(गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से आर्यिका चन्दनामती माताजी द्वारा समय-समय पर किये गये कतिपय विषयों पर शंका-समाधान यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं। इनका सूक्ष्मता से अवलोकन करने पर श्रद्धालु पाठकों को अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त होगा)
विषय-‘‘विद्यमान बीस तीर्थंकर कहाँ-कहाँ?
चन्दनामती माताजी-पूज्य माताजी! वन्दामि, मैं आपसे बीस विद्यमान तीर्थंकरों के बारे में कुछ प्रश्न पूछना चाहती हूँ। जनसामान्य के ज्ञान हेतु उत्तर देने की कृपा करें।
श्री ज्ञानमती माताजी-विषय तो बहुत अच्छा है, पूछो।
चन्दनामती-मंदिरों में प्राय: प्रतिदिन पूजा करने वाले स्त्री-पुरुष बीस तीर्थंकरों की पूजा करते अथवा अघ्र्य चढ़ाते देखे जाते हैं। ये तीर्थंकर आज इस पृथ्वीतल पर तो दिखते नहीं हैं फिर भी इनके साथ ‘‘विद्यमान’’ शब्द क्यों लगा रहता है?
श्री ज्ञानमती माताजी-इस भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में इस समय पंचमकाल चल रहा है अत: वर्तमान में यहाँ कोई तीर्थंकर नहीं हैं किन्तु विदेहक्षेत्रों में सदैव चतुर्थकाल ही रहता है, वहाँ तीर्थंकर हमेशा विद्यमान रहते हैं इसीलिए विद्यमान बीस तीर्थंकरों की पूजा की जाती है। आज भी विदेहक्षेत्र में तीर्थंकर हो रहे हैं।
चन्दनामती-उन तीर्थंकरों की संख्या बीस ही निश्चित क्यों है? या तो भरतक्षेत्र के तीर्थंकरों के समान २४ होनी चाहिए अथवा ३२ विदेह क्षेत्रों के हिसाब से ३२ होनी चाहिए?
श्री ज्ञानमती माताजी-भरतक्षेत्र और विदेहक्षेत्र की सभी व्यवस्थाओं में समानता नहीं है। भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन होता है अत: वहाँ मात्र चतुर्थकाल में हमेशा २४ तीर्थंकर होते हैं। वहाँ की यह संख्या निश्चित है इसलिए भूतकाल में वहाँ अनन्त चौबीसी तो हो चुकी हैं आगे भी अनन्तों चैबीसी होती रहेंगी। विदेह क्षेत्र में ऐसा कोई क्रम नहीं है। वहाँ की व्यवस्था मैं बतलाती हूँ कि बीस तीर्थंकर कहाँ-कहाँ रहते हैं- ढाई द्वीप के पाँच मेरु संबंधी पाँच महाविदेहों में ये बीस तीर्थंकर सतत विहार करते रहते हैं अत: इन्हें ‘‘विहरमाण बीस तीर्थंकर’’ भी कहते हैं।
चन्दनामती-तो क्या इन तीर्थंकरों की आयु कभी समाप्त ही नहीं होेती है अथवा उन्हीं के स्थान पर उसी नाम वाले दूसरे तीर्थंकर हुआ करते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी-आयु तो सभी जीवों की एक न एक दिन समाप्त होती ही है विदेह क्षेत्र में उत्कृष्ट आयु एक कोटि वर्ष पूर्व की है। अत: वे तीर्थंकर भी अपनी आयु पूरी करके जब मोक्ष चले जाते हैं तब वहीं विदेह क्षेत्र में दूसरे तीर्थंकर का जन्म होता है। हाँ, नाम वे ही होने से यही अनुमान लगता है कि इन तीर्थंकरों के जो नाम निश्चित हैं वे ही हमेशा रहते हैं इस विषय में कोई विशेष खुलासा नहीं मिलता है।
चन्दनामती-आपने बताया कि पाँच महाविदेहों में ये बीसों तीर्थंकर होते हैं, सो इनका क्रम किस प्रकार है?
श्री ज्ञानमती माताजी-प्रत्येक विदेह क्षेत्रों में भी भरतक्षेत्र के समान ६-६ खण्ड होते हैं। उनमें भी आर्यखण्डों में ही तीर्थंकरों का जन्म होता है। सर्वप्रथम जम्बूद्वीप में ही सुमेरुपर्वत के पूर्व पश्चिम में सीता-सीतोदा नदी के द्वारा विदेह क्षेत्र के ४ भेद हो जाते हैं। उनमें से पूर्व विदेह में सीता नदी के उत्तर तट पर ‘‘पुुंडरीकिणी’’ नगरी में ‘‘सीमन्धर’’ नाम के तीर्थंकर हैं एवं दक्षिण तट पर विजया नगरी में ‘युगमन्धर’ तीर्थंकर हैं। इसी प्रकार पश्चिम विदेह में सीतोदा नदी के उत्तर तट की अयोध्या नगरी में ‘बाहु’ जिनेन्द्र हैं तथा दक्षिण तट पर स्थित सुसीमा नाम की नगरी में ‘सुबाहु’ तीर्थंकर का समवसरण है। ये जम्बूद्वीप संबंधी ४ तीर्थंकर हुए इसी प्रकार पूर्वधातकी खण्ड के विजय मेरु संबंधी चार तीर्थंकर हैं जिनकी नगरी और तीर्थंकर के नाम इस प्रकार हैं- विजय मेरु के पूर्व में सीता नदी के उत्तर तट पर ‘‘अलकापुरी’’ नगरी में ‘संजातक’ तीर्थंकर हैं, दक्षिण तट पर विजया नगरी में ‘‘स्वयंप्रभ’’ तीर्थंकर हैं। विजयमेरु के पश्चिम विदेह में सीतोदा नदी के दक्षिण तट पर सुसीमा नगरी में ‘‘ऋषभानन’’ तीर्थंकर तथा उत्तर तट पर ‘अयोध्या’ नगरी में ‘अनन्तवीर्य’ तीर्थंकर विराजमान हैं। पश्चिमधातकी खण्डद्वीप के अचलमेरु संबंधी चार तीर्थंकरों के नगर और तीर्थंकर के नाम निम्न प्रकार हैं- सीता नदी के उत्तर तट पर विजयानगरी में ‘सूरिप्रभ’ तीर्थंकर एवं दक्षिण तट की ‘‘पुंंडरीकिणी’’ नगरी में ‘विशालकीर्ति’ जिनेन्द्र का समवसरण है। सीतोदा नदी के दक्षिण तट पर ‘सुसीमा’ नगरी में ‘‘श्रीवङ्काधर’’ तीर्थंकर तथा उत्तरतट की ‘पुंडरीकिणी’ नगरी में ‘‘चन्द्रानन’’ भगवान विराजमान हैैं। इसी प्रकार आगे पूर्व पुष्करार्ध द्वीप में मन्दरमेरु संबंधी ४ तीर्थंकर एवं दक्षिण तट की विजया ‘नगरी में ‘‘भुजंगम’’ तीर्थंकर का सतत विहार हो रहा है। सीतोदा नदी के दक्षिण तट की ‘‘सुसीमा’’ नगरी में ‘‘ईश्वर’’ जिनेन्द्र तथा उत्तर तट पर ‘अयोध्या’ नगरी में ‘‘नेमीप्रभु’’ तीर्थंकर हैं। पश्चिम पुष्करार्धद्वीप में विद्युन्माली मेरु संबंधी ४ तीर्थंकर हैं- पश्चिम पुष्कर के पूर्व विदेह में सीता नदी के उत्तर तट पर ‘‘पुण्डरीकिणी’’ नगरी में ‘वीरसेन’’ तथा दक्षिण तट पर ‘‘विजया’’ नगरी में ‘‘महाभद्र’’ तीर्थंकर हैं। पश्चिम पुष्कर के पश्चिम विदेह में सीतोदा नदी के दक्षिण तट पर ‘‘सुसीमा नगरी’’ में ‘‘देवयश’’ तीर्थंकर तथा उत्तर तट पर ‘‘अयोध्या’’ नामक नगरी में ‘‘अजितवीर्य’’ तीर्थंकर समवसरण सहित विराजमान हैं। इस प्रकार पाँच मेरु संबंधी इन बीस तीर्थंकरों का क्रम मैंने बतलाया है। कम से कम इतने तीर्थंकर तो विदेहक्षेत्रों में सतत रहते ही हैं तथा अधिक से अधिक यदि एक साथ होवें तो ३२ विदेहों की प्रत्येक नगरियों में १-१ तीर्थंकर हो सकते हैं तब पाँचों मेरु संबंधी ३२-३२ विदेहों में ३२²५·१६० तीर्थंकर एक साथ विदेहक्षेत्रों में रह सकते हैं।
चन्दनामती-जैसे हमारे भरतक्षेत्र के तीर्थंकरों की पहचान के लिए चिन्ह होते हैं क्या वहाँ के तीर्थंकरों के भी उसी प्रकार चिन्ह होते हैं अथवा नहीं?
श्री ज्ञानमती माताजी-हाँ, चिन्ह तो वहाँ भी होते हैं। बिना चिन्ह के तीर्थंकर की पहचान वैâसे हो सकती है। मैंने उन तीर्थंकरों की जन्म नगरियों के नाम तो बताए ही हैं अब उनके चिन्ह और माता-पिता के नाम और बताती हूँ- तीर्थंकर नाम चिन्ह माता का नाम पिता का नाम
१. सीमंधर बैल सती श्रेयांस
२. युगमंधर हाथी सुतारा दृढ़रथ
३. श्रीबाहु हिरण
४. सुबाहु बन्दर
५. संजातक सूर्य देवसेना देवसेन
६. स्वयंप्रभ चन्द्रमा सुमंगला मित्रभूति
७. ऋषभानन सिंह वीरसेना नृपकीर्ति
८. अनन्तवीर्य हाथी सुमंगला मेघरथ
९. सूरिप्रभ सूर्य भद्रा नागराज
१०. विशालकीर्ति चन्द्रमा विजया विजय
११. वङ्काधर शंख सरस्वती पद्मरथ
१२. चन्द्रानन बैल
१३. चन्द्रबाहु कमल रेणुका देवनन्दि
१४. भुजंगम चन्द्रमा जिनमती महाबल
१५. ईश्वर सूर्य ज्वाला गलसेन
१६. नेमीप्रभ बैल
१७. वीरसेन ऐरावत हाथी भानुमती भूपाल
१८. महाभद्र चन्द्रमा उमा देवराज
१९. देवयश स्वस्तिक गंगा देवी श्रीभूति
२०. अजितवीर्य कमल कनकमाला सुबोध
चन्दनामती-पूज्य माताजी! आज विहरमाण बीस तीर्थंकरों के विषय में आपसे पर्याप्त ज्ञान प्राप्त हुआ है। हमारे पाठकों को भी इस चर्चा से ज्ञान प्राप्त होगा। क्योंकि आज बहुत से लोगों को मैंने यह पूछते देखा है कि पूजा तो हम रोज विद्यमान बीस तीर्थंकरों की करते हैं किन्तु यह पता नहीं है कि ये होते कहाँ हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी-पूजन का अभिप्राय आदि समझते हुए पूजा करने से पुण्य अधिक मिलता है तथा स्वाध्याय का लाभ भी प्राप्त होता है। मैं तो यही चाहती हूँ कि आगम के अनेक छोटे-बड़े विषयों का ज्ञान जनसामान्य को प्राप्त होता रहे। इसके लिए मुझे यदि परिश्रम भी करना पड़ता है तो मन को बड़ा संतोष मिलता है।
चन्दनामती-आपकी इस उदार भावना के लिए मैं किन शब्दों में आपके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करूँ समझ में नहीं आता है। शायद आपके गुरुदेव आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज ने इसीलिए आपका ‘ज्ञानमती’ नाम सार्थक ही रखा है। आपके श्रीचरणों में पुन: नमन करते हुए मैं आज के विषय को यहीं सम्पन्न करती हूँ।
नोट-(पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित बीस तीर्थंकर विधान में से तीर्थंकरों के चिन्ह, माता -पिता और नगरी के नाम लिए गए हैं। इसमें बाहु, सुबाहु, चन्द्रानन एवं नेमीप्रभु इन ४ तीर्थंकरों के माता-पिता के नाम नहीं मिल पाए हैं। यदि किन्हीं स्वाध्यायी महानुभावों को उनके नाम कहीं किसी ग्रंथ में प्राप्त हों, तो हमें सूचित करें।)
मती-आज आपसे चर्चा करने में यह निष्कर्ष निकला कि पूजा के प्रारंभ में स्थापना करना अति आवश्यक है क्योंकि आगम का विधान है।
श्री ज्ञानमती माताजी-हाँ, यह तो मैंने जो कुछ भी बताया है श्रावकाचारों के आधार से ही है, मेरे मन का कुछ नहीं है। आह्वानन, स्थापन और सन्निधीकरण करने की भी अपनी एक विधि होती है, उसे उमास्वामी श्रावकाचार में देखना चाहिए, जहाँ पूजन संबंधी अन्य और भी निर्देश आचार्यश्री ने दिये हैं।
चन्दनामती-वंदामि माताजी! इस विषय को मैं यही विराम देती हूँ। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपके द्वारा प्रतिपादित पूजन पद्धति के विषय से श्रावक-श्राविकाएं अवश्य लाभ प्राप्त करेंगे। पुन: पुन: आपके श्रीचरणों में वंदामि।