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गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का परिचय

June 2, 2022साधू साध्वियांSurbhi Jain

१०८ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव प्रतिमा निर्माण की महान प्रेरिका

भारतगौरव, दिव्यशक्ति गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का परिचय

-आर्यिका चन्दनामती माताजी

कुन्दकुन्दान्वयो जीयात्, जीयात् श्री शांतिसागर:।

जीयात् पट्टाधिपस्तस्य, सूरि: श्री वीरसागर:।।

श्री ब्राह्मी गणिनी जीयात्, जीयादन्तिमचन्दना।

जीयात् ज्ञानमती माता, गणिन्यां प्रमुखा कलौ।।

 

जैनशासन के वर्तमान व्योम पर छिटके नक्षत्रों में दैदीप्यमान सूर्य की भाँति अपनी प्रकाश-रश्मियों को प्रकीर्णित कर रहीं पूज्यगणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर उठी लेखनी की अपूर्णता यद्यपि अवश्यंभावी है, तथापि आत्मकल्याण की भावना से पूज्य माताजी के श्रीचरणों में उनके दीर्घकालीन त्यागमयी जीवन के प्रति विनम्र विनयांजलिरूप मेरा यह विनीत प्रयास है।

१. जन्म, वैराग्य और दीक्षा-२२ अक्टूबर सन् १९३४, शरदपूर्णिमा के दिन टिकैतनगर ग्राम (जि. बाराबंकी, उ.प्र.) के श्रेष्ठी श्री छोटेलाल जैन की धर्मपत्नी श्रीमती मोहिनी देवी के दांपत्य जीवन के प्रथम पुष्प के रूप में ‘‘मैना’’ का जन्म परिवार में नवीन खुशियाँ लेकर आया था। माँ को दहेज मेें प्राप्त ‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’ ग्रन्थ के नियमित स्वाध्याय एवं पूर्वजन्म से प्राप्त दृढ़वैराग्य संस्कारों के बल पर मात्र १८ वर्ष की अल्प आयु में ही शरद पूर्णिमा के दिन मैना ने आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज से सन् १९५२ में आजन्म ब्रह्मचर्यव्रतरूप सप्तम प्रतिमा एवं गृहत्याग के नियमों को धारण कर लिया। उसी दिन से इस कन्या के जीवन में २४ घंटे में एक बार भोजन करने के नियम का भी प्रारंभीकरण हो गया।

नारी जीवन की चरमोत्कर्ष अवस्था आर्यिका दीक्षा की कामना को अपनी हर साँस में संजोये ब्र. मैना सन् १९५३ में आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज से ही चैत्र कृष्णा एकम् को श्री महावीरजी अतिशय क्षेत्र में ‘क्षुल्लिका वीरमती’ के रूप में दीक्षित हो गई। सन् १९५५ में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की समाधि के समय कुंथलगिरी पर एक माह तक प्राप्त उनके सान्निध्य एवं आज्ञा द्वारा ‘क्षुल्लिका वीरमती’ ने आचार्य श्री के प्रथम पट्टाचार्य शिष्य-वीरसागर जी महाराज से सन् १९५६ में ‘वैशाख कृष्णा दूज’ को माधोराजपुरा (जयपुर-राज.) में आर्यिका दीक्षा धारण करके ‘‘आर्यिका ज्ञानमती’’ नाम प्राप्त किया।

२. अध्ययन और अध्यापन-ज्ञानप्राप्ति की पिपासा माता ज्ञानमती जी के रोम-रोम में प्रारंभ से ही कूट-कूट कर भरी थी। दीक्षा लेते ही स्वाध्याय-मनन-चिंतन की धारा में ही उन्होंने स्वयं को निबद्ध कर लिया। ज्ञान प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ दााोत बना-संघस्थ मुनियों, आर्यिकाओं एवं संघस्थ शिष्य-शिष्याओं को जैनागम का तलस्पर्शी अध्यापन। ‘कातंत्र रूपमाला’ रूपी बीज से पूज्य माताजी की ज्ञानसाधना रूप वृक्ष प्रस्फुटित  हुआ, जिस पर जो पत्ते, फूल -फल इत्यादि लगे, उन्होंने समस्त संसार को सुवासित कर दिया। गोम्मटसार, परीक्षामुख, न्यायदीपिका, प्रमेयकमलमार्तण्ड, अष्टसहदााी, तत्त्वार्थराजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, अनगारधर्मामृत, मूलाचार, त्रिलोकसार आदि अनेक ग्रंथों को अपनी शिष्याओं और संघस्थ साधुओं को पढ़ा-पढ़ाकर आपने अल्प समय में ही विस्तृत ज्ञानार्जन कर लिया। हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़, मराठी इत्यादि भाषाओं पर आपका पूर्ण अधिकार हो गया।

३. लेखनी का प्रारंभीकरण संस्कृत भाषा से-भगवान महावीर के पश्चात् २६०० वर्ष के जिस इतिहास में जैन साध्वियों के द्वारा शास्त्र लेखन की कोई मिसाल दृष्टिगोचर नहीं होती थी, वह इतिहास जागृत हो उठा जब क्षुल्लिका वीरमती जी ने सन् १९५४ में सहदानाम के १००८ मंत्रों से अपनी लेखनी का प्रारंभ किया। यही मंत्र सरस्वती माता का वरदहस्त बनकर पूज्य माताजी की लेखनी को ऊँचाइयों की सीमा तक ले गये।

सन् १९६९-७० में न्याय के सर्वोच्च ग्रंथ ‘अष्टसहदााी’ के हिन्दी अनुवाद ने उनकी अद्वितीय विद्वत्ता को संसार के सामने उजागर करदिया। कितने ही ग्रंथों की संस्कृत टीका, कितनी ही टीकाओं के हिंदी अनुवाद, संस्कृत एवं हिन्दी में अनेक मौलिक ग्रंथों की रचना मिलकर आज ४०० से भी अधिक संख्या हो चुकी है। पूज्य माताजी द्वारा लिखित समयसार, नियमसार इत्यादि की हिन्दी-संस्कृत टीकाएँ, जैनभारती, ज्ञानामृत, कातंत्र व्याकरण, त्रिलोक भास्कर, प्रवचन निर्देशिका इत्यादि स्वाध्याय ग्रंथ, प्रतिज्ञा, संस्कार, भक्ति, आदिब्रह्मा, आटे का मुर्गा, जीवनदान इत्यादि जैन उपन्यास, द्रव्यसंग्रह-रत्नकरण्डश्रावकाचार इत्यादि के हिन्दी पद्यानुवाद व अर्थ, बाल विकास, बालभारती, नारी आलोक आदि का अध्ययन किसी को भी वर्तमान में उपलब्ध जैन वाङ्गमय की विविध विधाओं का विस्तृत ज्ञान कराने में सक्षम है।

अध्यात्म, व्याकरण, न्याय, सिद्धांत, बाल साहित्य, उपन्यास, चारों अनुयोगोंरूप विविध विधाओं के अतिरिक्त पूज्य माताजी की लेखनी से विपुल भक्ति साहित्य उद्भूत हुआ है। इन्द्रध्वज, कल्पदु्रम, सर्वतोभद्र, तीन लोक, सिद्धचक्र, विश्वशांति महावीर विधान इत्यादि अनेकानेक भक्ति विधानों ने देश के कोने-कोने में जिनेन्द्र भक्ति की जो धारा प्रवाहित की है, वह अतुलनीय है। पूज्य माताजी का चिंतन एवं लेखन पूर्णतया जैन आगम से संबद्ध है, यह उनकी महान विशेषता है।

धन्य हैं ऐसी महान प्रतिभावान् सरस्वती माता!

४. सिद्धांत चक्रेश्वरी-पूज्य माताजी ने जैनशासन के सर्वप्रथम सिद्धांत ग्रंथ ‘षट्खण्डागम’ की सोलहों पुस्तकों के सूत्रों की संस्कृत टीका ‘सिद्धांत चिंतामणि’ का लेखन करके महान कीर्तिमान स्थापित
किया है। क्रम-क्रम से हिन्दी टीका सहित इन पुस्तकों के प्रकाशन का कार्य चल रहा है। आज से लगभग १००० वर्ष पूर्व आचार्य श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती ने जिस प्रकार छह खण्डरूप द्वादशांगरूप जिनवाणी को परिपूर्ण आत्मसात करके साररूप में द्रव्य संग्रह, गोम्मटसार, लब्धिसार इत्यादि ग्रंथ अपनी लेखनी से प्रसवित किये थे, उसी प्रकार इस बीसवीं सदी की माता ज्ञानमती जी ने समस्त उपलब्ध जैनागम का गहन अध्ययन-मनन-चिंतन करके इस सिद्धांतचिंतामणिरूप संस्कृत टीका लेखन के महत्तम कार्य से ‘सिद्धांत चक्रेश्वरी’ के पद को साकार कर दिया है। आचार्य श्री वीरसेन स्वामी द्वारा १००० वर्ष पूर्व लिखित ‘धवलाटीका’ के पश्चात् इस महान ग्र्रंथ की सरल टीका लेखन का कार्य प्रथम बार हुआ है।

५. शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर-जैन सिद्धांतों का मर्म विद्वत् वर्ग समझ सकें, इस भावना से कितने ही शिक्षण-प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन पूज्य माताजी की प्रेरणास्वरूप किया गया। सन् १९६९ में जयपुर चातुर्मास के मध्य ‘जैन ज्योतिर्लोेक’ पर प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया गया, जिसमें पूज्य माताजी द्वारा ‘जैन भूगोल एवं खगोल’ का विशेष ज्ञान विद्वत्वर्ग को कराया गया। अक्टूबर सन् १९७८ में हस्तिनापुर में पं. मक्खनलाल जी शास्त्री , पं. मोतीचंद जी कोठारी, डा. लाल बहादुर शास्त्री  सहित जैन समाज के उच्चकोटि के लगभग १०० विद्वानों का विद्वत् प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया गया, जिसमें पूज्य माताजी ने विद्वत्समुदाय को यथेष्ट मार्गदर्शन प्रदान किया। समय-समय पर आज तक यह श्रृंखला चल रही है।

६. राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार-सन् १९८५ में ‘जैन गणित एवं त्रिलोक विज्ञान’ पर अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में सम्पन्न हुआ, पुन: अनेक संगोष्ठियाँ सम्पन्न होती रहीं और सन् १९९८ में ‘भगवान ऋषभदेव राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन’ के भव्य आयोजन द्वारा देश भर के विश्वविद्यालयों से पधारे कुलपतियों को भगवान ऋषभदेव को भारतीय संस्कृति एवं जैनधर्म के वर्तमानयुगीन प्रणेता पुरुष के रूप में जानने का अवसर प्राप्त हुआ। ११ जून २००० को ‘जैनधर्म की प्राचीनता’ विषय पर आयोजित इतिहासकारों के सम्मेलन द्वारा पाठ्य पुस्तकों में जैनधर्म संबंधी भ्रांतियों के सुधार के लिए विशेष दिशा-निर्देश ‘राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद’ (NCERT) तक पहुँचाये गये। इनके अतिरिक्त अनेक अन्य सेमिनार भी समय-समय पर सम्पन्न हुए हैं, जिनके प्रतिफल में देश के समक्ष समय-समय पर साहित्यिक कृतियाँ (proceedings) प्रस्तुत हो चुकी हैं।

७. दिगम्बर समाज की साध्वी को दो-दो बार डी.लिट्. की उपाधि प्रदान कर विश्वविद्यालय भी गौरवान्वित हुए-किसी महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि में पारम्परिक डिग्रियों को प्राप्त किये बिना मात्र स्वयं के धार्मिक अध्ययन के बल पर विदुषी माताजी ने अध्ययन, अध्यापन, साहित्य निर्माण की जिन ऊँचाइयों को स्पर्श किया, उस अगाध विद्वत्ता के सम्मान हेतु डॉ. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद द्वारा ५ फरवरी १९९५ को डी.लिट्. की मानद् उपाधि से पूज्य माताजी को सम्मानित करके स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया गया तथा दिगम्बर जैन साधु-साध्वी परम्परा में पूज्य माताजी यह उपाधि प्राप्त करने वाली प्रथम व्यक्तित्व बन गईं। पुन: इसके उपरांत ८ अप्रैल २०१२ को पूज्य माताजी के ५७वें आर्यिका दीक्षा दिवस के अवसर पर तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय, मुरादाबाद में विश्वविद्यालय का प्रथम विशेष दीक्षांत समारोह आयोजित करके विश्वविद्यालय द्वारा पूज्य माताजी के करकमलों में डी.लिट्. की मानद उपाधि प्रदान की गई।

इसी प्रकार से समय-समय पर विभिन्न आचार्यों एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा पूज्य माताजी को न्याय प्रभाकर, आर्यिकारत्न, आर्यिकाशिरोमणि, गणिनीप्रमुख, वात्सल्यमूर्ति, तीर्थोद्धारिका, युगप्रवर्तिका, दिव्यशक्ति, संस्कृति संरक्षिका, जिनशासन प्रभाविका, चारित्रचन्द्रिका, राष्ट्रगौरव, वाग्देवी, भारतगौरव इत्यादि अनेक उपाधियों से अलंकृत किया गया है, किन्तु पूज्य माताजी इन सभी उपाधियों से निस्पृह होकर अपनी आत्मसाधना को प्रमुखता देते हुए निर्दोष आर्यिका चर्या में निमग्न रहने का ही अपना मुख्य लक्ष्य रखती हैं।

८. पूज्य माताजी की प्रेरणा से त्याग में बढ़े कदम-त्यागमार्ग में अग्रसर सम्यग्दृष्टी जीव की यहविशेषता रहती है कि वह संसार परिभ्रमण से आक्रान्त अन्य भव्य जीवों को भी मोक्षमार्ग का पथिक
बनाने हेतु विशेष रूप से प्रयासरत रहता है। इसी भावना की परिपुष्टि करते हुए पूज्य माताजी ने अनेकानेक शिष्य-शिष्याओं का सृजन किया।

संघस्थ साधुओं-मुनिजनों एवं आर्यिकाओं को अध्ययन कराते हुए सन् १९५६-५७ में ब्र. राजमल जी को राजवार्तिक आदि अनेक ग्रंथों का अध्ययन कराकर पूज्य माताजी ने उन्हें मुनिदीक्षा लेने की प्रेरणा प्रदान की। पुनश्च ब्र. राजमल जी कालांतर में आचार्य श्री अजितसागर जी महाराज के रूप में चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज की परम्परा में चतुर्थ पट्टाचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

सन् १९६७ में सनावद चातुर्मास के मध्य पूज्य माताजी ने ब्र. मोतीचंद एवं युवक यशवंत कुमार को घर से निकाला, उन्हें खूब विद्याध्ययन कराया तथा यशवंत कुमार को मुनिदीक्षा दिलवायी, जो वर्तमान में आचार्यश्री वर्धमानसागर के नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हैं। ब्र. मोतीचंद जी भी क्षुल्लक मोतीसागर बनकर जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर के प्रथम पीठाधीश के रूप में प्रतिष्ठित हुए। षष्ठम् पट्टाचार्यश्री अभिनंदनसागर जी महाराज ने भी पूज्य माताजी से राजवार्तिक, गोम्मटसार आदि ग्रंथों का अध्ययन किया था। मुनि श्री भव्यसागर जी महाराज, मुनि श्री संभवसागर जी महाराज इत्यादि ने भी पूज्य माताजी से विद्याध्ययन किया तथा उनकी प्रेरणा से ही मुनि दीक्षा प्राप्त की। वर्तमान में चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की निर्दोष अक्षुण्ण परम्परा के सप्तम पट्टाचार्य श्री अनेकांतसागर जी महाराज ने भी इनकी प्रेरणा से मुनिदीक्षा प्राप्त करके पट्टाचार्य पद पर अभिशिक्त होकर चतुर्विध संघ का संचालन कर रहे हैं तथा पूज्य माताजी के अनन्य शिष्य स्वस्तिश्री कर्मयोगी पीठाधीश अभिनव चन्द्रगुप्त की उपाधि सार्थक करते हुए रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी अत्यंत कर्मठ व्यक्तित्व के रूप में समस्त समाज में प्रसिद्धि को प्राप्त हैं।

आर्यिका माताओं की शृँखला में आर्यिका श्री पद्मावती माताजी, आर्यिका श्री जिनमती माताजी, आर्यिका श्री आदिमती माताजी, आर्यिका श्री श्रेष्ठमती माताजी, आर्यिका श्री अभयमती माताजी, आर्यिका श्री श्रुतमती माताजी, मैं स्वयं (आर्यिका चन्दनामती) तथा आर्यिका श्री सम्मेदशिखरमती माताजी, आर्यिका श्री कैलाशमती माताजी आदि अन्य कई माताजी पूज्य माताजी से प्राप्त वैराग्यमयी संस्कारों एवं अध्यापन का ही प्रतिफल हैं। पूज्य माताजी से सर्वांगीण ग्रंथों का अध्ययन करके पूज्य जिनमती माताजी ने प्रमेयकमलमार्तण्ड, पूज्य आदिमती माताजी ने गोम्मटसार कर्मकाण्ड का हिन्दी अनुवाद किया है। मुझे भी षट्खण्डागम एवं अन्य महान ग्रंथों की हिन्दी टीका, महावीर स्तोत्र की संस्कृत टीका एवं कतिपय संस्कृत, हिन्दी, गुजराती, मराठी, अंग्रेजी भाषा में रचनाएँ लिखने का सुअवसर पूज्य माताजी की अनुकम्पा से प्राप्त हुआ है। अपने दीक्षित जीवन की सुदीर्घ अवधि में कितने ही भव्य जीवों ने पूज्य माताजी से आर्यिका-क्षुल्लिका दीक्षा, आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत, शक्ति अनुसार प्रतिमाएँ, पंच अणुव्रत इत्यादि ग्रहण करके संयम के मार्ग को आत्मसात किया है। वर्तमान में पूज्य माताजी के साक्षात् सान्निध्य में रहकर अनेक ब्रह्मचारीगण (ब्र. अध्यात्म, बाल ब्र. विजय जैन, डॉ. जीवन प्रकाश जैन,  आदि)-ब्रह्मचारिणी बहनें(संघ संचालिका कु. बीना दीदी, कु. सारिका, कु. इन्दू, कु. अलका, कु. दीपा, कु. श्रेया, ब्र. मंजु जैन, कु. डॉ. अनुप्रेक्षा,कु.श्वेता,कु .सुरभि, मधुबाला, कुसुम, कुमुदनी, सौ. मीना, ब्र. मंगला जैन साहू आदि) त्यागमार्ग में संलग्न हैं। पूज्य माताजी की प्रेरणा से मोक्षमार्ग में प्रवृत्त ऐसे सैकड़ों भव्य जीवों की संख्या हमारे समक्ष है।

९. तीर्थ विकास की भावना-तीर्थंकर भगवन्तों की कल्याणक भूमियों एवं विशेष रूप से जन्मभूमियों के विकास की ओर पूज्य माताजी की विशेष आंतरिक रुचि सदा से रही है। पूज्य माताजी का
कहना है कि हमारी संस्कृति का परिचय प्रदान करने वाली ये कल्याणक भूमियाँ हमारी संस्कृति की महान धरोहर हैं अत: इनका संरक्षण-संवर्धन-विकास अत्यंत आवश्यक है।

सर्वप्रथम भगवान शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ की जन्मभूमि ‘हस्तिनापुर’ में पूज्य माताजी की प्रेरणा से निर्मित जैन भूगोल की अद्वितीय रचना ‘जम्बूद्वीप’ आज विश्व के मानस पटल पर अंकित हो गयी है, उ.प्र. सरकार के पर्यटन विभाग ने जम्बूद्वीप से हस्तिनापुर की पहचान बताते हुए उसे एक अतुलनीय ‘मानव निर्मित स्वर्ग’(A MAN MADE HEAVEN OF UNPARALLEL  SUPERLATIVES AND NATURAL WONDERS) की संज्ञा प्रदान की है। सन् १९९३ से १९९५ तक शाश्वत जन्मभूमि ‘अयोध्या’ में ‘समवसरण मंदिर’ और ‘त्रिकाल चौबीसी मंदिर’ का निर्माण करवाकर उसका विश्वव्यापी प्रचार, अकलूज (महाराष्ट्र) में नवदेवता मंदिर निर्माण की प्रेरणा, सनावद (म.प्र.) में णमोकार धाम, प्रीत विहार-दिल्ली में कमलमंदिर, मांगीतुंगी (महाराष्ट्र) में सहदााकूट कमल मंदिर, अहिच्छत्र में ग्यारह शिखर वाला तीस चौबीसी मंदिर और भगवान ऋषभदेव की दीक्षा एवं केवलज्ञान कल्याणक भूमि-प्रयाग (इलाहाबाद) में ‘तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ’ का भव्य निर्माण पूज्य माताजी की ही प्रेरणा के प्रतिफल हैं।

कितने ही अन्य स्थानों पर भी जैसे-खेरवाड़ा में कैलाशपर्वत निर्माण की प्रेरणा, पिड़ावा में समवसरण रचना की प्रेरणा, सोलापुर (महा.) में भगवान ऋषभदेव की विशाल प्रतिमा की स्थापना, श्री महावीर जी के शांतिवीर नगर में मंदारवृक्ष की स्थापना, अतिशयक्षेत्र श्री त्रिलोकपुर में पारिजातवृक्ष की स्थापना, केकड़ी (राज.) में सम्मेदशिखर की रचना आदि अनेकानेक निर्माण पूज्य माताजी के निर्देशन द्वारा सम्पन्न हुए और हो रहे हैं। भगवान महावीर स्वामी की जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा-बिहार) के विकास हेतु भगवान महावीर स्वामी कीर्तिस्तंभ, भगवान महावीर की विशाल खड्गासन प्रतिमा सहित विश्वशांति महावीर मंदिर, नवग्रह शांति जिनमंदिर, त्रिकाल चौबीसी मंदिर एवं नंद्यावर्त महल आदि अनेक निर्माण आपकी प्रेरणा से इस क्षेत्र पर हुए हैं तथा कुण्डलपुर तीर्थ विश्व भर के लिए आकर्षण का केन्द्र बन गया है।

भगवान मुनिसुव्रतनाथ की जन्मभूमि ‘राजगृही’ में‘मु निसुव्रतनाथ जिनमंदिर’ एवं विपुलाचल पर्वत की तलहटी में मानस्तंभ रचना, भगवान महावीर की निर्वाणस्थली पावापुरी में जलमंदिर के समक्ष पाण्डुकशिला परिसर में भगवान की खड्गासन प्रतिमा सहित ‘भगवान महावीर जिनमंदिर’, गौतम गणधर स्वामी की निर्वाणस्थली गुणावां जी में गौतम स्वामी की खड्गासन प्रतिमा सहित जिनमंदिर, श्री सम्मेदशिखर जी में भगवान ऋषभदेव मंदिर इत्यादि समस्त निर्माण भी पूज्य माताजी की संप्रेरणा से ही सम्पन्न हुए हैं।

 

तीर्थंकर जन्मभूमि विकास की शृँखला में भगवान पुष्पदंतनाथ की जन्मभूमि काकंदी में ‘श्री पुष्पदंतनाथ जिनमंदिर’ का निर्माणकार्य होकर उसमें भगवान पुष्पदंतनाथ की विशाल सवा ९ फुट उत्तुंग पद्मासन प्रतिमा पंचकल्याणक प्रतिष्ठापूर्वक विराजमान हो चुकी हैं।

तीर्थंकरों की शाश्वत जन्मभूमि अयोध्या में वर्तमानकालीन वहाँ जन्में पाँच तीर्थंकरों की जन्मभूमि की टोकों पर जिनमंदिर निर्माण की प्रेरणा प्रदान कर आपने संस्कृति को जीवन्त करने का अभूतपूर्व प्रयास किया है। उस शृँखला में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की टोंक पर सन् २०११ में सुन्दर कलात्मक मंदिर बनकर उसमें सवा चार फुट पद्मासन श्वेत प्रतिमा विराजमान हुई हैं तथा सरयू नदी के तट पर जून २०१३ में भगवान अनन्तनाथ के मंदिर का निर्माण होकर वेदी में भगवान की सवा दस फुट उत्तुंग पद्मासन प्रतिमा विराजमान की गई है। इसी प्रकार जून २०१४ में भगवान अजितनाथ की टोंक पर विशाल जिनमंदिर का निर्माण तथा दिसम्बर २०१४ में भगवान अभिनंदननाथ की टोंक पर विशाल जिनमंदिर का निर्माण करके वेदी में ५-५ फुट की सुन्दर पद्मासन प्रतिमाएं विराजमान की गई हैं और भव्य पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएं सम्पन्न हुई हैं। साथ ही वहाँ निर्मित ‘भरत-बाहुबली’ टोंक का भी नवनिर्माण होकर आज अयोध्या तीर्थ एक विकसित स्वरूप में जनमानस के आकर्षण का केन्द्र बन गया है।

उसी शृँखला में श्री सुमतिनाथ भगवान की टोंक पर भी भव्य मंदिर निर्माण किया जा रहा है।

अनेक वर्षों से अड़चनों को प्राप्त हो रही भगवान श्रेयांसनाथ की जन्मभूमि सिंहपुरी-सारनाथ में भगवान की विशाल प्रतिमा का पंचकल्याणक महोत्सव जनवरी २००५ में सानंद सम्पन्न हुआ। भगवान वासुपूज्य की जन्मभूमि चम्पापुरी में भगवान वासुपूज्य की लाल ग्रेनाइट की ३१ फुट विशाल खड्गासन प्रतिमा पूज्य माताजी की प्रेरणा का ही सुफल है। वर्तमान में भगवान शीतलनाथ की जन्मभूमि भद्दिलपुर-भद्रिकापुरी का विकासकार्य पूज्य माताजी के विशेष आशीर्वाद से अविरल गति से चल रहा है और भगवान मल्लिनाथ-नमिनाथ की जन्मभूमि मिथिलापुरी के लिए भी पूज्य माताजी प्रयासरत हैं। ऐसी तीर्थंकर भगवन्तों के पंचकल्याणकों से पवित्र भूमियों के विकास-जीर्णोद्धार हेतु सतत संलग्न पूज्य माताजी को शतश: नमन।

उल्लेखनीय है कि पूज्य माताजी के आर्यिका दीक्षास्थल-माधोराजपुरा (राज.) में पदमपुरा अतिशय क्षेत्र के निकट में भी ‘गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती दीक्षा तीर्थ’ के विकास का कार्य सम्पन्न किया जा चुका है। यहाँ सुन्दर कृत्रिम सम्मेदशिखर पर्वत का निर्माण करके १५ फुट उत्तुंग काले पाषाण वाली भगवान पार्श्वनाथ की खड्गासन प्रतिमा एवं चौबीसी विराजमान की गई हैं। इस तीर्थ की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा २१ नवम्बर से २६ नवम्बर २०१० तक पीठाधीश क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज के सान्निध्य में एवं कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र कुमार जैन (वर्तमान पीठाधीश रवीन्द्रकीर्ति स्वामी
जी) के निर्देशन में विशेष महोत्सवपूर्वक सम्पन हुई है।

इसी शृँखला में अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी (राज.) में पूज्य माताजी की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से महावीर धाम परिसर में पंचबालयति दिगम्बर जैन मंदिर का भव्य निर्माण कार्य सम्पन्न हुआ है। यहाँ पर पाँचों बालयति भगवान की प्रतिमाएँ विराजमान करके पृथक् वेदियों में पद्मावती, क्षेत्रपाल की प्रतिमाएँ भी विराजमान की गई हैं। संस्थान द्वारा उक्त जिनमंदिर का पंचकल्याणक दिनाँक २९ जनवरी से २ फरवरी २०१२ तक सानंद सम्पन्न किया गया।

 

 

विशेष : तेरहद्वीप रचना, तीर्थंकरत्रय प्रतिमा एवं तीनलोक रचना

जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर तीर्थ के विकास की अद्वितीयता को अमरता प्रदान करने वाली इन रचनाओं का निर्माण पूज्य माताजी की प्रेरणा से इतिहास में प्रथम बार हुआ। अप्रैल सन् २००७ में स्वर्णिम तेरहद्वीप रचना की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई। विश्व में प्रथम बार निर्मित इस रचना में विराजमान २१२७ जिनप्रतिमाओं के दर्शन करके लोग इच्छित फल की प्राप्ति करते हैं। इसके अतिरिक्त
हस्तिनापुर में जन्मे भगवान शांतिनाथ-कुंथुनाथ-अरहनाथ की ३१-३१ फुट उत्तुंग खड्गासन प्रतिमाओं एवं ५६ फुट उत्तुंग निर्मित तीनलोक रचना की जिनप्रतिमाओं की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा फरवरी सन् २०१० में हुई जो हस्तिनापुर के अतिशय में चार चाँद लगा रही हैं। हस्तिनापुर तीर्थ की गरिमा को वृद्धिंगत करते हुए इसी जम्बूद्वीप परिसर में सन् २०१४ में भगवान चन्द्रप्रभु मंदिर का भव्य निर्माण होकर प्राणप्रतिष्ठा हुई तथा वर्तमान में वहाँ अद्वितीय आगमोक्त ‘भगवान शांतिनाथ समवसरण’ का निर्माणकार्य सम्पूर्णता की ओर है, जो धरती से ७२ फुट ऊँचा बनाया गया है।

 

१०. मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र की ऐतिहासिक यात्रा एवं अमर कृति : १०८ फुट भगवान ऋषभदेव प्रतिमा निर्माण की प्रेरणा-सन् १९९६ में पूज्य माताजी द्वारा प्रदत्त प्रेरणानुसार विश्व के अप्रतिम आश्चर्य के रूप में १०८ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की खड्गासन प्रतिमा के निर्माण का कार्य मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र के पर्वत पर दु्रतगति से हुआ अत: लगभग २० वर्षों के अथक परिश्रम से ‘‘भगवान ऋषभदेव १०८ फुट मूर्ति निर्माण कमेटी’’ द्वारा यह कार्य सम्पन्न हुआ और स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी एवं देश भर के भक्तों की बारम्बार प्रार्थना से पूज्य माताजी का १७ मार्च २०१५ को संघ सहित मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र की ओर एक बार पुन: विहार हुआ और उस ऐतिहासिक विहार ने स्वर्णिम इतिहास का निर्माण कर दिया।

अपने सर्वोदायी  व्यक्तित्व के द्वारा पूज्य माताजी ने जैन संस्कृति के संरक्षण हेतु ऐसे  ‘‘अमरकृति’’ के निर्माण की प्रेरणा समाज को प्रदान की, जिसकी इस संसार में कोई मिशाल नहीं है। आज मांगी पर्वत के अखण्ड पाषाण में निर्मित १०८ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की यह प्रतिमा विश्व के लिए एक महान आश्चर्य है। जैन समाज ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में ‘‘गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड-लंदन’’ ने इस प्रतिमा को अपने रिकॉर्ड में दर्ज करके यह सिद्ध कर दिया है कि इस प्रतिमा के समान अन्य कोई प्रतिमा नहीं है। शास्त्रीय  प्रमाण के अनुसार यह प्रतिमा श्री आचार्य वसुनन्दि प्रतिष्ठा पाठ के आधार से पूरे माप के साथ अंगूठे से लेकर ललाट तक १०८ फुट उत्तुंग बनाई गई है, लेकिन प्रतिमा की प्रशस्ति, कमलासन एवं बालों की ऊँचाई तक यह प्रतिमा १२१ फुट उत्तुंग निर्मित की गई है तथा गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रेकार्ड के मेजर्मेन्ट अनुसार चरण से केशों तक माप करके इसे ११३ फुट की Tallest Jain Idol घोषित किया गया है। इस वीतराग प्रतिमा के निमित्त से सम्पूर्ण विश्व के पर्यटकों एवं तीर्थयात्रियों को जैनधर्म में वर्णित अहिंसा- अपरिग्रह का पाठ पढ़ाने हेतु प्रतिमा को ‘‘द स्टेचू ऑफ अहिंसा’’ का नाम दिया गया है। इस तरह पूज्य माताजी की अमर कृति के रूप में यह प्रतिमा युगों-युगों तक जिनशासन की महिमा को विकसित करके जैन संस्कृति के विशाल व्यक्तित्व का परिचय जनमानस को प्रदान करेगी और ‘‘विश्वशांति’’ हेतु सम्पूर्ण विश्व के राजा व प्रजा को अहिंसा धर्म के पालन हेतु प्रेरित करती रहेगी। इस विशालतम प्रतिमा का भव्यतम व ऐतिहासिक पंचकल्याणक (फरवरी सन् २०१६ में सम्पन्न) ‘न भूतो न भविष्यति’ की सूक्ति को चरितार्थ करता हुआ स्वयं में अद्वितीय रहा है।

 

११. श्री ऋषभदेवपुरम् से संचालित हो रहा है ऋषभगिरि महातीर्थ का प्रबंधन-९९ करोड़ महामुनियों की सिद्धभूमि होने से अतिशय पावन सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी को सम्पूर्ण विश्व में ख्याति प्राप्त कराने के उद्देश्य से पूज्य माताजी की प्रेरणा से मांगीतुंगी फाटा के निकट ऋषभदेवपुरम् नामक नगर की स्थापना हुई है, जहाँ फरवरी सन् २०१७ में नवग्रह शांति जिनमंदिर में विराजित होने वाले ९ तीर्थंकर भगवन्तों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई है।

वर्तमान में उस तीर्थ पर प्रस्तावित सर्वतोभद्र महल, नवग्रह शांति जिनमंदिर, सुख-सुविधा सम्पन्न यात्री निवास, संत निवास आदि निर्माण कार्य द्रुतगति पर हैं। शीघ्र ही यह केन्द्र भी जनमानस के सम्मुख जैनधर्म की महिमा का परिज्ञान नूतन रूप में आगन्तुक यात्रियों को कराएगा।

१२. शिरडी (महाराष्ट्र) में ज्ञानतीर्थ-शिरडी (महाराष्ट्र) को जैन संस्कृति केन्द्र के रूप में स्थापित करने हेतु वहाँ पर ‘ज्ञानतीर्थ’ का निर्माण हुआ है, जिसमें पूज्य माताजी के निर्देशानुसार कालसर्पयोग निवारक भगवान पार्श्वनाथ की विशाल प्रतिमा विराजमान करके पंचकल्याणक महोत्सव (मई २०१३ में) सम्पन्न हो चुका है और वहाँ सुन्दर कमल मंदिर निर्मित है।

 

१३. जृम्भिका तीर्थ विकास की प्रेरणा-भगवान महावीर स्वामी की कैवल्यज्ञान भूमि जृंभिका जो आज बिहार प्रान्त में जमुई के नाम से प्रसिद्ध है, वहाँ एक नूतन भूमि पर कमलासनयुक्त भगवान की सवा ११ फुट उत्तुंग पद्मासन प्रतिमा की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा मई २०१४ में की गई है और आगे इस जृम्भिका तीर्थ का विकास हो रहा है।

 

१४. धर्मप्रभावना के विविध आयाम-जम्बूद्वीप रचना के निर्माण का प्रमुख लक्ष्य लेकर ‘दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान’ नामक संस्था का राजधानी दिल्ली में पूज्य माताजी की प्रेरणा से सन् १९७२ में गठन किया गया। इसी संस्थान ने विविध धर्मप्रभावना के कार्यों का संचालन किया है। संस्थान स्थित ‘वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला’ द्वारा लाखों की संख्या में ग्रंथ प्रकाशन, चारों अनुयोगों के ज्ञान से
समन्वित ‘सम्यग्ज्ञान’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन, णमोकार महामंत्र बैंक इत्यादि कितनी ही कार्ययोजनाएँ जिनशासन की कीर्ति को निरंतर प्रसारित कर रही हैं।

 

पूज्य माताजी की प्रेरणा से सन् १९८२ में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा राजधानी दिल्ली से उद्घाटित ‘जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति’ ने तीन वर्ष तक सम्पूर्ण भारतवर्ष में जैनधर्म के
सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया और अंत में यह ज्योति अखण्डरूप से तत्कालीन केन्द्रीय रक्षामंत्री-श्री पी.वी. नरसिंहाराव द्वारा जम्बूद्वीप स्थल पर स्थापित कर दी गयी।

 

इसी प्रकार अप्रैल सन् १९९८ में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार’ का राजधानी दिल्ली से प्रवर्तन किया, जो समस्त प्रांतों में प्रवर्तन के पश्चात् भगवान ऋषभदेव की दीक्षास्थली-प्रयाग तीर्थ पर निर्मित ‘समवसरण मंदिर’ में स्थापित होकर युगों-युगों तक के लिए भगवान ऋषभदेव के वास्तविक समवसरण की याद दिला रहा है।

 

भगवान महावीर जन्मभूमि-कुण्डलपुर (नालंदा) से सन् २००३ में ‘भगवान महावीर ज्योति रथ’ का विविध प्रांतों में सफल प्रवर्तन भी इसी शृँखला की विशिष्ट कड़ी है।

रथ प्रवर्तन प्रेरणा के क्रम में चारित्रचक्रवर्ती प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के गुणानुवादरूप सन् २०१४ में ‘‘आचार्यश्री शांतिसागर सम्मदेशिखर ज्योति रथ’’ का भ्रमण दक्षिण भारत में हुआ तथा सन् २०१५ में मांगीतुंगी तीर्थ पर निर्मित हो रही भगवान ऋषभदेव १०८ फुट उत्तुंग प्रतिमा के बारे में जनमानस को बताकर जैनधर्म की प्राचीनता, सार्वभौमिकता एवं व्यापकता आदि सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार हेतु ‘‘भगवान ऋषभदेव विश्वशांति कलश यात्रा रथ’’ नाम से दो रथों का सम्पूर्ण भारत में अपूर्व प्रभावनापूर्वक भ्रमण हुआ।

जैनधर्म की  प्राचीनता तथा भगवान ऋषभदेव के नाम एवं सिद्धांतों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए पूज्य माताजी ने सन् १९९७ में राजधानी दिल्ली में विशाल ‘चौबीस कल्पदु्रम महामण्डल विधान’ आयोजित कराया, जिसका झण्डारोहण पूर्व राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा ने किया एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री साहिब सिंह वर्मा, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह तथा श्रीमती सुषमा स्वराज आदि अनेक कैबिनेट मंत्रियों ने उपस्थित होकर धर्मलाभ लिया। साथ ही ‘भगवान ऋषभदेव जन्मजयंती वर्ष’ (सन् १९९७-१९९८ में) तथा ‘भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव वर्ष’ (सन् २००० में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा उद्घाटित) भी पूज्य माताजी की प्रेरणा द्वारा विविध धर्मप्रभावना के कार्यक्रमों सहित सम्पन्न हुए। विभिन्न टी.वी. चैनलों द्वारा पूज्य माताजी के ‘तीर्थंकर जीवन दर्शन (सचित्र)’ एवं अन्य विषयों पर प्रभावक प्रवचन लम्बे समय तक प्रसारित हुए एवं हो रहे हैं। पूज्य माताजी की प्रेरणा से स्थापित ‘अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महिला संगठन’ अपनी सैकड़ों इकाइयों द्वारा दिगम्बर जैन समाज की नारी शक्ति को सृजनात्मक कार्यों हेतु संगठित कर रहे हैं।

पूज्य माताजी की पावन प्रेरणा से ही सन् २०१६-२०१७ में ‘‘श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन ८४ जातीय महासंगठन’’ का निर्माण हुआ, जिसका मुख्य उद्देश्य जैनधर्म में वर्णित ८४ जातियों का अपना एक सशक्त संगठन बनाकर जिनधर्म का प्रचार-प्रसार करना एवं अपनी खानदान व खानपान शुद्धि को विशेष सुरक्षित रखना है। सन् २०१५ में मांगीतुंगी विहार के मध्य ग्वालियर (म.प्र.) में हुई श्री पार्श्वनाथ भगवान की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा ऐसी अतिशायी माता के अतिशय से सभी को परिचित करवा रही है।

इसके अतिरिक्त कितने ही अन्य धर्मप्रभावना के कार्य पूज्य माताजी ने सम्पन्न किये हैं जिनका यहाँ लेखन तो संभव नहीं है, किन्तु आज पूरा समाज उनके कार्यकलापों से परिचित होकर उन्हें कर्मठता की मूर्ति दिव्यशक्ति के रूप में पहचानता है।

वस्तुत: पूज्य माताजी के जीवन में बने किसी भी छोटे या बड़े लक्ष्य की सम्पूर्ति इतनी उचित योजना-संयोजना के साथ कार्यकुशलतापूर्वक सम्पन्न हुई कि प्रत्येक लक्ष्य की सिद्धि कार्य से पूर्व ही
अवश्यंभावी सिद्ध हो गई।

१५. संघर्ष विजेत्री-पूज्य माताजी ने प्रारंभ से अपना प्रमुख लक्ष्य बनाया- प्रत्येक कार्य आगमानुकूल ही करना। पुन: उन कार्यों के निष्पादन में जो भी विघ्न आते हैं, उन्हें बहुत ही शांतिपूर्वक झेलकर पूरी तन्मयता के साथ उस कार्य को परिपूर्ण करना उनकी विशेषता रही है। उनका पूरा जीवन आर्ष परम्परा का संरक्षण करते हुए अपने मूलगुणों में बाधा न आने देकर जिनधर्म की अधिकाधिक प्रभावना के साथ व्यतीत हुआ है।

१६. भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहदाााब्दि महोत्सव का आयोजन-२३वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की जन्मभूमि वाराणसी में ६ जनवरी २००५ को पूज्य माताजी की प्रेरणा एवं ससंघ सानिध्य में ‘भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहदाााब्दि महोत्सव’ का उद्घाटन किया गया। भगवान की केवलज्ञान कल्याणक भूमि ‘अहिच्छत्र’, निर्वाणभूमि ‘श्री सम्मेदशिखर जी’ इत्यादि अनेकानेक तीर्थों पर विविध आयोजनों के साथ यह वर्ष मनाया गया। वर्ष २००६ को ‘‘सम्मेदशिखर वर्ष’’ के रूप में मनाने की प्रेरणा पूज्य माताजी ने प्रदान की, ताकि तन-मन-धन से दिगम्बर जैन समाज अपने महान तीर्थराज  सम्मेदशिखर जी’ के प्रति समर्पित हो सके। पुन: दिसम्बर २००७ में अहिच्छत्र में आयोजित ‘सहदाााब्दि महामस्तकाभिषेक’ के साथ इस त्रिवर्षीय महोत्सव का समापन किया गया।

 

 

१७. शताब्दी का अभूतपूर्व अवसर : दीक्षा स्वर्ण जयंती-वैशाख कृष्णा दूज, वी.नि.सं. २५३२ अर्थात् १५ अप्रैल २००६ को अपनी आर्यिका दीक्षा के ५० वर्ष पूर्ण करने वाली प्रथम साध्वी पूज्य माताजी वर्तमान दिगम्बर जैन साधु परम्परा में सर्वाधिक प्राचीन दीक्षित होने के गौरव से युक्त होकर हम सभी के लिए अतिशयकारी प्राचीन प्रतिमा के सदृश बन गईं। जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में १४ से १६ अप्रैल २००६ तक ‘गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी आर्यिका दीक्षा स्वर्ण जयंती महोत्सव’ का भव्य आयोजन करके समस्त समाज ने पूज्य माताजी के श्रीचरणों में अपनी विनम्र विनयांजलि अर्पित की। इसी शृँखला में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने अपनी आर्यिका दीक्षा के ६० वर्ष भी २४ अप्रैल २०१६, वैशाख कृ. दूज को मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र पर परिपूर्ण किये हैं, मोक्षप्रदायिनी इस पिच्छिका को धारण करके दीक्षित अवस्था के ६५ वर्ष परिपूर्ण करने वाली वर्तमान की सबसे प्राचीन दीक्षित, शारदास्वरूपा, दिव्यशक्ति पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के चरणों में शतश: नमन।

 

१८. भारत गणतंत्र के राष्ट्रपति जी का पदार्पण-हस्तिनापुर तीर्थ पर जम्बूद्वीप में पौष कृ. १० (२१ दिसम्बर २००८) के दिन तत्कालीन भारत की सर्वोच्च नागरिक महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा
देवी सिंह पाटील का आगमन हुआ। उन्होंने पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का मंगल आशीर्वाद प्राप्त करके अतीव प्रसन्नता की अनुभूति करते हुए नवनिर्मित तेरहद्वीप की स्वर्णिम रचना का दर्शन किया तथा महाभारतकालीन हस्तिनापुर का ऐतिहासिक परिचय भी प्राप्त किया।

 

१९. ‘प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर वर्ष’ मनाने की प्रेरणा-बीसवीं सदी के प्रथम दिगम्बर जैनाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज के महान उपकारों से जन-जन को परिचित कराने के उद्देश्य से पूज्य माताजी ने वर्ष २०१० को ‘‘प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर वर्ष’’ के रूप में मनाने की प्रेरणा समस्त समाज को प्रदान की। इस वर्ष का उद्घाटन ज्येष्ठ कृ. चतुर्दशी, ११ जून २०१० को जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में भगवान शांतिनाथ जन्म-दीक्षा एवं निर्वाणकल्याणक के शुभ दिवस किया गया तथा ज्येष्ठ कृ. चतुर्दशी, ३१ मई २०११ तक यह वर्ष पूरे देश के विभिन्न अंचलों में अनेक धर्मप्रभावनात्मक कार्यक्रमों के साथ विभिन्न आयोजनपूर्वक मनाया गया।

 

 

२०. प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर वर्ष मनाने की प्रेरणा-शरदपूर्णिमा-२०११ के शुभ अवसर पर पूज्य माताजी द्वारा प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के प्रथम पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज, जो पूज्य माताजी के दीक्षा गुरु भी हैं, का वर्ष मनाने की घोषणा की अत: यह वर्ष समाज द्वारा विभिन्न आयोजनपूर्वक सानंद मनाया गया।

२१. चारित्रवर्धनोत्सव वर्ष-जिनकी दीर्घकालिक तपस्या के वर्षों की गिनती जानकर अनेक आचार्य, मुनि, आर्यिकाएँ इत्यादि भी इस बात को कहते हुए गौरव का अनुभव करते हैं कि आज जितनी मेरी उम्र भी नहीं है उससे अधिक तो पूज्य माताजी की दीक्षा की आयु है, अर्थात् १८ वर्ष की उम्र से त्याग मार्ग पर जिन्होंने कदम रखा, अपनी जन्मतिथि-शरदपूर्णिमा को भी त्याग से सार्थक कर उस त्यागमयी
जीवन के ६० वर्ष भी उन्होंने निर्विघ्नतापूर्वक पूर्ण किये। इसीलिए इनके ७९वें जन्मदिवस एवं ६१वें त्यागदिवस पर अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महिला संगठन के आह्वान पर चारित्रवर्धनोत्सव वर्ष
२०१२-२०१३ मनाने की घोषणा हुई। इस वर्ष में सभी को शक्ति अनुसार चारित्र ग्रहण करने का संदेश दिया गया।

२२. श्री गौतम गणधर वर्ष-श्रावण कृ. एकम्, वीरशासन जयंती, १३ जुलाई २०१४ के शुभ अवसर पर भगवान महावीर स्वामी के प्रमुख गणधर श्री गौतम स्वामी की आज भी उपलब्ध साक्षात् वाणी
से जन-जन को परिचित कराने के लिए तथा गौतम स्वामी के  उपकारों को याद कराने के लिए पूज्य माताजी ने जुलाई २०१४-२०१५ को ‘‘श्री गौतम गणधर वर्ष’’ के रूप में मनाने की प्रेरणा प्रदान की,
जिसके अन्तर्गत विशेषरूप से अनेक स्थानों पर दशलक्षण जैसे महापर्व में दस दिनों तक लगातार गौतम गणधर वाणी पुस्तक के १० अध्यायों का क्रमश: विद्वानों का वाचन किया गया तथा विभिन्न संगोष्ठी, प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता आदि भी आयोजित किये गये हैं।

२३. मंगलमय अमृत महोत्सव-संस्थान द्वारा जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में शरदपूर्णिमा, १८ अक्टूबर २०१३ को पूज्य माताजी की ८०वीं जन्मजयंती ‘‘गणिनी ज्ञानमती अमृत महोत्सव’’ के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर मनाई गई। इस अवसर पर ‘‘सम्मेदशिखर विधान’’ के ८० मांडले बनाकर ८० परिवारों के द्वारा विधान किया गया तथा सभी ने पूज्य माताजी की पूजन करके विहंगम दृश्य उपस्थित किया। इसके साथ ही भव्य विनयांजलि सभा भी आयोजित की गई, जिसमें प्रतिवर्ष के विभिन्न पुरस्कारों के साथ ही विशेषरूप से ‘‘अमृत महोत्सव पुरस्कार’’ भी प्रदान किया गया, जिसका सौभाग्य श्राविका आश्रम, सोलापुर को प्राप्त हुआ।

२४. शाश्वत सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर में ‘‘आचार्य श्री शांतिसागर धाम’’-प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज द्वारा सन् १९२७-२८ में की गई सम्मेदशिखर यात्रा की स्मृति को दिग्दिगंत व्यापी बनाने हेतु पूज्य माताजी की प्रेरणा से शाश्वत सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर जी में मेन रोड पर ‘‘आचार्य श्री शांतिसागर धाम’’ नामक ऐतिहासिक स्मारक का निर्माण किया जा रहा है। यहाँ सम्मेदशिखर जी से प्रथम मोक्षगामी भगवान अजितनाथ की ३१ फुट उत्तुंग विशाल खड्गासन प्रतिमा विराजमान हो चुकी है, उसके जिनमंदिर निर्माण के साथ ही मंदिर में नवग्रह अरिष्ट निवारक २४ तीर्थंकरों की प्रतिमा विराजमानपूर्वक आचार्य श्री के जीवनदर्शन को प्रदर्शित करता भव्य स्मारक भी निर्मित किया जायेगा। साथ ही विशाल धर्मशालाएं आदि समुचित व्यवस्थाएं भी उपलब्ध कराई
जाएंगी।

२५. बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी का सर्वाधिक विशाल पंचकल्याणक महामहोत्सव-यूँ तो इन दिव्यशक्ति, गणिनीप्रमुख, भारतगौरव परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की पावन प्रेरणा, आशीर्वाद एवं मंगल सान्निध्य में हजारों की संख्या में वृहद् एवं लघु पंचकल्याणक सम्पन्न हुए हैं पर इन पंचकल्याणकों में सर्वाधिक विशाल, पंचम काल का अद्वितीय पंचकल्याणक मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र में निर्मित ‘‘१०८ फुट भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय पंचकल्याणक एवं महामस्तकाभिषेक’’ हुआ। इस विशालतम महोत्सव ने देश और विदेश की जैन समाज के साथ ही भारत के सम्पूर्ण शासन-प्रशासन को भी अपनी सुगंधि से महकाया है। आज केन्द्र शासन और महाराष्ट्र शासन में ऋषभगिरिमांगीतुंगी के १०८ फुट भगवान ऋषभदेव की प्रभावना से जैनधर्म की अनादिनिधन तीर्थंकर परम्परा का शंखनाद जनजन तक पहुँचा है।

 

विशेष रूप से अखण्ड पाषाण में निर्मित इस प्रतिमा को जब लंदन के गिनीज वर्ल्ड रिकार्ड में शामिल किया गया, तब तो जैनधर्म के इस माहात्म्य को सारे देश के विभिन्न नेशनल टी.वी. चैनल यथा ‘‘आज तक, न्यूज नेशन, जी. न्यूज, ए.बी.पी.माजा, डी.डी. न्यूज, डी.डी. सहयाद्री चैनल आदि ने कवरेज किया। देश के विभिन्न अखबारों के मुख पृष्ठोें पर ऋषभदेव की गूंज मच गई। ११ फरवरी २०१६, माघ शुक्ला तृतीया से प्रारंभ हुई इस पंचकल्याणक में १२५ साधु-साध्वियों का महत्वपूर्ण सान्निध्य रहा जिससे यह महोत्सव स्वयं में ऐतिहासिक बन गया। इस पंचकल्याणक में ५००१ दीपकों से हुई विराट महाआरती को गोल्डेन बुक ने अवार्ड दिया, शासन-प्रशासन ने इसमें पूर्ण सहयोग प्रदान किया।

पंचकल्याणक के साथ-साथ इन्द्रादि परिकर व आगन्तुक यात्रियों की सुविधा हेतु १० भोजनशाला का संचालन, १ लाख स्क्वायर फुट का पाण्डाल और कालोनियाँ, विशाल कार्यालय, मेला, झूले आदि विशेष प्रशंसनीय रहे। महोत्सव के मध्य हुए अधिवेशन-सम्मेलन, विमोचन-लोकार्पण एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों ने लाखों की संख्या में पधारे भक्तों का ज्ञानवर्धन व मनोरंजन किया। अनेक संस्थाओं, समितियों ने पूज्य माताजी को विशेष उपाधियाँ प्रदान कर अभिनंदन करते हुए स्वयं को गौरवान्वित महसूस किया। वस्तुत: यह पंचकल्याणक प्रतिष्ठा स्वयं में अद्वितीय और अवर्णनीय रही है।

२६. विभिन्न विशिष्ट नेताओं ने किए पूज्य माताजी के दर्शन-जिनागम की महान साधिका पूज्य माताजी के ८३ वर्षीय जीवन में सन् १९७९ से लेकर आज तक अनेक राजनेता जैसे प्रधानमंत्री-श्रीमती इन्दिरा गांधी, श्री राजीव गांधी, श्री अटल बिहारी वाजपेयी, राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल, महामहिम डॉ. शंकर दयाल शर्मा, डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, मुख्यमंत्री-श्री मुलायम सिंह यादव, श्री साहब सिंह वर्मा, श्री नारायणदत्त तिवारी, श्री दिग्विजय सिंह, श्री कल्याण सिंह आदि तथा अनेक केन्द्रीय मंत्री, राज्यमंत्री, वित्तमंत्री आदि मंत्री, राज्यपाल, सांसद, विधायक, मुख्य न्यायाधीश,
अनेक कुलपति-पूर्व कुलपति, मेयर, पुरातत्त्वविद, पत्रिका सम्पादक, वैज्ञानिक, शासनप्रशासन अधिकारी आदि विशिष्ट महानुभावों ने पधारकर पूज्य माताजी के प्रति विनय भक्ति समर्पित की है।

२७. जैन इन्साइक्लोपीडिया : जैन समाज हेतु एक विशिष्ट उपलब्धि–  WWW.encyclopediaof jainism.com  दिगम्बर जैनधर्म से संबंधित समस्त विधाओं यथा-संस्कृत, साहित्य, तीर्थ एवं मंदिर,
परम्पराएं, साधु-साध्वियाँ, पर्व, पूजाएँ, विद्वान, संस्थाएँ, ज्योतिष, वास्तु इत्यादि को परिष्कृत, समग्र एवं प्रामाणिक रूप से इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु एक महत्वपूर्ण कार्य योजना है। दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर द्वारा संचालित एवं श्री रोशनलाल जैन ट्रस्ट-हरिद्वार के आर्थिक सहयोग से क्रियान्वित इस बहुआयामी प्रोजेक्ट को पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से मेरे (आर्यिका चंदनामती के) प्रधान सम्पादकत्व में प्रारंभ किया गया है, जिसे हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती भाषाओं में देखा जा सकता है। अथक परिश्रम से तैयार इस इन्साइक्लोपीडिया में मुख्य पृष्ठ पर बायीं ओर ‘मुख्य श्रेणियाँ’ पर क्लिक करके आपको वर्णमाला के क्रम में संयोजित लगभग २०० विविध विषयों की श्रेणियाँबी प्राप्त होगी | wikepedia  सॉफ्टवेर में विकसित इस अनुपम प्रोजेक्टर का सबसे महत्वपूर्ण तथ्य  यह है की आप भी इसमें संबधित आलेख/ तथ्य/ जानकारियाँ/फोटो/ऑडियो/विडियो स्वतंत्र रूप में अपलोड कर सकते है, किसी प्रस्तुत तथ्य को पुन: सम्पादित भी कर सकते है, दिगम्बर जैन परम्परा से संबंधित अपनी पुस्तक को अपने नाम से ही अपलोड कर सकते है |

इस प्रकार सर्वतोमुखी प्रतिभा की धनी पूज्य माताजी के चरणों में कोटिश: नमन है तथा भगवान  जिनेन्द्र से यही प्रार्थना है की उनके इस पवित्र त्यागमयी  जीवन का हमे शताब्दी महोत्सव भी मनाने का लाभ प्राप्त हो एवं आपने द्वारा नया- नया साहित्य जनता को प्राप्त होता रहें, यही मंगलकामना है |

 

 

 

 

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