के ही होता है । तालिका संख्या 27 गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान संयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्बक्ल संज्ञी आहार गुणस्थान पर्याप्ति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव संख्या 14 ला. 14 लाक कषाय मार्गणा? 161 संज्वलनत्रिक मनुष्य पंचेन्द्रिय त्रस 4 म. 4 व. 3 का. सी-पुनपुं. 1 स्वकीय 9 नोकषाय मसुअवमन:. साछेपरि. चअचअव. पीपशु. भव्य क्षाक्षायोउप. संज्ञी आहारक छठे से 9 वें तक सैनी पंचेन्द्रिय आशइश्वाभाम. 5 इ. 3 बल. श्वा. आ. आभमैपरि. 4 ज्ञानो. 3 दर्शनो. 3 आ. 4 धर्म 1 शुक्ल 1० क. 11 यो. मनुष्य सम्बन्धी १५४-१ सम्बन्धी विशेष औदारिक तथा आहारकद्विक होते हैं । संज्वलन क्रोध आदि 3 कुज्ञान तथा केवल ज्ञान नहीं है क्षायोपशमिक स. 6३, वें गुण. की अपेक्षा पृथक्लवितर्क वीचार शुक्ल ध्यान है । औदारिक मिश्र, वैक्रियिकद्विक तथा कार्मण काययोग नहीं है ।

प्रश्न-संज्यलन कषाय किसे कहते हैं?

उत्तर- एकीभाव अर्थ में रहता है । संयम के साथ अवस्थान होने पर एक होकर जो ज्वलित होते हैं अर्थात् चमकते हैं अथवा जिनके सद्‌भाव में संयम चमकता रहता है उसे संज्वलन कषाय कहते हैं । (सर्वा. 8 ‘ 9) सज्वलन क्रोधादिक सकल कषाय के अभाव रूप यथाख्यात चारित्र का घात करते हैं । (गो. जी. जी. 283) जो संयम के साथ-साथ प्रकाशमान रहे एव जिनके उदय से यथाख्यात चारित्र न हो वे संज्वलन कषायें हैं । (हरि. पु. 58) प्रश्न_संज्वल्‌न क्रोधादि को किसकी उपमा दी गई है? उत्तर- संज्वलन क्रोध – उदकराजि सदृश ।

सज्वलन मान – लता सदृश वा बेंत के सदृश । संज्वलन माया – अवलेखनी के सदृश या चामर के सदृश । जि, ध. 12? 152 – 55 वै. चा.) प्रश्न_उदकराजि सदृश क्रोध कैसा होता है? उत्तर-यह क्रोध पर्वतशिला भेद से मन्दतर अनुभाग वाला और स्तोकतर काल तक रहने वाला है क्योंकि पानी के भीतर उत्पन्न हुई रेखा का बिना दूसरे उपाय के तत्क्षण विनाश देखा जाता है । (ज. ध. 121 ‘ 4)

प्रश्न-लता सदृश मान कैसा होता है?

उत्तर-अन्तिम संज्वलन मान के संस्कार की तुलना बालों की घुंघराली लट से की है । आपातत: जैसे ही उसे शास्र ज्ञान रूपी हाथ से स्पर्श करते हैं वैसे ही वह क्षणभर में ही सीधा और सरल हो जाता है । (वचा. 4? 73) प्रश्न_अवलेखनी सदृश माया कैसी है? उत्तर-यह माया आत्मा को चमरी मृग के रोम के समान कर देती है । अतएव जैसे ही आत्मा रूपी रोम को आत्म-ज्ञान यत्र में रखकर दबाते हैं तो तत्काल वह बिना विलम्ब अपने शुद्ध स्वभाव को प्राप्त कर लेता है (व. चा. 4 ‘ 77)

प्रश्न-क्या ऐसे कोई संज्वलन मानी हैं जिनके वेद नहीं होते हैं?

उत्तर-ही, नवमें गुणस्थान के अवेद भाग में जहाँ तक मान कषाय का उदय रहता है वहाँ सज्वलन मान वालों के वेद नहीं होता है ।

प्रश्न-सज्वलन मान वाले के अवधिदर्शन कितने गुणस्थान में होता है?

उत्तर-सज्वलन मान वाले के अवधिदर्शन 4 गुणस्थानों में होता है- छठे, सातवें, आठवें तथा नौवें । इसी प्रकार क्रोध एवं माया में जानना चाहिए ।

प्रश्न-संज्वलन माया वाले के शुक्ललेश्या किस-किस गुणस्थान में होती है?

उत्तर-सज्वलन माया वाले के शुक्ललेश्या 4 गुणस्थानों में होती है – छठे से 9 वें गुणस्थान तक । इसी प्रकार क्रोध एवं मान में जानना चाहिए ।

प्रश्न-संज्वलन त्रिक में क्षायिक सभ्य? कहाँ-कहाँ होता है?

उत्तर-सज्वलन त्रिक में क्षायिक सम्यक छठे, सातवें, आठवें और नौवें – इन चार गुणस्थानों में होता है ।

प्रश्न-संज्वलन माया में कितनी संज्ञाओं का अभाव हो सकता है?

उत्तर-संज्वलन माया में तीन संज्ञाओं का अभाव हो सकता है- आहार संज्ञा, भयसज्ञा तथा मैथुन संज्ञा । परिग्रह संज्ञा का अभाव नहीं हो सकता है क्योंकि संज्वलन माया का उदय नौवें गुणस्थान तक होता है और चौथी संज्ञा दसवें गुणस्थान तक पायी जाती है । इसी प्रकार क्रोध एवं मान में जानना चाहिए । क्या ऐसे कोई संज्वलन क्रोध वाले जीव हैं जिनके धर्मध्यान नहीं होते हैं? ही, आठवें नवमें गुणस्थान में स्थित संज्वलन क्रोध वाले जीवों के धर्म-ध्यान नहीं होते हैं क्योंकि वहाँ पहला शुक्लध्यान होता है । अथवा – सज्वलन क्रोध में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ धर्म ध्यान नहीं है । क्योंकि कोई आचार्य दसवें गुणस्थान तक धर्म- ध्यान मानते हैं ।

प्रश्न-संज्वलन मान में कम-से- कम कितने उपयोग हो सकते हैं?

उत्तर-संज्वलन मान में कम-से-कम चार उपयोग हो सकते हैं- मतिज्ञानो., भुतज्ञानो., चखुदर्शनो. तथा अचखुदर्शनो. । इसी प्रकार कोध माया एव लोभ में भी जानना चाहिए । तालिका संख्या 28 स्थान गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान सयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सभ्यक्ल संज्ञी आहार गुणस्थान पर्याप्ति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति 14 ला. ० 14 ला.क संज्वलन लोभ विवरण मनुष्यगति पंचेन्द्रिय त्रस म. ४६, का. स्त्री-पुन, स्वकीय एव नोक मधुअमन: साढ़े-परिण चअचअव. पीपशु. भव्य ब्क्षाक्षायोउप. आहारक छठे से दसवें तक. पंचेन्द्रिय आशइश्वाभाम. ५५. ब. श्वाआ. आभमैपरि. 4 ज्ञानो. 3 दर्शनो. आ. ४४-. भू- 1० क. 11 यो. मनुष्य सम्बन्धी मनष्य सम्बन्धी विशेष औदारिक तथा आहारकद्विक काययोग है । संज्वलन लोभ केवलदर्शन नहीं है। सामिश्रमि. नहीं है निदान आर्त्तध्यान नहीं है। प्रश्न : संज्वलन लोभ को किसकी उपमा दी गई है? उत्तर- सज्वलनलोभको हारिद्र सदृशकहागया है अर्थात् हल्दी के सकी उपमादीहै । (जय. ‘ 155)

प्रश्न-हारिद्र सदृश लोभ कैसा होता है?

उत्तर-जिस प्रकार हल्दी से रंगे गये वस्न का वर्ण? रंग चिरकाल तक नहीं ठहरता, वायु और आतप आदि के निमित्त से ही उड़ जाता है; उसी प्रकार यह लोभ का भेद मन्दतम अनुभाग से परिणत होने के कारण चिरकाल तक आत्मा में नहीं ठहरता है, क्षणमात्र में ही दूर हो जाता है । जि, य. 12? 157) क्या संज्वलन लोभ वालों के हास्यादि कषाय का अभाव भी हो सकता है? ही, संचलन लोभ वालों के आठवें गुणस्थान के बाद अर्थात् नौवें, दसवें गुणस्थान में हास्यादि कषायों का अभाव हो जाता है ।

प्रश्न-क्या संक्वलन लोभ वाले के भी निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था हो सकती है?

उत्तर-ही, संज्वलन लोभ वाला भी जब छठे गुणस्थान में आहारक मिश्र योग वाला होता है तो उसके भी निर्वृत्यपर्यातक अवस्था बन जाती है ।

प्रश्न-सैज्वलन लोभ में कितने संयम होते हैं?

उत्तर-सज्वलन लोभ में चार सयम होते है – ( 1) सामायिक (2) छेदोपस्थापना ( 3) परिहार विशुद्धि (4) ख्तसाम्पराय । क्योंकि सज्वलन लोभ का उदय छठे गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक होता है ।

प्रश्न-संज्यलन लोभ वाले के कौन- कौन से गुणस्थान में कौन-कौनसा सम्य? होता है?

उत्तर-सज्वलन लोभ वाले के सम्बक्म- छठे – सातवें गुणस्थान में – क्षायिक सम्बक्च, क्षायोपशमिक तथा उपशम । (उपशमश्रेणी के) आठवें, नवमें, दसवें गुणस्थान में – क्षायिक तथा उपशम । (क्षपक श्रेणी के) आठवें, नवमें, दसवें गुणस्थान में – क्षायिक सम्बक्ल ।

प्रश्न-संज्वलन लोभ वाले के कम-से- कम कितने प्राण हो सकते हैं?

उत्तर-संज्वलन लोभ वाले के कम-से-कम 7 प्राण हो सकते हैं – 5 इन्द्रिय, काय बल तथा आयु । ये 7 प्राण आहारकमिश्र की अपेक्षा जानने चाहिए क्योंकि सज्वलन लोभ का उदय छठे गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक पाया जाता है ।

प्रश्न-संज्वलन लोभ का उदय तो दसवें गुणस्थान में होता है फिर उसमें चारों संज्ञाएँ कैसे हो सकती हैं?

उत्तर- गुणस्थान में ही नहीं होता है अपितु दसवें गुणस्थान तक होता है । पहले से पचम गुणस्थान तक संज्वलन कषाय के साथ अनन्तानुबन्धी आदि का उदय भी पाया जाता है । छठे गुणस्थान से नौवें गुणस्थान तक सज्वलन क्रोध, मान, माया तथा लोभ चारों का उदय होता है इसलिए जो सज्वलन लोभ वाले छठे गुणस्थान में स्थित हैं उनके आहारादि चारों संज्ञाएँ पाई जाती हैं । इसी प्रकार शेष संज्ञाएँ भी जानना चाहिए ।

प्रश्न-संज्यलन लोभ में कौनसी संज्ञा का अभाव नहीं हो सकता है?

उत्तर-संज्वलन लोभ कषाय वालों के पीरग्रह सज्ञा का अभाव नहीं हो सकता है क्योंकि कषाय के रहते हुए इच्छा, वांछाओं का अभाव नहीं हो सकता है ।

प्रश्न-क्या धर्मध्यान से रहित सैज्वलन लोभ वाले भी होते हैं?

उत्तर-ही, धर्मध्यान से रहित संज्वलन लोभ वाले भी होते हैं – जिन छठे गुणस्थान वालों के आर्त्तध्यान होते हैं उनके धर्मध्यान नहीं होते तथा अष्टम गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक मुनिराज धर्मध्यान से रहित होते हैं अर्थात् प्रथम शुक्ल ध्यान वाले होते हैं । अथवा सप्तम गुणस्थान से दसवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज धर्मध्यानी ही होते हैं ।

प्रश्न-क्या ऐसे कोई संज्वलन लोभ कषायवाले हैं जिनके आर्चध्यान नहीं होते हों?

उत्तर-ही, सातवें गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक के सज्वलन लोभ कषायवालों के ०८ नहीं होते हैं ।

प्रश्न-संज्वलन लोभवालों के कम-से-कम कितने आसव के प्रत्यय होते हैं?

उत्तर-संज्वलन लोभ वालों के कम-से-कम दस आसव के प्रत्यय होते हैं – 9 योग तथा 1 कषाय । 9 योग – 4 मनोयोग, 4 वचनयोग, 1 औदारिक काययोग तालिका संख्या स्थान गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान संयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्यक संज्ञी आहारक गुणस्थान जीवसमास पर्याप्ति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति कुल 7 5 3 6 2 6 2 2 8 19 6 1० मै 1० 13 55 84 ला 199 – हास्यादि चार नोकषाय विवरण विशेष नतिमदे. ए-द्वीत्रीचप. 5 स्थावर 1 त्रस 4 म.4 ब.7 का. सी-पुनपुं. 16 क. 3 वेद, हास्य, हास्य-रति में अरति-शोक नहीं रहते हैं रति, भय, जुगुप्सा 4 ज्ञा. 3 अज्ञा. केवलज्ञान नहीं है। सा. छे. पीर. संयमाअस. च. अच.अव. कवेलदर्शन नहीं है। कृ. नी. का. पी. प. शु. भव्य-अभव्य क्षाक्षायोउसामिश्रमि. सैनी-असैनी आहारक-अनाहारक पहले से आठवें तक 14 स्थावर, 5 त्रस. आशइश्वाभाम. इ.3 बल, श्वाआ. आभमैपरि. 7 ज्ञानो. 3 दर्शनो. आ. बर., ४४-. शु. मि. १२८. क. 1 यो. हास्य-रति में अरति-शोक नहीं हैं। चारों गति सम्बन्धी चारों गति सम्बन्धी

प्रश्न-हास्य नाकषाय केसे कहते हैं?

उत्तर-जिस कर्म के उदय से अनेक प्रकार का परिहास उत्पन्न होता है, वह हास्य कर्म है । (ध. 13? 361) जिसके उदय से हँसी आती है वह हास्य कर्म है (सर्वा. 8? 9)

प्रश्न-हास्य नोकषाय वाले के क्या लक्षण हैं?

उत्तर-हास्य नोकषाय का उदय होने पर यह जीव प्रसन्नता के अवसर पर साकूत क्रोध में तथा कहीं पर अपमान होने के बाद अकेले ही या अन्य लोगों के सामने भी प्रकट कारण के बिना ही अर्थात् बिना कारण ही हँसता है अथवा अपने आप कुछ बड़बड़ाता जाता है । (वचा. 4783)

प्रश्न-रति नोकषाय किसे कहते हैं?

उत्तर-जिस कर्म-स्कन्ध के उदय से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों में राग उत्पन्न होता है उसकी रति संज्ञा है । ४.? 47) जिसके उदय से देशादि (क्षेत्रादि) में उत्सुकता होती है वह रति है । (सर्वा 8) मनोहर वस्तुओं में परम प्रीति को रति कहते हैं । (निसा. ता. 6)

प्रश्न- रति नोकषायवाले के क्या लक्षण हैं?

उत्तर-जब किसी जीव के रति नोकवाय का उदय होता है तो उसे उन दुष्ट लोगों से ही प्रीति होती है जो पाप कर्मों के करने में ही सदा लगे रहते हैं, जिनके कर्मों का परिणाम कुफल प्राप्ति ही होती है तथा निष्कर्ष शुद्ध अहित ही होता है । (व. चा. 484)

प्रश्न-अरति नोकषाय किसे कहते हैं?

उत्तर-जिसके उदय से आत्मा की देश आदि में उत्सुकता उत्पन्न नहीं होती है वह अरति ०७२८ है (सर्वा. 8) नाती, पुत्र एव सी आदि में रमण करने का नाम रति है, इसकी उ० अरति कही जाती है । ४.)

प्रश्न-अरति नोकषायवाले के क्या लक्षण हैं?

उत्तर-अरति नोकषाय के फल में जीव ज्ञानार्जन के साधन, व्रतपालन का शुभ अवसर, ० तपने की सुविधाएँ, ज्ञानाभावमार्जन की सामग्री, लौकिक और पारलौकिक सम्पत्ति (द्रव्य) तथा अन्य सुखों के कारणों की प्राप्ति हो जाने पर भी अपने आपको उनमें नहीं लगा ० है । (व. चा. 4)

प्रश्न-शोक नोकषाय किसे कहते हैं?

उत्तर-उपकार करने वाले से सम्बन्ध के टूट जाने पर जो विकलता होती है वह शोक है । (सर्वा. 8? 9) जिसके उदय से शोक होता है, वह शोक है (रा. वा. 8 ‘ 9)

प्रश्न- नोकषाय के क्या लक्षण हैं?

उत्तर-जब प्राणी हर एक बात से उदासीन हो जाता है, लम्बी-लम्बी साँस छोड़ता है, मन को नियन्त्रित नहीं कर पाता है, फलत: मन सबसे अव्यवस्थित होकर चक्कर काटता है, इन्द्रियाँ इतनी दुर्बल हो जाती हैं कि अपना कार्य भी नहीं कर पाती हैं तथा बुद्धि विचार नहीं कर सकती है तब समझिये कि उसके शोक नोकषाय का उदय है । (व. चा. 4? 87)

प्रश्न-हास्यादि चार कषायों से किस- किस का ग्रहण करना चाहिए?

उत्तर-हास्यादि चार कषायों से हास्य, रति, अरति तथा शोक को ग्रहण करना चाहिए ।

प्रश्न- नोकषाय में कौनसी नोकषायें नहीं होती हैं?

उत्तर-हास्य-रति नोकवाय में अरति-शोक नोकषाय, अरति-शोक नोकषाय में हास्य-रति नोकवाय तथा एक वेद के साथ दूसरा वेद नहीं होता है ।

प्रश्न-क्या कोई ऐसे हास्य कषायवाले हैं जिनके वचन योग नहीं है?

उत्तर-ही, एकेन्द्रिय तथा लब्ध्यपर्यातक जीवों के वचनयोग नहीं होता है । द्वीन्द्रियादि सभी जीवों की निर्वृत्यपर्याप्तक तथा अनाहारक अवस्था में भी वचन योग नहीं होता है ।

प्रश्न-शोक कषायवाले पुरुषवेदी के कितनी गतियाँ होती हैं?

उत्तर-शोक कषायवाले पुरुषवेदी के तीन गतियाँ होती हैं – ( 1) तिर्यञ्चगति (2) मनुष्यगति (3) देवगति । नरक गति नहीं है क्योंकि वहाँ पुरुषवेद नहीं पाया जाता है ।

प्रश्न-नारकियों के हास्य- रति कषाय कैसे हो सकती हैं क्योंकि उनके तो कभी सुख होता ही नहीं है?

उत्तर-नारकियों के उदय योग्य प्रकृतियों में मोहनीय कर्म की स्त्रीवेद एवं पुरुषवेद को छोड़ कर शेष 26 प्रकृतियाँ बतायी गई हैं । नारकी जीव भी दूसरे के मारने आदि की भावना पूरी होने पर खुश होते ही होंगे । अथवा, तीसरे नरक तक देवों के द्वारा धर्मोपदेश सुन कर प्रसन्नता की अनुभूति होती है, उसे भी हास्य-रति कहा जा सकता है । जब तीर्थंकर भगवान का जन्म होता है तब नरकों में कुछ समय के लिए सुख होता है तब भी हास्य- रति का उदय होता है क्योंकि सुख के समय अरति-शोक नहीं होते हैं ।

प्रश्न-देवों में अरति- शोक सम्बन्धी आसव के प्रत्यय कैसे होते हैं क्योंकि उनके तो दु: ख नहीं होता है?

उत्तर-देवों में भी अरति शोक का उदय पाया जाता है इसलिए उनके अरति-शोक सम्बन्धी आसव ही है । देव भी जब वाहन आदि बनने का आदेश सुनते हैं, उनकी देवांगना आदि ० जाती हैं तब उनके अरति, शोक का उदय होता है ।

प्रश्न-त्वट कषायवाले अवधिज्ञानी के कितने जीवसमास होते हैं?

उत्तर–२१ कषायवाले अवधिज्ञानी के एक ही जीवसमास होता है – सैनी पंचेन्द्रिय ।

प्रश्न- कषाय के साथ अचखुदर्शन कितने गुणस्थानों में पाया जाता है?

उत्तर- कषाय के साथ अचखुदर्शन में आठ गुणस्थान पाये जाते हैं – पहले से आठवें तक ।

प्रश्न- अम् कषाय में अवधिदर्शनी के कितनी जातियाँ होती हैं?

उत्तर-त्वद्व कषाय में अवधिदर्शनी के 26 लाख जातियाँ होती हैं-पंचेन्द्रिय सम्बन्धी ।

प्रश्न- जिनके हास्य कषाय का उदय है लेकिन आहार संज्ञा नहीं होती है?

उत्तर-ही, सातवें एवं आठवें गुणस्थान वालों के हास्य कषाय का उदय होने पर भी आहार संज्ञा नहीं होती है, क्योंकि आहारसंज्ञा छठे गुणस्थान से आगे नहीं होती है ।

प्रश्न-क्या ऐसे कोई हास्य-रति कषाय वाले जीव हैं: जिनके अनाहारक अवस्था नहीं होती है?

उत्तर-ही, ( 1) तीसरे, पाँचवें, छठे, सातवें तथा आठवें गुणस्थान में स्थित हास्य-रति कषाय वाले जीवों के अनाहारक अवस्था नहीं होती है । (2) ऋजुगति से जाने वाले पहले, दूसरे तथा ० गुणस्थान ०० -मैं हास्य- कषाय ० साथ अनाहारक अवस्था ‘ होती है ।

प्रश्न-अरति- शोक वालों के अनाहारक अवस्था में कितने गुणस्थान होते हैं?

उत्तर-अरति-शोक वालों के अनाहारक अवस्था में 3 गुणस्थान होते हैं – पहला, दूसरा, चौथा नोट – तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में अरति-शोक कषाय नहीं है इसलिए उनका यहाँ 0 नहीं किया है ।

प्रश्न-रति कषायवाले असैनी जीवों के कितने जीवसमास होते हैं?

उत्तर-रति कषाय वाले असैनी जीवों के 18 जीवसमास होते हैं – एकेन्द्रिय सम्बन्धी 14, विकलत्रय के 3 तथा असैनी पंचेन्द्रिय का 1 ८ 18 तालिका संख्या 3० स्थ?म्मान वेद कषाय ज्ञान संयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्बक्ल संज्ञी आहार गुणस्थान बावसमास पर्याप्ति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति 84 ला. 1 कुल 1 99-‘ ला भय-जुगुप्सा विशेष नतिमदे. एद्वीत्रचितुपचे. 5 स्थावर 1 त्रस म व पका स्त्री-पुन- 16 क. नो. भय-जुगुप्सा से रहित जीव भी हैं । 3 कुज्ञान 4 ज्ञान केवलज्ञान नहीं है । साछेपसंयअस. ख्तसाम्पराय और यथाख्यात नहीं है । चअचअ. केवल दर्शन नहीं है कृनीकापीपशुक्ल भव्य-अभव्य क्षाक्षायोउपसासम्बमि. सैनी-असैनी आहारक-अनाहारक पहले से आठवें तक स्थावरों के 14 त्रसों के 5 आशइश्वाभामन. इन्द्रिय ब.श्वा.आ. आभमैपरि. आहार संज्ञा रहित भी हैं । 7 ज्ञानो. 3 दर्शनो. आ. पर.. ४४. शु. मि. 1 अवि.25क. 1 यो. चारों गति सम्बन्धी चारों गति सम्बन्धी

प्रश्न-भय नोकषाय किसे कहते हैं?

उत्तर-परचक्र के आगमनादि का नाम भय है ४- १५४३६ जिसके उदय से उद्वेग होता है वह भय है । (सर्वा. 8 ??? जिस कर्म के उदय से जीव के सात प्रकार का भय उत्पन्न होता है वह भयकर्म है । (ध. १३३६)

प्रश्न-भयकषाय वाले के क्या लक्षण हैं?

उत्तर-श्मसान, राजद्वार, अन्धकार आदि सात भय के स्थानों पर किसी साधारण से साधारण भय के कारण उपस्थित होते ही कोई प्राणी एकदम काँपने लगता है, उसकी बोली बन्द हो जाती है या वह हकला-हकला कर बोलने लगता है, यह सब भय नोकषाय का ही प्रभाव है । (व.चा.4ा86)

प्रश्न-जुगुप्सा नोकषाय किसे कहते हैं?

उत्तर-जिसके उदय से अपने दोषों का संवरण (ढकना) और पर के दोषों का आविष्करण होता है वह जुगुप्सा है। (सर्वा. ८१९ जिस कर्म के उदय से ग्लानि होती है उसकी जुगुप्सा यह संज्ञा है । (ध. ६१६

प्रश्न-जुगुप्सा नोकषायवाले के क्या चिह हैं?

उत्तर-जो पुण्यहीन व्यक्ति पाँचों इन्द्रियों के परम-प्रिय भोगों और उपभोगों को प्राप्त करके भी उनसे मृणा करता है या ग्लानि का अनुभव करता है समझिये उसे जुगुप्सा नोकषाय ने जोरों से दबा रखा है । (व.चा.4)

प्रश्न-क्या ऐसे कोई भय-जुगुप्सा वाले हैं जिनके सामायिक छेदोपस्थापना संयमनहो?

उत्तर- ही, पहले गुणस्थान से पाँचवें गुणस्थान तक के भय-जुगुप्सा वाले जीवों के सामायिक- छेदोपस्थापना संयम नहीं होता है । परिहारविशुद्धि संयमी भय-जुगुप्सा वालों के भी सामायिक-छेदोपस्थापना संयम नहीं होता है । क्योंकि एक समय में एक ही संयम ह भय- नोकषाय के उदय वाले चसुदर्शनी जीवों के कितने जीवसमाम होते हैं? भय-नोकषाय के उदय वाले चखुदर्शनी जीवों के तीन जीवसमास होते हैं – चतुरिन्द्रिय, असैनी पंचेन्द्रिय और सैनी पंचेन्द्रिय ।

प्रश्न-जुगुप्सा के उदय वालों के कितनी संज्ञाओं का अभाव हो सकता है?

उत्तर-जुगुप्सा के उदय वालों के एक संज्ञा का अभाव हो सकता है – आहारसंज्ञा का ।

प्रश्न-भय-जुगुप्सा वालों के कम-से- कम कितनी संज्ञा हो सकती है?

उत्तर-परिग्रह संज्ञा । ये तीन संज्ञाएँ 7 वें तथा 8 वें गुणस्थान वालों की अपेक्षा जानना चाहिए ।

प्रश्न-भय- जुगुप्सा के साथ अभव्य जीवों के कौनसे ध्यान नहीं हो सकते हैं?

उत्तर-भय-जुगुप्सा के साथ अभव्य जीवों के 5 ध्यान नहीं हो सकते हैं – 4 धर्मध्यान तथा 1 शुक्लध्यान (पृथक्लवितर्कविचार) शेष शुक्ल ध्यान कवायातीत जीवों के ही होते हैं । भय- जुगुप्सा वाले असैनी जीवों के कम-से- कम कितने आसव के प्रत्यय होते ई? भय-जुगुप्सा वाले असैनी जीवों के कम-से-कम आसव के 36 प्रत्यय हो सकते हैं – 5 मिथ्यात्व, 7 अविरति, 23 कषाय तथा 1 योग । अथवा 7 अविरति, 23 कषाय तथा 1 योग ८31 । जो आचार्य एकेन्द्रिय जीवों के दूसरा गुणस्थान मानते है उनकी अपेक्षा आसव के 31 प्रत्यय बन जाते हैं । ये आसव के प्रत्यय पर्यातक अवस्था में नहीं होंगे क्योंकि पर्याप्त होने के पहले ही दूसरा गुणस्थान छूट जायेगा । 24 स्थानों में से किन स्थानों के सभी उत्तर भेद भय- जुगुप्सा में पाये जाते हैं? 24 स्थानों में से 18 स्थानों के सभी उत्तर भेद भय-लुगुप्सा में पाये जाते हैं – ( 1) गति (2) इन्द्रिय (3) काय (4) योग ( 5) वेद (6) कषाय (7) लेश्या ( 8) भव्य (9) सन्युक्ल ( 1०) संज्ञी ( 11) आहार ( 12) जीवसमास ( 13) पर्याप्ति ( 14) प्राण 15 सज्ञा 16 आसव ० प्रत्यय 1718 कुल ।

प्रश्न-क्या ऐसे कोई जीव हैं जिनके भय- जुगुप्सा सम्बन्धी आसव के प्रत्यय नहीं ?

उत्तर-ही, आठवें गुणस्थान के आगे तो भय- जुगुप्सा सम्बन्धी आसव के प्रत्यय ही नहीं है ० जिन जीवों के भय-जुगुप्सा का उदय नहीं होता है उनके भी भय-जुगुप्सा नोकषाय एन के प्रत्यय नहीं बनते हैं अर्थात् भय-जुगुप्सा सम्बन्धी आसव नहीं है । तालिका संख्या 31 1 2 3 4 5 6- 7 8 9. 1 Z 11 12 13 14 15 16 1 ७.. 18. 19. 2०. ‘?. 22. 2? 4? : स्थान गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान तु लेश्या भव्य सुस्सम्बक्ल आहार गुणस्थान जीवसमास पर्याप्ति प्राण संज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति संख्या 14 लाक कषायातान जाव- कि-……… मनुष्यगति पंचेन्द्रिय त्रस ४.. व. का. मधुअमकेव. यथाख्यात चअचअवकेवल शुस्ल भव्य क्षायि.उप. सैनी आहारक,अनाहारक प्यारहवें से चौदहवें न सैनी पंचेन्द्रिय आशइश्वाभाम. 5 इ. 3 ब. श्वाआ. 5 ज्ञानो. 4 दर्शनो. चारों शुक्लध्यान थम. व. का. मनुष्य सम्बन्धी धान्य- सम्बन्धी कषायात।ईत जीव किक्रे -त्रे ‘2 विशेष गति रहित जीव भी होते हैं । इन्द्रियातीत जीव भी होते हैं । कायातीत जीव भी होते हैं । योगातीत जीव भी होते हैं । कुशान नहीं होते हैं। लेश्यातीत जीव भी होते हैं । भव्याभव्य से रहित भी होते हैं । सैनी- असैनी से रहित जीव भी होते हैं । गुणस्थानहि।त जीव भी होते हैं। जीव समास रहित जीव भी होते हैं। पर्याप्ति रहित जीव भी होते हैं। प्राणातीत जीव भी होते हैं। ध्यानातीत जीव भी होते हैं । औदारिकद्विक तथा कार्मण काययोग जाति रहित जीव भी होते हैं । कुल रहित जीव भी होते हैं । 8 जिनके स्वय को, दूसरों को तथा दोनों को ही बाधा देने और बन्धन करने तथा असयम करने में निमित्तभूत क्रोधादिक कषाय नहीं हैं तथा जो बाह्य- अध्यन्तर मल से रहित हैं ऐसे जीवों को अकषाय (ककयातीत) जीव कहते हैं । ग्यारहवें गुणस्थान वाले व इसके आगे सभी जीव अकषायी हैं । (गो. जी. 289 (ग्यारहवें आदि गुणस्थानवर्ती जीवों को)

प्रश्न-अकषायी जीवों को अमल किस अपेक्षा कहा गया है?

उत्तर-अकषायी जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म इन तीनों कर्ममलों से रहित हैं, यह सिद्धों की अपेक्षा कथन है । अथवा जो भावकर्म मल से रहित हैं वे अमल हैं, यह कथन ग्यारहवें आदि गुणस्थानों की अपेक्षा है । ( गो. जी. 289 मप्र.)

प्रश्न-ग्यारहवें गुणस्थान वाले अकषायी कैसे हो सकते हैं क्योंकि उनके द्रव्यकषाय का सद्‌भाव पाया जाता है?

उत्तर-ग्यारहवें गुणस्थान वालों को अकषायी कहने का कारण उनके कषाय के उदय का अभाव कहा गया है । सत्ता में तो उनके कषायें रहती ही हैं ।

प्रश्न-क्या अकषायी जीव पुन: कषायवान बन सकते हैं?

उत्तर-ही, उपशम श्रेणी वाले जीव जब ग्यारहवें गुणस्थान में अकषायी हो जाते हैं वे जब वहाँ से गिरकर दसवें आदि गुणस्थानों में आते हैं तब पुन: कषायवान हो जाते है ।

प्रश्न-अकषायी जीवों के उपशम तथा क्षायिक सम्य? किन गुणस्थानों में पाये जाते ई?

उत्तर-अकषायी जीवों के उपशम सम्बक्ल केवल ग्यारहवें गुणस्थान में होता है तथा क्षायिक सम्बक्ल उपशम श्रेणी की अपेक्षा ग्यारहवें गुणस्थान में तथा क्षपक श्रेणी की अपेक्षा बारहवें में और तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान वालों के होता है । सिद्ध भगवान के भी क्षायिक सम्बक्ल होता है ।

प्रश्न-सैनी- असैनी से रहित अकषायी जीव कौन- कौन से हैं?

उत्तर-सैनी-असैनी से रहित अकषायी जीव – तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती जिनेन्द्र देव तथा सिद्ध भगवान हैं ।

प्रश्न-कौन-कौन से गुणस्थान वाले अकषायी होते हैं?

उत्तर-उपशान्त कषाय वीतराग छद्‌मस्थ, क्षीणकषाय वीतराग छद्‌मस्थ, सयोग-केवली और अयोग केवली इन चार गुणस्थानों में कषायरहित जीव होते हैं ।

प्रश्न-अकषायी जीवों के कितने ज्ञान हो सकते हैं?

उत्तर-अकषायी जीवों के कम-से-कम एक ज्ञान हो सकता है – केवलज्ञान तथा अधिक से अधिक एक जीव के एक साथ चार ज्ञान हो सकते हैं – मति, खुल, अवधि तथा मनःपर्ययज्ञान नाना जीवों की अपेक्षा अकषायी जीवों के पाँचों ज्ञान भी हो सकते हैं ।

प्रश्न-लेश्यातीत अकषायी जीव कौन-कौन से हैं?

उत्तर-लेश्यातीत अकषायी जीव – चौदहवें गुणस्थान वाले तथा सिद्ध भगवान हैं । – समुच्चय प्रश्नोत्तर –

प्रश्न-कषायों में योगमार्गणा किस प्रकार लगानी चाहिए?

उत्तर-कषायों में योगों का विवेचन : . 1० कषायों में – अनन्तानुबन्धी चतुष्क, अप्रत्याख्यान चतुष्क, स्त्रीवेद एवं नपुंसक वेद में तेरह योग – 4 मनोयोग, 4 वचनयोग, औदारिकद्बिक, वैक्रियिकद्विक तथा कार्मण । . प्रत्याख्यानावरण चतुष्क में नौ योग – 4 मनो. 4 वच. तथा 1 औदारिक काययोग । . सज्वलन चतुष्क में 11 योग – 4 मनो. 4 वच. औदारिक काययोग एवं आहारकद्बिक काययोग । . हास्यादि छह तथा पुरुषवेद में 15 योग – 4 मनी. 4 वच. 7 काययोग ।

प्रश्न-कौनसी कषायों में सभी योग होते हैं?

उत्तर-सात नोकषायों में सभी योग होते हैं – हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा तथा पुरुषवेद ।

प्रश्न-कषायवान जीवों के कितने ज्ञान हो सकते हैं?

उत्तर-कषायवान जीवों के कम-से-कम दो ज्ञान होते हैं – मातज्ञान, श्रुतज्ञान अथवा कुमति, कुश्रुत तथा अधिक-से-अधिक 7 ज्ञान होते हैं- मतिज्ञान, हतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, कुमति, कुहत, विभंगावधि ।

प्रश्न-कषाय में संयम मार्गणा का एक ही भेद होता है?

उत्तर-अनन्तानुबन्धी चौकड़ी तथा अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क में एक संयम – असंयम; प्रत्याख्यानावरण चौकड़ी में एक संयम – सयमासैयम ।

प्रश्न-कषायवान जीवों के कितने संयम होते हैं?

उत्तर-कषायवान जीवों के कम-से-कम एक सयम होता है – सूक्ष्मसाम्पराय – दसवें गुणस्थान की अपेक्षा । अथवा – संयमासंयम – पंचम गुणस्थान की अपेक्षा । असयम – प्रथम से चौथे गुणस्थान की अपेक्षा । कषायवान जीवों के अधिक-से- अधिक 6 संयम हो सकते हैं – सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, त्त्व साम्पराय, संयमासंयम तथा असंयम । यथाख्यातसयम कषायवान जीवों के नहीं होता है ।

प्रश्न-किस कषाय में सबसे ज्यादा संयम होते हैं?

उत्तर-संज्वलन लोभ में 4 सयम होते हैं – सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि तथा ख्तसाम्पराय संयम । अथवा हास्यादि 6 नोकषायों एव पुरुष वेद में 5 सयम होते हैं। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सयमासयम और असयम ।

प्रश्न-कषायवान जीवों के कितने दर्शन होते हैं?

उत्तर-कवायवान जीवों के कम से कम एक दर्शन होता है – अचक्षु दर्शन (एकेन्द्रिय से लेकर त्रीन्द्रिय जीवों तक होता है) । तथा अधिक- से- अधिक तीन दर्शन हो सकते हैं – चखुदर्शन, अचखुदर्शन, अवधिदर्शन ।

प्रश्न-कषायवान जीवों के कितने सभ्य? हो सकते हैं?

उत्तर-कषायवान जीवों के कम-से-कम 1 सम्बक्म होता है- क्षायिक सम्बक्ल – क्षपक श्रेणी की अपेक्षा । (आठवें से दसवें गुणस्थान तक) अथवा – कषायवान जीवों के दो सम्यक हो सकते हैं – उपशम और क्षायिक (आठ वें से दसवें गुणस्थान तक की अपेक्षा) अथवा – अनन्तानुबन्धी कषाय की अपेक्षा दो सम्बक्ल हैं – मिथ्यात्व और सासादन । कषायवान जीवों के अधिक-से-अधिक सभी (छह) सम्बक्ल हैं क्योंकि पहले गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक कषायवान जीव पाये जाते है ।

प्रश्न-कषायवान जीवों के कम-से- कम कितने प्राण होते हैं?

उत्तर-कषायवान जीवों के कम-से-कम तीन प्राण होते हैं – 1 इन्द्रिय (स्पर्शन) 1 कायबल, 1 आयु । ये 3 प्राण एकेन्द्रिय जीवों की निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में या लब्ध्यपर्यातक की अपेक्षा कहे गये हैं ।

प्रश्न-अकषाया जावा क प्राण होते हैं?

उत्तर-अकषायी जीवों के ग्यारहवें व बारहवें गुणस्थान की अपेक्षा अधिक-से-अधिक दस प्राण होते हैं तथा चौदहवें गुणस्थान में कम-से-कम एक प्राण-आयु प्राण होता है ।

प्रश्न-ऐसे कौन-कौनसे ज्ञानोपयोग हैं जो अकषायी अथवा कषायवान जीवों के ही होते है?

उत्तर-दो उपयोग ऐसे हैं जो अकषायी जीवों के ही होते हैं – केवलज्ञानोपयोग तथा केवलदर्शनोपयोग । तीन उपयोग ऐसे हैं जो केवल कषायवान जीवों के ही होते हैं – कुमतिज्ञानोपयोग, कुसुतज्ञानोपयोग, विभगज्ञानोपयोग

प्रश्न-ऐसे कौन-कौन से उपयोग हैं जो अकषायी और कषायवान दोनों जीवों के होते ई?

उत्तर-7 उपयोग अकषायी एवं कषायवान दोनों के होते हैं -. 4 ज्ञानोपयोग – मतिज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानोपयोग, अवधिज्ञानोपयोग तथा मनःपर्यय ज्ञानोपयोग । 3 दर्शनोपयोग – चक्षुदर्शनोपयोग, अचक्षुदर्शनोपयोग, अवधिदर्शनोपयोग ।

प्रश्न-कषायवान जीवों के कितने ध्यान पाये जाते हैं?

उत्तर-कषायवान जीवों के तेरह ध्यान पाये जाते हैं – 4 आर्त्तध्यान – इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना और निदान । 4 रौद्रध्यान – हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द, परिग्रहानन्द । 4 धर्मध्यान – आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय । 1 शुक्लध्यान – पृथक्त्ववितर्कवीचार ।

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