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गंगा आदि नदियों के गिरने के स्थान पर महल की छत पर जिनप्रतिमाएँ

July 18, 2017स्वाध्याय करेंjambudweep

गंगा आदि नदियों के गिरने के स्थान पर महल की छत पर जिनप्रतिमाएँ


गंगादु रोहिदस्सा पउमे रत्तदु सुवण्णमंतदहे।
सेसे दो द्दो जोयणदलमंतरिदूण णाभिगििर१।।५८१।।

गङ्गाद्वे रोहितास्या पद्मे रक्ताद्वे सुवर्णा अन्तह्रदे।
शेषेषु द्वे द्वे योजनदलमन्तरित्वा नाभिगिरिम्।।५८१।।
 
गंगा। गङ्गा सिन्धुः रोहितास्या च पद्महदे उत्पन्नाः, रक्ता रक्तोदा सुवर्णकूला चान्तह्रदे पुण्डरीकाख्ये उत्पन्नाः। शेषेषु सरस्सु द्वे द्वे नद्यौ उत्पन्ने, तत्र गङ्गा सिन्धू रक्ता रक्तोदेति चतुर्नदीः परित्यज्य शेषा नद्यो नाभिगििर योजनार्धमन्तरित्वा गताः तत्र गंगासिन्धुरक्तारक्तोदानां नाभिगिरेरभावादेवार्विजताः।।५८१।। अथ तत्र गंगाया उत्पिंत्त तद्गमनप्रकारं च गाथात्रयेणाह—
वज्जमुहदो जणित्ता गंगा पंचसयमेत्थ पुव्वमुहं।
गत्ता गंगाकूडं अविपत्ता जोयणद्धेण।।५८२।।

दक्खिणमुहं बलित्ता जोयणतेवीससहियपंचसयं।
साहियकोसद्धजुदं गत्ता जा विविहमणिरूवा।।५८३।।

कोसदुगदीहबहला वसहायारा य जिब्भियारुंदा।
छज्जोयणं सकोसं तिस्से गंतूण पडिदा सा।।५८४।।

वङ्कामुखत: जनित्वा गंगा पञ्चशतमत्र पूर्वमुखं।
गत्वा गंगाकूटं अप्राप्य योजनार्धेन।।५८२।।

दक्षिणमुखं बलित्वा योजनत्रयोविंशतिसहितपञ्चशतम्।
साधिकक्रोशार्धयुतं गत्वा या विविधमणिरूपा।।५८३।।

क्रोशद्वयदीर्घबाहल्या वृषभाकारा च जिह्विकारुन्द्रा।
षड्योेजनं सकोशं तस्यां गत्वा पतिता सा।।५८४।।
 
वज्ज। पद्मसरोवरस्थवङ्काद्वाराज्जनित्वा गङ्गा पञ्चशतयोजनान्यत्र हिमवति पूर्वमुखं गत्वा योजनाद्र्धेन गंगाकूटमप्राप्य।।५८२।। दक्खिण। तस्माद्दक्षिणमुखं वलित्वा व्यावृत्य त्रयोविंशतिसहितपञ्चशतयोजनानि साधिकक्रोशार्धयुतानि गत्वा। अस्य वासना—भरतप्रमाणं यो० ५२६-६/१९ द्विगुणीकृत्य १०५२-१२/१९ तत्र नदीव्यासं यो ६ क्रो १ अपनीय १०४६ अर्धयित्वा ५२३ शेषयोजनं १२/१९ चर्तुिभ: क्रोशं कृत्वा ४८/१९ भक्त्वा २-१०/१९ आगते लब्धे क्रो २ एवं क्रोशं नदीव्यासाय दद्यात् ।अवशिष्टं शेषं १०/१९ लब्धैकक्रोशं चार्धयेत्।५/१९।१/२। एवं सति योजणतेवीसेत्याद्युक्तमज्र्ं व्यक्तं भवति। या जिह्विका प्रणालिका विविधमणिरूपा।।५८३।। कोस। क्रोशद्वयदीर्घबाहल्या वृषभाकारा कोशसहितषड्योजनरुन्द्रा तस्यां प्रणालिकायां गत्वा सा गंगा नदी पतिता।।५८४।।

गंगा आदि नदियों के गिरने के स्थान पर महल की छत पर जिनप्रतिमाएँ

गाथार्थ :— गंगादि दो और रोहितास्या ये तीन नदियाँ पद्म द्रह से, सुवर्णकूला, रक्ता और रक्तोदा ये तीन नदियाँ अन्तिम पुण्डरीक ह्रद से तथा शेष द्रहों से दो-दो नदियाँ उत्पन्न हुई हैं। नदियों का बहाव नाभिगिरि को आधा योजन छोड़कर है।।५८१।।
विशेषार्थ :— पद्म ह्रद से गंगा, सिन्धु और रोहितास्या ये तीन, महापद्म ह्रद से रोहित और हरिकांता, तिगिञ्छ ह्रद से हरित् और सीतोदा, केसरी ह्रद से सीता और नरकान्ता, महापुण्डरीक से नारी और रूप्यकूला तथा अन्तिम पुण्डरीक ह्रद से सुवर्णकूला, रक्ता और रक्तोदा ये तीन नदियाँ निकली हैं। गङ्गा, सिन्धु, रक्ता और रक्तोदा इन चार नदियों को छोड़कर शेष नदियाँ नाभिगिरि को आधा योजन छोड़ कर जाती हैं। भरतैरावत क्षेत्रों में नाभिगिरि का अभाव है अत: गंगा, सिन्धु, रक्ता और रक्तोदा इन चार नदियों को छोड़कर शेष नदियाँ नाभिगिरि को आधा योजन दूर से छोड़कर प्रदक्षिणारूप जाती हैं। यथा— हैमवत क्षेत्र में विजटावान् और हरिक्षेत्र में पद्मवान् पर्वत हैं, जो नाभिगिरि नाम से प्रसिद्ध हैं अत: रोहित्, रोहितास्या और हरित्, हरिकांता ये दो-दो महानदियाँ इन दोनों नाभिपर्वतों से आधा योजन इधर रहकर प्रदक्षिणा रूप से जाती हैं। विदेह क्षेत्र में सुमेरु (नाभिगिरि) है ही। रम्यक क्षेत्र में जो गंधवान् और हैरण्यवत क्षेत्र में विजयार्ध नाम के पर्वत हैं वे भी नाभिगिरि नाम से प्रसिद्ध हैं अत: सीता-सीतोदा सुमेरु से, नारी-नरकांता गन्धवान् से और सुवर्णकूला-रूप्यकूला विजयार्ध (नाभिगिरि) से आधा योजन इधर रहकर अर्ध प्रदक्षिणारूप से जाती हैं। गंगा नदी की उत्पत्ति और उसके गमन का प्रकार तीन गाथाओं द्वारा कहते हैं—
गाथार्थ :— गङ्गा नदी वज्रमय मुख से (उत्पन्न) निकलकर पाँच सौ योजन पूर्व की ओर जाती हुई गङ्गाकूट को न पाकर अर्धयोजन पूर्व से दक्षिण की ओर मुड़कर साधिक अर्ध कोश अधिक पाँच सौ तेईस योजन आगे जाकर नाना प्रकार के मणियों से रचित, दो कोस लम्बी, दो कोस मोटी और सवा छह योजन चौड़ी वृषभाकार जिह्विका (नाली) में जाकर (हिमवान् पर्वत से) नीचे गिरती है।।५८२-५८४।। विशेषार्थ :—गङ्गा नदी पद्मद्रह की पूर्व दिशा में स्थित वज्रद्वार से निकल कर इसी पर्वत के ऊपर ५०० योजन पूर्व दिशा की ओर जाकर इसी हिमवान् पर्वत पर स्थित गंगाकूट को न पाकर अर्ध योजन पहिले ही अर्थात् अर्ध योजन गंगाकूट को छोड़कर दक्षिण की ओर मुड़कर दक्षिण दिशा में ही (इसी हिमवान् पर्वत पर) साधिक अर्धकोश से अधिक पाँच सौ तेईस (५२३) योजन आगे जाती है। इसकी वासना कहते हैं :—भरतक्षेत्र का प्रमाण ५२३-६/१९ योजन है, इसको दूना करने से ५२६-६/१९ ² २ ·१०५२-१२/१९ योजन हिमवान् पर्वत का विस्तार प्राप्त हुआ। इस पर्वत के ठीक बीच में पद्मद्रह है और गंगा भी पर्वत के ठीक मध्य से जाती है अतएव पर्वत के विस्तार में नदी का व्यास ६-१/४ यो० घटाकर आधा करने पर १०५२-१२/१९-६-१/४ · ५२३ योजन हुए । अवशिष्ट १२/१९ योजन के कोश बनाने के लिये ४ से गुणा करने पर १२/१९²४/१ ·४८/१९ अर्थात् २१०/१९ कोश प्राप्त हुए। इसमें से एक कोश नदी के व्यास में दे देने पर १-१०/१९ अर्थात् २९/१९ अवशेष रहे, इन्हें आधा करने पर २१/१९ ² २ · २९ / ३८ अर्थात् ५२३-२९/३८ योजन (गंगा नदी) दक्षिण दिशा में जाती है। जहाँ गंगा नदी मुड़ी है वहाँ हिमवान् पर्वत के व्यास में से नदी का व्यास घटाकर अवशिष्ट का आधा करने पर आधा भाग उत्तर में और आधा दक्षिण में रहा अत: दक्षिण के उस अर्ध भाग (५२३-२९/३८योजन) को पार करने के बाद ही गंगा को हिमवान् का तट प्राप्त हो गया। हिमवान् के इसी तट पर नाना मणियों के परिणामरूप जिह्विका नाम की प्रणालिका (नाली) है, जो दो कोस लम्बी, दो कोस मोटी और ६-१/४ योजन चौड़ी है। यह वृषभाकार (गोमुखाकार) है। गंगा नदी इसी नाली में जाकर हिमवन् पर्वत से नीचे गिरती है।
 
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