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आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज-एक स्वर्णिम व्यक्तित्त्व

July 9, 2017ज्ञानमती माताजीjambudweep

आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज-एक स्वर्णिम व्यक्तित्त्व


 
(आचार्य श्री वीरसागर वर्ष समापन के अवसर पर प्रस्तुत)

ओह! कितना सुन्दर स्वप्न! प्रातःकाल की मधुरिम बेला में स्वप्निल निद्रा से उठककर भाग्यवती ने प्रभु का स्मरण किया। रात्रि के पिछले प्रहर में देखा हुआ स्वप्न तो शायद सत्य होता है, यही सोचती हुई भाग्यवती मन में उस स्वप्न के बारे में चिन्तन करती हैं कि मैंने आज सफेद बैल देखा है। हो सकता है कोई होनहार बालक मेरे गर्भ में आने वाला हो।
 
हर्ष से पुलकित होकर भाग्यवती अपने दैनिक कार्यों में लग जाती हैं। महाराष्ट्र प्रान्त के औरंगाबाद जिले में एक छोटे से कस्बे ईर नामक ग्राम में रामसुख नाम के एक योग्य चिकित्सक श्रेष्ठी रहा करते थे। उन्होंने भाग्यवती धर्मपत्नी को पाकर मानो सचमुच ही राम जैसे सुख को प्राप्त कर लिया था। गंगवाल गोत्रीय ये दम्पत्ति श्रावक कुल के शिरोमणि थे। प्रतिदिन मंदिर में जाकर देवदर्शन करना, भक्ति-पूजा आदि उनके जीवन के आवश्यक अंग थे।
 
माता-पिता के संस्कार बालक पर पड़ना अवश्यंभावी है।पत्नी के सुखद स्वप्न को सुनकर रामसुख भी बड़े हषित हुए, उन्होंने स्नेह से पत्नी की ओर देखते हुए कहा- भागू! ऐसा लगता है तुम एक होनहार महापुरुष बालक की माँ बनने वाली हो। हो सकता है संसार में तेरे मातृत्व की ख्याति फैलाकर यह बालक श्वेत वृषभ के सदृश कीर्ति वाला बन जावे।
 
भाग्यवती लज्जापूर्वक सिर झुकाकर पति के चरण स्पर्श करती है और अपने प्रथम पुत्र तीन वर्षीय बालक गुलाबचंद को साथ लेकर मंदिर में भगवान की पूजन करने चली जाती है। खुशियों के आवेग में भाग्यवती अपनी सारी सुध-बुध भूल गर्इं। देर दिन चढ़ने तक वह प्रभु की भक्ति में ही लीन रहीं, तब ध्यान तोड़ा गुलाब ने। माँ! घर चलो, बहुत देर हो गई, मुझे भूख लगी है। भक्ति का आनंद वहीं छोड़कर भागू बेटे के साथ घर आ गई।
 
दिवस और रात्रि के स्वर्णिम क्षण बीतने लगे। अब तो भाग्यवती प्रतिदिन पति से तीर्थयात्रा पर चलने को कहने लगीं क्योंकि इस द्वितीय पुत्र के गर्भ में आने से उसे तीर्थवंदना का दोहला जो हुआ था। रामसुख अपनी पत्नी को तीर्थों की वंदना हेतु लेकर चल दिए। हर्ष और आनंद के साथ दोनों ने सिद्धक्षेत्र, अतिशय क्षेत्र आदि कितने ही तीर्थों की वंदना की और वापस घर आ गए। देखते ही देखते नवमास हर्षोल्लास में व्यतीत हो गए।
 
वि. सं. १९३३, ईसवी सन् १८७६ में आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के दिन भाग्यवती ने एक अपूर्व चाँद को जन्म दिया जिसके आगमन की अप्रतिम प्रसन्नता ने माता की प्रसव वेदना भी समाप्त कर दी। सारे गाँव में बाजे-नगाड़े की ध्वनि होने लगी। चारों ओर खुशियाँ ही खुशियाँ छाई हुई थीं। सौभाग्यवती महिलाएँ मंगल गीत गा रही थीं। पुत्र जन्मोत्सव की खुशी में सेठ रामसुख जी फूले नहीं समा रहे थे। हर्षातिरेक में गरीबों को खूब दान बाँट रहे थे।
 
इस होनहार बालक का नाम घर वालों ने मिलकर हीरालाल रखा। सवा महीने के बाद जब माता और बालक को लेकर सभी नगर निवासी जिनमंदिर गए, तब वहाँ भगवान के समक्ष जैनसंस्कृति के अनुसार एक पण्डितजी ने बालक के कानों में णमोकार मंत्र सुनाकर सर्वसाक्षीपूर्वक अष्टमूलगुण धारण करवाया तथा ८ वर्ष तक इन मूलगुणों को पालन करवाने की जिम्मेदारी माता पर डाली। बार-बार आँखें खोलकर हीरा मानों कह रहा था कि मैं सब कुछ समझ रहा हूँ।
 
चंद्रमा की कलाओं के समान हीरालाल भी अपनी बालक्रीडाओं को करता हुआ वृद्धिंगत होने लगा। इस घर में मानो कोई साधारण पुत्र नहीं, अपितु किसी अद्वितीय पुरुष का अवतार ही हुआ है। माता-पिता इसके जन्म से अपने को धन्य समझने लगे और अपना अधिक से अधिक समय हीरा की चमक-दमक देखने में बिताने लगे।
 
लोक में कहा जाता है कि जीवन में दुख के किंचित् क्षण भी अत्यन्त लम्बे लम्हे जैसे लगते हैं और सुखमय लम्बा जीवन कब जल्दी ही निकल जाता है, ज्ञात नहीं हो पाता। इसी प्रकार से बालक हीरालाल सात वर्ष के पूरे होकर आठवें वर्ष में प्रवेश कर गए। माता-पिता ने अब शुभ मुहूर्त में उपनयन संस्कार का आयोजन कराया। इस कृतयुग की आदि में भगवान ऋषभदेव ने जब मनुष्यों को जीने की कला सिखाई थी, उस समय उपनयन आदि मनुष्योचित क्रियाओं का वर्णन भी किया था।
 
उसी विधि के अनुसार बालक हीरालाल को मंगलचौक के ऊपर बिठाकर मंत्रन्यास पूर्वक संस्कार किए गए और तीन सूत्र का धागा गले में डाल दिया गया जो कि रत्नत्रय का प्रतीक होता है। अब वह बालक से श्रावक बन गया। अपनी समस्त क्रियाओं का पालन करते हुए हीरालाल अब पाठशाला में पढ़ने भी जाने लगा।
 
बुद्धि की तीक्ष्णता तो थी ही, स्कूल में सभी अध्यापकों के प्रेमपात्र बन गए और लड़कों के नायक चुन लिए गए। इनके शुभ लक्षण और ज्ञान की प्रखरता देखकर अनायास ही लोग कह उठते थे कि यह तो जरूर कोई महापुरूष होने वाला है। चंचलबुद्धि, मानकषाय की मंदता हीरालाल के जीवन की प्रमुख विशेषता थी।
 
हिन्दी, उर्दू इन दोनों भाषाओं में उन्होंने सातवीं कक्षा तक अध्ययन किया, उसके पश्चात् पिता की आज्ञानुसार व्यापार कार्य प्रारम्भ कर दिया। हीरालाल अब तक १५ वर्ष के युवक हो गए थे। पिता के साथ व्यापार तो करते थे किन्तु इनका चित्त उदासीन रहने लगा और ये अपना अधिक समय भगवान की पूजन, भक्ति एवं शास्त्र स्वाध्याय में व्यतीत करते।
 
बेटे की यह उदासीनता पिता को सहन न हो पाई। यद्यपि उनको किंचित् अहसास था और लोगों के मुख से भी सुना करते थे कि हीरालाल मात्र एक घर में ही अपनी चमक को सीमित न रखकर सारे संसार को जगमगाएगा किन्तु वैराग्य के चंगुल में कहीं मेरा बेटा फस न जाए इसलिए शीघ्र ही उसे विवाह-बंधन में बाँधने की युक्ति सोचने लगे। सुन्दर, रूपवान और बुद्धिमान हीरालाल की शादी के रिश्ते जगह-जगह से आ रहे थे।
 
एक दिन पिताजी ने उनसे शादी के विषय में कुछ राय लेनी चाहिए अतः हीरालाल से बोले – बेटा! अब तुम एक होनहार नवयुवक के रूप में युवावस्था देहलीज पर खड़े हो अत: मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे घर में आने वाली बहू का चयन स्वयं करो। माँ ने भी कहा – मुझे तो तेरे जैसी ही सुन्दर और सुघड़ बहू चाहिए। सुन हीरा! अच्छी कन्या पसंद करना जो कि मेरी कुछ सेवा भी कर सके। इसी प्रकार से सारे परिवार के लोग उससे रागात्मक वार्तालाप करने लगे किन्तु जैसे कमल कीचड़ में रहकर उससे सदैव अलग ही रहता है, वैसे ही हीरालाल इन सबकी बातों में संसार की असारता ढूँढते रहते थे।
 
आखिर एक दिन पुत्र हीरा ने संकोच छोड़कर माता-पिता के सामने अपने मन की बात कह ही डाली, पिताजी के चरण स्पर्श करते हुए हीरालाल बोले- पिताजी! आप व्यर्थ ही मेरी शादी के लिए परेशान हो रहे हैं। शादी तो संसार की अनादिकालीन श्रुत और परिचित परम्परा है मुझे तो भगवान महावीर के पथ पर चलकर अपनी आत्मा का कल्याण करना है अतः मेरा दृढ़ निश्चय है कि मुझे शादी नहीं करना है। माता-पिता पत्थर की प्रतिमा सदृश स्तब्ध खड़े रह गए।
 
ओह! माँँ ने मौन तो़ड़ा- हीरा! मैंने अपनी छोटी बहू पाने के लिए न जाने कितने अरमान संजोए हैं। (प्यार से डाँटती हुई) एक शब्द कहकर तू हम लोगों को निराश करना चाहता है? शादी करने का कार्य तुम्हारा नहीं, यह तो माता-पिता का परम कर्तव्य होता है और आज्ञाकारी बेटा माँ-बाप की आज्ञा का सदैव पालन करना ही अपना कर्तव्य समझता है। मुझे अपने लाडले से ऐसा ही विश्वास है। हीरालाल माँ की इतनी बड़ी चुनौती से भी विचलित नहीं हुए।
 
उन्होंने कहा – यह तो मोह की लीला है। माँ! वास्तव में तो न कोई किसी का पुत्र है न माता-पिता। प्रत्येक प्राणी का चैतन्य तो परम वीतरागी होता है और मुझे उसी चैतन्य की खोज करने में अपने कर्तव्य की सार्थकता प्रतीत होती है। वे माँ से बोले- मैं ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ अपने मन में।
 
आपसे मेरी विनम्र प्रार्थना है कि आप मेरे द्वारा सांसारिक बहू लाने की आशा सर्वथा छोड़ दें। मैं तो मुक्तिकन्या को बहू बनाने का आह्वान कर चुका हूँ जो सदा अनंतकाल अखंड सुख को प्रदान करने वाली होती है। मां! मुझे आशीर्वाद दो। मैं अपने पथ को निष्कंटक बना सकू। (झुकते हुए) पिता रामसुख दुख के असीम सागर में डूबे हुए हैं।
 
उन्हें हीरालाल की शादी नहीं करने से अधिक दुख इस बात का है कि क्या बेटा हम सबको छोड़कर चला जाएगा? नहीं, नहीं, ऐसा कभी नहीं होगा। रोते हुए रामसुख जी हीरालाल को छाती से लगाते हुए कहते हैं- मेरे चाँद! तू समझता नहीं है कि त्यागमार्ग में कितने कष्ट होते हैं। तलवार की धार पर तेरे जैसे सुकुमार का चलना श्रेयस्कर नहीं है। मेरी बात मानो बेटा! घर बसाओ और हमारे बुढ़ापे का सहारा बनो। मैं तेरा वियोग कभी नहीं सहन कर सकता हीरा।
 
हीरालाल अब कोई नादान नहीं थे। वे परिवार की सारी स्थिति को समझ रहे थे। अन्ततोगत्वा उन्होंने ब्रह्मचारी रूप में ही घर में रहते हुए माता-पिता की सेवा करना स्वीकार किया। रामसुख भी अब कुछ आश्वस्त हुए कि बहू नहीं न सही, किन्तु कम से कम बेटा तो हमारे जीवन का अंग बना ही रहेगा। घर में रहकर भी हीरा द्वारा अपनी चमक में निखार लाने हेतु रसपरित्यागपूर्वक भोजन करना एवं शास्त्रों का मनन-चिन्तन पूर्व की अपेक्षा अधिक प्रारम्भ हो गया। दिवस, मास और वर्ष व्यतीत होने लगे। कुछ दिनों के बाद ही रामसुख जी का स्वर्गवास हो गया।
 
पितृवियोग के साथ-साथ कतिपय दिवसों के पश्चात् ही माता भी स्वर्ग सिधार गर्इं। अब हीरालाल के लिए मात्र भाई का ही संबल था। ज्ञानी के लिए तो सबसे प्रबल संबल उसका तत्वज्ञान ही होता है, उसी का आधार लेकर हीरालाल ने अपनी मंजिल को अब निराबाध समझ लिया किन्तु योग्य गुरु के अभाव में अभी दीक्षा की भावना को बल नहीं प्रदान किया।
 
वि.सं. १९७३, सन् १९१६ में औरंगाबाद के निकट कचनेर नामक अतिशय क्षेत्र में धार्मिक पाठशाला खोलकर हीरालाल जी बालकों को निःशुल्क धार्मिक शिक्षण देने लगे पुनः औरंगाबाद में भी एक विद्यालय खोलकर उन्होंने धार्मिक अध्ययन कराया। दोनों जगह उन्होंने अवैतनिक अध्ययन कराया था और उस प्रान्त में सभी के द्वारा गुरूजी कहे जाने लगे थे। यह अध्ययन क्रम सात वर्ष तक चला जिसके मध्य निःस्वार्थ सेवाभाव से जनमानस के नस-नस में जैनधर्म का अंश भर दिया था।
 
वि.सं. १९७८, सन् १९२१ में नांदगांव में ऐलक श्री पन्नालाल जी का चातुर्मास होने वाला था। चातुर्मास के समाचार सुनकर हीरालाल गुरुदर्शन की लालसा से नांदगांव पहुंच गए। अब तो हीरालाल को अपनी स्वार्थसिद्धि का मानो स्वर्ण अवसर ही प्राप्त हुआ था अतः मौके का लाभ उठाते हुए आषाढ़ शुक्ला ग्यारस को ऐलक श्री पन्नालाल जी के पास सप्तमप्रतिमा के व्रत ग्रहण कर लिए पुनः नांदगांव के ही एक प्रसिद्ध श्रावक खुशालचंद जी को हीरालाल ने अपना साथी बना लिया अर्थात् उनके ह्रदय के अंकुरित वैराग्य को बीजरूप दे दिया और उन्हें भी सप्तमप्रतिमा के व्रत दे दिए।
 
युगल ब्रह्मचारी की जोड़ी अब तो राम-लक्ष्मण की जोड़ी बन गई थी। दोनों ही अपने-अपने वैराग्य को वृद्धिंगत करने हेतु उपवास, रसपरित्याग आदि करने लगे जिससे प्रारम्भ से ही उनका शरीर तपस्या की बलिवेदी पर चढ़कर मजबूत बन गया था। ब्र. हीरालाल और खुशालचंद अभी योग्य गुरु के अभाव में इससे आगे नहीं बढ़ सके थे। इसी अवस्था मेंं उन्होंने घी, नमक, तेल और मीठे का जीवनपर्यंत के लिए त्याग कर दिया था।
 
सच्चे ह्रदय से भाई गई भावना अवश्य एक दिन भवनाशिनी सिद्ध होती है इसी प्रकार हीरालाल जी को ज्ञात हुआ कि दक्षिण के कोन्नूर ग्राम में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज नाम के दिगम्बर मुनि विराजमान हैं। बस फिर क्या था, दोनों ब्रह्मचारी शीघ्र ही आचार्यश्री के पास पहुँच गए। दर्शन-वंदन करके आशीर्वाद प्राप्त किया।
 
जिस प्रकार आचार्य धरसेन स्वामी के पास पुष्पदंत और भूतबलि दो शिष्य उनकी इच्छापूर्ति के लिए पहुँचे थे उसी प्रकार मानो आचार्यश्री शांतिसागर महाराज के पास युगल ब्रह्मचारी उनकी अविच्छिन्न परम्परा चलाने का भावी स्वप्न संजोकर पहुँचे थे।
 
गुरुवर की कठोर तपश्चर्या और त्याग की चरम सीमा को देखकर दोनों बड़े प्रभावित हुए और उन्हीं से दीक्षा लेना निश्चित कर लिया। आचार्यश्री ने दोनों भव्यात्माओं को दूरदृष्टि से परखकर दीक्षा देना तो स्वीकार कर लिया किन्तु एक बार घर जाकर परिवारजनों को सन्तुष्ट करके क्षमायाचनापूर्वक आज्ञा लेकर आने का आदेश दिया। संसारसिंधुतारक गुरुदेव का आदेश शिरोधार्य करते हुए युगल ब्रह्मचारी अपने घर आ गए।
 
औपचारिकरूप से सबसे क्षमायाचना करके स्वीकृति माँगी, तब बड़े भाई गुलाबचंद और उनकी पत्नी का ह्रदय विह्वल हो गया। यद्यपि दोनों इस बात को समझ चुके थे कि ब्रह्मा की शक्ति भी अब हीरा को घर में बाँधकर नहीं रख सकती है किन्तु मोह का प्रबल आवेग आँसुओं के सहारे फूट पड़ा। हीरालाल को उन्होंने बहुत समझाया कि भाई! अब तुमने सप्तमप्रतिमा तो ले ही ली है, घर में रहकर अभ्यास करो। मैं तुम्हारी किसी भी चर्या में बाधक नहीं बनूँगा।
 
हीरा! तुम मुझे अकेला छोड़कर मत जाओ। भाभी बार-बार देवर के चरणों का स्पर्श करती हुई विलाप करने लगी। वह बोली – भैया! मुझ अभागिन के भाग्य से सास-ससुर की सेवा का सुख विधाता ने छीन लिया, अब आपके जाने से तो हम बिल्कुल असहाय हो रहे हैं। मैं आपकी कुछ सेवा करके अपने को भाग्यशाली समझूँगी। वैरागी के विरक्त मन को संसार की कोई भी रागिनी लुभा नहीं सकती है। उसी प्रकार हीरालाल पत्थर के समान कठोर बने रहे, उन्होंने समझाते हुए भाई-भाभी को कहा- भैया! आप और भाभी तो मेरे माता-पिता के समान हैं।
 
आप मुझे मत रोके। देखो! इस असार संसार में हम लोगों ने कितने भवों को धारण कर दुख उठाए हैं। आर्तरौद्र ध्यानों को करके सदा अपने संसार को बढ़ाया ही है। ओह! न जाने किस पुण्योदय से यह मनुष्य पर्याय प्राप्त करके त्याग के भाव बने हैं जो संसार की स्थिति का ह्रास करने वाले हैं। हे तात! अब मुझे सहर्ष अनुमति प्रदान करें, मेरा एक-एक पल आत्मचिंतन के लिए इंतजार कर रहा है। पत्थर की मूर्ति की भाँति जड़वत् खड़े-खड़े भाई-भाभी हीरालाल को आत्मपथ की ओर जाते देखते रहे और मौनपूर्वक लघु भ्राता के निराबाध जीवन के लिए आशीर्वाद प्रदान करते रहे।
 
सबके मोह को त्यागकर हीरालाल जी अब पूर्ण निश्चिंत होकर खुशालचंद को साथ लेकर वापस आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के पास पहुंँच गए। उस समय आचार्यश्री कुम्भोज नगर में विराजमान थे। गुरुचरणों में पहुँचकर हीरालाल प्रसन्नता के अथाह सागर में गोते लगाने लगे। उनको नमन कर पुनः दीक्षा के लिए याचना की।
 
आचार्यश्री ने परीक्षा के तौर पर उन ब्रह्मचारियों को कहा- हे भव्ययुगल! जैन दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व खूब विचार मंथन कर लो। जिसे लेना ही नहीं वरन् एक सबल योद्धा की भाँति पालन करना अति आवश्यक है क्योंकि तलवार की धार के समान यह जैनी दीक्षा लाखों कष्ट-उपसर्गों के आने पर भी छोड़ी नहीं जाती। सर्दी-गर्मी, नग्नता, केशलोंच, एक बार भोजन आदि समस्त परीषह समतापूर्वक सहन करने वाला ही अपने आत्मतत्त्व को सिद्ध कर सकता है।
 
यद्यपि आचार्यदेव की दूरदृष्टि उनके अन्तस्तल को पहचान चुकी थी किन्तु खूब ठोक-बजाकर एक बार दोनों की दृढ़ता तो देखनी ही थी इसीलिए उन्होंने पुनः प्रश्न किया- शिष्यों! यदि तुम वास्तविक रूप में संसार से विरक्त होकर मेरे पास आए हो एवं इन कष्टों को सहन करने की पूर्ण क्षमता रखते हो तो मुझे दीक्षा देने में कोई एतराज नहीं है। निराश मन में आशा की किरणें फूट पड़ीं, रश्मियाँ बिखरने लगीं और प्रकाश चारों ओर फैल गया। ह्रदय में ज्ञानसूर्य उदित हो गया। सच्चे ह्रदय से दोनों ने स्वयं को गुरुचरणों में समर्पित कर दिया और कहने लगे-
 
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव।।
 
हे भगवन् ! आप सबके निष्कारण बंधु हैं, जैसे भी चाहें हम लोगों का कल्याण करें। हम तो मात्र आपकी शरण में आए हुए अबोध शरणागत हैं। आचार्यश्री ने उभय ब्रह्मचारी को अपना शिष्य बना लिया एवं दीक्षा के लिए तत्पर उन दोनों को धार्मिक अध्ययन कराना प्रारम्भ कर दिया। श्रावक की चर्या, उनके कर्तव्य आदि बतलाते हुए ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप बताया।
 
ऊँचे महल की ऊँचाई तक पहुँचने के लिए सीढ़ियों पर क्रम-क्रम से चढ़ना पड़ता है तभी मंजिल प्राप्त हो सकती है उसी प्रकार मोक्ष महल तीनलोक से भी ऊँचा है उसे प्राप्त करने के लिए क्रम-क्रम से श्रावक, क्षुल्लक, ऐलक, मुनि आदिरूपी सीढ़ियों पर चढ़ना पड़ता है तभी वह मंजिल प्राप्त हो सकती है।
 
इसी क्रम के अनुसार आचार्यदेव ने ब्रह्मचारीयुगल को सर्वप्रथम श्रावकोत्तम क्षुल्लक दीक्षा देने का निर्णय किया और शुभमुहूर्त निकाला वि. सं. १९८०, सन् १९२३, फाल्गुन शुक्ला सप्तमी का पवित्र दिवस। हीरालाल यद्यपि मुनिदीक्षा को ही सर्वप्रथम धारण करना चाहते थे किन्तु आचार्यश्री की आज्ञानुसार शारीरिक परीक्षण हेतु क्षुल्लक दीक्षा में ही सन्तोष प्राप्त किया। दो नवयुवक ब्रह्मचारियों की दीक्षा का समाचार सुनकर सारी जनता उमड़ पड़ी।
 
अश्रुपूरित नयनों से लोग इनके वैराग्य की प्रशंसा कर रहे थे और जय-जयकारों के अविरल स्वर से अपने पापों का क्षालन कर रहे थे। आचार्यश्री अपने नवशिष्यों के मस्तक पर दीक्षा के संस्कार करने में मग्न थे। संस्कारों के साथ-साथ पारम्परिक और शास्त्रिक नियम भी नवदीक्षित शिष्यों को ग्रहण कराए।
 
दोनों ने विशाल जनसमूह के मध्य खड़े होकर आचार्यश्री के द्वारा प्रदत्त समस्त नियमों को सविनय स्वीकार किया एवं जीवन भर गुरु के अनुशासन में रहने का संकल्प लिया। तभी गुरुदेव ने सभा के मध्य ब्र. हीरालाल को क्षुल्लक श्री वीरसागर और ब्र. खुशालचंद को क्षुल्लक चंद्रसागर नाम से सम्बोधित किया, जिसका सभी ने जय-जयकारों के साथ स्वागत किया। मस्तक पर प्रथम संस्कारों के कारण क्षुल्लक वीरसागर बड़े और चंद्रसागर छोटे क्षुल्लक जी बन गए।
 
मात्र चादर और लंगोटी को धारण करके दोनों शिष्य आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के दाएँ-बाएँ हाथ बन गए थे। गुरु के साथ ये भी पैदल ही विहार करने लगे। कुछ ही दिनों में वि.सं. १९८१, सन् १९२४ में संघ समडोली ग्राम में पहुँचा और वहीं वर्षायोग स्थापना हुई।
 
सतत ज्ञानाराधना एवं अपनी चर्या में सावधान क्षुल्लक वीरसागर को अभी पूर्ण संतुष्टि नहीं थी, वे तो दिगम्बरी दीक्षा धारण करके कठोर तपश्चरण करना चाहते थे। गुरु आज्ञा में निरन्तर प्रयत्नशील शिष्य को एक न एक दिन गुरु का अनुग्रह अवश्य प्राप्त होता है। एक दिवस क्षुल्लक वीरसागर ने आचार्यश्री के पास जाकर निवेदन किया- गुरुदेव! मैं मुनिव्रत की दीक्षा लेना चाहता हूँ । आप विश्वास रखें, मैं आपके निर्देशानुसार प्रत्येक चर्या का निर्दोष रीति से पालन करूँगा।
 
शिष्य की तीव्र अभिलाषा एवं पूर्ण योग्यता देखकर आचार्यश्री ने समडोली में ही इन्हें मुनि दीक्षा प्रदान की। अब तो वीरसागर जी क्षुल्लक से मुनि वीरसागर बन गए और मानो आज तो त्रैलोक्यसम्पदा ही प्राप्त हो गई हो।ऐसी असीमित प्रसन्नता वीरसागर जी ने अपने जीवन में प्रथम बार प्राप्त की थी। इसीलिए आचार्यश्री शांतिसागर महाराज के प्रथम शिष्य होने का परम सौभाग्य मुनि वीरसागर जी को ही प्राप्त हुआ।
 
मुनि दीक्षा के पश्चात् आपने आचार्य संघ के साथ दक्षिण से उत्तर तक बहुत सी तीर्थवंदनाएँ करते हुए पदविहार किया। गुरुदेव के चरण सानिध्य में अनमोल शिक्षाओं को जीवन में गाँठ बाँधकर आपने रखने का निर्णय किया था इसीलिए अन्त तक गुरुभक्ति का प्रवाह ह्रदय में प्रवाहित रहा। आचार्यश्री के साथ आपने १२ चातुर्मास किए।

उन गाँवों के नाम-

श्रवणबेलगोल कुम्भोज
समडोली बड़ी नांदनी
कटनी मथुरा
ललितपुर जयपुर
ब्यावर प्रतापगढ़
उदयपुर देहली

उस समय तक आचार्यश्री के १२ शिष्य बन चुके थे-

मुनि वीरसागरजी चन्द्रसागर
नेमिसागर कुन्थुसागर
सुधर्मसागर पायसागर
नमिसागर श्रुतसागर
अजितसागर विमलसागर
पाश्र्वकीर्ति  
 
एक बार आचार्यश्री ने सभी शिष्यों को निकट बुलाकर धर्मप्रचारार्थ अलग-अलग विहार करने का आदेश दिया और संघ को २-३ भागों में विभक्त कर दिया। यद्यपि सभी शिष्य बहुत दुःखी हुए क्योंकि वे पूज्यश्री की छत्रछाया से वंचित नहीं होना चाहते थे किन्तु –
 
सिंह लगन सत्पुरुष वचन, कदलीफल इक बार।
तिरिया तेल हमीर हठ, चढ़े न दूजी बार।।
 
इसी सूक्ति के अनुसार आचार्य महाराज एक बार आज्ञा के पश्चात् कभी उसमें परिवर्तन नहीं करते थे। अन्त में गुरुवर्य का आशीर्वाद प्राप्तकर सभी ने यत्र-तत्र विहार किया एवं आचार्यश्री की समस्त शिक्षाओं के माध्यम से धर्मप्रचार करना प्रारम्भ कर दिया। प्रमुख शिष्य मुनि वीरसागर जी ने अपने साथ में मुनि श्री आदिसागर और अजितसागर महाराज को लेकर विहार किया।
 
वि. सं. १९९२, सन् १९३५ में गुरुवियोग के दुःख को सहन करते हुए मुनि श्री वीरसागर जी के संघ का प्रथम चातुर्मास गुजरात के ईडर शहर में हुआ, जहाँ अपूर्व धर्मप्रभावना हुई। इस शताब्दी में लुप्त साधु परम्परा को जीवन्तरूप प्रदान करने वाले आचार्यश्री को सभी नर-नारियों ने एक नरपुंगव के रूप में देवता मानकर मुक्तकंठ से प्रशंसा की।
 
समस्त शिष्यों के विहार करने के पश्चात् आचार्यश्री के पास मात्र एक मुनि नेमिसागर जी आग्रहपूर्वक रह गए थे जिन्हें अहर्निश गुरुचरणों का सानिध्य प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आत्मकल्याण के साथ-साथ परकल्याण की भावना में तत्पर वीरसागर महाराज ने गाँव-गाँव में विहार करते हुए अनेक शिष्यों को क्षुल्लक, ऐलक, मुनि बनाया तथा अनेकों महिलाओं को आर्यिका, क्षुल्लिका के व्रत प्रदान कर मोक्षमार्ग में लगाया।
 
वि. सं. १९६५ में इन्दौर चातुर्मास में आपने अपने गृहस्थावस्था के बड़े भाई गुलाबचंद को सप्तमप्रतिमा के व्रत दिए थे, जो आगे जाकर दसवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक प्रसिद्ध हुए हैं। वि. सं. २००० में आप खातेगांव चातुर्मास करके सिद्धवरकूट क्षेत्र पधारे। दो चक्री दश कामकुमारों की निर्वाणभूमि के पवित्र स्थल पर औरंगाबाद के अन्तर्गत अड़गाँव निवासी खंडेलवाल जाति में जन्म लेने वाले राँवका गोत्रीय श्रावक हीरालाल को क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की और उनका शिवसागर नाम रखा।
 
शिष्यपरम्परा की शृँखला में वीरसागर जी के मुनियों में प्रथम शिष्य शिवसागर ही बने, जो भविष्य में गुरु के पट्टाचार्य पद को सुशोभित कर संघ संचालन का श्रेय प्राप्त कर चुके हैं। बीस वर्षों के लम्बे अन्तराल के पश्चात् सन् १९५५ में कुंथलगिरि क्षेत्र पर आचार्यश्री शांतिसागर महाराज ने चातुर्मास किया था।
 
इधर वीरसागर महाराज अपने चतुर्विध संघ सहित जयपर खानिया में चातुर्मास कर रहे थे। हजारों मील की दूरी भी गुरु-शिष्य के परिणामों का मिलन करा रही थी। आचार्यश्री ने अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य यम सल्लेखना ग्रहण कर ली थी। इस समाचार से उनके समस्त शिष्यों एवं सम्पूर्ण जैनसमाज के ऊपर एक वङ्काप्रहार सा प्रतीत होने लगा था। कुंथलगिरि में प्रतिदिन हजारों व्यक्ति इस महान आत्मा के दर्शन हेतु आ-जा रहे थे।
 
सल्लेखना की पूर्व बेला में ही आचार्यश्री ने अपना आचार्यपद त्याग कर दिया और तत्कालीन संघपति श्रावक श्री गेंदनमल जी जौहरी, बम्बई वालों से एक पत्र लिखवाया। अपने प्रथम शिष्य मुनि श्री वीरसागर महाराज को सर्वथा आचार्यपद के योग्य समझकर एक आदेशपत्र जयपुर समाज के नाम लिखाकर भेजा।
 
यहाँ पर समयोचित ज्यों का त्यों उस पत्र को दिया जा रहा है— आचार्यश्री द्वारा लिखाया गया समाज को पत्र— कुंथलगिरि, ता.-२४.८.५५ स्वस्ति श्री सकल दिगम्बर जैन पंचान, जयपुर! धर्मस्नेहपूर्वक जुहारू। अपरंच आज प्रभात में चारित्रचक्रवर्ती १०८ परम पूज्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने सहस्रों नर-नारियों के बीच श्री १०८ मुनिराज वीरसागर जी महाराज को आचार्यपद प्रदान कर
 
ने की घोषणा कर दी है अतः उस आचार्यपद प्रदान करने की नकल साथ में भेज रहे हैं, उसे सकल संघ को एकत्र कर सुना देना। विशेष- आचार्य महाराज ने यह भी आज्ञा दी है कि आज से धार्मिक समाज को इन्हें (श्री वीरसागर जी महाराज को) आचार्य मानकर इनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए।
 
लि. गेंदनमल, बम्बई लि. चंदूलाल ज्योतिचंद, बारामती आचार्यश्री शांतिसागर महाराज की समाधि के पश्चात् जयपुर (खानिया) में आयोजित श्रद्धांजलि सभा में श्री वीरसागर जी महाराज ने अपने गुरुवियोग से व्यथित ह्रदय के उद्गार श्रद्धांजलि के माध्यम से व्यक्त किये थे। वे श्रद्धांजलि वचन यहाँ प्रस्तुत हैं-

गुरुचरणों की देन


 पूज्यपाद गुरुदेव श्री १०८ आचार्यवर्य शांतिसागर जी महाराज को जिन्होंने जीवनकाल में परखा और अपनाया, उन्होंने मानव जीवन को सफल कर लिया है। मेरे द्वारा गुरुदेव का शिष्यत्व स्वीकार करने में वैराग्य के अतिरिक्त उनका परमोच्च और महानतम व्यक्तित्व भी कारण था।
 
मैंने गुरुदेव को बहुत ही निकट से देखा, उनके बराबर अन्य महापुरुष अपनी आयु में दृष्टिगोचर नहीं हुआ। मुझ पर यह सारी देन गुरुदेव के चरणों की है। मुझे सबसे बड़ी व्यथा यह है कि गुरुदेव की सल्लेखना एवं अन्त बेला में मैं निकट सम्पर्क में न रह सका और न दर्शन प्राप्त कर सका। मैंने हजारों की संख्या में एकत्रित जनता की प्रार्थना पर भी जिस आचार्यपद को स्वीकार नहीं किया, उसे इस ८१ वर्ष की अवस्था में गुरुदेव का प्रसाद समझकर ही अनिच्छा होते हुए भी स्वीकार करना पड़ा।
 
गुरुदेव की आज्ञा का उल्लंघन कैसे करता। इस स्वेच्छाचारी युग में मुझ जैसे अपुण्यशाली से इस पद का निर्वाह कैसे होगा, इसकी मुझे चिन्ता है। मैं चाहता हूँ कि समस्त धार्मिक विवेकी प्राणी गुरुदेव के पदानुसारी बनकर इस परम दुर्लभ मानव जीवन को सफल बनाएं। परमनिःश्रेयस गुरुदेव के प्रति मेरी मनसा-वाचा-कर्मणा श्रद्धांजलि है। आचार्यपद प्रदान का समारोह दिवस भाद्रपद कृष्णा सप्तमी, गुरुवार निश्चित किया गया था।
 
विशाल प्रांगण में सहस्रों नर-नारियों के बीच श्री वीरसागर मुनिराज को गुरुवर द्वारा दिया गया आचार्यपद प्रदान किया गया।
 
उस समय पण्डित इंद्रलाल जी शास्त्री ने गुरुदेव द्वारा भिजवाए गए आचार्यपद प्रदान पत्र को सभा में पढ़कर सुनाया, जो कि निम्न प्रकार है- कुंथलगिरि, ता.-२४.८.१९५५ स्वस्ति श्री चारित्रचक्रवर्ती १०८ आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज की आज्ञानुसार यह आचार्यपद प्रदान पत्र लिखा जाता है- हमने प्रथम भाद्रपद कृष्णा ११, रविवार, ता. २४.८.१९५५ से सल्लेखना व्रत लिया है अतः दिगम्बर जैनधर्म और श्री कुन्दकुन्दाचार्य परम्परागत दिगम्बर जैन आम्नाय के निर्दोष एवं अखण्डरीत्या संरक्षण एवं संवर्धन के लिए हम आचार्यपद अपने प्रथम निर्ग्रन्थ शिष्य श्री वीरसागर जी मुनिराज को आशीर्वादपूर्वक आज प्रथम भाद्रपद शुक्ला सप्तमी, वि. सं. २०१२, बुधवार के प्रभात के समय त्रियोगशुद्धिपूर्वक संतोष से प्रदान करते हैं।
 
आचार्य महाराज ने श्री पूज्य वीरसागर जी महाराज के लिए इस प्रकार आदेश दिया है। इस पद को ग्रहण करके तुमको दिगम्बर जैनधर्म तथा चतुर्विध संघ का आगमानुसार संरक्षण तथा संवर्धन करना चाहिए, ऐसी आचार्य महाराज की आज्ञा है।
 
आचार्य महाराज ने आपको शुभाशीर्वाद कहा है।
 
इति वर्धताम् जिनशासनम् लिखी – गेंदनमल, बम्बई – त्रिबार नमोस्तु।
लिखी – चंदूलाल ज्योतिचंद, बारामती- त्रिबार नमोस्तु।
 
उपर्युक्त आचार्यपद प्रदान पत्र पढ़ने के बाद श्री शिवसागर जी मुनिराज ने उठकर पूज्य श्री शांतिसागर जी महाराज द्वारा भेजे गए पिच्छी-कमण्डलु भी श्री वीरसागर जी मुनिराज के करकमलों में प्रदान किए।
 
सर्वत्र सभा में आचार्य श्री वीरसागर महाराज की जय-जयकार गूँज उठी। इसके पूर्व श्री वीरसागर जी महाराज ने कभी भी अपने को आचार्य शब्द से सम्बोधित नहीं करने दिया था, यह उनकी पदनिर्लोभता का ही प्रतीक था। बन्धुओं! यह भवितव्य और गुरुभक्ति का ही चमत्कार है वर्ना कौन जानता था कि छोटे से गाँव में जन्मा एक बालक हम सबका मार्गदर्शक आचार्य बन जाएगा! शायद माता भागू बाई का स्वप्न श्वेत वृषभदर्शन आज का ही मंगल सूचक था।
 
यदि आज के दिन इनके माता-पिता जीवित होते तो उन्हें कैसी अलौकिक प्रसन्नता होती, अपने पुत्र को जगद्वंद्य पद में देखकर! इस खुशी का अनुमान प्रत्येक माता-पिता अपने योग्य पुत्र की उन्नति से प्राप्त कर सकते हैं। माता-पिता के स्थान पर आज अग्रज गुलाबचंद जी भाई के मोह में विह्वल थे उन्होंने उस भ्राता को अपना भी पूज्य गुरुदेव मानकर शेष जीवन उन्हीं के चरण सानिध्य में व्यतीत कर अपना कल्याण करने का निश्चय किया था। अब आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज अपनी गुरुपरम्परा के आधार पर अपने चतुर्विध संघ का संचालन करने लगे।
 
आचार्यश्री के जीवन की विशेषताएँ-पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं इसी सूक्ति के अनुसार आचार्यश्री का प्रारम्भिक जीवन ही उनकी महानता का दिग्दर्शन करा रहा था पुनः पारसमणि के स्पर्श से जैसे लोहा भी सोना बन जाता है उसी प्रकार आपने चारित्रचक्रवर्तीरूपी पारस के चरणों का जब स्पर्श कर लिया था तो जीवन कुन्दन ही नहीं बना प्रत्युत् गुरु के समस्त गुणों को भी अपनाकर मानो सोने में सुगंधि ही डाल दी थी।
 
यही कारण रहा कि आपके जीवन में पग-पग पर विशेषताएँ चरण चूमने लगीं। वीरसागर नाम क्यों पड़ा ?-व्याकरणशास्त्र के अनुसार वि-विशेषेण, ई-लक्ष्मी, रा-राति ददाति असौ वीरः।
 
जो अपूर्व लक्ष्मी को देता है उसे वीर कहते हैं किन्तु ये वीरसागर तो स्वयं नग्न थे तो दूसरे को लक्ष्मी कहाँ से देते? नहीं, नहीं, यह संसार की क्षणिक, विनाशीक लक्ष्मी नहीं वरन् गुरुदेव तो शिष्यों को रत्नत्रय की शाश्वत, अविनश्वर, अपूर्व लक्ष्मी प्रदान करते थे तथा जिनकी आत्मा रणक्षेत्र के बहादुर सैनिकों की भांति कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के दृढ़संकल्पपूर्वक दीक्षा के मैदान में प्रवृत्त हुई थी, वे तो काम और नाम दोनों से ही वीर नाम को सार्थक कर रहे थे।
 
वीर के साथ सागर शब्द भी जुड़ा है अतः आप सागर के समान गम्भीर, स्याद्वादवचनरूपी तरंगों से व्याप्त एवं मूलगुण एवं उत्तरगुणरूपी रत्नों से युक्त और अगाध ज्ञान के धारी होने से वीरसागर नाम से जाने जाते थे किन्तु क्या सागर जल के समान आपके वचनों में खारापन था?
 
ऐसा होता, तो सभी उन वचनों को सुनकर भाग जाते क्योंकि खारा जल कोई पीना नहीं चाहता। सागर तो मानों इन श्रीगुरु के चरणों में अपनी हार मानकर मस्तक झुकाकर कह रहा था- मैं तो नकली सागर हूँ किन्तु असली सागर तो आप ही हैं क्योंकि आप संसार सागर से लोगों को पार लगाकर मोक्ष पहुँचाते हैं किन्तु मैं तो मात्र खड़ा हिलोरे ही भर रहा हूँ।
 
वह तो बार-बार अपनी बदनसीबी पर आँसू बहाते हुए कहता है- भगवन्! सैकड़ों, हजारों टन मिश्री मेरे पेट में डाल दी जावे तो भी मेरा दुःस्वादु जल सुस्वादु अर्थात् मीठा नहीं बन पाता किन्तु आपके वचन तो स्वयमेव मिश्रीरूप ही हैं जो सारे संसार को मिष्टता प्रदान करते हैं अतः आप ही सच्चे सागर हैं, मैं तो नामधारी सागर ही रह गया।
 
ऐसे सागर की सार्थकता को पहचानने वाले वीरसागर महाराज थे। जिसने एक ही बार आपके धर्मामृत का पान किया हो तो उसकी बार-बार पीने की इच्छा होती थी। आपकी सहनशीलता अत्यन्त आश्चर्यकारी थी।
 
एक बार नागौर चातुर्मास में आपके पीठ में एक भयंकर फोड़ा हुआ जिसमें तीव्र वेदना होती थी, भयंकर ज्वर आता था परन्तु आपके मुख से कभी दुःखपूर्ण शब्द सुनने को नहीं मिला बल्कि फोड़ा पूरा पक जाने पर जब डॉक्टर को उसके आप्रेशन को बुलाया गया तब डॉक्टर तो भयभीत सा पीछे खड़ा था और महाराजश्री अपनी दैनिक क्रियाओं में संलग्न थे।
 
उस समय एक श्रावक ने महाराज का ध्यान आकर्षित करते हुए कहा-महाराज! डॉक्टर आ गए हैं, आपके फोड़े का आप्रेशन होगा। आचार्यश्री ने एक नजर से डॉक्टर को देखा और पूछा- भाई! तुम मुझे यह बता दो कि इसके आप्रेशन में कितना समय लगेगा? डॉक्टर बोला-गुरुदेव! आपके इतने बड़े फोड़े का आप्रेशन बिना बेहोशी के हो पाना असम्भव है, आप इस असह्य वेदना को सहन नहीं कर सकते। महाराज बोले-भैया! जब हम अनादिकाल से जन्म-मरण के घोर कष्ट सहन करते आ रहे हैं तो यह कष्ट कौन सा असह्य है? तुम अपना काम शुरू करो, मुझे समय बता दो।
 
डॉक्टर पूज्यश्री की दृढ़ता को भांप चुका था अतः काँपते हाथों से उसने औजार निकाले और मुनिश्री को कह दिया कि १ घण्टा तो साधारण सी बात है। वह सोच रहा था कि मेरे तीखे पैने औजार इस भयंकर दर्दनाक फोड़े पर लगते ही ये बाबा तो चीत्कार कर उठेंंगे किन्तु यह क्या! डॉक्टर १ घण्टे तक उस पीठ पर अपना कार्य करते रहे, सारा कार्य सम्पन्न हो गया। वह तपस्वी अपने चिन्तन में मग्न। कुछ क्षण डॉक्टर उस आत्मसाधक को अपलक निहारता रहा पुन: ध्यान भंग किया- मुनिवर! मैंने ऑप्रेशन कर दिया है। आचार्यश्री के चरणों में वह नतमस्तक हो गया।
 
हमारे पाठक बन्धुओं को भी आश्चर्य हो रहा होगा कि ऐसी कौन सी शक्ति आचार्यश्री के अन्दर समाविष्ट हो गई थी? आचार्यश्री ने शिष्यों के प्रश्न पर यही बताया कि मैं अपने चित्त को गोम्मटसार कर्मकाण्ड में वर्णित कर्मप्रकृतियों के चिन्तन में लगाकर सोच रहा था कि यह जीव संसार में किस प्रकार से कौन-कौन से कर्मों का बंध करता है?
 
किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का उदय, अनुदय और उदयव्युच्छित्ति है? इस गणितीय विज्ञान में दर्द का अहसास नहीं हुआ। धन्य हैं ऐसे धीरवीर महामना योगिराज! वास्तव में ऐसे ही योगी के प्रति पं. दौलतराम जी ने ये शब्द लिखे हैं- तिन सुथिर मुद्रा देख मृगगण, उपल खाज खुजावते। आपकी गुरुभक्ति विशिष्ट थी।
 
प्रत्येक प्रतिक्रमण के दिन आप अपने गुरु का स्मरण अवश्य करते और शिष्यों से कहते थे कि तुम लोग तो प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो जाते हो परन्तु मेरे गुरु मेरे समीप नहीं हैं, मैं अपनी शुद्धि कैसे करूँ? इसी प्रकार से आचार्यश्री की प्रमुख शिष्याओं में से पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी कई बार अपने गुरुदेव के संस्मरण सुनाते हुए कहा करती हैं कि- आचार्यश्री प्रायः सायंकाल के समय समस्त शिष्यों को सम्बोधित करते हुए कहते थे कि देखो!
 
तुम शिष्यगण मेरे अनुशासन में रहकर एकता के सूत्र में बंधे हो इसीलिए मेरे आचार्यपद की गरिमा है क्योंकि गुरु से शिष्यों की और शिष्यों से गुरु की शोभा रहती है। उनकी शिक्षाओं में प्रमुख शिक्षा थी- जीवन में सदैव सुई का काम करो, कैची का नहीं अर्थात् समाज एवं परिवार में रहकर संगठन के कार्य करो, विघटन के नहीं क्योंकि कैची कपड़े को काटकर टुकड़े-टुकड़े कर देती है लेकिन एक छोटी सी सुई उन टुकड़ों को भी सिलकर एक कर देती है। उसी प्रकार से कभी ऐसे कार्य मत करो जिससे संघ के टुकड़े हों, सब लोग सहनशील बनकर संगठन के धागे से बंधे रहो।
 
यही कारण था कि आचार्यश्री के जीवनकाल तक कोई भी शिष्य उन्हें छोड़कर कभी संघ से अलग नहीं हुआ। सम्यक्त्व की दृढ़ता हेतु वे कहा करते थे- तृण मत बनो, पत्थर बनो। पाश्चात्य संस्कृतिरूपी हवा के झकोरे में जो तृणवत् हल्के हैं, अस्थिर बुद्धि के हैं, वे बह जाते हैं किन्तु जो पत्थर के समान अचल हैं, जिनवाणी के दृढ़ श्रद्धालु हैं, वे अपने स्थान पर एवं सम्यक्त्व में अचल रहते हैं। वे गुरुदेव सम्यक्त्व में सदैव स्वयं भी अचल रहे हैं और अपने शिष्यों को भी आगममार्ग में अचल रखा है।
 
कभी-कभी महाराज पुत्रवत् अपने शिष्यों के मुँह से अमुक रोगों की चर्चा सुनकर हँसकर कहते कि- मुझे तो मात्र दो रोग हैं-एक तो भूख लगती है, दूसरे नींद आती है अर्थात् जिनके ये दो रोग समाप्त हो जावेंगे, वे संसारी ही नहीं रहेंगे बल्कि मुक्त कहलाएँगे अतः इन्हीं दो रोगों के नष्ट करने का उपाय करना चाहिए।
 
शिष्य परिकर के मनोरंजन हेतु श्री वीरसागर महाराज सदैव कुछ न कुछ घूँटी पिलाने का प्रयास करते हुए कहते- अपने दीक्षा दिवस को कभी मत भूलो अर्थात् दीक्षा के समय परिणामों में विशेष निर्मलता रहती है इसीलिए उस दिवस के उज्ज्वल भावों को हमेशा याद रखने वाला साधु कभी भी अपने पद से च्युत नहीं हो सकता है और उत्तरोत्तर चारित्र की वृद्धि ही होती है।
 
ऐसे अनेकों सूत्ररूप वाक्य हैं जिन्हें आचार्यश्री अपने जीवनकाल में प्रयोग करते थे। आचार्यश्री वीरसागर महाराज को मृगी का रोग था। जब उसका असर होता था, उस समय वे सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः आदि सूत्रों को उच्चस्वर से बोलते हुए उनका अर्थ करने लगते और उपदेश देने लगते थे, तब पास में बैठे हुए साधुओं को पता लग जाता था कि आचार्यश्री को इस समय दौरे का प्रकोप है।
 
कभी-कभी जोर-जोर से महामंत्र का उच्चारण करने लगते, तब यह ज्ञात हो जाता कि आचार्यश्री को मृगी का प्रकोप हो रहा है। यह उनके जीवन के संस्कारों की ही प्रबलता थी कि अवस्था में भी आचार्यश्री की धार्मिक क्रियाओं के अतिरिक्त अनर्गल चर्या नहीं होती थी। वे धवला की भिन्न-भिन्न पुस्तकों का स्वाध्याय दिन भर किया करते थे।
 
एक बार उन्होंने कहा कि इन ग्रन्थों के बहुत से विषयों को मैं समझ नहीं पाता हूँ फिर भी धवला की प्रथम पुस्तक में यह बात लिखी है कि स्वाध्याय के समय असंख्यातगुणितरूप से कर्मों की निर्जरा होती है इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैं सतत इन ग्रन्थों का स्वाध्याय करता रहता हूँ। शुद्धोपयोगरूप वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित नहीं रह सकने वाले साधुओं के लिए श्रीकुन्दकुन्ददेव ने प्रवचनसार में कहा है कि-
 
दंसणणाणुवदेसो, सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं।
चरिया हि सरागााणं, जिणिंद पूजोवदेसो य।।२४८।।
 
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का उपदेश, शिष्यों का ग्रहण तथा उनका पोषण और जिनेन्द्रदेव की पूजा का उपदेश वास्तव में सरागियों की (आचार्यों की) चर्या है। आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के अन्दर आचार्य के समस्त गुण विद्यमान थे। आपके शिष्यों की प्रत्यक्षदर्शी एक घटना है- एक बार वीरसागर महाराज का संघ सम्मेदशिखर की यात्रा करने जा रहा था। भागलपुर के रास्ते में एक जंगल में जा रहे थे, शाम हो जाने पर संघ आचार्यश्री की आज्ञानुसार एक पाठशाला में ठहर गया। भयानक जंगल था, वहाँ से गाँव दो मील दूर था।
 
गाँव के लोग कहते थे कि यहाँ चोरों का भय है परन्तु दिगम्बर साधुओं को किस बात का भय? संघ के सभी लोग वहीं ठहर गए। रात्रि में दस बजे एक सिपाही वेषधारी मानव आया। उसके हाथ में डंडा था अतः सभी ने सोचा कि पुलिस का कोई आदमी होगा। सभी लोग सो गए, प्रातः जब चार बजे सब लोग उठे, तब तक वह बैठा था। संघ में एक ब्र. चांदमल जी थे, उन्होंने कहा कि प्रातःकाल इसको कुछ पुरस्कार देंगे। सामायिक के बाद देखा तो वहाँ कोई नहीं था।
 
आसपास में उसे खोजा गया लेकिन कहीं पता नहीं लगा। अनुमानतः वह वास्तविक मानव नहीं था, महाराज के तपप्रभाव से संघ की रक्षा करने के लिए कोई मानव वेषधारी देव आया था। आचार्यश्री के समीप आते ही प्रत्येक प्राणी एक अलौकिक शाँति की अनुभूति करता था। पूज्य अचार्यश्री की मधुरवाणी, स्पष्ट भाषा, तात्त्विक विवेचन गहन तो थे ही, पर वे उनके लिए आजकल के तथाकथित तत्त्ववेत्ताओं के समान वाणीविलास की मात्र चर्चा नहीं थी।
 
वे जो कुछ कहते थे, उसे पहले अपने जीवन में उतारते थे। भगवान महावीर के पथ पर चलने वाले वे नरसिंह थे। उन्होंने आज के इस दुःषमकाल में भी शरीर और आत्मा के भेदविज्ञान को अपनी कठोर साधना द्वारा साक्षात् करके दिखाया था। अनेकों बार कठिन परीषह आने पर भी वे हिमालय की तरह अडिग थे।
 
आचार्यश्री अत्यन्त अनुभवी एवं सामाजिक गतिविधियों के पूर्ण जानकार थे। संघ संचालन के मध्य कभी-कभी समाज में तेरह-बीसपंथ की चर्चाएं भी उठती थीं, तब आप शांतिपूर्वक कहा करते थे कि ये तेरापंथी तो अधूरे हैं, सच्चे तेरापंथी तो हम मुनिगण हैं जो तेरह प्रकार का चारित्र पालन करते हैं। जब कोई विवाद उनके सामने आता था, तब वे आगम का उत्तर देकर कह देते थे कि आगे तुम्हारी तुम जानो, मैं इससे आगे अपनी बुद्धि लगाकर पाप बंध करना नहीं चाहता।
 
यह उनका शांतिपूर्ण शास्त्रीय पद्धति का उत्तर था। वे यह भी कहते थे कि भगवान के दर्शन तो उनकी शाँतमुद्रा मुखच्छवि के होते हैं और पूजा उनके चरणकमलों की होती है। श्री वीरसागर महाराज की असीम शांतमुद्रा से न केवल मनुष्य बल्कि पशु भी अपनी को छोड़कर शाँतचित्त हो जाते थे।
 
सन् १९५६ में वैशाख कृष्णा दूज के दिन माधोराजपुरा (राज.) में आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज एक विशाल पाण्डाल में पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी को आर्यिका दीक्षा प्रदान करने के पश्चात् सिंहासन पर विराजमान होकर उपदेश दे रहे थे, उसी समय एक बहुत बड़ा साँड भरी सभा में घुस आया। उसे देखकर लोगों में खलबली मच गई, सब यत्र-तत्र भागने लगे। साँड विशाल भीड़ को चीरता हुआ आचार्यश्री की ओर वेग से बढ़ता जा रहा था।
 
अब तो लोग और भी घबराए और अनिष्ट की आशंका से काँप उठे लेकिन दूसरे ही क्षण मनुष्यों को महान आश्चर्य हुआ जब उन्होंने देखा कि आचार्यश्री की तरफ वेग से बढ़ने वाला साँड दुष्ट नहीं, शिष्ट है। सांड आगे बढ़ता है और आचार्यश्री जिस तख्ते पर विराजमान थे, उस पर जाकर अपना सिर टेककर पाँच मिनट तक उसी अवस्था में खड़ा रहता है क्योंकि उस समय वृषभ के मन में आचार्यश्री के चरण-वंदन की महान भावना थी।
 
आचार्यश्री ने उसे आशीर्वाद दिया और जनता ने उसे भक्ति का प्रसाद सुस्वादु मिष्टान्न दिया। यह दृश्य देखकर जैनाजैन जनता बहुत प्रभावित हुई। यह आचार्यश्री की महान वीतरागता का स्पष्ट प्रभाव था जिनके चरणों में तिर्यंच भी आकर सहर्ष नतमस्तक होकर अपने को धन्य समझते थे। इसी प्रकार एक बार बनेठा (राज.) नगर में वेदी प्रतिष्ठा स्थानीय श्रावकों ने करवाया था। इसी शुभावसर पर आचार्यश्री को भी संघ सहित वहाँ के श्रावकगण सविनय ले गए थे।
 
गुरुदेव मंदिर जी में विराजमान थे, उसी समय एक कृष्ण सर्प आया और मंदिर में चारों तरफ घूमता हुआ बीच दरवाजे में फण फैलाकर बैठ गया। जब आचार्यश्री उस रास्ते से निकले तो सर्प फौरन ही नयन छिपाकर चला गया, यह दृश्य ३ दिन तक रहा। जब आचार्यश्री ने संघ सहित सवाईमाधोपुर चातुर्मास करके मारवाड़ में विहार किया, उस समय पानी की बहुत तंगी थी किन्तु गुरुदेव जिस गाँव में गए, पानी उसी गाँव में बरस जाता था अतः रास्ते में संघ को किसी प्रकार की तकलीफ नहीं हुई और गांव वालों ने इस वर्षा को गुरु का ही प्रसाद माना।

गुरु-शिष्य का रोमांचक मिलन


 वि. सं. १९९६ में इन्दौर के चातुर्मास के अनन्तर श्री वीरसागर महाराज ने अपने संघ सहित सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी की ओर विहार किया। मांगीतुंगी में उस समय कन्नड़ निवासी सेठ गुलाबचंद जी पहाड़े एक बिम्ब प्रतिष्ठा करवा रहे थे।
 
इसी शुभ अवसर पर चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज भी यहाँ पधारे और उनके शिष्य पूज्य वीरसागर महाराज भी संघ सहित पधारे। गुरु के दर्शन प्राप्तकर वीरसागर जी के हर्षातिरेक में अश्रु झरने लगे, यह गुरु-शिष्य के संगम का अपूर्व दृश्य था। गुरुचरणों की सेवा का पुनः सौभाग्य प्राप्तकर वीरसागर महाराज ने इस अमूल्य समय का पूर्ण सदुपयोग किया। ४ वर्षों में ही अपने शिष्य के संघवृद्धि, अनुशासन आदि गुणों को देखकर आचार्यश्री को बड़ी प्रसन्नता हुई।
 
चंद दिवसों का वह मिलन गुरु-शिष्य के मन में एक अमिट छाप छोड़ गया पुनः दोनों का यत्र-तत्र विहार हो गया। वि. सं. १९९७ का चातुर्मास पूज्य वीरसागर महाराज ने अपनी कर्मभूमि अतिशयक्षेत्र कचनेर में किया। इस चातुर्मास में पूज्य महाराजश्री के सानिध्य में पचासों मण्डल विधान के आयोजन हुए तथा अनेकों व्रती बने। चातुर्मास समाप्ति पर वहाँ के श्रावकों ने एक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराई, उस मौके पर पानी की कमी थी, मंदिर के कुँए का पानी बिल्कुल खारा था।
 
लोग चिन्तित थे कि पानी की व्यवस्था यात्रियों के लिए किस प्रकार की जाएगी किन्तु गुरुदेव के शुभाशीर्वाद से खारा पानी एकदम मीठा हो गया। यात्रियों को किसी प्रकार की तकलीफ नहीं हुई और प्रतिष्ठा महोत्सव सानंद सम्पन्न हो गया। कन्नड़ में चातुर्मास करके पूज्य आचार्यश्री को मलेरिया बुखार आना शुरू हो गया।
 
बुखार १०६ डिग्री तक रहता था लेकिन महाराज ने उसका कोई उपचार नहीं करने दिया। लगभग डेढ़ महीने तक ज्वर चलता रहा, इतना ज्वर एवं अशक्तता होने पर भी महाराज अपने दैनिक कार्यों में जरा भी प्रमाद नहीं होने देते थे, वे तो अपने आत्मचिंतन एवं शास्त्रश्रवण में ही संलग्न रहते थे। वि. सं. १९९९ में आपका चातुर्मास कारंजा नगर में हुआ। वैसे तो यह कस्बा काफी बड़ा है तथा जैनियों के ३०० घर भी हैं, विशाल तीन मंदिर तथा गाँव के बाहर विद्याध्ययनार्थ एक गुरुकुल है जिसमें विद्यार्थी पठन-पाठन करते हैं, यहाँ अध्यात्मवेत्ता बड़े-बड़े विद्वान भी रहते थे।
 
पूज्य महाराजश्री से तरह-तरह के गूढ प्रश्न भी लोग करते थे किन्तु आचार्यश्री अपने प्रखर ज्ञान से सभी के प्रश्नों का शास्त्रोक्त रीति से उत्तर देते थे। चातुर्मास के पश्चात् विहार करके महाराज संघ सहित मुक्तागिरि आ गए, जहाँ ३ महीने संघ रुका। मुक्तागिरि से जब संघ खातेगाँव को रवाना हुआ, तब ३०० मील तक कोई श्रावकों के घर नहीं थे, श्रावकों के ६-७ चौके संघ के साथ थे। उसी रास्ते में एक चौरपाठा नामक गाँव मिला।
 
वहाँ मुसलमान जाति की सुलीमा नामक एक जागीरदारिणी रहती थी, जो योग्य रीति से राज्य संचालन और प्रजा का पालन करती थी, उसकी शिक्षा बी.ए. तक थी, उम्र मात्र २५ वर्ष की थी। दुर्भाग्यवश विवाह के दूसरे वर्ष ही उसे वैधव्य का असीम दुःख सहन करना पड़ा था। गाँव के लोग एवं परिवार वालों के आग्रह पर भी उसने पुनः विवाह करने से इंकार कर दिया था।
 
गाँव में इस संघ के पहुँचने पर उसने बड़ी भक्ति से आकर आचार्यश्री के दर्शन किए, उनका अहिंंसात्मक उपदेश सुना, जिससे प्रभावित होकर आचार्यश्री के पादमूल में हिंसा करने का, माँस खाने का एवं रात्रि में भोजन करने का जीवनपर्यंत के लिए त्याग कर दिया। इतना ही नहीं, उसने अपने द्वारा शासित ३०० गाँवों में हिंंसा न करने की घोषणा करवा दी थी।
 
प्राणिमात्र को अभयदान देने वाले गुरुराज के चरणकमलों का ही प्रसाद इसे समझना चाहिए। कोटा के पास चम्बल नदी के तट पर बसा हुआ केशवरायपाटन नामक अतिशयक्षेत्र है। वहाँ पर तलघर में विराजमान भगवान आदिनाथ की अतिशययुक्त प्रतिमा के दर्शन करते हुए आचार्यश्री ने अपने संघ सहित रामगंजमण्डी में चातुर्मास किया।
 
चातुर्मास के अनन्तर विहार करके संघ राणापुर आ गया। वहाँ पर बिना वेदी के जिनबिम्ब अस्त-व्यस्त विराजमान थे, यह अविनय देखकर महाराज ने श्रावकों को सदुपदेश दिया। तब समाज ने सुन्दर वेदी का निर्माण कराकर शुभमुहूर्त में प्रतिष्ठा कराकर मूर्तियाँ विराजमान करार्इं। साधुओं के विहार से इस प्रकार के जनकल्याण के कार्य सहज ही हो जाया करते हैं क्योंकि पथभ्रष्ट अज्ञानी प्राणियों को रास्ता दिखाने वाले परमोपकारी गुरुजन ही हुआ करते हैं।
 
गाँव-गाँव, नगर-नगर में विहार करते हुए आचार्यश्री ने अनेकों स्थानों पर सदियों से चली आ रही हिंसक बलिपरम्परा को देखा, तब उन्होंने अनेक युक्तियों से पंच पापों के फल के दर्दनाक वर्णनपूर्वक अपने उपदेशों से बलिप्रथा बंद करवाई।
 
वर्तमान परम्परा के अनुसार उस समय दिगम्बर जैन साधुओं के अलग-अलग संघ नहीं थे और न उनकी कोई भिन्न-भिन्न परम्पराएँ थींं किन्तु सारे हिन्दुस्तान में आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की आदर्श परम्परा वाला आचार्य श्री वीरसागर महाराज का संघ ही कहा जाता था। सम्पूर्ण अनुशासन पट्टाधीश आचार्यश्री का ही चलता था जिसका पालन आज तक भी उस पट्ट परम्परा वाले संघ में हो रहा है।
 
आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज ने अपने चतुर्विध संघ सहित सन् १९५७ का चातुर्मास जयपुर-खानिया में किया। उस चातुर्मास के मध्य आपका शारीरिक स्वास्थ्य अत्यन्त क्षीण होने लगा और आश्विन कृष्णा अमावस्या के दिन महामंत्र का स्मरण करते हुए पद्मासनपूर्वक ध्यानस्थ मुद्रा में नश्वर शरीर का त्याग कर दिया।
 
आज आचार्यश्री का भौतिक शरीर हमारे बीच में नहीं है किन्तु उनकी अमूल्य शिक्षाएँ विद्यमान हैं। उन पर अमल करते हुए हमें अपने जीवन को समुन्नत बनाना चाहिए क्योंकि ऐसे महापुरुषों के जीवन पर ही निम्न सूक्ति साकार होती है-
 
मूरत से कीरत बड़ी, बिना पंख उड़ जाय।
मूरत तो जाती रही, कीरत कभी न जाय।।
 
 
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