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कषाय और ज्ञान मार्गणा

November 29, 2022जैनधर्मHarsh

कषाय और ज्ञान मार्गणा


जो आत्मा को दुःख दे अथवा आत्मा के चारित्र गुण का घात करे वह कषाय है। इसके भेद-उपभेद २५ होते हैं।


३.१ कषाय (Passions)-


जो भाव आत्मा को कषे अर्थात् दुःख दे, वह कषाय है। ये मलिन भाव जीवन को कषायला कर देते हैं, अतः इन्हें कषाय कहते हैं। कषाय मोहनीय कर्म के उदय से होने वाली क्रोध, मान, माया, लोभ आदि रूप कलुषता कषाय कहलाती है; क्योंकि यह आत्मा के स्वाभाविक रूप को कषती है। इस प्रकार आत्मा के कलुष परिणाम (खोटे भाव) ही कषाय हैं।


३.२ कषाय के भेद (Kinds of Passions)-


कषाय के मूल भेद ४ हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ। इनमें क्रोध व मान द्वेष रूप हैं तथा माया व लोभ राग रूप हैं। इन चारों कषायों के प्रत्येक के चार-चार भेद हैं- अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन। विषयों के प्रति आसक्ति (तीव्रतर, तीव्र, मन्द और मन्दतर) की अपेक्षा से ये चार भेद किये गये हैं। यह आसक्ति भी क्रोध, मान, माया, लोभ के द्वारा ही व्यक्त होती है, इसलिये इन चारों के क्रोध आदि के भेद से चार-चार भेद करके कुल १६ भेद किये गये हैं।

किंचित् अर्थात् अल्प कषाय को नोकषाय (अकषाय) कहते हैं। इसके नौ भेद हैं- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री-वेद, पुरुष-वेद और नपुंसक-वेद। इस प्रकार कषायों के २५ भेद हो जाते हैं।

चार मुख्य कषायें निम्नानुसार हैं-

(१) क्रोध कषाय-आत्मा का स्वभाव क्षमा है और इसका उल्टा अर्थात् आत्मा का विभाव क्रोध है। यह आत्मा का अहित करती है। ‘स्व’ व ‘पर’ का घात करने वाले क्रूर परिणाम क्रोध कषाय हैं। गुस्सा करने से दूसरे का बुरा होने से पूर्व स्वयं का बुरा हो जाता है। इस कषाय के कारण नरक व तिर्यंच गति के दुःख भोगने पड़ते हैं। क्रोध करने से कमठ और द्वीपायन मुनि ने दुःख उठाया था।

(२) मान कषाय-दूसरे के प्रति तिरस्कार, अहंकार रूप भाव होना अर्थात् बल, विद्या, तप, जाति आदि का मद होने से दूसरे के प्रति नमन भाव नहीं रखना मान (अभिमान) कषाय है। इस कषाय के कारण त्रस व स्थावर गतियों में भटकना पड़ता है। रावण और कंस ने इस कषाय के कारण अनेक दुःख उठाये थे।

(३) माया कषाय-माया का अर्थ मायाचारी करना है। छल कपट करना, दूसरे को धोखा देना अथवा मन में कुछ और, वचन में कुछ और, करनी में कुछ और होना माया कषाय है। थोड़े मूल्य की वस्तुओं को महंगी वस्तुओं में मिलाना, तौल के बाँट आदि कम या अधिक वजन के होना, अपने दोष छिपाना आदि माया कषाय में ही आते हैं। मायाचारी करने से तिर्यंच गति मिलती है। मृदुमति मुनि के द्वारा मायाचारी करने के फलस्वरूप उन्हें तिर्यंच (त्रिलोकमंडल हाथी) पर्याय मिली।

(४) लोभ कषाय-धन, दौलत, सम्पत्ति आदि की तीव्र लालसा होना, लालच होना अथवा तृष्णा होना लोभ कषाय है। इस कषाय के कारण ही मनुष्य सभी प्रकार के पाप करता है, इसी वजह से इस कषाय को पाप का बाप कहा जाता है। इस कषाय के कारण नरकादि गतियों में जाना पड़ता है। लोभ के कारण सेठ फणहस्त मरकर सर्प बना।


३.३ कषायों के १६ भेद (Sixteen types of Passions)-


उपरोक्त चारों कषायों के प्रत्येक के चार-चार उपभेद निम्न प्रकार हैं-

१. अनन्तानुबंधी २. अप्रत्याख्यान ३. प्रत्याख्यान ४. संज्वलन

क्रोध कषाय के ४ उप-भेद निम्न प्रकार हैं-

(१) अनन्तानुबंधी क्रोध कषाय-अनन्त नाम संसार का है और जो इसका कारण है, वह अनन्तानुबन्धी है। अनन्त संसार का अनुबन्ध करने वाले भाव को अनन्तानुबन्धी कहते हैं। जो कषाय संसार के कारणभूत मिथ्यात्व को बांधती है, वह अनन्तानुबंधी कषाय है। तीव्र कषाय का नाम अनन्तानुबन्धी नहीं है, अपितु उस वासना का नाम है जो बार-बार समझाने पर भी नम्र नहीं होती है। यह कषाय सम्यक्तव व चारित्र दोनों का घात करती है। इस कषाय के उदय से जीव को सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता है और इस कषाय को समाप्त करके ही जीव अपना कल्याण कर सकता है। यदि क्रोध कषाय छः माह से अधिक अवधि तक टिक गई तो वह अनन्तानुबंधी हो जाती है। यह कषाय पत्थर पर पड़ी रेखा के समान है जो जल्दी मिटती नहीं है। इस कषाय की बहुलता से जीव नरक गति को प्राप्त करता है।

(२) अप्रत्याख्यान क्रोध कषाय-जो आत्मा के एकदेश चारित्र को घाते अर्थात् जिसके उदय से अणुव्रत धारण नहीं किये जा सकें, वह अप्रत्याख्यान कषाय है। इसका अभाव होने पर ही जीव संयम धारण कर सकता है। यदि कषाय १५ दिन से अधिक (छः माह से कम) टिक जाती है तो वह कषाय अप्रत्याख्यान प्रकृति की हो जाती है। यह कषाय पृथ्वी पर खींची गई रेखा के समान है जिसे कठिनाई से मिटाया जा सकता है। इस कषाय की बहुलता से जीव तिर्यंच गति को प्राप्त करता है।

(३) प्रत्याख्यान क्रोध कषाय-जिस कषाय के उदय से जीव महाव्रतों को धारण नहीं कर सके वह प्रत्याख्यान कषाय है। यह कषाय मुनि नहीं बनने देती है। यह कषाय अन्तर्मुहूर्त से १५ दिन तक ही रहती है, अधिक हो जाने पर अप्रत्याख्यान हो जाती है। यह धूल में खींची गई रेखा के समान होती है। इसकी बहुलता से मनुष्य गति मिलती है।

(४) संज्वलन क्रोध कषाय-जिसके सद्भाव से संयम बना रहता है लेकिन जीव के यथाख्यात चारित्र का घात होता है, वह संज्वलन क्रोध कषाय है। संज्वलन क्रोध कषाय अन्तर्मुहूर्त तक रहती है। इसका अभाव करके जीव बारहवें गुणस्थान में यथाख्यात चारित्र को प्राप्त करता है। यह कषाय जल में खींची रेखा के समान है जो बहुत शीघ्र ही मिट जाती है। इस कषाय के कारण जीव यथाख्यात चारित्र को प्राप्त नहीं करता है और देव गति का पात्र होता है।

जिस प्रकार क्रोध कषाय के ४ उपभेद (उपरोक्तानुसार) हैं, इसी प्रकार शेष तीन कषायों मान, माया, और लोभ के भी ४-४ भेद होते हैं। इस प्रकार चारों कषायों के १६ भेद हुए ।


३.४ नो-कषाय (या ईषत् कषाय या अकषाय) (Subsidiary/Quasi Passions)-


जिनका उदय कषायों के साथ होता है या जो कषायों से प्रेरित हैं वे नो-कषाय (ईषत् कषाय या अकषाय) कहलाती हैं। ईषत् का अर्थ अल्प (किंचित्) होता है। ये अल्प फल प्रदान करती हैं और दीर्घ काल तक नहीं रहती हैं। इसी वजह से इन्हें ईषत् अर्थात् अल्प कषाय कहते हैं। कषायों के पूर्णतः नष्ट होने के पूर्व ही ये नष्ट हो जाती हैं तथा कषायों के साथ ही उदय में आती हैं, अलग से नहीं।

नो-कषाय के ९ भेद निम्न हैं-

(१) हास्य-जिस कर्म के उदय से जीव के हंसी रूप भाव उत्पन्न होते हैं। हंसी का भाव हास्य है।

(२) रति-जिस कर्म के उदय से जीव के इन्द्रिय विषयों, धन, परिवार आदि में विशेष प्रीति हो। भोगों में आसक्ति होना तथा जीव का दूसरे पर प्रेम होना रति है।

(३) अरति-जिस कर्म के उदय से इन्द्रिय विषयों, धन परिवार आदि में अप्रीति हो। अनिष्टताओं से दूर हटने का भाव तथा पदार्थों में अप्रीति अरति है।

(४) शोक-जिस कर्म के उदय से शोक या चिन्ता उत्पन्न हो। इष्ट पदार्थों के नष्ट हो जाने या वियोग हो जाने पर सोचना/विचारना शोक है।

(५) भय-जिस कर्म के उदय से भय का कारण मिलते ही जीव भयभीत हो जाता है। अनिष्टताओं से डरने का भाव भय है। यह भय सात प्रकार का होता है – इहलोक, परलोक, अरक्षा, अगुप्ति, मरण, वेदना और आकस्मिक।

(६) जुगुप्सा-जिस कर्म के उदय से दूसरे के प्रति घृणा या ग्लानि उत्पन्न हो। ग्लानि व घृणा का भाव जुगुप्सा है।

(७) स्त्री-वेद-जिस कर्म के उदय से पुरुष के साथ काम-सेवन का भाव उत्पन्न होता है।

(८) पुरुष वेद-जिस कर्म के उदय से जीव में स्त्री के साथ काम-सेवन का भाव उत्पन्न होता है।

(९) नपुंसक वेद-जिस कर्म के उदय से जीव में स्त्री और पुरुष दोनों के साथ काम-सेवन का भाव उत्पन होता है।
यद्यपि नोकषाय ९ प्रकार की होती हैं, मगर एक काल में बन्ध ५ का ही हो सकता है। ३ वेद में से १, रति-अरति में से १, तथा हास्य-शोक में से १ का ही एक समय में बन्ध हो सकता है। नोकषायों में से अरति, शोक, भय व जुगुप्सा तो द्वेष रूप हैं और शेष राग रूप हैं।

साधना पथ पर बढ़ने हेतु जीव को दर्शन मोहनीय कर्म की तीन (मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व व सम्यक्त्व) तथा चारित्र मोहनीय कर्म की चार (अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ) अर्थात् कुल ७ प्रकृतियों का उपशम तथा क्षयोपयशम करके सम्यक्तव प्राप्त करना चाहिए। उसके बाद परिणामों की विशुद्धि से अप्रत्याख्यानावरण कषायों का अनुदय करके व्रतों को धारण कर श्रावक बनना चाहिए। तदुपरान्त परिणामों की विशुद्धि द्वारा प्रत्याख्यानावरण कषाय का अनुदय करके मुनिपद सकल चारित्र धारण करना चाहिए। इस पंचम काल में यहाँ से आगे बढ़ना सम्भव नहीं है।


३.५ कषाय : सुख-दुःख का मूल कारण

(Passions: Basic Cause of Pleasure and Sorrow)-


जीव स्वयं ही कषाय (राग-द्वेष आदि) करके सुखी-दुःखी होता है। अन्य कोई पदार्थ उसे सुखी-दुःखी नहीं कर सकता है। वे तो निमित्त मात्र हैं। जैसे किसी ने मुझे गाली दी और मैंने अनिष्ट बुद्धि करके उस व्यक्ति पर मान-कषाय के वशीभूत होकर क्रोध किया और उसके साथ गाली गलौच या मारपीट की। यदि मैं मान कषाय के वशीभूत नहीं होकर अपने भाव नहीं बिगाड़ता और अपने परिणाम समता के रखता तो मुझे दुःख नहीं होता। इसमें वस्तुतः दुःख का कारण मेरी मान-कषाय ही है। गाली देने वाला तो निमित्त मात्र है। जीव का भला-बुरा तो उसके स्वयं के परिणामों से होता है। बाहरी तौर पर तो ऐसा लगता है कि गाली देने वाले ने मेरा अपमान करके मुझे दुःखी किया। मगर वास्तविकता यही है कि स्वयं की मान-कषाय (मान पाने की इच्छा) के कारण मुझे दुःख हुआ। इस प्रकार सुख-दुःख का मूल कारण हमारी अपनी कषाय ही है। जीव के जितनी अधिक कषाय होगी, वह उतना ही अधिक दुःखी होगा। कषाय के सद्भाव से दुःख और अभाव से सुख मिलता है।


३.६ ज्ञान मार्गणा (Gyan or KnowledgeMargana)-


पदार्थों को जानने वाले आत्मा के गुण को ज्ञान मार्गणा कहते हैं। सम्यग्दर्शन के सद्भाव से यह सम्यग्ज्ञान कहलाता है और मिथ्यात्व के उदय से यह मिथ्या ज्ञान हो जाता है। ज्ञान के ८ भेद हैं- ५ प्रकार का सम्यग्ज्ञान (मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान) तथा ३ प्रकार का मिथ्याज्ञान (कुमति, कुश्रुत और विभंग-अवधिज्ञान)।


३.७ यहाँ ज्ञानमार्गणा का स्वरूप गोम्मटसार जीवकाण्ड के आधार से प्रस्तुत है-


जिसके द्वारा जीव त्रिकालविषयक भूत, भविष्यत्, वर्तमान संबंधी समस्त द्रव्य और उनके गुण तथा उनकी अनेक पर्यायों को जाने उसको ज्ञान कहते हैं।

ज्ञान के पाँच भेद हैं—मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय तथा केवल। इनमें से आदि के चार ज्ञान क्षायोपशमिक और केवलज्ञान क्षायिक है तथा मति, श्रुत दो ज्ञान परोक्ष और शेष तीन  प्रत्यक्ष  हैं।

आदि के तीन ज्ञान मिथ्या भी होते हैं।

मति अज्ञान—दूसरे के उपदेश के बिना ही विष, यन्त्र, कूट, पंजर तथा बंध आदि के विषय में जो बुद्धि प्रवृत्त होती है उसको मति अज्ञान कहते हैं।

श्रुत अज्ञान—चोर शास्त्र, िंहसा शास्त्र, महाभारत, रामायण आदि परमार्थ-शून्य शास्त्र और उनका उपदेश कुश्रुतज्ञान है।

विभंग ज्ञान—विपरीत अवधिज्ञान को विभंगज्ञान या कुअवधि ज्ञान कहते हैं।

मतिज्ञान—इंद्रिय और मन के द्वारा होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। उसके अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा ये चार भेद हैं। इनको पाँच इंद्रिय और मन से गुणा करके बहु आदि बारह भेदों से गुणा कर देने से २८८ भेद होते हैं तथा व्यंजनावग्रह को चक्षु और मन बिना चार इंद्रिय से और बहु आदि बारह भेद से गुणा करने से ४८ ऐसे २८८±४८·३३६ भेद होते हैं।

श्रुतज्ञान—मतिज्ञान के विषयभूत पदार्थ से भिन्न पदार्थ का ज्ञान श्रुतज्ञान है।

इस श्रुतज्ञान के अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक अथवा शब्दजन्य और लिंगजन्य ऐसे दो भेद हैं। इनमें शब्दजन्य श्रुतज्ञान मुख्य हैं।


३.८ दूसरी तरह से श्रुतज्ञान के भेद हैं

(Kinds of Scriptural Knowledge on Different Ground)—


पर्याय, पर्याय समास, अक्षर, अक्षर समास, पद, पद समास, संघात, संघात समास, प्रतिपत्तिक, प्रतिपत्तिक समास, अनुयोग, अनुयोग समास, प्राभृत प्राभृत, प्राभृत प्राभृत समास, प्राभृत, प्राभृत समास, वस्तु, वस्तु समास, पूर्व, पूर्व समास इस तरह श्रुतज्ञान के बीस भेद हैंं।

सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक के जो सबसे जघन्य ज्ञान होता है उसको पर्याय ज्ञान कहते हैंं। इनको ढकने वाले आवरण कर्म का फल इस ज्ञान में नहीं होता अन्यथा ज्ञानोपयोग का अभाव होकर जीव का ही अभाव हो जावेगा। वह हमेशा प्रकाशमान, निरावरण रहता है अर्थात् इतना ज्ञान का अंश सदैव प्रगट रहता है।

इसके आगे पर्यायसमास के बाद अक्षर ज्ञान आता है यह अर्थाक्षर सम्पूर्ण श्रुत केवल रूप है। इसमें एक कम एकट्ठी का भाग देने से जो लब्ध आया उतना ही अर्थाक्षर ज्ञान का प्रमाण है।

जो केवलज्ञान से जाने जाएँ किन्तु जिनका वचन से कथन न हो सके ऐसे पदार्थ अनंतानंत हैं। उनके अनंतवें भाग प्रमाण पदार्थ वचन से कहे जा सकते हैं, उन्हें प्रज्ञापनीय भाव कहते हैं। जितने प्रज्ञापनीय पदार्थ हैं उनका भी अनंतवां भाग श्रुत निरूपित है।

अक्षर ज्ञान के ऊपर वृद्धि होते-होते अक्षर समास, पद, पद समास आदि बीस भेद तक पूर्ण होते हैं। इनमें जो उन्नीसवां ‘‘पूर्व’’ भेद है उसी के उत्पाद पूर्व आदि चौदह भेद होते हैं।

इन बीस भेदों में प्रथम के पर्याय, पर्याय समास ये दो ज्ञान अनक्षरात्मक हैं और अक्षर से लेकर अठारह भेद तक ज्ञान अक्षरात्मक हैं। ये अठारह भेद द्रव्य श्रुत के हैं। श्रुतज्ञान के दो भेद हैं—द्रव्यश्रुत और भाव श्रुत। उसमें शब्दरूप और ग्रंथरूप द्रव्यश्रुत हैं और ज्ञानरूप सभी भावश्रुत हैंं।

ग्रंथरूप श्रुत की विवक्षा से आचारांग आदि द्वादश अंग और उत्पाद पूर्व आदि चौदह पूर्व रूप भेद होते हैं अथवा अंग बाह्य और अंग प्रविष्ट में दो भेद करने से अंग प्रविष्ट के बारह और अंग बाह्य के सामायिक आदि चौदह प्रकीर्णक होते हैं।


३.९ द्वादशांग के नाम (Names of Twelve Parts of Scriptural Knowledge)—


(१) आचारांग (२) सूत्रकृतांग
(३) स्थानांग (४) समवायांग
(५) व्याख्या-प्रज्ञप्ति (६) धर्मकथांग
(७) उपासकाध्ययनांग (८) अंत:कृद्दशांग
(९) अनुत्तरोपपादिकदशांग (१०) प्रश्नव्याकरण
(११) विपाकसूत्र (१२) दृष्टिवादांग

बारहवें दृष्टिवाद के पाँच भेद हैं—परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत, चूलिका। परिकर्म के पाँच भेद हैं—चंद्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति। सूत्र और प्रथमानुयोग में भेद नहीं हैं। पूर्वगत के चौदह भेद हैं। चूलिका के पाँच भेद हैं—जलगता, स्थलगता, मायागता, आकाशगता, रूपगता।


३.१० चौदह पूर्वोंं के नाम (Names of Fourteen Purvas)—


(१) उत्पादपूर्व (२) अग्रायणीय
(३) वीर्यप्रवाद (४) अस्ति-नास्तिप्रवाद
(५) ज्ञानप्रवाद (६) सत्यप्रवाद
(७) आत्मप्रवाद (८) कर्मप्रवाद
(९) प्रत्याख्यान (१०) विद्यानुवाद
(११) कल्याणवाद (१२) प्राणवाद
(१३) क्रियाविशाल (१४) लोकबिन्दुसार

द्वादशांग के समस्त पद एक सौ बारह करोड़, तिरासी लाख, अट्ठावन हजार पाँच होते हंैं। १,१२,८३,५८,००५ हैं।


३.११ अंग बाह्यश्रुत के भेद (Kinds of Anga-Bahya Scriptural knowledge)—


सामायिक, चतुा\वशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प्य, महाकल्प्य, पुंडरीक, महापुंडरीक, निषिद्धिका ये अंग बाह्यश्रुत के चौदह भेद हैं।

‘‘ज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान तथा केवलज्ञान दोनों ही सदृश हैं। दोनों में अंतर यही है श्रुतज्ञान परोक्ष है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है।’’


३.१२ अवधिज्ञान (Clairvoyance or Limiting Knowledge)—


द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से जिसका विषय सीमित हो वह अवधिज्ञान है। उसके भव प्रत्यय, गुण प्रत्यय यह दो भेद हैं। प्रथम भवप्रत्यय देव नारकी और तीर्थंकरों के होता है तथा द्वितीय गुण- प्रत्यय मनुष्य और तिर्यंचों के भी हो सकता है।


३.१३ मन:पर्यय ज्ञान (Telepathic Knowledge)—


चिंतित, अचिंतित और अर्धचिंतित इत्यादि अनेक भेद रूप दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को मन:पर्यय ज्ञान जान लेता हैै। यह ज्ञान वृद्धिंगत चारित्र वाले किन्हीं महामुनि के ही होता है। इसके ऋजुमति, विपुलमति नाम के दो भेद हैं। यह ज्ञान मनुष्य क्षेत्र में ही उत्पन्न होता है, बाहर नहीं।


३.१४ केवलज्ञान (Perfect Knowledge or Omniscience)—


यह ज्ञान सम्पूर्ण, समग्र, केवल, सम्पूर्ण द्रव्य की त्रैकालिक सम्पूर्ण पर्यायों को विषय करने वाला युगपत् लोकाल्ाोक प्रकाशी होता है। इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिये ही सारे पुरुषार्थ किये जाते हैं।

(आज मति, श्रुत ये दो ही ज्ञान हम और आपको हैं। इनमें भी श्रुतज्ञान में द्वादशांग का वर्तमान में अभाव हो चुका है। हाँ, मात्र बारहवें अंग में किंचित् अंश रूप से षट्खंडागम ग्रंथराज विद्यमान है तथा आज जितने भी शास्त्र हैं वे सब उस द्वादशांग के अंशभूत होने से उसी के सार रूप हैं। जैसे कि गंगानदी का जल एक कटोरी में निकालने पर भी वह गंगा जल ही है। अत: श्री कुंंदकुंददेव आदि सभी के वचन सर्वज्ञतुल्य प्रमाणभूत हैं। ऐसा समझकर द्वादशांग की पूजा करते हुए उपलब्ध श्रुत का पूर्णतया आदर, श्रद्धान और अभ्यास करके, तदनुकूल प्रवृत्ति करके संसार की स्थिति को कम कर लेना चाहिए।)

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