प्रत्येक संसारी प्राणी कर्म शृंखला से बद्ध है। जीवों की जितनी भी क्रियायें एवं अवस्थायें हैं उनका कारण कर्म ही है। इन कर्मों का सम्बन्ध जीव के साथ कब से है और क्यों है ? इसका उत्तर यही है—अनादि काल से, जैसे—बीज और वृक्ष के सम्बन्ध में उसकी आदिमान् अवस्था को कोई नहीं बता सकता कि बीज कब हुआ पश्चात् कब उसका वृक्ष उत्पन्न हुआ, इनका सम्बन्ध अनादि है, अथवा जैसे—खान से निकले हुये स्वर्णपाषाण में स्वर्ण के साथ किट्ट कालिमा का सम्बन्ध सादि नहीं है, उसी प्रकार जीव के साथ कर्मों का सम्बन्ध सादि नहीं है, अनादि है।
कोई ऐसा मानते हैं कि जीव पहले शुद्ध था पीछे कर्म उसके साथ लगे, इस भ्रान्ति को दूर करने के लिये, सोने में मैल की तरह आत्मा और कर्म का सम्बन्ध बतलाया गया है। उन कर्मों का सम्बन्ध कराने वाले कोई ईश्वरादि विधाता नहीं हैं, जीव अपने कर्मों के अनुरूप स्वयं ही अपनी सृष्टि का निर्माता है। कर्म के, मूल में द्रव्यकर्म, भावकर्म रूप से दो भेद तथा ज्ञानावरणादि रूप से ८ भेद हैं उत्तर भेद १४८ या असंख्यात लोक प्रमाण भी है। इनमें निर्माण नामा नामकर्म का शरीर की रचना करने में मुख्य हाथ है। किस स्थान में क्या रचना करना, यह सब काम निर्माण कर्म का है। यह निर्माण नामा नामकर्म ही विधाता है, अन्य ईश्वरादि नहीं। हमारे ऊपर किसी भी प्रकार का संकट आता है तो हम भगवान् को कोसने लगते हैं कि भगवान ने हमारा ऐसा बुरा किया परन्तु यह बहुत भारी भूल है। भगवान् किसी का अच्छा अथवा बुरा नहीं करते उनको किसी के प्रति प्रेम अथवा द्वेष नहीं है। हमारे किये हुये अच्छे या बुरे कर्म ही हमको सुखी या दु:खी बनाते हैं। संसार अवस्था में प्रतिक्षण सभी जीव कर्मों को तथा नोकर्मों को ग्रहण करते हैं। किस प्रकार से ? इसके विषय में कर्मकांड में गाथा नम्बर ३ में कहा है—
देहोदयेण सहिओ जीवो आहरदि कम्मणोकम्मं।
पडिसमयं सव्वंगं तत्तायसिंपडओव्व जलम्।।
शरीरनामा नाम कर्म के उदय से जड़ कर्म परमाणु आत्मा के सम्पूर्ण प्रदेशों में एक साथ िंखचकर उसी तरह प्रवेश करते हैं। जिस तरह कि गर्म लोहे का गोला जल में डुबा दिये जाने पर चारों ओर से शीतल जल के परमाणुओं को अपनी ओर खींचता है। इसी प्रकार अनादि काल से परिणामों में कषाय की अधिकता तथा मंदता होने पर आत्मा के प्रदेश जब अधिक वा कम सकंप होते हैं तब कर्मपरमाणु भी ज्यादा अथवा कम बँधते हैं जैसे—चिकनी दीवाल पर धूलि अधिक लगती है और कम पर कम। आत्मा और जड़ कर्मों का एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध है। उस कर्म के उदय से उसके फल को जीव प्रतिक्षण अनुभव करता है। मूल में कर्म आठ हैं परन्तु उन सबका सम्राट मोहनीय कर्म है। सब प्राणी इससे बुरी तरह घबड़ाये हैं। यह कर्म किसी को भी सुख से जीवन नहीं बिताने देता। ‘यथा नाम तथा गुण’ के धारक इस कर्म ने सभी के ऊपर मोहनीचूर्ण डालकर सबको मोहित कर दिया है, इस कारण जीव अनेक प्रकार की चेष्टायें करते हैं। जिस प्रकार आत्मा में वैभाविक शक्ति है उसी प्रकार इन पौद्गलिक कर्मों में भी है तभी तो चेतन की शक्ति को दबा दिया है। जैसे—राजा के मरने के बाद उसकी सेना की शक्ति नष्ट हो जाती है और वह इधर—उधर भाग जाती है उसी प्रकार यह मोह राजा जब नष्ट होता है तब बाकी कर्मों को नाश होने में देर नहीं लगती। यही कारण है कि योगिराज सर्वप्रथम इस मोह का नाश करने के लिये सामग्री जुटाते हैं और इसको समूल नष्ट करते हैं। जिस प्रकार जली हुई जेवड़ी कुछ भी कार्य नहीं कर सकती उसी प्रकार अन्य कर्म इस जीव का अधिक रूप में बिगाड़ नहीं कर सकते। वे तो धीरे—धीरे स्वयं नाश को प्राप्त हो जाते हैं। जब तक कर्मो का तीव्र उदय रहता है मनुष्य का पुरुषार्थ उतने समय कुछ भी कार्यकारी नहीं होता है। ऐसा समझकर अपने पौरुष को दबाना नहीं चाहिये क्योंकि वही पुरुषार्थ आगे जाकर काम में आता है। ये कर्म शुभ तथा अशुभ रूप से दो प्रकार के हैं। इनको उत्पन्न करने वाला वेदनीय कर्म है। जिसका वेदन प्रत्येक संसारी जीव सुखरूप या दु:ख रूप से करते हैं ये दोनों ही संसार के कारण हैं। शुभकर्म सोने की बेड़ी के सदृश हैं तथा अशुभ कर्म लोहे की बेड़ी के समान है। जैसे—सोने अथवा लोहे की बेड़ी मनुष्य को बांधती है उसी प्रकार शुभ—अशुभ कर्म जीव को बांधते हैं परन्तु अशुभ की अपेक्षा शुभ कर्म जीव के कल्याण मार्ग में सहायक हैं, शुभ अवस्था से शुद्ध अवस्था की प्राप्ति है अशुद्ध से नहीं, शुभ परिणाम ही आत्मा में निर्मलता लाते हैं।
जिस प्रकार मनुष्य भोजन करता है उसके बाद आहार उदर में जाकर सप्त धातु और उपधातु रूप से परिणत होता है, उसी प्रकार जीव, परिणामों के अनुसार पुद्गलवर्गणाओं को ग्रहण करता है। पश्चात् वे वर्गणाएँ आठ कर्मरूप से परिणत हो जाती हैं। उनका विभाजन विधिवत् होता है। यदि आयु बँध गई है तो उसमें से सबसे थोड़ा हिस्सा आयु कर्म को मिलता है, उससे ज्यादा नाम, गोत्र को परन्तु इन दोनों का हिस्सा आपस में समान है, उससे ज्यादा अंतराय, दर्शनावरणी, ज्ञानावरण को मिलता है, इनका भी हिस्सा आपस में समान है। इससे अधिक मोहनीय कर्म को मिलता है और सबसे अधिक वेदनीय को मिलता है क्योंकि सभी जीव हर समय सुख या दु:ख का अनुभव करते हैं इसलिये इसकी निर्जरा अधिक होती है। अत: सबसे ज्यादा द्रव्य वेदनीय को मिलता है।
घातिया कर्मों में फल देने की शक्ति लता, काष्ठ, हड्डी और पत्थर के समान है अर्थात् इनमें उत्तरोत्तर जैसी—जैसी कठोरता है, वैसे—वैसे ही फल कठोर हैं, इनमें देशघाति और सर्वघाति ऐसे दो भेद हैं, लता से लेकर काष्ठ के अनन्तवें भाग तक के शक्ति रूप स्पर्धक देशघाति के हैं। और शेष बहु भाग से लेकर शैल तक के सर्वघाति के हैं। अघातिया कर्मों में भी प्रशस्त और अप्रशस्त दो भेद हैं प्रशस्त कर्मों का फल गुड़, खाँड, मिश्री, अमृत इस प्रकार से है, तथा अप्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग नीम, कांजी, विष, हलाहल रूप से है। अर्थात् सांसारिक सुख—दु:ख के कारण दोनों ही पुण्य—पाप कर्मों की शक्तियों को चार—चार तरह तरतमरूप से समझना चाहिये। इस प्रकार से अतिसंक्षेप से कर्मों की व्यवस्था बतलाई।
कर्मवाद ही यह बतलाता है कि प्राणीमात्र स्वकृत कर्म के अनुसार उसके फल का भोक्ता है। जीव को अपने किये कर्म का रस चखना ही पड़ेगा। कोई चाहे कि हम सबको समान बना दें, सम्पत्तिशाली कर दें, ऊँच—नीच का भेद मिटा दें, कोई भी राजा या रज्र् न रहे, परन्तु इस प्रकार की तर्कणा से कोई कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती, यदि ऐसा हो जावे तो सब जीव स्वच्छन्द बनकर मन चाहे पापों में प्रवृत्ति करेंगे उनके मन से सभी प्रकार का संकोच, लज्जा, लोकापवाद, पापभीरुता आदि दोष पलायमान हो जायेंगे, क्योंकि उनको अपने कर्म का फल जो सुख—दु:ख है वह तो भोगना नहीं है परन्तु यह सब प्रकार की धारणा एवं मंतव्य कर्मसिद्धान्त के विरुद्ध हैं, तथा कर्मसिद्धान्त को माने बिना बड़ी भारी गड़बड़ी पैâल जायेगी न तो कोई संसार से छूटने का प्रयत्न करेगा न मुक्ति की अभिलाषा करेगा क्योंकि जो अपने को बँधा हुआ अनुभव करेगा वही छूटने का प्रयत्न करेगा।
हमारी यह भावना होनी चाहिए कि संसार के सभी जीव सुखी हों तथा शीघ्र ही संसार के आवर्तों से निकल कर अविनाशी स्थान पर पहुँच जावें। इस प्रकार परोपकार की तथा सभी जीवों के उद्धार की भावना होना आवश्यक है क्योंकि ऐसी भावना जब उत्कट रूप से होती है तभी जीव तीर्थंकर पदवी को प्राप्त करने में समर्थ हो सकते हैं। परन्तु हम यदि चाहें कि संसार अवस्था में सबको एक समान बनादें, कोई भी हीनाधिक न रहे, इस कर्म के फल को मिटाने में तो साक्षात् भगवान् भी समर्थ नहीं हैं। हाँ ! जीवत्व की दृष्टि से तो सभी जीव समान हैं सभी की आत्मा अनन्त गुणों का पुञ्ज स्वरूप है, ऐसा समझकर किन्हीं भी जीवों के प्रति वैर विरोध एवं हिंसा की भावना उत्पन्न नहीं होनी चाहिये। सभी जीव अपने समान हैं, एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव सुख एवं दु:ख का अनुभव करते हैं, ऐसा समझ कर पाप प्रवृत्ति का त्याग करना चाहिये। सब जीवों के प्रति मित्रता का भाव होना चाहिये। सभी जीवों में कर्म काट कर भगवान बनने की शक्ति है उस शक्ति को व्यक्ति जो जीव पुरुषार्थ के द्वारा कर ले वह साम्यवादी है तथा उसी ने साम्यवाद को समझा, ऐसा समझना चाहिये क्योंकि साम्य अवस्था मोक्ष में है, संसार में रहकर सब धन या जन से समान नहीं रह सकते, क्योंकि सब के कार्य पृथक््â—पृथक््â हैं सब की भावना भिन्न—भिन्न हैं तदनुरूप उनके कर्म का बंध होता है और उसका फल उनको अवश्य भोगना पड़ता है। सभी जीव इस बात का अनुभव करते हैं कि एक माँ के यदि चार पुत्र हैं तो चारों का भाग्य समान नहीं है कोई सुखी है तो कोई दु:खी है, जब हम अपने घर में समानता नहीं कर सकते तो सारे विश्व के समन्वय की बात करना तो घानी में रेत पेलने के समान निस्सार है।
जो साम्यवाद का नारा लगाते हैं उनको स्वयं को देखना है कि हम कहाँ जा रहे हैं मात्र सब के साथ खान—पान कर लेना या सब के साथ विवाह सम्बन्ध कर लेना ही साम्यवाद नहीं है यह तो सिर्फ अपनी आत्मा को धोखा देकर गर्त में गिराना है। जो दीन—दु:खी जीव हैं उनकी सब प्रकार से धनादि एवं मृदु भाषण आदि से सहायता करना परम कर्त्तव्य है, पापी जीवों को पाप से छुड़ा कर सन्मार्ग में लगाना अपना कर्तव्य है परन्तु उनके पाप के फल को कोई नहीं मिटा सकता। यदि हम भेद भाव मिटाना चाहें तो जो आठ कर्मों की व्यवस्था है वह समाप्त हो जायेगी।
ज्ञानावरणी कर्म—यह सूचित करता है कि प्रत्येक जीवों के ज्ञान का आवरण भिन्न—भिन्न है, क्योंकि सभी जीवों का ज्ञान समान नहीं है सभी के ज्ञान में तरतमता देखी जाती है।
दर्शनावरणी कर्म—इस कर्म का कार्य है कि वस्तु को नहीं देखने देना। पहरेदार के समान, इसकी सभी में भिन्नता देखी जाती है, किसी के कम किसी के ज्यादा है यह कर्म आत्मा के दर्शन को रोकता है।
वेदनीय कर्म—इसका काम सुख—दु:ख का अनुभव कराना है जिसका कि सभी अच्छी तरह से अनुभव कर रहे हैं कोई अधिक सुखी हैं तो कोई अधिक दु:खी हैं अनेक प्रकार से तरतमता देखी जाती है।
मोहनीय कर्म—इस कर्म की विशेषताओं को सब अच्छी तरह से जान रहे हैं अनुभव कर रहे हैं, इस मोह से मोहित होकर संसार के जीव अनेक प्रकार के स्वांग एवं नाटक करते हैं। मोह शब्द की व्युत्पत्ति ‘‘मुह्’’ धातु से निष्पन्न हुई है, व्याकरण के अनुसार ‘‘अ’’ प्रत्यय लगाकर पद बनता है। मोह से दृष्टि में विकार उत्पन्न होता है जैसे—पांडु रोगी को सभी वर्ण पांडु ही प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार मोह से सहित व्यक्ति को सभी पदार्थ मोह स्वरूप दिखाई देते हैं। मोह पहले आँखों में राग उत्पन्न करता है, पश्चात् हृदय में विकार को जन्म देता है तथा जीव विकार भाव को अपना सहचारी बनाकर स्वच्छन्द रूप से विचरण करता है, अत: मोह और मोक्ष में ३६ का आंकड़ा है।
आयु कर्म—यह कर्म इस जीव को संसार में उसी प्रकार से रोके रखता है जैसे—जेलखाने में जेलर के द्वारा वैâदी को रोका जाता है। अवधि पूरी होने पर ही छुटकारा मिलता है।
नाम कर्म—यह कर्म चौरासी लाख योनियों में जीवों को अच्छी तरह से घुमाता है। जैसे—अरहट की घड़ी हर समय घूमती रहती है वैसे ही संसार से जीव जब तक नहीं छूटता तब तक घूमता ही रहता है।
गोत्र कर्म—यह कर्म ऊँच—नीच के भेद से यह दो प्रकार का है। ऊँच गोत्र के उदय से जीव लोक पूजित ऊँच कुल में उत्पन्न होते हैं तथा नीच गोत्र से लोक िंनदित नीच कुल में उत्पन्न होना पड़ता है। इस कुल का संस्कार जीवों के ऊपर अच्छी तरह से पड़ता है। कितना ही जीव अच्छा या बुरा आचरण करें परन्तु उसके संस्कार समय पाकर अवश्य काम करते हैं। क्योंकि जिस िंपड से शरीर की रचना हुई है उसका प्रभाव आत्मपरिणामों के ऊपर आये बिना नहीं रह सकता।
अन्तराय कर्म—यह कर्म विघ्नकारक है। जीवों के अन्तराय कर्म के अनुसार दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में रुकावट आती ही है। मनुष्य कितना ही दान देना चाहे, वस्तु का उपभोग करना चाहे परन्तु इच्छा के अनुसार नहीं कर सकता, उसके कर्म के अनुसार ही कार्य होगा इस प्रकार इन आठ कर्मों की व्यवस्था है इनको नाश किये बिना सुखी तथा समान अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकता। इस प्रकार कर्मों की अवस्थाओं को समझा जाय तभी साम्य अवस्था हो सकती है।
आगम में कर्मों के दश करण—दश अवस्थाएँ बताई गई हैं जैसा कि आचार्य श्री नेमीचन्द्र के निम्न वाक्य से स्पष्ट है—
बंधुक्कट्टण करणं संकममोकट्टुदीरणा सत्तं।
उदयुवसामणिधत्ती णिकाचणा होदि पडिपयडी।।४३७।।
अर्थात् बन्ध, उत्कर्षण, संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्त्व, उदय, उपशम, निधत्ति और निकाचना; ये दश करण प्रत्येक प्रकृति के होते हैं।
इनका स्वरूप इस प्रकार है—
बन्ध—जीव के मिथ्यात्व आदि परिणामों का निमित्त पाकर कार्मण वर्गणा का ज्ञानावरणादि कर्म रूप होना बन्ध है।
उत्कर्षण—कर्मों की स्थिति तथा अनुभाग का बढ़ना उत्कर्षण है।
संक्रमण—बन्ध रूप प्रकृति का अन्य प्रकृतिरूप परिणम जाना संक्रमण है।
अपकर्षण—स्थिति तथा अनुभाग का कम हो जाना अपकर्षण है।
उदीरणा—उदय काल के बाहर स्थित कर्म द्रव्य को अपकर्षण के बल से उदयावली में लाना उदीरणा है।
सत्त्व—पुद्गल का कर्म रूप रहना सत्त्व है।
उदय—कर्म द्रव्य का फल देने का समय प्राप्त होना उदय है।
उपशान्त—जो कर्म उदयावली में प्राप्त न किया जाय अर्थात् उदीरणा अवस्था को प्राप्त न हो सके वह उपशान्त करण है।
निधत्ति—जो कर्म उदयावलि में भी प्राप्त न हो सके और संक्रमण अवस्था को भी प्राप्त कर सके उसे निधत्ति करण कहते हैं।
निकाचित—जिस कर्म की उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण और अपकर्षण ये चारों ही अवस्थाएँ न हो सके उसे निकाचित करण कहते हैं।
उपर्युक्त करणों में नरकादि चारों आयुकर्मों के संक्रमण करण के बिना ९ करण होते हैं अर्थात् आयु कर्म की उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण नहीं होता—एक आयु अन्य आयु रूप नहीं होती। शेष सब प्रकृतियों के दश करण होते हैं। गुणस्थानों की अपेक्षा विचार करने पर मिथ्यादृष्टि से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक दश करण होते हैं। अपूर्वकरण के ऊपर सूक्ष्म साम्पराय नामक दशम गुणस्थान तक आदि के सात ही करण होते हैं। उसके ऊपर सयोगकेवली तक संक्रमण के बिना छह ही करण होते हैं। उसके ऊपर अयोगकेवली के सत्त्व और उदय ये दो ही करण होते हैं। उपशान्त कषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थान में कुछ विशेषता है, वह यह कि यहाँ मिथ्यात्व और सम्यक््â मिथ्यात्व का संक्रमण करण भी होता है, अर्थात् इन दोनों के परमाणु सम्यक्त्व मोहनीय रूप परिणम जाते हैं, शेष प्रकृतियों का संक्रमण नहीं होता अत: छह ही करण होते हैं।
बन्ध करण और उत्कर्षण करण ये दोनों करण अपने—अपने बन्ध स्थान तक ही होते हैं अर्थात् जिस प्रकृति की जहाँ तक बन्ध व्युच्छित्ति होती है वहीं तक होते हैं, तथा संक्रमण, मूल प्रकृतियों में तो होता नहीं है किन्तु उत्तर प्रकृतियों में होता है वह भी अपनी—अपनी जाति की प्रकृतियों में, जैसे—ज्ञानावरण कर्म की मति ज्ञानावरणादि पांच प्रकृतियाँ स्वजाति प्रकृतियाँ हैं इन्हीं में उसका संक्रमण होता है। उत्तर प्रकृतियों में भी दर्शन मोह और चारित्र मोह तथा आयु कर्म की उत्तर प्रकृतियों—नरकायु आदिकों में संक्रमण नहीं होता।
अयोगकेवली के जिन पचासी प्रकृति की सत्ता है उनका अपकर्षणकरण, सयोग केवली के अन्त समय तक होता है। क्षीण कषाय गुणस्थान में जिनकी सत्व व्युच्छित्ति होती है ऐसी १६ प्रकृतियों तथा सूक्ष्मसांपराय में जिसकी सत्वव्युच्छित्ति होत्ाी है ऐसा सूक्ष्म लोभ, इन १७ प्रकृतियों का अपकर्षण करण उनके क्षयदेश पर्यन्त होता है। क्षयदेश का काल यहाँ एक समय अधिक आवली मात्र जानना चाहिये।
देवायु का अपकर्षणकरण उपशान्त कषाय गुणस्थान तक होता है। मिथ्यात्वादि तीन तथा अनिवृत्ति करण गुणस्थान में क्षय को प्राप्त होने वाली सोलह प्रकृतियों का अपकर्षण करण क्षयदेश—अन्तकाण्डक के अन्तफालि पर्यंन्त होता है। इसी प्रकार क्षपक श्रेणी के अनिवृत्ति करण गुणस्थान में क्षय को प्राप्त होने वाली अष्टकषायादिक २० प्रकृतियों का अपकर्षण करण भी अपने—अपने क्षयदेश तक होता है। उपशम श्रेणी में दर्शनमोह की मिथ्यात्वादि तीन और नरकगति—नरकगत्यानुपूर्वी आदि १६ प्रकृतियों का अपकर्षणकरण उपशान्त कषाय—ग्यारहवें गुणस्थान तक होता है तथा आठ कषायादिकों का अपने—अपने उपशम के स्थान तक होता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्क का असंयतादि चार गुणस्थानों यथासंभव विसंयोजन के स्थान तक ही अपकर्षण करण होता है। नरकायु के असंयत गुणस्थान तक और तिर्यंञ्च आयु के देश संयत गुणस्थान तक उदीरणा, सत्व और उदय, ये तीन करण होते हैं। मिथ्यात्व प्रकृति का उदीरणा करण उपशमसम्यक्त्व के सम्मुख जीव के मिथ्यात्व गुणस्थान के अन्त में एक समय अधिक आवलि काल तक होता है। सूक्ष्म लोभ का उदीरणा करण, सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक ही होता है।
उपशान्त करण, निधत्तिकरण और निकाचित करण, ये तीन करण अपूर्वकरण गुणस्थान तक ही होते हैं, आगे नहीं।
संक्रमण करण में पाँच अवान्तर भेद हैं जिनका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार हैं—
१. उद्वेलन संक्रमण—अध: प्रवृत्त आदि तीन करणों के बिना ही कर्म प्रकृतियों के परमाणुओं का अन्य प्रकृति रूप परिणमन होना उद्वेलना संक्रमण है। यह आहारक युगल, सम्यक्त्व प्रकृति, सम्यङ्मिथ्यात्व, देवगति—देवगत्यानुपूर्वी, नरकगति—नरकगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक शरीराङ्गोपाङ्ग, उच्च गोत्र और मनुष्यगति—मनुष्यगत्यानुपूर्वी इन तेरह प्रकृतियों का ही होता है।
२. विध्यात संक्रमण—मन्द विशुद्धता वाले जीव की, स्थिति अनुभाग के घटानेरूप, भूतकालीन स्थितिकाण्डक और अनुभाग काण्डक तथा गुण श्रेणी आदि में प्रवृत्ति होना विध्यात संक्रमण है। यह विध्यात संक्रमण, सम्यक्त्व मोहनीय के बिना उद्वेलना की बारह प्रकृतियाँ, स्त्यानगृद्धित्रिक को आदि लेकर तीस प्रकृतियाँ, असातावेदनीयादिक बीस और वङ्कावृषभनाराचसंहनन, औदारिकशरीर औदारिकशरीराङ्गोपाङ्ग, तीर्थंकर प्रकृति तथा मिथ्यात्व….इन ६७ प्रकृतियों का होता है।
३. अध: प्रवृत्त संक्रमण—बँधी हुई प्रकृतियों का अपने बन्ध में संभवती प्रकृतियों में परमाणुओं का जो प्रदेश संक्रम होता है उसे अध:प्रवृत्त संक्रमण कहते हैं। यह संक्रमण, मिथ्यात्व प्रकृति के बिना शेष १२१ प्रकृतियों में होता है।
४. गुण संक्रमण—जहाँ प्रतिसमय असंख्यात गुण श्रेणी के क्रम से कर्म परमाणु—प्रदेश अन्य प्रकृतिरूप परिणमन करते हैं उसे गुण संक्रमण कहते हैं। गुण संक्रमण, सूक्ष्म सांपराय में बँधने वाली घातिया कर्मों की चौदह प्रकृतियों को आदि लेकर ३९ प्रकृतियाँ, औदारिकद्विक, तीर्थंकर, वङ्कावृषभ नाराच संहनन, पुरुषवेद, और संज्वलन क्रोधादि तीन, इन ४७ प्रकृतियों को कम करके शेष रही ७५ प्रकृतियों का होता है।
५. सर्व संक्रमण—जो अन्त के काण्डक की अन्तिम फाली के सर्व प्रदेशों में से अन्य रूप नहीं हुए हैं उन परमाणुओं का अन्य रूप होना सर्व संक्रमण है। यह संक्रमण, तिर्यञ्च सम्बन्धी ११ प्रकृतियां उद्वेलन की १३ प्रकृतियाँ, संज्वलनलोभ सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यङ्मिथ्यात्व प्रकृति, इन तीन के बिना मोह की २५, और स्त्यानगृद्धि आदि तीन प्रकृतियाँ, इस तरह ५२ प्रकृतियों का होता है।
इस प्रकार कर्मों की दश अवस्थायें होती हैं। संक्षेप से बन्ध, उदय और सत्व ये तीन दशायें मानी गई हैं। बन्ध की, बन्ध, अबन्ध और बन्ध व्युच्छित्ति, इस बन्ध त्रिभंगी से, उदय की, उदय, अनुदय और उदय व्युच्छित्ति इस उदय त्रिभंगी से और सत्व की, सत्व, असत्व और सत्व व्युच्छित्ति इस सत्व त्रिभङ्गी से गुणस्थानों और मार्गणाओं में चर्चा की गई है।