इसी जम्बूद्वीप में सुमेरु पर्वत से पश्चिम की ओर विदेहक्षेत्र में एक ‘गंधिल’ नाम का देश है, जो कि स्वर्ग के समान शोभायमान है। उस देश में हमेशा श्री जिनेन्द्र रूपी सूर्य का उदय रहता है इसीलिये वहाँ मिथ्यादृष्टियों का उद्भव कभी नहीं होता। इस देश के मध्य भाग में रजतमय एक विजयार्ध नाम का बड़ा भारी पर्वत है। उस विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में एक अलका नाम की श्रेष्ठ पुरी है। उस अलकापुरी का राजा अतिबल नाम का विद्याधर था, जिसकी मनोहरा नाम की पतिव्रता रानी थी। उन दोनों के अतिशय भाग्यशाली ‘महाबल’ नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ।
किसी समय भोगों से विरक्त हुए महाराज अतिबल ने राज्याभिषेकपूर्वक अपना समस्त राज्य महाबल पुत्र को सौंप दिया और आप अनेक विद्याधरों के साथ वन में जाकर दीक्षा ले ली। महाबल राजा के स्वयंबुद्ध, महामति, संभिन्नमति और शतमति नाम के चार मंत्री थे जो महाबुद्धिमान, स्नेही और दीर्घदर्शी थे। इनमें स्वयंबुद्ध सम्यग्दृष्टि था एवं शेष तीनों मिथ्यादृष्टि थे। किसी समय अपने जन्मगांठ के उत्सव में राजा महाबल सिंहासन पर विराजमान थे। उस समय अनेकों उत्सव, नृत्य, गान और विद्वद्गोष्ठियाँ हो रही थीं। अवसर पाकर स्वयंबुद्ध मंत्री ने स्वामी के हित की इच्छा से जैनधर्म का मार्मिक उपदेश दिया। उसके वचनों को सुनने के लिये असमर्थ भूतवादी महामति मंत्री ने चार्वाक मत को सिद्ध करते हुए जीवतत्त्व का अभाव सिद्ध कर दिया। बौद्धमतानुयायी संभिन्नमति मंत्री ने विज्ञानवाद का आश्रय लेकर जीव का अभाव करना चाहा, उसने कहा-ज्ञान ही मात्र तत्त्व है और सब भ्रममात्र है। इसके बाद शतमति मंत्री ने शून्यवाद का अवलम्बन लेकर सकल जगत् को शून्यमात्र सिद्ध कर दिया।
इन तीनों की बातें सुनकर स्वयंबुद्ध मंत्री ने तीनों के एकान्त दुराग्रह को न्याय और आगम के द्वारा खण्डन करके सच्चे स्याद्वादमय अहिंसाधर्म की सिद्धि करके उन्हें निरुत्तर कर दिया और राजा को प्रसन्न कर लिया। इसके बाद किसी एक दिन स्वयंबुद्ध मंत्री अकृत्रिम चैत्यालय की वन्दना के लिये सुमेरु पर्वत पर गया, वहाँ पहुंच कर उसने पहले प्रदक्षिणा दी फिर भक्तिपूर्वक बार-बार नमस्कार किया और पूजा की। यथाक्रम से भद्रसाल आदि वन के समस्त अकृत्रिम प्रतिमाओं की वन्दना की और सौमनस वन के चैत्यालय में बैठ गये। इतने में ही विदेह क्षेत्र से आये हुए, आकाश में चलने वाले आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो चारण मुनि अकस्मात् देखे, वे दोनों ही मुनि ‘युगमंधर’ भगवान के समवसरण रूपी सरोवर के मुख्य हंस थे। मंत्री ने उठकर उन्हें प्रदक्षिणापूर्वक प्रणाम करके पूजा और स्तुति की, अनन्तर प्रश्न किया-
हे स्वामिन्! विद्याधर राजा महाबल हमारा स्वामी है। वह भव्य है या अभव्य ? मेरे द्वारा सन्मार्ग भी ग्रहण करेगा या नहीं ? इस प्रश्न के बाद आदित्यगति नामक अवधिज्ञानी मुनि कहने लगे-हे भव्य! तुम्हारा स्वामी भव्य ही है। वह तुम्हारे वचनों पर विश्वास करेगा और आज से दसवें भव में जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में प्रथम तीर्थंकर होगा। इसके पूर्व भव को तुम सुनो-
जम्बूद्वीप के सुमेरु पर्वत से पश्चिम की ओर विदेह क्षेत्र में ‘गंधिला’ देश में सिंहपुर नगर है वहां के श्रीषेण राजा की सुन्दरी रानी से जयवर्मा और श्रीवर्मा ऐसे दो पुत्र हुए थे। पिता ने योग्यता और स्नेह के निमित्त से छोटे पुत्र श्रीवर्मा को राज्य दे दिया। तब जयवर्मा विरक्त होकर स्वयंप्रभु गुरु से दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगा और किसी समय आकाशमार्ग में जाते हुए महीधर विद्याधर को देखकर विद्याधर होने का निदान कर लिया। इतने में ही सर्प के डसने से मरकर तुम्हारा स्वामी महाबल हुआ है। आज रात्रि में उसने दो स्वप्न देखे हैं। तुम जाकर उनका फल कहकर उसके पूर्व भव सुनाओ। उसका कल्याण होने वाला है।
गुरु के वचन से मंत्री वहां आकर बोले-राजन्। आपने जो स्वप्न देखा है कि तीनों मंत्रियों ने आपको कीचड़ में डाल दिया और मैंने उठाकर सिंहासन पर बैठाया सो यह मिथ्यात्व के कुफल से आप निकलकर जिनधर्म में आ गये हैं। दूसरे स्वप्न में जो आपने अग्नि की ज्वाला क्षीण होते देखी उसका फल आपकी आयु एक माह की शेष रही है। आप दसवें भव में तीर्थंकर होंगे, इत्यादि सारी बातें मंत्री ने सुना दी। राजा महाबल ने भी अपने पुत्र अतिबल को राज्यभार सौंपकर सिद्धकूट चैत्यालय में जाकर सिद्ध प्रतिमाओं की पूजा करके गुरु की साक्षीपूर्वक जीवनपर्यन्त के लिये चतुराहार त्याग कर सल्लेखना धारण कर ली और धर्मध्यानपूर्वक मरण करके ऐशान स्वर्ग के श्रीप्रभ विमान में ललितांग नाम का उत्तम देव हो गया। जब उसकी आयु पृथक्त्व पल्य के बराबर रह गयी तब उसे स्वयंप्रभा नाम की एक और देवी प्राप्त हुई। अन्य देवियों की अपेक्षा ललितांग देव को यह देवी विशेष प्यारी थी। जब उस देव की माला आदि मुरझाई तब मृत्यु निकट जानकर शोक करते हुए इसको अनेकों देवों ने सम्बोधन किया जिसके फलस्वरूप इस देव ने पन्द्रह दिन तक जिन- चैत्यालयों की पूजा की और अच्युत स्वर्ग की जिनप्रतिमाओं की पूजा करके वहीं पर चैत्यवृक्ष के नीचे बैठकर उच्चस्वर से महामंत्र का उच्चारण करते हुए सल्लेखना से मरण को प्राप्त हो गया।
जम्बूद्वीप के सुमेरु पर्वत से पूर्व की ओर विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देश है, उसके उत्पलखेट नगर के राजा वङ्काबाहु और रानी वसुंधरा से वह ललितांग देव ‘वङ्काजंघ’ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। उधर अपने पति के अभाव में वह पतिव्रता स्वयंप्रभा छह महीने तक बराबर जिनपूजा में तत्पर रही। पश्चात् सौमनस वन सम्बन्धी पूर्व दिशा के जिनमन्दिर में चैत्यवृक्ष के नीचे पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक प्राण त्याग दिये और विदेह क्षेत्र की पुंडरीकिणी नगरी के राजा वङ्कादन्त की महारानी लक्ष्मीमती से ‘श्रीमती’ नाम की कन्या उत्पन्न हो गयी। कालान्तर में निमित्तवश इन वङ्काजंघ और श्रीमती का विवाह हो गया। इनके ४९ युगल पुत्र उत्पन्न हुए अर्थात् अट्ठानवे पुत्र उत्पन्न हुए। किसी समय वे अपने बाबा के साथ दीक्षित हो गए।
किसी समय श्रीमती के पिता चक्रवर्ती वङ्कादन्त ने छोटे से पोते पुंडरीक का राज्याभिषेक कर दिया और विरक्त होकर दीक्षा ले ली। उस समय लक्ष्मीमती माता ने अपनी पुत्री और जमाई को बुलाया। ये दोनों वैभव के साथ पुंडरीकिणी नगरी की ओर आ रहे थे, मार्ग में किसी वन में ही पड़ाव डाला। वहाँ पर आकाश में गमन करने वाले श्री दमधर और सागरसेन मुनि युगल वङ्काजंघ के पड़ाव में पधारे। उन दोनों ने वन में आहार लेने की प्रतिज्ञा ली थी। वहां वङ्काजंघ ने श्रीमती के साथ नवधाभक्ति सहित विधिवत् आहारदान दिया और पंचाश्चर्य को प्राप्त हुए। अनन्तर उन्हें कंचुकी से विदित हुआ कि ये दोनों मुनि हमारे ही अंतिम पुत्रयुगल हैं। राजा वङ्काजंघ और श्रीमती ने उनसे अपने पूर्व भव सुने और धर्म के मर्म को समझा। अनन्तर पास में बैठे हुए नकुल, सिंह, वानर और सूकर के पूर्व भव सुने। उन मुनियों ने यह भी बताया कि आप आठवें भव में ऋषभदेव तीर्थंकर होवेंगे और श्रीमती का जीव राजा श्रेयांसकुमार होंगे।
किसी समय वङ्काजंघ महाराज रानी सहित अपने शयनागार में सोये हुए थे, उसमें नौकरों ने कृष्णागरु आदि से निर्मित धूप खेई थी और वे नौकर रात में खिड़कियाँ खोलना भूल गये, जिसके निमित्त धुएँ से कण्ठ रुंधकर वे पति-पत्नी दोनों ही मृत्यु को प्राप्त हो गये। आश्चर्य है कि भोगसामग्री प्राणघातक बन गयी! वे दोनों दान के प्रभाव से मरकर उत्तरकुरु नामक उत्तम भोगभूमि में भोगभूमिया हो गये। वे नकुल आदि भी दान की अनुमोदना से भोगभूमि को प्राप्त हो गये।
किसी समय दो चारण मुनि आकाशमार्ग से वहाँ भोगभूमि में उतरे और इन वङ्काजंघ आर्य और श्रीमती आर्या को सम्यग्दर्शन का उपदेश देने लगे। ज्येष्ठ मुनि बोले-हे आर्य! तुम मुझे स्वयंबुद्ध मंत्री का जीव समझो। मैंने तुम्हें महाबल की पर्याय में जैनधर्म ग्रहण कराया था। उन दोनों दम्पत्तियों ने मुनियों के प्रसाद से सम्यग्दर्शन ग्रहण किया और आयु के अन्त में च्युत होकर ईशान स्वर्ग में ‘श्रीधर’ देव और स्वयंप्रभ नाम के देव हुए अर्थात् श्रीमती का जीव सम्यक्त्व के प्रभाव से स्त्री पर्याय छोड़कर देवपद को प्राप्त हो गया। एक दिन श्रीधर देव ने अपने गुरु (स्वयंबुद्ध मंत्री के जीव) प्रीतिंकर मुनिराज के समवसरण में जाकर पूछा-भगवन्! मेरे महाबल के भव में जो तीन मंत्री थे वे इस समय कहाँ हैं ? भगवान ने बताया कि उन तीनों में से महामति और सम्भिन्नमति ये दो तो निगोद स्थान को प्राप्त हुए हैं और शतमति नरक गया है। तब श्रीधरदेव ने नरक में जाकर शतमति के जीव को सम्बोधित किया था तथा निगोद के जीवों को सम्बोधन करने का सवाल ही नहीं है।
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में महावत्स देश है, उसकी सुसीमा नगरी के सुदृष्टि राजा की सुन्दरनन्दा रानी से वह श्रीधर देव स्वर्ग से च्युत होकर ‘सुविधि’ नाम का पुत्र हुआ था। कालांतर में सुविधि की रानी मनोरमा से स्वयंप्रभ देव (श्रीमती का जीव) स्वर्ग से च्युत होकर केशव नाम का पुत्र हो गया, मतलब वङ्काजंघ का जीव सुविधि राजा हुआ और श्रीमती का जीव उसका पुत्र हुआ है।
कदाचित् सुविधि महाराज दैगम्बरी दीक्षा लेकर अन्त में मरकर अच्युतेन्द्र हुए और केशव ने भी निर्ग्रन्थ दीक्षा लेकर अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद प्राप्त किया।
वह अच्युतेन्द्र, जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में पुष्कलावती देश की पुंडरीकिणी नगरी में वङ्कासेन राजा और श्रीकान्ता रानी से वङ्कानाभि नाम का चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न हुआ। श्रीमती का जीव केशव जो अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुआ था वह भी वहां से च्युत होकर इसी नगरी में कुबेरदत्त वणिक की अनन्तमती पत्नी से धनदेव नाम का पुत्र हुआ। वङ्कानाभि के पिता तीर्थंकर थे और वह स्वयं चक्रवर्ती था, चक्ररत्न से षट्खंड वसुधा को जीतकर चिरकाल तक साम्राज्य सुख का अनुभव किया। किसी समय पिता से दुर्लभ रत्नत्रय के स्वरूप को समझकर अपने पुत्र वङ्कादन्त को राज्य समर्पण कर सोलह हजार मुकुटबद्ध राजाओं, एक हजार पुत्रों, आठ भाइयों और धनदेव के साथ-साथ पिता वङ्कासेन तीर्थंकर के समवसरण में जिनदीक्षा धारण कर ली और किसी समय तीर्थंकर के ही निकट सोलहकारण भावनाओं का चिन्तवन करते हुए तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया। वे ध्यान की विशुद्धि से ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंच गये और वहां का अन्तर्मुहूर्त काल पूर्ण कर नीचे उतरे, पुनरपि कदाचित् उपशम श्रेणी में चढ़ गये और वहां आयु समाप्त होते ही मरण कर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गये।
भगवान् के गर्भ में आने के छह महीने पहले इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने माता के आंगन में साढ़े सात करोड़ रत्नों की वर्षा की थी। किसी दिन रात्रि के पिछले प्रहर में रानी मरुदेवी ने ऐरावत हाथी, शुभ्र बैल, हाथियों द्वारा स्वर्ण घटों से अभिषिक्त लक्ष्मी, पुष्पमाला आदि सोलह स्वप्न देखे। प्रात: पतिदेव से स्वप्न का फल सुनकर वे अत्यन्त हर्षित हुईं। उस समय अवसर्पिणी काल के सुषमा-दु:षमा नामक तृतीय काल में चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष, आठ मास और एक पक्ष शेष रहने पर आषाढ़ कृष्णा द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में वङ्कानाभि अहमिन्द्र देवायु का अन्त होने पर सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर महारानी मरुदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हुए। उस समय सौधर्म इन्द्र ने आकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया। इन्द्र की आज्ञा से श्री, ह्री आदि देवियाँ और दिक्कुमारियाँ माता की सेवा करते हुए काव्यगोष्ठी, सैद्धान्तिक चर्चाओं से और गूढ़ प्रश्नों से माता का मन अनुरंजित करने लगीं।
नव महीने व्यतीत होने पर माता मरुदेवी ने चैत्र कृष्णा नवमी के दिन सूर्योदय के समय मति-श्रुत-अवधि इन तीनों ज्ञान से सहित भगवान को जन्म दिया। सारे विश्व में हर्ष की लहर दौड़ गई। इन्द्रों के आसन कम्पित होने से, कल्पवृक्षों से पुष्पवृष्टि होने से एवं चतुर्निकाय देवों के यहां घंटा ध्वनि, शंखनाद आदि बाजों के बजने से ‘‘भगवान का जन्म हुआ है,’’ ऐसा समझकर सौधर्म इन्द्र ने इन्द्राणी सहित ऐरावत हाथी पर चढ़कर नगर की प्रदक्षिणा करके भगवान को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर १००८ कलशों से क्षीरसमुद्र के जल से भगवान का जन्माभिषेक किया। अनन्तर वस्त्राभरणों से अलंकृत करके ‘ऋषभदेव’ यह नाम रखा। सौधर्म इन्द्र अयोध्या में वापस आकर स्तुति, पूजा, तांडव नृत्य आदि करके स्वस्थान को चले गये।
भगवान के युवावस्था में प्रवेश करने पर महाराजा नाभिराज ने बड़े ही आदर से भगवान की स्वीकृति प्राप्त कर इन्द्र की अनुमति से कच्छ, सुकच्छ राजाओं की बहन ‘यशस्वती’, ‘सुनन्दा’ के साथ श्री ऋषभदेव का विवाह सम्पन्न कर दिया।
यशस्वती देवी ने चैत्र कृष्णा नवमी के दिन भरत चक्रवर्ती को जन्म दिया तथा क्रमश: निन्यानवे पुत्र एवं ब्राह्मी कन्या को जन्म दिया। दूसरी सुनन्दा देवी ने कामदेव भगवान बाहुबली और सुन्दरी नाम की कन्या को जन्म दिया। इस प्रकार एक सौ एक पुत्र एवं दो पुत्रियों सहित भगवान ऋषभदेव देवों द्वारा लाये गये भोग पदार्थों का अनुभव करते हुए गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहे थे।
भगवान ऋषभदेव गर्भ से ही अवधिज्ञानधारी होने से स्वयं गुरु थे। किसी समय भगवान ने ब्राह्मी-सुन्दरी को गोद में लेकर उन्हें आशीर्वाद देकर चित्त में स्थित श्रुतदेवता को सुवर्णपट्ट पर स्थापित कर ‘सिद्धं नम:’ मंगलाचरणपूर्वक दाहिने हाथ से ‘अ, आ’ आदि वर्णमाला लिखकर ब्राह्मी कुमारी को ब्राह्मी लिपि लिखने का एवं बायें हाथ से सुन्दरी को अनुक्रम के द्वारा इकाई, दहाई आदि अंक विद्या को लिखने का उपदेश दिया था। इसी प्रकार भगवान ने अपने भरत, बाहुबली आदि सभी पुत्रों को सभी विद्याओं का अध्ययन कराया था।
काल प्रभाव से कल्पवृक्षों के शक्तिहीन हो जाने पर एवं बिना बोये धान्य के भी विरल हो जाने पर व्याकुल हुई प्रजा नाभिराज के पास गई। अनन्तर नाभिराज की आज्ञा से प्रजा भगवान ऋषभदेव के पास आकर रक्षा की प्रार्थना करने लगी।
प्रजा के दीन वचन सुनकर भगवान ऋषभदेव अपने मन में सोचने लगे कि पूर्व-पश्चिम विदेह में जो स्थिति वर्तमान (विद्यमान) है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है। उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है। वहां जैसे असि, मषि आदि षट्कर्म हैं, क्षत्रिय आदि वर्ण व्यवस्था, ग्राम-नगर आदि की रचना है वैसे ही यहां भी होना चाहिये। अनन्तर भगवान ने इन्द्र का स्मरण किया और स्मरणमात्र से इन्द्र ने आकर अयोध्यापुरी के बीच में जिनमंिन्दर की रचना करके चारों दिशाओं में जिनमन्दिर बनाये। कौशल, अंग, बंग आदि देश, नगर बनाकर प्रजा को बसाकर प्रभु की आज्ञा से इन्द्र स्वर्ग को चला गया। भगवान ने प्रजा को असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मों का उपदेश दिया। उस समय भगवान सरागी थे। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की स्थापना की और अनेकों पापरहित आजीविका के उपाय बताये इसीलिये भगवान युगादिपुरुष, आदिब्रह्मा, विश्वकर्मा, स्रष्टा, कृतयुग विधाता और प्रजापति आदि कहलाये। उस समय इन्द्र ने भगवान का साम्राज्य पद पर अभिषेक कर दिया।
किसी समय सभा में नीलांजना के नृत्य को देखते हुए बीच में उसकी आयु के समाप्त होने से भगवान को वैराग्य हो गया। भगवान ने भरत का राज्याभिषेक करते हुए इस पृथ्वी को ‘भारत’ इस नाम से सनाथ किया और बाहुबली को युवराज पद पर स्थापित किया। भगवान महाराज नाभिराज आदि से पूछकर इन्द्र द्वारा लाई गई ‘सुदर्शना’ नामक पालकी पर आरूढ़ होकर ‘सिद्धार्थक’ वन में पहुंचे और वटवृक्ष के नीचे बैठकर ‘नम: सिद्धेभ्य:’ मन्त्र का उच्चारण कर पंचमुष्टि केशलोंच करके सर्व परिग्रहरहित मुनि हो गये। उस स्थान की इन्द्रों ने पूजा की थी इसीलिये उसका ‘प्रयाग’ यह न्ााम प्रसिद्ध हो गया अथवा भगवान ने वहां प्रकृष्ट रूप से त्याग किया था इसीलिये भी उसका नाम प्रयाग हो गया था। उसी समय भगवान ने छह महीने का योग ले लिया। भगवान के साथ आये हुए चार हजार राजाओं ने भी भक्तिवश नग्न मुद्रा धारण कर ली।
भगवान के साथ दीक्षित हुए राजा लोग दो-तीन महीने में ही क्षुधा, तृषा आदि से पीड़ित होकर अपने हाथ से वन के फल आदि ग्रहण करने लगे। इस क्रिया को देख वनदेवताओं ने कहा कि मूर्खों! यह दिगम्बर वेष सर्वश्रेष्ठ अरहंत, चक्रवर्ती आदि के द्वारा धारण करने योग्य है। तुम लोग इस वेष में अनर्गल प्रवृत्ति मत करो। यह सुनकर उन लोगों ने भ्रष्ट हुये तपस्वियों के अनेकों रूप बना लिये, वल्कल, चीवर, जटा, दण्ड आदि धारण करके वे पारिव्राजक आदि बन गये। भगवान ऋषभदेव का पौत्र मरीचिकुमार इनमें अग्रणी गुरू पारिव्राजक बन गया। ये मरीचि कुमार आगे चलकर अंतिम तीर्थंकर महावीर हुए हैं।
जगद्गुरू भगवान छह महीने बाद आहार को निकले परन्तु आहार चर्याविधि किसी को मालूम न होने से सात माह नौ दिन और व्यतीत हो गये अत: एक वर्ष उनतालीस दिन बाद भगवान कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में पहुंचे। भगवान को आते देख राजा श्रेयांस को पूर्व भव का स्मरण हो जाने से राजा सोमप्रभ के साथ श्रेयांसकुमार ने विधिवत् पड़गाहन आदि करके नवधाभक्ति से भगवान को इक्षुरस का आहार दिया। वह दिन वैशाख शुक्ला तृतीया का था जो आज भी ‘अक्षय तृतीया’ के नाम से प्रसिद्ध है।
हजार वर्ष तपश्चरण करते हुए भगवान को पुरिमतालपुर के उद्यान में-प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे ही फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन केवलज्ञान प्रकट हो गया। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने बारह योजन प्रमाण समवसरण की रचना की। समवसरण में बारह सभाओं में क्रम से
१.सप्तऋद्धि समन्वित गणधर देव और मुनिजन | २. कल्पवासी देवियाँ |
३. आर्यिकायें और श्राविकायें | ४. भवनवासी देवियाँ |
५. व्यन्तर देवियाँ | ६. ज्योतिष्क देवियाँ |
७. भवनवासी देव | ८. व्यन्तरदेव |
९. ज्योतिष्क देव | १०. कल्पवासी देव |
११. मनुष्य और | १२. तिर्यंच बैठकर उपदेश सुनते थे। |
पुरिमतालनगर के राजा, श्री ऋषभदेव भगवान के पुत्र ऋषभसेन भगवान के प्रथम गणधर हुए।
ब्राह्मी भी आर्यिका दीक्षा लेकर आर्यिकाओं में प्रधान गणिनी हो गयीं। भगवान के समवसरण में ८४गणधर, ८४००० मुनि, ३५०००० आर्यिकायें, ३००००० श्रावक, ५००००० श्राविकायें, असंख्यातों देव-देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच उपदेश सुनते थे।
जब भगवान की आयु चौदह दिन शेष रही तब वैâलाश पर्वत पर जाकर योगों का निरोध कर माघ कृष्णा चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के समय भगवान पूर्व दिशा की ओर मुख करके अनेक मुनियों के साथ सर्व कर्मों का नाशकर एक समय में सिद्धलोक में जाकर विराजमान हो गये। उसी क्षण इन्द्रों ने आकर भगवान का निर्वाणकल्याणक महोत्सव मनाया था, ऐसे ऋषभदेव जिनेन्द्र सदैव हमारी रक्षा करें।
भगवान के मोक्ष जाने के बाद तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष व्यतीत हो जाने पर चतुर्थ काल प्रवेश करता है।
प्रथम तीर्थंकर का तृतीय काल में ही जन्म लेकर मोक्ष भी चले जाना यह हुंडावसर्पिणी काल के दोष का प्रभाव है।
महापुराण में भगवान ऋषभदेव के ‘दशावतार’ नाम भी प्रसिद्ध हैं।
१. विद्याधर राजा महाबल | २. ललितांग देव |
३. राजा वङ्काजंघ | ४. भोगभूमिज आर्य |
५.श्रीधर देव | ६. राजा सुविधि |
७. अच्युतेन्द्र | ८. वङ्कानाभि चक्रवर्ती |
९. सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र | १०. भगवान ऋषभदेव। |
इन भगवान को ऋषभदेव, वृषभदेव, आदिनाथ, पुरुदेव और आदिब्रह्मा भी कहते हैं।
भगवान अजितनाथ
अयोध्या नगरी के महाराजा जितशत्रु की महारानी विजया थी। एक दिन इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने माता के आंगन में रत्नों की वर्षा शुरू कर दी, छह महीने बाद माता ने सोलह स्वप्नपूर्वक अनुत्तर विमान से च्युत हुए अहमिंद्र के जीव को गर्भ में धारण किया। इन्द्रों ने तत्क्षण ही गर्भकल्याणक उत्सव मनाया। वह तिथि ज्येष्ठ वदी अमावस्या थी। पुन: माघ शुक्ला दशमी के दिन भगवान ने जन्म लिया तब इन्द्रों ने सुमेरु पर्वत पर जिनशिशु का जन्ममहोत्सव मनाया और ‘अजितनाथ’ नाम रखा। भगवान की कुल आयु बहत्तर लाख पूर्व वर्ष की थी। शरीर की ऊँचाई चार सौ पचास धनुष थी, वर्ण सुवर्ण के सदृश था, चिन्ह हाथी का था और वंश इक्ष्वाकु था।
एक समय महल की छत पर बैठे राजा अजितनाथ ने उल्कापात देखकर वैराग्य भावना भाई, तभी इन्द्रगण आकर सुप्रभा पालकी पर बिठाकर प्रभु को सहेतुक वन में ले गये। वहाँ सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे भगवान ने ‘नम: सिद्धेभ्य:’ उच्चारण कर दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली। बेला के बाद साकेत नगरी के राजा ब्रह्म ने भगवान को खीर का आहार देकर प्रथम पारणा कराने का सौभाग्य प्राप्त किया था।
भगवान ने बारह वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में रहने के पश्चात् पौष शुक्ला एकादशी के दिन केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। इनके समवसरण में सिंहसेन आदि नब्बे गणधर थे। एक लाख मुनि, तीन लाख बीस हजार आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच थे। भगवान ने बहुत काल तक श्रीविहार कर अंत में सम्मेदशिखर पर एक माह का योग निरोध कर चैत्र शुक्ल्ाा पंचमी के दिन मोक्षधाम को प्राप्त कर लिया। इनके चार कल्याणक अयोध्या में हुए हैं।
अयोध्या के इक्ष्वाकुवंशीय राजा स्वयंवर की रानी सिद्धार्था ने भगवान अभिनंदननाथ को जन्म दिया। राज्य संचालन करते हुए भगवान एक बार आकाश में मेघों का महल नष्ट होते देख विरक्त हो गये, तब इन्द्रों द्वारा लाई हुई ‘हस्तचित्रा’ पालकी में बैठकर वन में जाकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। बेला के बाद साकेत नगरी के राजा इन्द्रदत्त ने भगवान को खीर का आहार देकर प्रथम पारणा का पुण्य प्राप्त किया। छद्मस्थ अवस्था के अठारह वर्ष बाद भगवान दीक्षावन में ‘असन वृक्ष’ के नीचे केवलज्ञानी हुए थे। इनके समवसरण में वङ्कानाभि आदि एक सौ तीन गणधर, तीन लाख मुनि, मेरुषेणा आदि तीन लाख तीस हजार छह सौ आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक और पाँच लाख श्राविकाएँ थीं।
अंत में भगवान ने एक माह का योग निरोध कर सम्मेदशिखर से मोक्ष प्राप्त किया है। भगवान की पाँचों कल्याणक की तिथियाँ क्रम से वैशाख शुक्ला षष्ठी, माघ शुक्ला द्वादशी, माघ शुक्ला द्वादशी, पौष शुक्ला चतुर्दशी और वैशाख शुक्ला षष्ठी हैं। भगवान की आयु पचास लाख वर्ष पूर्व, शरीर की ऊँचाई तीन सौ पचास धनुष, वर्ण स्वर्ण सदृश एवं चिन्ह बंदर का था। इनके भी चार कल्याणक अयोध्या में हुए हैं एवं मोक्षकल्याणक सम्मेदशिखर माना गया है। भगवान के पाँचों कल्याणक देवों द्वारा मनाये गये हैं। इनका इन्द्र द्वारा रखा गया ‘अभिनंदन’ नाम प्रसिद्ध है।
अयोध्या के राजा मेघरथ की रानी मंगलावती ने श्रावण शुक्ला द्वितीया को तीर्थंकर को गर्भ में धारण किया। पुन: चैत्र शुक्ला एकादशी के दिन जन्म दिया। वैशाख सुदी नवमी के दिन सहेतुक वन में भगवान ने दीक्षा ली थी। छद्मस्थ अवस्था के बीस वर्ष बिताकर दीक्षा वाले वन में ही प्रियंगु वृक्ष के नीचे भगवान को केवलज्ञान प्रगट हुआ था। इनके समवसरण में एक सौ सोलह गणधर, तीन लाख बीस हजार मुनि, तीन लाख तीस हजार आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक और पाँच लाख श्राविकाएँ थीं। अंत में सम्मेदशिखर पर जाकर भगवान ने एक माह का योग निरोध कर चैत्र शुक्ला एकादशी के दिन मोक्ष प्राप्त किया है, इनकी आयु चालीस लाख वर्ष पूर्व, शरीर की ऊँचाई तीन सौ धनुष, वर्ण स्वर्ण सदृश और चिन्ह चकवे का था। इनके भी चार कल्याणक अयोध्या में हुए हैं। इनके सभी कल्याणकों को भगवान आदिनाथ के समान ही इन्द्रों ने मनाया था। इन्द्र ने इनका ‘सुमतिनाथ’ यह सार्थक नाम रखा था।
अयोध्या नगरी के राजा सिंहसेन की रानी जयश्यामा ने कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा के दिन भगवान को गर्भ में धारण किया। ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी के दिन भगवान का जन्म महोत्सव मनाया गया। इन्द्र ने इनका नाम ‘अनंतनाथ’ रखा था। एक दिन उल्कापात देखकर विरक्त हुए भगवान ने सहेतुक वन में जाकर ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन दीक्षा ली थी। छद्मस्थ अवस्था के दो वर्ष बाद चैत्र कृष्णा अमावस्या के दिन केवलज्ञान प्राप्त किया था। इनके समवसरण में छ्यासठ हजार मुनि, एक लाख आठ हजार श्राविकाएँ, दो लाख श्रावक और चार लाख श्राविकाएँ थीं। इनकी आयु तीस लाख वर्ष, शरीर की ऊँचाई पचास धनुष, शरीर का वर्ण स्वर्ण सदृश और चिन्ह सेही का था। इनका वंश इक्ष्वाकु था। इन्होंने सम्मेदशिखर पर एक माह का योग निरोध कर चैत्र कृष्णा अमावस्या के दिन मोक्ष प्राप्त किया है। इनके भी चार कल्याणक अयोध्या नगरी में इन्द्रों ने मनाये थे।
जो कर्म शत्रुओं को जीतें वे ‘जिन’ कहलाते हैं और जिन के उपासक ‘जैन’ कहलाते हैं अत: यह धर्म अनादिनिधन है और प्राणी मात्र का हित करने वाला होने से ‘सार्वभौम’ धर्म है। इसी प्रकार से जो जीवों को संसार के दु:ख से निकालकर उत्तम सुख में पहुँचावे वह ‘धर्म’ है। ‘धर्मतीर्थं करोति इति तीर्थंकर:’ व्याख्या के अनुसार जो ऐसे धर्मतीर्थ को करते हैं-प्रवर्तन करते हैं वे ‘तीर्थंकर’ कहलाते हैं।
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में प्रत्येक चतुर्थकाल में चौबीस तीर्थंकर होते रहते हैं। इस अपेक्षा से यहाँ अयोध्या में अतीतकाल में अनंतानंत चौबीसी हो चुकी हैं और भविष्यकाल में भी अनंतानंत चौबीसी होंगी अत: यह अयोध्या तीर्थक्षेत्र अनंत-अनंत तीर्थंकरों की जन्मभूमि है।
असंख्यातों उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी के व्यतीत हो जाने पर एक हुंडावसर्पिणी आती है। इसमें कुछ अघटित कार्य हो जाया करते हैं। इस बार भी वर्तमान में हुंडावसर्पिणी काल चल रहा है। इस काल में तृतीय काल में ही प्रथम तीर्थंकर का होना, प्रथम चक्रवर्ती का अपमान होना, अयोध्या में पाँच तीर्थंकरों का ही जन्म होना, शेष तीर्थंकरों का अन्यत्र जन्म होना, नाना प्रकार के पाखंड मतों का उत्पन्न हो जाना इत्यादि अघटित कार्य हो गये हैं।