निरंतर अभ्यास से मन को जीतना संभव है। परमात्मा प्राप्ति का लक्ष्य भी इससे पूर्ण होता है। इसलिए मनुष्य के जीवन में नियमित अभ्यास का क्रम होना अत्यंत जरूरी है। इसके द्वारा मनुष्य निज जीवन में मनचाहा लक्ष्य पूर्ण कर सकता है। गीता में श्रीकृष्ण चंचल मन को नियंत्रित करने के लिए अभ्यास की महत्ता पर प्रकाश डालते हैं। निरंतर अभ्यास मनुष्य के जीवन में आदत के रूप में परिणत होता है। अच्छी आदत का निर्माण अच्छे कर्म के अभ्यास का प्रभाव है। बुरी आदत का निर्माण बुरे कर्म के अभ्यास का परिणाम है।
अभ्यास में नियमितता जरूरी है। आरंभ में टाइप करने में कठिनाई होती है, लेकिन बार-बार अभ्यास करने से अंगुलियां अभ्यस्त हो जाती हैं और बिना देखे टाइप करने में पारंगत हो जाती हैं। साइकिल चलाना, तैराकी करना शुरू में कठिन होता है, पर अभ्यास द्वारा सहज बन जाता है। मनुष्य के समस्त दुखों का कारण मन-इंद्रियों का अनियंत्रण है। इंद्रियों की भूख मन को लक्ष्यविहिन कर देती है और बंदर की तरह डाल-डाल पर दौड़ाती है। प्रत्येक व्यक्ति निज जीवन में सुख,ि शांति, आनंद पाने की लालसा रखता है, पर क्षणिक सुख के लिए मन-इंद्रियों को कुमार्गगामी बनाकर रखता है। अभ्यास द्वारा बिगड़ैल मन को सुधारना संभव है। जब तक व्यक्ति का विश्वास ईश्वर के प्रति कच्चा है, वह आध्यात्मिक पथ पर आरूढ़ होने का अधिकारी नहीं।
मन को सशक्त बनाने के लिए अच्छी आदत जरूरी है। इससे संस्कार, चरित्र, व्यक्तित्व का निर्माण होता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में आत्मविश्वास डगमगाता नहीं। रस्सी के घर्षण से पत्थर घिस जाता है। पत्थर पानी में लुढ़कते- लुढ़कते शिवलिंग बन जाता है। वन में निरंतर वृक्ष के डाल के घर्षण से अग्नि उत्पन्न हो जाती है। वरदराज एवं कालिदास मंदबुद्धि होकर निरंतर अभ्यास से विद्वान बन गए। इसी से कहते हैं- करत-करत अभ्यास से जड़मति होत सुजान।