हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद से ११९२ ई. में तराइन के युद्ध में पृथ्वीराज तृतीय की पराजय के बीच का लगभग छ: सौ वर्षों का समय उत्तरी भारत के इतिहास का अत्यन्त महत्वपूर्ण काल है। इस लम्बी अवधि के अधिकांश समय में किसी सार्वभौम सत्ता का अभाव था और देश आपस में लड़ने वाले छोटे—छोटे युद्धप्रिय राज्यों में विभक्त था।
इन राज्यों में से एक चन्देल राज्य भी था, जो नवीं शती ई. के प्रथम चरण में प्रकाश में आया। इस राज्य की स्थापना नन्नुक ने की। उसके पौत्र जयशक्ति के नाम पर चन्देलों द्वारा शासित क्षेत्र का नामकरण जेजाकभुक्ति हुआ।
इसी राजवंश में यशोवर्मा हुआ, जिसने खजुराहो का लक्ष्मण मंदिर बनवाया। यशोवर्मा का पुत्र और उत्तराधिकारी धंग हुआ, जिसने भगवान् शम्भु के मन्दिर का निर्माण करके उसमें एक पाषाण लिंग की स्थापना की। धंग के शासनकाल में अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ होगा, किन्तु उनमें सबसे प्रसिद्ध जिननाथ का मन्दिर है, जिसे अब पाश्र्वनाथ का मन्दिर कहते हैं।
धंग का पौत्र विद्याधर अपने पितामह के समान योग्य और रणचतुर था। उसने दो बार सफलतापूर्वक महमूद गजनवी के आक्रमणों का प्रतिरोध किया। श्री कृष्णदेव
१ का कथन है कि चन्देलवंश का सर्वाधिक शक्तिमान शासक होने के कारण उसने अपने पूर्वजों की देवप्रासाद निर्माण कराने की परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखा होगा और सम्भवत: इसी परम्परा में खजुराहों का विशालतम और भव्यतम वंâदरिया महादेव मन्दिर का निर्माण उसके शासनकाल में हुआ। विद्याधर के बाद विजयपाल, देववर्मा, कीर्तिवर्मा, सल्लक्षणवर्मा, जयवर्मा एवं पृथ्वीवर्मा शासक हुए।
पृथ्वीवर्मा का उत्तराधिकारी मदनवर्मा, हुआ, जिसने ११२८ ई. से ११६५ ई. तक शासन किया। वह एक समर्थ शासक प्रतीक होता है, क्योंकि चन्देल राज्य के विभिन्न भागों से प्राप्त उसके शासनकाल के अभिलेखों और र्मूितलेखों की संख्या पूर्ववर्ती किसी भी चन्देल शासक से कहीं अधिक है। इसके अतिरिक्त लगभग एक दर्जन स्वर्णमुद्राएँ तथा चालीस से ऊपर रजत मुद्राएँ उसके राजनीतिक वर्चस्व और साम्राज्य की उन्नत आर्थिक अवस्था की परिचायक हैं।
उसका शासन काल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि गोविन्दचन्द्र गाहडवाल (१११४-११५४ ई.) तथा चालुक्य जयिंसह सिद्धराज (१०९४-११४२ ई.) जैसे समकालीन विजेता भी उसका बालबांका नहीं कर सके। इतना ही नहीं चन्देल अभिलेखों के अनुसार उसने चेदिराज संभवत: गयाकर्ण कलचुरि को पराजित किया, मालवों का उन्मूलन किया और काशिराज को मित्रवत व्यवहार करने को बाध्य किया था।
२ राजनीतिक स्थिरता और साम्राज्य में शान्ति तथा सुव्यवस्था बनी रहने के कारण इस राजा के शासनकाल में सांस्कृतिक गतिविधियों को अभूतपूर्व प्रोत्साहन मिला, जिसके फलस्वरूप जैन कला और स्थापत्य का भरपूर विकास हुआ। चन्देल शासन काल में विभिन्न धर्मों में किसी प्रकार का कलह न था। यही कारण है कि चन्देल साम्राज्य में सर्वत्र जैनधर्म के अस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं। मदनवर्मा चन्देल के शासन काल में सर्वाधिक जैन प्रतिमाओं का निर्माण हुआ, जिसकी पुष्टि मूर्तियों की चौकियों पर अंकित लेखों से होती है।
मदन वर्मा के शासनकाल की कुछ जैन मूर्तियाँ सालट ग्राम से प्राप्त हुई हैं। यह ग्राम महोबा जिला में स्थित है। यहाँ जाने के लिए झाँसी—मानिकपुर रेलपथ के चरखारी रोड स्टेशन पर उतरना पड़ता है। यहाँ से सालट ग्राम चार किमी. की दूरी पर हैं यहाँ जैन तीर्थंकरों की खण्डित मूर्तियाँ यत्र—तत्र बिखरी मिलती हैं, जिससे ज्ञात होता है कि चन्देलकाल में यहाँ कोई जैन मन्दिर रहा होगा। यहाँ से प्राप्त ऋषभनाथ की मूर्ति पर निम्नांकित लेख अंकित हैं।
(१) संवत् १२१०, आषाढ़ सुदि २ सोमे मण्डिल्लपुरे श्रीमान् मदनवम्र्मविजयराज्ये लम्बकंचुकन्वये साधु श्रीवलि तस्यात्मज साधु सहसू तस्य भ्रता।
(२) ठक्कुर श्री आभट तस्य पुत्रा: पाल्हण ताल्हण गाल्हण सूल्हण देव श्री ऋषभनाथं प्रणमंति नित्यं। रूपकार धरणिधर तथा रूपकार काकु। अभिलेक के अनुसार लम्बकंचुकन्वय वंश के मूर्ति प्रतिष्ठापकों की वंशावली इस प्रकार है
साधु श्रीवलि साधु सहसू ठक्कुर आभट पाल्हण ताल्हण गाल्हण सूल्हण विवेच्य लेख से तीन नये तथ्य ज्ञात होते हैं—
हम सबसे पहले लम्बकंचुकान्वय पर विचार करेंगे।
लम्बकंचुकान्वय सालट अभिलेख से ज्ञात होता है कि वि. सं. १२१० (११५३ ई.) में मण्डिलपुर निवासी लम्बवंâचुकान्वय के चार भाइयों ने भगवान् ऋषभनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करायी थी। अभिलेख के सम्पादक के. एम. भादरी
३ का मत है कि इस वंश के लोग लम्बा कोट पहनते थे, इसीलिए उनके वंशज लम्बवंâचुक कहलाने लगे। यह व्याख्या उपयुक्त प्रतीत नहीं होती, क्योंकि अन्वय की परम्परा कोट आदि पहनने वाले गृहस्थों से प्रारम्भ नहीं हुई। अन्वय के सम्बन्ध में अभिलेखों के अध्ययन से दो तथ्य सामने आते हैं।
पहला यह कि किसी बड़े आचार्य या गुरू के अनुयायी स्वयं को उस गुरू के अन्वय से जोड़ लेते थे। अन्वय की यह परम्परा कुछ पीढ़ियों तक ही सीमित नहीं रही, अपितु सदियों तक निरन्तर चलती रही। दिगम्बर परम्परा के अभिलेखों में कुन्दकुन्दान्वय इसका सबसे सशक्त उदाहरण है। दो हजार वर्षों के उपरान्त भी आज तक मुर्तियों पर कुन्दकुन्दान्वय में अपनी गणना कराकर दिगम्बर मुनि और श्रावक गौरव का अनुभव करते हैं।
अन्वय की दूसरी धारा जाति अथवा वंश को लेकर आगे बढ़ी। सैकड़ों अभिलेखों में जाति का उल्लेख अन्वय के रूप में हुआ है। गोलापूर्वान्वय, अग्रोत्कान्वय, गर्गराटान्वय, जयसवालान्वय आदि उल्लेख इसके उदाहरण हैं।
लम्बवंâचुकान्वय की संगति बैठाने के लिए जब हम विचार करते हैं, तब हमारे समक्ष अहार (टीकमगढ़) के तीन र्मूितलेख और मड़फा (चित्रकूट) के एक मुर्तिलेख में इस अन्वय का उल्लेख मिलता है। इन्हीं लेखों के अध्ययन से इस अन्वय के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। अहार के वि. सं. १२०२ (११४५ ई.) के अभिलेख
४ में लम्बकंचुकान्वय शब्द अंकित है। किन्तु वि. सं. १२१० (११५३ ई.) के दूसरे अभिलेख
५ में लमेचुकान्वय शब्द का उल्लेख है। मदनवर्माकालीन विविंच्य सालट लेख भी वि. सं. १२१० में ही अंकित किया गया था।
किन्तु इसमें लम्बकंचुकान्वय शब्द का ही प्रयोग किया गया है। इस लम्बवंâचुक शब्द ने ही भादरी महोदय को ‘‘लम्बा कोट पहनने वालों का सम्प्रदाय’’ अर्थ निकालने को बाध्य किया होगा। वास्तविकता यह प्रतीत होती है कि लम्बकंचुकान्वय किसी आचार्य के नाम पर चलने वाला परम्परागत अन्वय न होकर मात्र एक जाति के रूप में प्रयोग किया गया है।
बुन्देलखण्ड की गोलालारे जाति में लमेचू एक प्रसिद्ध वंश है, जो अद्यावधि विद्यमान है। प्राचीन जैन ग्रंथों को छापेखाने में छपवाकर प्रचारित करने का जो आन्दोलन दिगम्बर जैन समाज में आज से एक शती पूर्व प्रारम्भ हुआ था, उसके पक्षधर प्रमुख व्यक्तियों में नाथूराम लमेचू का नाम सर्वविदित है। वे अंग्रेजी शासनकाल में कटनी (म. प्र.) में तहसीलदार थे। पुरातनपंथी विचारधारा के लोगों की ओर से उन्हें अपने सुधारवादी कदम के लिए तीव्र विरोध का भी सामना करना पड़ा था।
अहार के वि. सं. १२१० के लेख में लमेचू शब्द का अस्तित्व यह सिद्ध करता है कि यह लमेचू वंश के लिए लिखा गया है। यदि कंचुक शब्द का अर्थ करते हुए हम लम्बे वस्त्रधारी तलाश करना चाहें तब हमारा ध्यान दिगम्बर जैनों मे प्रचलित भट्टारक परम्परा की ओर जाता है। क्योंकि ये सारे अभिलेख दिगम्बर मूर्तियों पर ही प्राप्त हुए हैं, इसलिए दिगम्बर सम्प्रदाय से बाहर किसी भी परम्परा पर विचार करना यहाँ उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। दिगम्बर संस्कृति के इतिहास में भट्टारक संस्था का महत्वपूर्ण स्थान है।
वे पीले अथवा केसरिया वस्त्रों का व्यवहार करते थे और लुंगी पहनकर सिर से पैरों तक ढकने वाली चादर ओढने के कारण उन्हें लम्बवंâचुक भी कहा जाता था। हो सकता है कि उनकी परम्परा का मूल नाम लम्बकंचुकान्वय रहा हो और उसी आधार पर गोलालारे समाज में उस वंश का प्रादुर्भाव हुआ हो, जिसे कालान्तर में लमेचू कहा जाने लगा।
इस अन्वय का उल्लेख करने वाला एक और महत्वपूर्ण अभिलेख चित्रवूâट जिले के मड़फा नामक पहाड़ी दुर्ग पर उपलब्ध है। बदौसा से यह स्थान १३ किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। यहाँ का अभिलेख ८ पंक्तियों में अंकित है। अक्षर घिस जाने के कारण इसकी पहली, दूसरी और चौथी पंक्ति ही पढ़ने में आ सकी। विवेच्य लेख में सन्र्दिभत विषय के सम्बन्ध में अत्यन्त महत्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख है। अत:
सुमतिनाथ प्रतिमा पर उत्कीर्ण वि. सं. १४०४ के इस लेख से निम्नांकित तथ्य साफ होते हैं— यह लेख मदनवर्मा कालीन सालट मूर्तिलेख से लगभग दो सौ वर्षों बाद लिखा गया है। इस लेख में मूलसंघ बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छ के साथ कुन्दकुन्दान्वय शब्द का स्पष्ट उल्लेख है। लेख में मूर्ति निर्माता की परम्परा गुरुओं के रूप में भट्टारकों की परम्परा अंकित है।
चारूकीर्ति, सिद्धान्तिक, कीर्तिदेव और बसन्तकीर्ति नाम भट्टारकों के ही होना चाहिए। यह तथ्य इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि र्मूित निर्माता ने लेख की चौथी पंक्ति में अपने साक्षात् गुरू प्रतापचन्द्रदेव नाम के पूर्व ‘‘राजगुरू भट्टारक श्री’’ पद का प्रयोग किया है।
अभिलेखों में परम्परा और अन्वय के उल्लेख के साथ वंश अथवा जाति को अन्वय नाम से लिखने की परम्परा रही है। इस र्मूित का निर्माता ‘‘कुन्दकुन्दान्वय’’ लिखकर स्वयं को मूलसंघ की प्राचीन परम्परा से जोड़ता है और अपने वंश के रूप में स्वयं ‘‘लम्बकंचुकान्वय’’ लिखकर स्वयं को मूलसंघ की प्राचीन परम्परा से जोड़ता है और अपने वंश का परिचय अंकित कराता है।
इस प्रकार मड़फा दुर्ग की सुमतिनाथ प्रतिमा पर अंकित यह लेख हमें यह निश्चित करने में साधक बनता है कि मदनवर्मा कालीन विवेच्य लेख का ‘‘लम्बवंâचुकान्वय’’ शब्द लमेचू जाति के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। भले ही यह लमेचू शब्द लम्बा उत्तरीय धारण करने वाले भट्टारकों के अनुयायी लम्बकंचुकान्वय के अपभ्रंश के रूप में प्रचलित हुआ हो।
मंडिलपुर का उल्लेख खजुराहो से प्राप्त वि. सं. १२०८ (११५१ ई.) के मदनवर्मा कालीन अभिलेख में भी मिलता है। कीलहार्न६ ने इस अभिलेख का सम्पादन करते समय स्थान का नाम मंडिलपुर पढ़ा था। किन्तु डॉ. एच. वी. त्रिवेदी७ ने चन्देल कार्पस में इस नाम को महिलपुर पढ़कर इसका
अभिज्ञान छतरपुर नौगांव मार्ग पर स्थित महेवा नामक स्थान से किया है। सम्भवत: डॉ. त्रिवेदी की पहचान युक्तिसंगत नहीं है। पृथ्वीराजरासो से ज्ञात होता है कि सिरसागढ़ पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद जब पृथ्वीराज चौहान ने महोबा की घेराबन्दी की तब उसकी सेना का शिविर मंडिलपुर के समीप लगा था। चन्दरायसा में इसे माडिल लिखा गया है और आल्हा पढ़ने वाले इसे सालट कहते हैं।
यहाँ अब केवल सालट नामक एक छोटा—सा ग्राम आबाद है और प्राचीन मंडिलपुर वीरान हो गया है। वीरान नगर के समीप ही पुरानी झील आज भी माडल नाम से विख्यात है। महोबा जिला मुख्यालय से १८ कि. मी. पश्चिम में स्थित इस स्थान में अद्यावधि चन्देलकालीन पुरावशेषों की बहुलता है। इन्हीं अवशेषों में विवेच्य मूर्तिलेख की तीर्थंकर प्रतिमा भी है।