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कुण्डलपुर की कहानी : कुण्डलपुर की जुबानी!

July 20, 2017जैन तीर्थjambudweep

कुण्डलपुर की कहानी : कुण्डलपुर की जुबानी


(एक पुराणसम्मत यथार्थ एवं रम्य चिन्तन-सन् २००४ में प्रस्तुत)

-डॉ. (कु.) मालती जैन, मैनपुरी
८ से १० अक्टूबर २००३ को सम्पन्न होने वाला कुण्डलपुर महोत्सव ‘तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ’ का राष्ट्रीय अधिवेशन, अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महिला संगठन के पदाधिकारियों का निर्वाचन, अहिंसा के अवतार भगवान महावीर की जन्मभूमि की तीर्थ यात्रा और सर्वाधिक महत्वपूर्ण वात्सल्यमयी परमपूज्य गणिनी आर्यिका शिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी एवं पूज्याप्रज्ञाश्रमणी चंदनामती माताजी के दर्शन कर आशीर्वाद प्राप्त करना। थोक में अतिशय आनंद की अनुभूति की कल्पना मात्र से मेरा लालची मन डोल गया। सफर लम्बा है, पथ अनजान है, बिहार पर आतंक की छाया है-आदि दुश्चिन्ताओं से आँख मिचौली खेलती मैं कुण्डलपुर जा पहुँची। विशाल भव्य देवालयों के ऊँचे-ऊँचे शिखर, भगवान ऋषभदेव का कीर्तिस्तंभ, नवीन साज-सज्जा से अभिमण्डित प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर-इन सबके मध्य उमड़ता हुआ जनसमुद्र, तुमुल कोलाहल, तीर्थंकरों और पूज्या गणिनी माता के जयकारों से गूँजता परिवेश-भजनों की मधुर स्वर-लहरियाँ-
‘जहाँ जन्मे वीर वर्धमान जी, जहाँ खेले कभी भगवान जी।
उस कुण्डलपुरी को पहचान लो। जय हो सिद्धार्थ त्रिशला के लाल की।।
अभूतपूर्व दृश्य था। मेरा मन पुलकित था, तन रोमांचित। भावों और विचारों से आलोड़ित-विलोड़ित मन और मस्तिष्क को थामे मैं माता श्री के समीप पहुँची। माथे में आगम पुराण, ज्ञान-विज्ञान, हृदय में वात्सल्य का तुनुक तार, प्रेरणाओं का एक बण्डल, एकान्त की गायिका, मुखमण्डल पर अपूर्व शांति, उत्कट जिजीविषा को समेटे, श्वेत साड़ी में लिपटी पूज्या माता का दिव्य रूप मुझे कभी आदि तीर्थंकर की सुपुत्री गणिनी ब्राह्मी का स्मरण दिखाता तो कभी भगवान महावीर से दीक्षित गणिनी चंदना का। ब्राह्मी की विद्वत्ता और चंदना की भक्ति का समन्वित रूप है गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती का विलक्षण व्यक्तित्व। कहते हैं जहाँ संत आते हैं वहाँ सोना-सोना बिखर जाता है, जहाँ से संत चले जाते हैं वहाँ सूना-सूना हो जाता है। माताजी के पुण्य प्रताप से कुण्डलपुर के जंगल में भी मंगल ही मंगल दृष्टिगत हो रहा था। मैंने अपार श्रद्धा-भक्ति से पूज्या माताजी के चरण कमलों में नमोस्तु किया। माताजी के मुख पर मुस्कान और आशीर्वाद के लिए उठा हाथ-मेरे अन्तर को स्नेह से अभिसिंचित कर गया। पटना से यहाँ पहुँचने में परेशानी तो नहीं हुई? स्वजन के माया-मोह के बंधनों को तोड़कर, वैराग्य के पथ पर आरूढ़ पूज्या माता के हृदय में उमड़ते वात्सल्य के सागर की गहराई को कौन नाप सकेगा? ‘वसुधैव कुटुम्बकं’’ की सूक्ति ऐसे ही विशाल हृदय संतों के संदर्भ में अक्षरश: सत्य सिद्ध होती है।

रात्रि में मंच पर सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन था।

लम्बी यात्रा और रात्रि जागरण से थकान थी। सोचा-आवास स्थल पर पहुँचकर विश्राम किया जाये। विद्वत् संघ के सदस्यों की आवास व्यवस्था थाईलैण्ड के बौद्ध मंदिर के परिसर में की गई थी। वैसे नालंदा में स्थित समस्त बौद्ध मंदिरों के आवास स्थलों के द्वार कुण्डलपुर के तीर्थयात्रियोें के लिए खुले हुए थे। धर्म जोेड़ता है तोड़ता नहीं। आदरणीया माताजी के वात्सल्यपूर्ण व्यवहार ने बुद्ध और महावीर के अनुयायियों को एकता के सूत्र में पिरो दिया था। रात्रि ९ बजे का समय। मैं तीव्र गति से थाई टैम्पिल की ओर पैदल चली जा रही थीं। वैसे व्यवस्थापकों ने गन्तव्य स्थल तक जाने के लिए वाहन की व्यवस्था की थी, पर मैं कुण्डलपुर के नैसर्गिक वैभव को आँखों में भर लेना चाहती थी। इसके लिए पदयात्रा ही उपयुक्त थी। कुण्डलपुर की भीड़-भाड़ को पीछे छोड़कर जैसे ही मैंने प्रकृति की एकान्त शान्त गोद में पदार्पण किया-रात के सन्नाटे में एक पुरुष-स्वर मेरे कर्णकुहरों में प्रविष्ट हुआ-‘ठहरो, बहन, कहाँ जा रही हो? स्वर मधुर था-स्नेहापूरित भी लेकिन रात के अंधेरे में एक अपरिचित पुरुष-स्वर मुझे आतंकित करने के लिए पर्याप्त था। किसी अनिष्ट की आशंका से मैंने जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाये। एक क्षण पश्चात् पुन: वहीं स्वर गूँजा-‘घबड़ाओ मत, बहन, चंदना के उद्धारक भगवान महावीर की जन्मभूमि में नारी-अस्मिता को कोई खतरा नहीं है। मेरा भय किंचित् कम हुआ फिर भी झुंझलाकर मैंने पूछा-‘तुम्हें मुझसे क्या प्रयोजन है? जान न पहचान, मैं तेरा मेहमान। प्रत्युत्तर गूँजा-बहन, वर्षों से अनेक भाव-विचार मन-मस्तिष्क में उमड़ते-घुमड़ते हैं किन्तु अभिव्यक्ति का अवसर प्राप्त नहीं होता। जघन्य स्वार्थपरता के इस भौतिकवादी युग में व्यक्ति का अहं उसे दूसरे को सुनने-समझने का अवसर नहीं देता। वह चाहता है-वह कहता रहे, दूसरे उसे चुपचाप सुनते रहे।’ बात छोटी थी पर नाविक के तीर की तरह दिल में चुभ गई। त्वरित गति से भागते मेरे पैर ठिठक गये। मैंने कहा-सर्वप्रथम अपना परिचय दो, फिर बोलो-क्या कहना चाहते हो? मैं कुण्डलपुर बोल रहा हूँ। क्या अनर्गल प्रलाप कर रहे हो? तुम अचेतन! मेरी बात बीच में ही काटकर पुरुष स्वर मुखरित हुआ-‘कैसी बात करती हैं आप। आश्चर्य। पूज्या आर्यिका ज्ञानमती के सानिध्य में रहकर भी आप जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों से अनभिज्ञ हैं। जैनदर्शन के अनुसार तो मेरी माटी का कण-कण, मुझे दुलराने वाली वायु, जल से लबालब भरे मेरे सरोवर-सभी चेतन हैं। पूज्या माता के आशीर्वाद से मैें इस तथ्य से अनभिज्ञ तो नहीं थी पर अपरिचित से पीछा छुड़ाने के उपक्रम में मैं अपना मानसिक संतुलन खो बैठी थी। संयत होकर मैंने कहा-‘कहिए, क्या कहना चाहते हैं?’

‘बहन, मुझे गर्व है बालक वर्धमान की जन्मभूमि होने का।

मेरी भूमि पर स्थित नंद्यावर्त महल के रत्नजटित आँगन में ही बालक वर्धमान घुटनों के बल ठुमक-ठुमक चला है। किशोर वर्धमान मेरी ही छाती पर उगे वृक्ष पर लिपटे सर्प के ऊपर क्रीड़ा करने पर महावीर बना है। मैंने अपनी आँखों से महावीर को युवावस्था की ओर अग्रसर होते देखा है। माँ त्रिशला भव्य नंद्यावर्त प्रासाद में पुत्रवधू के आगमन की कल्पना से हर्ष विभोर थीं। पिता सिद्धार्थ अपने राजसिंहासन के परम योग्य उत्तराधिकारी पर गौरवान्वित थे। मैं भी कुमार के मांगलिक विवाहोत्सव को देखने के लिए बेकरार था किन्तु राजकुमार के मन में उपजे वैराग्य ने सबकी आशाओं पर तुषारापात कर दिया। वे कैसे किसी लौकिक राजकुमारी का वरण करते? उनकी प्रतीक्षा तो हाथों में वरमाला लिए मुक्तिवधू कर रही थी। समस्त माया-मोह के बंधनों को क्षण भर में तोड़कर मेरा महावीर चन्द्रप्रभा पालकी में बैठकर ज्ञातृवन में तपस्या के लिए चला गया। मैं अनाथ हो गया। मेरा सर्वस्व लुट गया। पर नहीं, मेरा महावीर जब त्रिलोक का नाथ बना, तब मेरा मस्तक गर्वोन्मत्त हो उठा। मेरे आनन्द की सीमा न थी। भले ही मेरा महावीर कुण्डलपुर से नाता तोड़ चुका था पर मुझसे दूर ही कहाँ था। मेरे समीप राजगृही के विपुलाचल पर्वत पर ही तो उसकी दिव्य ध्वनि खिरी थी। मेरे ही निकट पावापुरी नगरी में उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। मैं धन्य हो गया था। शताब्दियों से भक्तजन मेरी माटी की रज को अपने मस्तक पर लगाते रहे हैं। मेरे गौरव-गीत गाते रहे हैं। ‘जनम चैत सित तेरस के दिन कुण्डलपुर कनवरना’। भावावेश में कुण्डलपुर कहता जा रहा था। भावधारा को मध्य में अवरुद्ध कर मैंने प्रश्न उछाला- ‘अपनी गौरव-गरिमा से संतुष्ट होकर भी तुम्हारे मन में उथल-पुथल कैसी?’

मेरे प्रश्न के सटीक उत्तर के लिए मानो कुण्डलपुर तैयार बैठा था

‘‘बहन, अपने स्वर्णिम अतीत की धरोहर पर मुझे गर्व है पर वर्षों से एक काँटा दिल में चुभ रहा था। तीर्थराज सम्मेदशिखर की वंदना को यात्री आते हैं, घंटे दो घंटे यहाँ रुकते हैं। एकमात्र प्राचीन मंदिर, उसमें भगवान महावीर की श्वेत संगमरमर की भव्य मूर्ति के दर्शन किए और चल दिए। न आवास की समुचित आधुनिक व्यवस्था, न एक मंदिर के अतिरिक्त कोई अन्य स्मृति चिन्ह। मेरी अमूल्य धरोहर नंद्यावर्त महल, जहाँ कभी माँ त्रिशला ने सोलह सपने देखे थे, जहाँ बालक वर्धमान को लोरियाँ गाकर पालने में झुलाया था भूगर्भ में समा चुका था। केवल अतीत पर कब तक गर्व करता, मेरा वर्तमान तो उपेक्षित था ही। मेरा सौभाग्य २९ दिसम्बर २००२ को श्वेतबसना, हाथ में कमंडल पिच्छी लिए एक देवीस्वरूपा नारी ने मेरी धरती पर पदार्पण किया। दैवी आभा से दैदीप्यमान उसके मुखमंडल के दर्शन कर मेरे नेत्र स्फारित रह गये। न जाने क्यों? त्याग और तपस्या की जीवन्त प्रतिमा, कर्मठ, दृढ़ संकल्प की धनी पूज्या ज्ञानमती माताजी के प्रथम दर्शन में ही मेरे नैराश्य-तिमिर में आशा की किरण फूट पड़ी-‘मेरे स्वर्णिम अतीत की पुनरावृत्ति होगी।’

बहन, तुम देख रही हो ना मेरी आशा आज पूर्ण हो गई है।

दो वर्षों की अल्प अवधि में ही कुण्डलपुर का कायाकल्प हो गया है। भव्य जिनालयों की दीर्घ शृंखला-महावीर मंदिर, ऋषभदेव मंदिर, नवग्रहशांति मंदिर, त्रिकाल चौबीसी का मंदिर-मैं मंदिरों का नगर बन गया हूँ। मेरी प्रबलतम आकांक्षा नंद्यावर्त महल का निर्माण है। कार्य युद्ध स्तर पर हो रहा है। महल के स्वर्णिम मॉडल को देखकर ही मेरे नेत्र तृप्त हो गये थे। ‘सत्यं शिवं सुन्दरं’ का भव्य प्रतीक बनेगा यह प्रासाद। सोया पड़ा कुण्डलपुर जाग गया है। आये दिन कोई न कोई उत्सव। विशिष्ट अतिथियों का जमघट, कभी विहार के राज्यपाल का आगमन होता है तो कभी नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति, वरिष्ठ प्राध्यापक पधारते हैं। कभी महामहिम राष्ट्रपति अब्दुल कलाम तथा आदरणीय मंत्री धनंजय जी पूज्या माताजी की चरण-वंदना करने आते हैं तो कभी योजना अधिकारी पर्यटन विभाग मुझ में विशिष्ट पर्यटन स्थल घोषित करने की संभावना तलाशते हैं। कभी तीर्थंकर ऋषभदेव विद्वत् संघ के सदस्य आ जुटते हैं तो कभी अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महिला संगठन की तिरिया पलटन आ धमकती है।

न जाने कैसा चुम्बकीय आकर्षण है

गणिनी माँ के हिमालयी व्यक्तित्व में। मैं विस्मय विमुग्ध हूँ। उम्र के इस पड़ाव पर जब वे इकहत्तर शरद पूर्णिमाएं देख चुकी हैं उनकी युवकोचित ऊर्जा, कठिन परिश्रम, सतत अध्यवसाय श्लाघनीय है। माताजी की विलक्षण सर्जना शक्ति के समक्ष भी नतमस्तक हूँ मैं। लेखनी और जिव्हा दोनों पर सरवती विराजती हैं मैं ऊहापोह की स्थिति में आ जाता हूँ कि पूज्या माँ की पिच्छी में जादू है या लेखनी में। यथार्थ तो यह है कि माताजी का समग्र व्यक्तित्व एक कल्याणकारी चमत्कार है। ममतामयी माँ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। मेरे स्वर्णिम अतीत का वैभव वापस आ गया है, मेरा देदीप्यमान वर्तमान मुस्करा रहा है, मेरा रूपहला भविष्य झाँक रहा है-इस त्रिकाल विस्मय की सूत्रधार परमपूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की जय हो, जय हो, जय हो। कुण्डलपुर की जयकार का स्वर आज भी मेरे कानों में गूँज रहा है क्योंकि यह स्वर कंठ से नहीं हृदय से निसृत हुआ था।
 
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