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आत्मा को परमात्मा बनाती है सोलहकारण भावनाएँ

August 14, 2017Books, स्वाध्याय करेंHarsh Jain

आत्मा को परमात्मा बनाती है सोलहकारण भावनाएँ



जैन धर्म में आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए आचार्यों,उपाध्यायों एवं मुनियों ने तीर्थंकरों की वाणी का गूढ़ अध्ययन, मनन एवं चिन्तन करके प्रत्येक आत्मा को परमात्मा बनाने की सरलतम विधि बताई है। जिसे शुद्ध मन से जीवन में उतारने पर आपमें जन्म जन्मान्तर से जमी कालिमा को पूर्ण रूप से साफ किया जा सकता है। जैसे; गंदे कपड़ों को डिटरजेन्ट पाउडर के साथ धोने से साफ, सुन्दर चमकदार बनाया जाता है। उसी प्रकार सोलह कारण भावना को हृदयंगम करने से भव—भव से संचित कर्मों की निर्जरा ऐसे हो जाती है जैसे हार शृंगार के फूल ऊषाकाल में स्वयं गिर जाते हैं।

सोलह कारण गुण करे, हरे चतुर्गती वास।
पाप पुण्य सब नाश के, ज्ञान भानु परकाश।।

सोलह कारण पर्व वर्ष में तीन बार — माघ, चैत्र व भादो में आता है। परन्तु कर्म निर्जरा करने के लिए कोई समय निश्चित नहीं है। जब भी जिस प्राणी के भाव जागृत हो जाएं तभी सोलह कारण भावना भा कर आत्मा को परमात्मा बनाने की प्रक्रिया प्रारम्भ की जा सकती है। यह भावना गुड़ की भाँति है। गुड़ जब भी खाया जाए मिठास ही देता है।
परम पूज्य श्वेत पिच्छीधारी सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्य श्री विद्यानंद जी मुनिराज का कहना है कि शुद्ध मन से मुनि महाराजों के सान्निध्य में जीवन में एक बार भी सोलह भावना भावना भा ले तो निकट आठ भवों में ही मोक्ष लक्ष्मी का वरण किया जा सकता है। गूढ़ श्रद्धा एवं अटूट विश्वास अनिवार्य है। सोलह भावनाओं के सोलह मंत्र हृदय में उतर जायें तो जीवनपर्यन्त इनका आनन्द आता रहेगा। संसार के भौतिक पदार्थों में यदि सुख होता तो तीर्थंकर राजपाट का त्याग नहीं करते, उनके पास तो अथाह वैभव था। सच्चे शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए सोलह कारण भावना भाकर पाँच महाव्रत धारण कर घोर तप कर पूर्ण आठों कर्मों का क्षय करके तीर्थंकरों ने मोक्ष लक्ष्मी का वरण कर सच्चे शाश्वत सुख की प्राप्ति की।

विशुद्ध भाव से दर्शन विशुद्धि भावना धारण करने से संसार में आवागमन नहीं होता। जो व्यक्ति विनय भाव धारण कर लेता है, मोक्ष लक्ष्मी उसकी सहचरी बन जाती है। शील व्रत धारण करने वाला व्यक्ति दूसरों की आपदा टालने में सक्षम होता है। ज्ञान के अभ्यार्थी को स्वप्न में भी मोह—माया का भय नहीं रहता। जिसके मन में एक बार वैराग्य झलक जाए, उसको शारीरिक भोगों की इच्छा नहीं रहती। उसके हृदय में ज्ञान की ज्योति प्रज्ज्वलित हो जाती है। जो व्यक्ति अपनी शक्ति के अनुसार दान देकर हर्षित होते हैं, वह इस भव और परभव में सुखों का भोग करते हैं। शक्ति अनुसार तप तपने से आत्मा तप के प्रभाव से निर्विकार स्वच्छ हो जाती है। उनके सभी कर्मों की निर्जरा हो जाती है। शिव सुख की प्राप्ति हेतु मुनिगण समाधि लगाते हैं। उन साधुओं की संगति सत्संग करने से आत्मा कालिमारहित हो जाती है। वे महामानव मोक्ष के सुखों को प्राप्त कर लेते हैं।

ग्लानिरहित श्रद्धेय भावों से पूज्य पुरुषों की सेवा एवं उनके रत्नत्रय वृद्धि में कारणभूत वातावरण बनाना वैय्यावृत्य भावना है। यह संसार सागर से पार उतारने वाली सुदृढ़ नौका है। जो अरिहंतों की भक्ति में लीन रहते हैं, उनकी भक्ति से उत्पन्न पुण्य उनके सारे भवों के दुखों का विनाश कर देते हैंं उन्हें विषय — कषाय छू भी नहीं सकते। इसी प्रकार जो आचार्यों की भक्ति करते हैं, उनके आचार—विचार निर्मल व पवित्र हो जाते हैं, क्योंकि पूज्याचार्यों के तप से पवित्र परमाणु उनके कर्मों को परिवर्तन करने की क्षमता रखते हैं।
बहुश्रुत अर्थात् विशिष्ट ज्ञानी पाठक, उपाध्याय की भक्ति, भक्तिकर्ता को उनके वास्तविक आत्मस्वरूप का बोध कराने में सफल एवं प्रबल कारण है, क्योंकि बहुश्रुत साधु वीतरागी जिनेन्द्र भगवान के मुख—मण्डल से निकली वाणी का अक्षरश: पालन करते हुए अपनी पवित्रचर्या से सभी को पर—पदार्थों से विभक्त आत्मा का उपदेश देकर उनकी आसक्ति छुड़ाते हैं। जिनेन्द्र वाणी की भक्ति प्रवचन भक्ति कहलाती है, जिसका श्रवणकर्ता इस दिव्य महौषधि का पान कर परमानन्द दशा को प्राप्त होता है। आवश्यक परिहाणी भक्ति द्वारा साधुजन षट् आवश्यक कर्म अर्थात् वन्दना, स्तवन, समता, सामायिक, प्रतिक्रमण,प्रत्याख्यान् द्वारा रत्नत्रय की आराधना करके समाधि की अवस्था को प्राप्त होते हैं।

धर्म की प्रभावना सबसे बड़ा कर्तव्य है। इसके द्वारा व्यक्ति स्वयं प्रभावना को प्राप्त होता है अर्थात् जगत विख्यात् होता है तथा परलोक के मार्ग को अच्छी तरह जान लेता है और अंत में वात्सल्य भावना का अनुपालन करने वाला ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सूत्र को आचरण का अंग बनाता हुआ प्राणीमात्र से मैत्री भावना रखता है जिससे उसे तीर्थंकर जैसे महान् प्रभावकारी तीन लोक को आनन्द प्रदान कराने वाली, तीर्थंकर जैसी महान् सर्वोत्कृष्ट पद प्राप्त कराती है।
इस प्रकार सोलह कारण भावना का पालन कर्ता को उभय लोक में समृद्धि, शांति प्रदान कर परमात्म पद प्रदान कराती है।

सुन्दर षोडश कारण—भावना, निर्मल—चित्त सुधारक धारे।
कर्म अनेक हने अतिदुर्धर, जन्म—जरा—भय—मृत्यु निवारे।।
दु:ख दरिद्र—विपत्ति हरे, भवसागर को पर पार उतारे।
ज्ञान कहे यही षोडशकारण, कर्म निवारण, सिद्ध सुधारे।।

मदन सेन जैन
दि. जैन महासमिति पत्रिका अक्टूबर २०१४
Tags: Solahkaran Bhavna
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