अहिंसा सम्बन्धी व्यावहारिक समस्याएँ, समाधान तथा उपलब्धियाँ
(जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में)
– डॉ. वंदना मेहता लाडनूं (राजस्थान)
‘अहिंसा‘ निषेधात्मक शब्द है। जैनधर्म में इसके समान समता, सर्वभूतदया, संयम जैसे अनेक शब्द अहिंसक आचरण के लिए प्रयुक्त हैं। वास्तव में जहाँ भी राग-द्वेषमयी प्रवृत्ति दिखलायी पड़ेगी, वहीं हिंसा किसी न किसी रूप में उपस्थित हो जायेगी। सन्देह, अविश्वास, विरोध, क्रूरता और घृणा का परिहार प्रेम, उदारता और सहानुभूति के बिना संभव नहीं है। प्रकृति और मानव दोनों की क्रूरताओं का निराकरण संयम द्वारा ही संभव है। इसी कारण, जैनाचायों ने तीर्थ का विवेचन करते हुए कषायरहित निर्मल संयम की प्रवृत्ति को ही धर्म कहा हैं। यह संयम रूप अहिंसा धर्म वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों में समता और शान्ति स्थापित कर सकता है। इस धर्म का आचरण करने पर स्वार्थ, विद्वेष, सन्देह और अविश्वास को कहीं भी स्थान नहीं है। व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों का परिष्कार भी संयम या अहिंसक प्रवृत्तियों द्वारा सम्भव है।
अहिंसा सम्बन्धी समस्याएँ और समाधान :
अहिंसा के विषय में जिज्ञासुओं की ओर से जहाँ अनेक व्यर्थ के प्रश्न उठाये गये, वहाँ एक आवश्यक और जीवन्त प्रश्न यह भी है कि जैनधर्म के अनुसार यह संसार अनेक छोटे-छोटे जीव-जंतुओं से पूरा भरा हुआ है। दैनिक जीवन से सम्बन्धित कोई भी ऐसी क्रिया नहीं है जिसमें हिंसा न होती हो।’ चलने-फिरने, खाने-पीने एवं बोलने आदि साधारण क्रियाओं में भी जीवों का घात होता है। इस स्थिति में अहिंसा की साधना कैसे पूरी होगी? क्या हम निष्क्रिय होकर बैठ जाएं ? गृहस्थ जीवन अनेक परिग्रहों से युक्त है, जिसमें बहुत से आरम्भ करने पड़ते हैं अतः अहिंसा की रक्षा वहाँ कैसे सम्भव है ?
जैनाचार्य संसार से विरत अवश्य थे, किन्तु उन्होंने सामान्य जीवन से सम्बन्धित इन प्रश्नों का समाधान भी प्रस्तुत किया है। जो जीव की रक्षा के लिए महाव्रत ग्रहण करता है, इन्द्रियों का निग्रह करता है, कषायों को जीतता है तथा मन, वचन और काय का संयम करता है। अहिंसा के सम्पूर्ण पालन के लिए आवश्यक सम्पूर्ण नियमों का जो इस तरह पालन करता है, उससे कदाचित् जीव-वध हो भी जाय तो वह हिंसा के पाप से लिप्त नहीं कहा जा सकता।
जिस प्रकार छेद-रहित नौका में, भले ही वह जलराशि में चल रहीं हो या ठहरी हुई हो, जल प्रवेश नहीं पाता उसी प्रकार संवृतात्मा श्रमण में, भले ही वह जीवों से परिपूर्ण लोक में चल रहा हो या ठहरा हो, पाप प्रवेश नहीं पाता। जिस प्रकार छेद रहित नौका रहते हुए भी डूबती नहीं और यत्न से चलाने पर पार पहुंचती है, वैसे ही इस जीव को लोक में यत्नपूर्वक गमन आदि करता हुआ संवृतात्मा भिक्षु कर्मबंध नहीं करता और संसार समुद्र को पार करता है। शुद्ध भाव वाले व्यक्ति को भी यदि केवल द्रव्य हिंसा के कारण हिंसक मान लिया जाये तो एक व्यक्ति भी इस संसार में अहिंसक नहीं कहला पायेगा क्योंकि मुनिजन भी वायुकायादि जीवों के वध के हेतु हैं अत: शुभ परिणामों के साथ संसार में सक्रिय रहते हुए अहिंसा की साधना की जा सकती है।
हिंसा के सम्बन्ध में विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार नाना प्रकार की शंकायें उपस्थित होतीं हैं कि ऐसी परिस्थिति में ऐसा करने से हिंसा हुई या नहीं। इन शंकाओं के निवारण में अमृतचन्द्रसूरि (10वीं शताब्दी) द्वारा पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय नामक ग्रन्थ में किया गया वर्णन महत्त्वपूर्ण और इन दृष्टिकोण को सुस्पष्ट करने वाला है। वहाँ निश्चय दृष्टि से हिंसा और अहिंसा का व्यावहारिक अन्तर स्पष्ट किया है- निश्चय से रागादि भावों का प्रकट न होना अर्थात् उत्पत्ति न होना ही अहिंसा है और उन रागादि भावों का उत्पन्न होना ही हिंसा है, यही जैन सिद्धान्त का सार है –
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥४४॥
इसके साथ ही पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में यह भी कह दिया है कि केवल प्राण पीड़न से हिंसा कभी भी नहीं होती। वह तो रागादि भावों से ही होती है और रागादि भावों के वश में प्रवर्तनी हुई अयत्नाचाररूप प्रमाद अवस्था में जीव मरे अथवा न मरे हिंसा तो निश्चित ही लगती है अर्थात् परजीव के प्राण को पीड़ा न होते हुए भी प्रमाद के सद्भाव से हिंसा कही जाती है।
युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि ।
न ही भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ॥४५॥
व्युत्थानावस्थायां रागादिनां वशप्रवृत्तायाम्।
प्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ॥४६॥
द्रव्यहिंसा और भावहिंसा की अपेक्षा से निश्चय कर कोई जीव हिंसा न करते हुए भी हिंसा के फल को भोगने का पात्र बनता है और दूसरा हिंसा करके भी हिंसा के फल को भोगने का पात्र नहीं होता।
अविद्यायापि हि हिंसा हिंसाफलभाजनं भवत्येकः।
कृत्वाप्यपरो हिंसा हिंसाफलभाजनं न स्यात्॥५१॥
पुरुषार्थ सिद्धयुपाय अर्थात्- किसी जीव के बाह्य हिंसा तो नहीं की है; परन्तु प्रमादभावरूप से परिणमन किया है, इस कारण वह जीव उदयकाल में हिंसा के फल को भोगता है। दूसरा कोई जीव हिंसा करके भी हिंसा के फल को भोगने का पात्र नहीं होता। किसी जीव ने शरीर सम्बन्ध से बाह्य हिंसा तो उत्पन्न की है, परन्तु प्रमादभाव रूप परिणमन नहीं किया, अतः वह जीव हिंसा के फल का भोक्ता नहीं होता। गृहस्थ जीवन परिग्रह का भण्डार है किन्तु उसकी भी सीमा निर्धारित की जा सकती है। तृष्णा को कम करके यदि आवश्यक और अनिवार्य वस्तुओं का संग्रह किया जाये तथा उनके उपयोग के समय सन्तोष से काम लिया जाये तो हिंसा का कोई कारण नहीं दिखता। अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह से संतुष्ट व्यक्ति अहिंसक है।
इससे मिलता-जुलता एक प्रश्न और उठता है- जल में, स्थल में और आकाश में सब जगह जन्तु ही जन्तु हैं । इस जन्तुमय जगत् में जीव अहिंसक कैसे रह सकता है?
जले जन्तुः स्थले जंतुराकाशे जंतुरेव च।
जंतुमालाकुले लोके कथं भिक्षुरहिंसक ।। राजवार्तिक, ७.१३ ||
इस प्रश्न का भी समुचित समाधान प्रस्तुत किया गया है क्योंकि ज्ञानध्यानपरायण अप्रमत्त भिक्षु को मात्र प्राणवियोग से हिंसा नहीं होती। दूसरी बात यह है कि जीव भी सूक्ष्म व स्थूल दो प्रकार हैं। संसार में जितने सूक्ष्म जीव हैं वे किसी के द्वारा पीड़ित नहीं होते अर्थात् वे न ही किसी से रुकते है, और न किसी को रोकते हैं, अत: उनकी हिंसा नहीं होती। और जो स्थूल है उनके लिय यत्नता रखी जाती हैअतः संयमी व्यक्ति के अहिंसा व्रत पालन करने में कोई बाधा नहीं आती।
जीवों के मरने न मरने पर कोई पाप-पुण्य नहीं होता। वह तो शुभ-अशुभ परिणामों एवं भावनाओं पर आधारित है।’ सब कायों में भावों की निर्मलता एवं अन्तस् की पवित्रता आवश्यक हैं। यदि भावना को प्रधानता न दी जाये तो एक ही व्यक्ति द्वारा अपनी प्रियतमा और पुत्रों के साथ के व्यवहार में कोई अन्तर ही न रह जाये।
इसी बात को धीवर और कृषक का उदाहरण देकर भी जैनाचायों ने स्पष्ट किया है। प्राणीघात का कार्य दोनों करते हैं। किन्तु धीवर सुबह से शाम तक नदी किनारे बैठकर यदि खाली हाथ भी घर वापिस लौटता है तो वह हिंसक है, जबकि दिनभर में अनन्त स्थावर जन्तुओं का घातकर लौटने वाला किसान हिंसक नहीं कहा जाता है।’ यहाँ दोनों के संकल्प और भावों के अन्तर की ही विशेषता है। अत: ऐसा कोई कारण नहीं है कि गृहस्थ जीवन में अहिंसा को न उतारा जा सके। मानव हर क्षण और हर अवस्था में अहिंसक रह सकता है, उसमें मनोबल और अन्तस् की निर्मलता चाहिए।
एक और ज्वलन्त प्रश्न अहिंसा के सिद्धान्त के विषय में अब उठने लगा है। वह यह कि यदि अहिंसा के सिद्धान्त पर हम चलें तो आज विश्व में जो चारों ओर युद्ध का भयावह वातावरण व्याप्त है, उससे कैसे बच सकेंगे? क्योंकि युद्ध में भाव तो रोष के होते हैं, या तो वह चुपचाप शत्रु का वार सहता जाये अथवा अहिंसा को किनारे रख शस्त्र उठा लड़ने लग जाये। क्या कोई पक्ष के बचाव का भी रास्ता है?
प्रश्न जितना जटिल और सम-सामयिक है, समाधान उतना ही सरल और न्यायसंगत है। जैन संस्कृति के इतिहास का अवलोकन करने पर पायेंगे कि- अनेक जैन राजा ऐसे हुए हैं जिन्होंने अनेक लड़ाइयाँ लड़ी हैं। चन्द्रगुप्त, सम्राट खारवेल, सेनापति चामुण्डराय आदि वीर योद्धा भारतीय इतिहास के उज्जवल रत्न हैं अतः अहिंसा यह कभी नहीं कहती कि दूसरे का अकारण चांटा खाकर तुम चुप हो जाओ। कोशिश यह करो कि उसका दुबारा फिर हाथ न उठे। अहिंसा सिर्फ आक्रमणात्मक हिंसा का विरोध करती है, रक्षणात्मक हिंसा का त्याग नहीं।
जैनागमों में एक अहिंसक गृहस्थ के लिए यह विधान भी है कि यदि उसके धर्म, जाति व देश पर कोई संकट आ पड़ा हो तो उसे चाहिए कि वह तन्त्र, मन्त्र, बल, सैन्य आदि शक्तियों द्वारा उसे दूर करने का प्रयत्न करे।” एक देशवासी का राष्ट्र रक्षा भी धर्म होता है अतः यदि युद्ध अनिवार्य हो तो उससे विमुख होना अहिंसा नहीं, कायरता है। ऐसे युद्ध में रत होकर अहिंसक अपना कर्तव्य ही करता है क्योंकि हर प्राणी को जब स्वतंत्र जीने का अधिकार है तो उसमें बाधा देने वाला क्षम्य नहीं हो सकता। भले वह अपना पुत्र हो या शत्रु हो । जैनाचार्य दोषों के अनुसार दोनों को दण्ड देने का विधान करते हैं। [12] अतः अहिंसा का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसमें कोई विरोध उपस्थित नहीं होता। उससे कायरता नहीं, निर्भयता का स्रोत प्रवाहित होता है।
इस प्रकार व्यक्ति को, संयमी पुरुषों को सम्यक् रीति से हिंस्य , हिंसक, हिंसा और हिंसा का फल जानकर अपनी स्वशक्ति से हिंसा को छोड़नी अथवा कम करनी चाहिए।
अवबुध्य हिंस्यहिंसकहिंसाहिंसाफलानि तत्त्वेन।
नित्यमवगृहमानैर्निजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा ॥६०॥
पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय के अनुसार हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसा का फल- इन चार को जानकर हिंसा का त्याग करना उचित है।
अहिंसा की उपलब्धियाँ :
जैन साहित्य व धर्म में अहिंसा के विविध रूपों के साथ एक बात यह भी देखने को मिलती है कि अहिंसा का मूल स्रोत खान-पान की शुद्धि की ओर अधिक प्रभावित हुआ है। हिंसा से बचने के लिए खान-पान में संयम रखने को अधिक प्रेरित किया गया है किन्तु उतना राग, द्वेष, काम, क्रोध, जो भाव हिंसा के ही रूपान्तर है, के विषय में नहीं। इसके मूल में शायद यही भावना रही हो कि यदि व्यक्ति का आचार-व्यवहार शुद्ध और संयत होगा तो उसकी आत्मा एवं भावना स्वयमेव पवित्र रहेगी किन्तु ऐसा हुआ बहुत कम मात्रा में है। आज अहिंसा के पुजारियों, जैनों के खान-पान में जितनी शुद्धि दिखाई देती है. मन में उतनी पवित्रता और व्यवहार में वैसी अहिंसा के दर्शन नहीं होते अतः यदि व्यक्ति का अन्तस् पवित्र हो, सरल हो तो उसके व्यवहार से खान-पान में पवित्रता स्वयं अपने-आप आ जायेगी।
अहिंसा के अतिचारों में जो पशुओं के छेदन, भेदन और ताड़न को बात कही गई है वह एक और नया तथ्य उपस्थित करती है। वह यह कि. जैनाचायों का हृदय मूक पशुओं की वेदना से अधिक अनुप्राणित था। यदि ऐसा न होता तो वे अहिंसा के अतिचारों में खान-पान की त्रुटियों को हो गिना देते जबकि उन्होंने प्राणी मात्र के कल्याण की बात कही। आत्मवत् सर्वभूतेषु की बात कही। यही भावना आगे चलकर वैदिक यज्ञों की हिंसा का विरोध करती है और प्राणीमात्र को अभय प्रदान करती है। जैन संस्कृति ने उद्घोष किया यदि सचमुच तुम निर्भय रहना चाहते हो, तो दूसरों को तुम भी अभय देने वाले बनो, निर्भय बनाओ।” यह उसी का प्रतिफल है कि वैदिक युग के क्रियाकाण्डों और आज के हिन्दू धर्म अनुष्ठानों में पर्याप्त अन्तर आया है। भारतीय समाज के विकास में अहिंसा का यह कम योगदान नहीं है।
” अहिंसा समाजवाद और साम्यवाद की नींव है। लोग आज देश में समाजवाद स्थापना की बात करते हैं। अहिंसा के पुजारियों ने आज से हजारों वर्ष पहले समस्त विश्व में समाजवाद स्थापित कर दिया था। विश्व के समस्त प्राणियों को समान मानना, न केवल मनुष्यों को, इससे भी बड़ा कोई साम्यवाद होगा? अहिंसा महाप्रदीप की किरणें विकरित हो उद्घोष करती है- जो तुम अपने लिए चाहते हो, दूसरों के लिए ,समूचे विश्व के लिए भी वही चाहो और जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, उसे दूसरों के लिए भी मत चाहो, मत करो क्योंकि सभी जीव जीना चाहते हैं।” एक चेतना की ही धारा सबके अन्दर प्रवाहित होती है अतः सबके साथ समता का व्यवहार करो, यही आचरण सर्वश्रेष्ठ है।” इससे तुम्हारा जीवन विकार वासनाओं से मुक्त होता चला जायेगा और निष्पाप हो जायेगा क्योंकि जो सब जीवों को आत्मवत् मानता है, जो सब जीवों को सम्यक् दृष्टि से देखता है, जो आस्रव का निरोध कर चुका है और जो दान्त है, उसके पापकर्म का बन्धन नहीं होता।”
जैन धर्म की यही उदारदृष्टि अहिंसा को इतना व्यापक बना देती है कि उसे समूचे विश्व के साथ सम्बन्ध स्थापित करने में देर नहीं लगेगी। कहा भी गया है कि जिस तरह से सभी नदियाँ अनुक्रम से समुद्र में आकर मिलती है, उसी प्रकार महाभगवती अहिंसा में सभी धर्मों का समावेश होता है। जब समूचा विश्व ही व्यक्ति का हो जाता है तो कौन उसे सत्यं, शिवं और सुंदरम नहीं बनाना चाहेगा। जिसके हृदय में सहज अहिंसावृत्ति होती है वह कभी किसी प्राणी को पीड़ा उत्पन्न नहीं करता। इस संघर्षमय जीवन से संतृप्त मानव को अहिंसा की शीलत छाया में शान्ति मिल सकेगी, अन्यत्र नहीं।
संदर्भ :
1. सा क्रिया कापि नास्तीह यस्यां हिंसा न विद्यते। उपासकाध्ययनकल्प, 26.340
2. श्रावक साधनी बन्ध मोक्ष। सागारधर्मामृत, 4.23
3. जहा जलमज्झे गच्छमाणा अपरिस्सवा नावा जलकंतार वीईवयइ, न य विणासं पावइ, एवं साहूवि जीवाउले लोगे गमणादीणि कुव्वमाणो संवरियासवदुवारत्तणेण संसारजलकंतारं वीयीवयइ, संवरियासवदुवारस्स न कुओवि भयमत्थि। दशवैकालिकचूर्डि, पृ.159
4. जदि सुद्धस्स य बंधो होहिदि बहिरंगवत्थुजागेण। णत्थि है अहिंसगो णाम होदि चायवादिबंधहेतु। भगवती आराधना, 806
5. सन्तोषपोषता यः स्यादल्पारम्भपरिग्रहः। भावशुद्धयेकसगोंऽसावहिंसाणुव्रतं भजेत्।। सागारधर्मामृत, 4.14
6. सोऽत्रवकाशो न लभते भिक्षोनिध्यानपरायणस्य प्रमत्तयोगाभावात्। किंच सूक्ष्मस्थूलजीवाभ्युपगमात्।। सूक्ष्मा न प्रतिपीडयन्ते प्राणिनः स्थूलमूर्तयः। ये शक्यास्ते विवर्ज्यन्ते का हिंसा संयतात्मनः ।। राजवार्तिक, 7,13
7. मृतेऽपि न भवेत् पापमृतेऽपि भवेद् ध्रुवम्। पापधर्मविधाने हि स्वान्तं हेतु शुभाशुभम् ।। प्रबोधसार।
8. भावशुद्धिर्मनुष्याणां विज्ञेया सर्वकर्मसु। अन्यथा चुम्ब्यते कान्ता भावेन दुहितान्यथा ।। सुभाषितावली पू. 493
9. आरम्भेऽपि सदा हिंसा सुधीः सांकल्पकीयजेत्। घ्नतोऽपि कर्षकादुच्चैः पापोऽध्नन्नपि धीवरः ।। सागारधर्मामृत, 2.22
10. जैनधर्म, पं. कैलाशचन्द शास्त्री, पृ. 182
11. यद्धन ह्यात्मसामर्थ्य यावन्मंत्रसिकोशकम्। तावद् द्रष्टुं च श्रोतं च तद्धाधां सहते न सः।।
12. दण्डो हि केवलो लोकमिमं चामु च रक्षति। राज्ञा शत्रै च मित्रे च यथादोषं समं धृतः।। सागारधर्मामृत, 4.5
13. अभओ पत्थिजा। तुब्मं अभयदाया भ्वाहिय। अणित्वे जीव-लोगम्मि, किं हिंसाए पसज्जसि ।। उत्तराध्ययन, 18.11
14. जं इच्छसि अप्पणत्तो, जं च न इच्छसि अप्पणत्तो।
तं इच्छ परस्स वि मा वा, एत्तियगं जिणसासणणयं ।। बृहत्कल्पभाष्य, 4584
15. (1) सव्वे पाणा पियाउया सुहसाता दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जोक्तुिकाय
सव्वेसिं जीवितं पियं। आचारांगसूत्र 1.2.3.78
16. ‘एगे आया’, स्थानांग, 1.1
17. एक्कग्गमणसमासमाहाणया य, अह एत्तिओ मोक्खो। बृहत्कल्पभाष्य, 4585
18. सव्वभूयप्पभूयस्स सम्मं भूयाइ पासओ।
पिहिआसवस्स दंतस्स पावं-कम्मं न बंधई, दशवैकालिक, 4.8
19. सव्वओ वि नईओ, कमेण यह सायरम्मि निवडति।
तह भगवई अहिंसा, सव्वे धम्मा समिल्लति।। संबोधसत्तरी, 6
अनेकांत पत्रिका जनवरी -मार्च, २०१५
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