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कवलचान्द्रायण पूजा
August 3, 2020
पूजायें
jambudweep
कवलचान्द्रायण पूजा
सकलगुणसमुद्रं देवदेवेन्द्रवंद्यम्।
विमलवपुषि पीठे तीर्थतोयैश्च धौते।।
वसुमितजिनदेवं चंद्रधौतं नमामि।
सकलदुरतिव्यूहं हर्तुकामो भजेऽहम्।।१।।
ॐ ह्रीं शशांकगोक्षीरधवलगात्र श्री चंद्रप्रभदेव! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं शशांकगोक्षीरधवलगात्र श्री चंद्रप्रभदेव! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं शशांकगोक्षीरधवलगात्र श्री चंद्रप्रभदेव! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
गंगादि तीर्थोद्भवनीरपूरै:, काश्मीरकर्पूरसुगन्धमिश्रै:।
ग्रासादिदीपोद्गमपूजनार्थं, चंद्रेशदेवं सततं यजामि।।१।।
ॐ ह्रीं शशांकगोक्षीरधवलगात्राय श्री चंद्रप्रभदेवाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीखंड काश्मीर सुगंध मिश्रै:, सौगंध्यसंवासितदिग्विभागै:।
ग्रासादिदीपोद्गमपूजनार्थं, चंद्रेशदेवं सततं यजामि।।२।।
ॐ ह्रीं शशांकगोक्षीरधवलगात्राय श्री चंद्रप्रभदेवाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्रांशुगौरै: सदकैर्मनोज्ञै, हृद्घ्राणनेत्रप्रियदै: समक्षतै:।
ग्रासादिदीपोद्गमपूजनार्थं, चंद्रेशदेवं सततं यजामि।।३।।
ॐ ह्रीं शशांकगोक्षीरधवलगात्राय श्री चंद्रप्रभदेवाय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मंदारजाती बकुलादिपुष्पै:, सौगंधिकै: कृष्टमधुव्रतौघै:।
ग्रासादिदीपोद्गमपूजनार्थं, चंद्रेशदेवं सततं यजामि।।४।।
ॐ ह्रीं शशांकगोक्षीरधवलगात्राय श्री चंद्रप्रभदेवाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्पि: पयोजन्यसुभक्ष्यजातै:, शाल्यादिपूपप्रमुखैर्निवेद्यै:।
ग्रासादिदीपोद्गमपूजनार्थं, चंद्रेशदेवं सततं यजामि।।५।।
ॐ ह्रीं शशांकगोक्षीरधवलगात्राय श्री चंद्रप्रभदेवाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपोत्करैध्र्वस्ततमोवितानै:, कर्पूरजैर्मोहविनाशनाय।
ग्रासादिदीपोद्गमपूजनार्थं, चंद्रेशदेवं सततं यजामि।।६।।
ॐ ह्रीं शशांकगोक्षीरधवलगात्राय श्री चंद्रप्रभदेवाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
सिल्हारकृष्णागरुधूपवर्गै:, संवासिताशेषनभोविभागै:।
ग्रासादिदीपोद्गमपूजनार्थं, चंद्रेशदेवं सततं यजामि।।७।।
ॐ ह्रीं शशांकगोक्षीरधवलगात्राय श्री चंद्रप्रभदेवाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
नारंगपूगादिफलैर्मनोज्ञैर्जंबीरजातीफलकेलिजातै:।
ग्रासादिदीपोद्गमपूजनार्थं, चंद्रेशदेवं सततं यजामि।।८।।
ॐ ह्रीं शशांकगोक्षीरधवलगात्राय श्री चंद्रप्रभदेवाय फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादिद्रव्याष्टकदर्भदूर्वा-सिद्धार्थमांगल्यवरप्रदानै:।
अर्घं ददेऽभीष्टफलाय नित्यं, चंद्राभदेवाय सुशर्मदाय।।९।।
ॐ ह्रीं शशांकगोक्षीरधवलगात्राय श्री चंद्रप्रभदेवाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
अथ प्रत्येक पूजा
एकात्मध्यानसंलीनं,सर्वदोषविवर्जितम्।
चंद्रप्रभं प्रभुं चाये, सर्वदोषप्रशांतये।।१।।
ॐ ह्रीं श्री एकात्मध्यानसंलीन श्रीचंद्रप्रभदेवाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
रागद्वेषविनिर्मुत्तं, मुक्ति श्री संगतत्परम्।
सर्वकामप्रदं नित्यं, चर्चे तीर्थकरं विभुम्।।२।।
ॐ ह्रीं रागद्वेषरहित श्रीचंद्रप्रभदेवाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नत्रयमयं शुद्धं, तद्गुणप्राप्तयेऽनिशम्।
मनोवाक्काय संशुद्ध्या, भजे चंद्रप्रभं विभुम्।।३।।
ॐ ह्रीं रत्नत्रयरूपाय श्रीचंद्रप्रभदेवाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
चतु:कषायनिर्मुत्तं, संसारांभोधिपारगम्।
चतुरास्रवहंतारं, सेवे दु:खौघहानये।।४।।
ॐ ह्रीं चतु:कषायरहित श्रीचंद्रप्रभदेवाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
महाव्रतधरं धीरं, पंचसमितिराजितम्।
भवाब्धे: पारगं वंदे, लोकशिखरवासिनम्।।५।।
ॐ ह्रीं पंचसमितिधारकाय श्रीचंद्रप्रभदेवाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
षट्द्रव्याणां तु ज्ञातारं, षट्कायरक्षणोद्यतं।
चंद्रप्रभजिनं चर्चे, भावशुद्ध्या निरंतरं।।६।।
ॐ ह्रीं षट्द्रव्यप्रकाशकाय श्रीचंद्रप्रभदेवाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
भयसप्तक निर्मुक्त, सप्त तत्त्वप्रकाशकं।
दीपधूपफलग्रास-व्रतोद्योताय संयजे।।७।।
ॐ ह्रीं सप्ततत्त्वप्रकाशकाय श्रीचंद्रप्रभदेवाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
जात्यादिमदसंत्यक्तं, गुणाष्टकविभूषितं।
श्रीजिनं प्रत्यहं वंदे, पापशत्रुप्रहाणये।।८।।
ॐ ह्रीं अष्टमदवर्जिताय श्रीचंद्रप्रभदेवाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
नयानां भेदवक्तारं, पदार्थनवसूचकं।
संसारदु:खनाशाय, चर्चेऽहं सारवस्तुभि:।।९।।
ॐ ह्रीं ्नावतत्त्वप्रकाशकाय श्रीचंद्रप्रभदेवाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
दशधर्म युतं धर्म-ध्यानदशकख्यापकं।
मोहमल्ल-विजेतारं, पूजयामि जिनेश्वरं।।१०।।
ॐ ह्रीं दशधर्मप्रकाशकाय श्रीचंद्रप्रभदेवाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
एकादशांग वक्तारं, नेतारं श्रावकाय च।
एकादश प्रमाणाया:, प्रतिमायास्तमर्चये।।११।
ॐ ह्रीं एकादशांगप्ररूपकाय श्रीचंद्रप्रभदेवाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
तपो द्वादशधा प्रोक्तं, येन तीर्थेन स्वामिना।
तं चाये श्रीप्रभुं नित्य-मष्टमं श्रीसुखाकरम्।।१२।।
ॐ ह्रीं द्वादशविधतपख्यापकाय श्रीचंद्रजिनाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
चरितं येन चारित्रम्, त्रयोदशविधं शुभम्।
तं जिनं प्रत्यहं वंदे, मृगांकतनुसन्निभं।।१३।।
ॐ ह्रीं त्रयोदश चारित्र-चरिताय श्रीचंद्रप्रभजिनाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
मार्गणाख्यापकं धीरं, गुणस्थान-प्ररूपकम्।
जलगंधादिभिश्चर्चे, श्रीजिनं सुदयापरम्।।१४।।
ॐ ह्रीं चतुर्दशगुणस्थान निरूपकाय श्रीचंद्रप्रभाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
यै: प्रमादैरहो जन्तु:, संसारे भ्रमति स्वयं।
तैस्त्यक्तं श्रीजिनं वंदे, मोहमल्लविमर्दकं।।१५।।
ॐ ह्रीं पंचदशप्रमादरहिताय श्रीचंद्रप्रभाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
दृष्ट्यादिभावना: पूर्व, जन्मनि भाविता: स्फुटं।
येन भव्येन जीवेन, तं जिनं प्रार्चयेऽनिशम्।।१६।।
ॐ ह्रीं षोडशभावना भावितात्मने श्रीचंद्रप्रभजिनाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रकारै: सप्तदशकै:, संयम: प्रतिपालित:।
तं ध्यायामि प्रभुं नित्यं, मोक्षसौख्याभिलाषुक:।।१७।।
ॐ ह्रीं सप्तदशविधसंयमपालकाय श्रीचंद्रप्रभाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षुधादिदोषकैरष्टादशभिरनुपद्रतं ।
नवलब्धियुतं सार्वं सर्वज्ञं संस्तुवे सदा।।१८।।
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषनिवारकाय श्रीचंद्रप्रभाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
एकोनविंश प्रमित-समासानां प्रभेदका:।
ख्यापिता येन तीर्थेन, तं ध्यायामि निरंतरम्।।१९।।
ॐ ह्रीं एकोनिंवशति जीवसमासप्ररूपकाय श्रीचंद्रप्रभाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
दशद्विगुणिता: ख्याता:, प्ररूपणा जिनै: स्मृता:।
जानन्नपि स संयाति, मोक्षं तद्वचसा ननु।।२०।।
ॐ ह्रीं विंशतिप्ररूपणाप्ररूपकाय श्रीचंद्रप्रभाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
हिंसादि पंचदुरित-प्रमुखा विंशकाधिका:।
चंद्रेण दोषा: संत्यक्तास्तं विभुं नित्यमर्चये।।२१।।
ॐ ह्रीं हिसादिएकिंवशतिदोषरहिताय श्रीजिनचंद्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
परीषहा द्वािंवशतिर्मर्षिता येन स्वामिना।
तं देवं प्रत्यहं वंदे, मनोवाक्कायशुद्धित:।।२२।।
ॐ ह्रीं द्वािंवशतिपरीषहमर्षिताय श्रीचंद्रप्रभजिनाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रयोिंवशप्रमा: प्रोक्ता, जिनेन पुद्गलाणव:।
येन देवेशचंद्रेण, तं ध्यायामि निरंतरं।।२३।।
ॐ ह्रीं त्रयोिंवशति पुद्गलाणुप्रकाशकाय श्रीचंद्रप्रभदेवाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
चतुा\वशप्रमा: ख्याता:, सिद्धांते च परिग्रहा:।
येन त्यक्ता: प्रभुं तं च, भजे शुद्धैकचेतसा।।२४।
ॐ ह्रीं चतुिंवशतिपरिग्रहरहिताय श्रीचंद्रप्रभाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
व्रतानां भावना: प्रोक्ता:, पंचविंशति सम्मिता:।
भाविता ध्यानसमये, तं देवं सततं स्तुवे।।२५।।
ॐ ह्रीं पंचिंवशतिभावनाभाविताय श्रीचंद्रप्रभाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
दृष्ट्यादिभावना: सप्त-नवभिरधिका बरा:।
वृषा दश स्फुटं येन, प्रणीतास्तं स्तुवे जिनं।।२६।।
ॐ ह्रीं षविंशतिवृषभावनाप्ररूपकाय श्रीचंद्रप्रभ-जिनाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिधा स्त्रियो जिनै: ख्यातास्तास्त्यक्ता: शुद्धभावत:।
मनोवाक्काययोगेन कृतकारितसम्मतै:।।२७।।
ॐ ह्रीं मनोवाक्कायादिसप्तिंवशतिदोषनिवारकाय श्रीचंद्रप्रभजिनाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनीनां ध्यानलीनानामष्टािंवशतिसम्मिता।
प्रोक्ता मूलगुणा येन, तमधीशं स्तुवेऽनिशम्।।२८।।
ॐ ह्रीं अष्टािंवशतिमूलगुणप्रकाशकाय श्रीचंद्रप्रभाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नत्रयगुणा: प्रोक्ता येन तीर्थेशिना वरा:।
एकोनत्रिंशत्प्रमितास्तं ध्याये सततं हृदि।।२९।।
ॐ ह्रीं एकोनिंत्रशद्रत्नत्रयगुणप्रख्यापकाय श्रीजिनचंद्रप्रभाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
दशभि: सहिता: पंचद्विगुणा: परिकीर्तिता:।
समासा: सर्वसत्वानां, येन तं चर्चये जिनं।।३०।
ॐ ह्रीं िंत्रशत्जीवसमास प्रकाशकाय श्रीचंद्रप्रभ-जिनाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
अमितगुणयुतानां श्रीजिनानां पुरस्ता- द्वहुविधबहुभक्त्या स्वर्णपात्रे निधाय।
कलरववर-तूर्यैर्गीतनृत्यादि युक्तै- र्वसुमितवरद्रव्यैश्चाघ्र्यमुत्तारयामि।।३१।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभजिनाय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
यख्यामले ज्ञानमये सुदर्शे, प्रकाशतामेति जगत्स्वरूपं।
चराचराख्यं क्षितिपैर्नतं तं, चंद्रप्रभं देवमहं स्तवीमि।।१।।
सतो गुणांस्तस्य प्रभुर्न वक्तुं, क्षोणीतले कोऽपि नरोऽमरो वा।
चतुष्टयानंतसमुद्भवं तं, चंद्रप्रभं देवमहं स्तवीमि।।२।।
देवा असंख्यातमिता जगत्यां, संतीह ये दोषशतैरुपेता:।
न ते नृणां मोदकरा अतस्तं, चंद्रप्रभं देवमहं स्तवीमि।।३।।
क्षमो भवान्काममतंगजस्य, मदं प्रमाष्र्टुं सकलावशस्य।
अपूर्वकंठीरवतां दधानं, चंद्रप्रभं देवमहं स्तवीमि।।४।।
अमेय सद्बोध कलासु भासुरं, दयोदयोद्भूतकलंकवर्जितं।
चंद्रोऽप्यभद्रस्तुलयेत्कथं त्वां, चंद्रप्रभं देवमहं स्तवीमि।।५।।
नागेन्द्र-देवेन्द्र-नरेन्द्र-मुख्यै, र्दक्षैरलक्ष्योऽसि गुणान्गृणद्भि:।
अतो गुणातीतमत: समेषां, तमष्टमं तीर्थकरं प्रवंदे।।६।।
सद्भक्तियुक्ता मनुजा गुणाढ्या, यमर्चयन्त्यष्टविधोपचारै:।
ते प्राप्नुवंतीह सुखानि नित्यं, वंदेऽहकं कांतगुणं जिनेशं।।७।।
विशुद्धबोधं दृढभाक्तिकाय, प्रदेहि मे त्वद्गुणरंजिताय।
कारुण्यबुद्ध्या प्रभुणा हि भाव्यं, विश्वेषु मत्वेति जिनेशदेवम्।।८।।
घत्ता
अमितगुणगरिष्ठं नष्टकर्मारिकष्टं।
सकलभुवननाथ सर्वदोषप्रमाथं।।
सुरवरपतिसेव्यं चाष्टमं श्री जिनेशं।
प्रणयचयनियुक्त: स्तौति देवेंद्रकीर्ति:।।९।।
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभदेवाय जयमालार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
।। इति श्री चंद्रप्रभजिन जयमाला समाप्ता ।।
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