चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की परम्परा में आचार्य परम्परा के साथ बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी की सर्वप्राचीन दीक्षित, दीक्र्षकालिक तपस्विनी आर्यिका, गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का नाम भी ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ स्थान पर लिया जाता है। सन् १९५५ में चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज से साक्षात् दीक्षा के लिए निवेदन करने के उपरांत उनके द्वारा निर्दिष्ट प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से सन् १९५६ में आर्यिका दीक्षा ग्रहण करके ‘‘ज्ञानमती माताजी’’ नाम प्राप्त किया। वर्तमान में आप चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के ३ बार दर्शन करने वाली एकमात्र साध्वी हैं। आपने आचार्य महाराज से आगम परम्परा के समस्त सिद्धान्तों को साक्षात् सुनकर व सीखकर बीसवीं और इक्कीसवीं शताब्दी में इस परम्परा का कुशल अनुपालन किया और जनमानस में भी जैन आगम सिद्धान्तों के अनुरूप बीसपंथ परम्परा, महिलाओं द्वारा भगवान का अभिषेक, हरे फल-पूâल, नैवेद्य, दीप, धूप आदि सामग्री से पूजन-विधान आदि आचार्य महाराज द्वारा स्वयं मान्य की गई समस्त परम्पराओं का दृढ़ता के साथ उपदेश दिया। इस प्रकार आप इस परम्परा की एक महान साध्वी हैं, जिनकी प्रेरणा से तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमियों का विकास, स्वत: लेखनी से प्रसूत चारों अनुयोगों पर आधारित ४०० से अधिक ग्रंथ, ऋषभगिरि-मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र पर विश्व की सबसे बड़ी १०८ पुâट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव प्रतिमा का निर्माण तथा देश के शीर्षस्थ नेताओं में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री व राज्य मंत्री आदि के सान्निध्य में सैकड़ों राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर के आयोजन सम्पन्न हुए हैं। आप इस परम्परा की ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ आर्यिका हैं, जिनकी प्रेरणा, सदुपदेश व अध्यापन से अनेकानेक शिष्य-शिष्याओं ने मोक्षमार्ग में प्रवेश करके अपने जीवन को सफल किया है और कई शिष्यों ने तो मुनि, उपाध्याय और आचार्य जैसे पदों पर भी शोभायमान होकर जैनधर्म की गरिमा को वृद्धिंगत किया है।