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उत्तम संयम धर्म!

September 9, 2018पर्वHarsh Jain

उत्तम संयम धर्म

 (गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के प्रवचनांश……..)

आचार्य कहते हैं कि प्रथम तो इस संसाररूपी गहनवन में भ्रमण करते हुए प्राणियों का मनुष्य होना ही अत्यन्त कठिन है, कदाचित् पुण्ययोग से मनुष्य जन्म मिल जावे, तो उत्तम जाति मिलना बहुत मुश्किल है, यदि उत्तम जाति भी मिल जावे तो अर्हंत भगवान के वचनों का सुनना अत्यन्त दुर्लभ है, यदि उसे सुनने का सौभाग्य भी प्राप्त हो जावे तो संसार में अधिक जीवन नहीं मिलता, अधिक जीवन मिल जावे तो सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति कठिन है, यदि किसी पुण्य से वह भी मिल जावे तो उस संयम धर्म के बिना वे स्वर्ग तथा मोक्ष फल को देने वाले नहीं हो सकते, इसलिए सबकी अपेक्षा संयम अति प्रशंसनीय है अत: ऐसे संयम की संयमियों को अवश्य रक्षा करना चाहिए। गृहस्थ त्रसहिंसा का त्याग करके एकदेश संयम पालन करता है। संयम के प्राणी संयम और इंद्रिय संयम की अपेक्षा दो भेद हैं। पाँच स्थावर और त्रस ऐसे षट्काय जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है और पाँच इन्द्रिय तथा मन का जय करना इंद्रिय संयम है। इस प्रकार से वह संयम पूर्णतया मुनियों के ही होता है विंâतु गृहस्थ भी एक देश रूप से संयम का पालन करते हैं चूँकि उनकी छह आवश्यक क्रियाओं में संयम भी एक क्रिया है। कुछ न कुछ नियम का लेना एक संयम है। गृहस्थाश्रम में रहते हुये भी प्रत्येक कार्य को सावधानीपूर्वक करना संयम है। सावधानीपूर्वक चलना, फिरना, उठना बैठना भी संयम है। इस प्रकार संयम का महत्त्व समझकर संयम धर्म को धारण करना चाहिए। समय आरे के समान आयु के क्षणों को काटता चला जा रहा है अतः जल्दी करना चाहिए।

Tags: Daslakshan Pravchan
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