गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का लघु काव्यात्मक परिचय
तर्ज-एक था बुल और एक थी बुलबुल……….
एक थी मैना क्वाँरी कन्या, प्रान्त अवध में रहती थी।
छोटेलाल पिता माँ मोहिनि के आंगन में जन्मी थी।।एक थी.।।
बाराबंकी जिले में है इक ग्राम टिवैâतनगर सुन्दर।
सन् उन्निस सौ चौंतिस में वहाँ जन्मी इक कन्या सुन्दर।।
शरदपूर्णिमा की रात्री में वह देवी बन प्रगटी थी।।एक थी.।।१।।
साधारण संतानों से यह कन्या बहुत विलक्षण थी।
इसीलिए परिवार में ही नहिं वह सबकी अतिशय प्रिय थी।।
मैना में शैशव से ही आध्यात्मिक छवी झलकती थी।।एक थी.।।२।।
कोमल काया गौर वर्ण युत फूल सी सुंदर वह बाला।
लेकिन उसने सोच लिया था भौतिक सुख को ठुकराना।।
इसीलिए वह खेल में भी शिक्षा की बातें करती थी।।एक थी.।।३।।
खाने और खेलने की आयू में भी वह पढ़ती थी।
देश की सतियों औ सन्तों के धर्म कथानक सुनती थी।।
अपनी माँ को धर्मग्रंथ पढ़ करके सुनाया करती थी।।एक थी.।।४।।
उसकी माता ने दहेज में धर्मग्रंथ इक पाया था।
पद्मनंदिपंचविंशतिका ने इतिहास बनाया था।।
मात मोहिनी धर्म के प्रति कर्तव्य निभाया करती थी।।एक थी.।।५।।
सन् उन्निस सौ बावन में जब शरदपूर्णिमा तिथि आई।
श्री आचार्य देशभूषण से ब्रह्मचर्य दीक्षा पाई।।
अपने मोही मात-पिता को वह समझाया करती थी।।एक थी.।।६।।
सन् उन्निस सौ त्रेपन में क्षुल्लिका वीरमती कहलाईं।
चांदनपुर महावीर की धरती पर पहली दीक्षा पाई।।
उनके मन में ज्ञान की धुन दिन-रात समाई रहती थी।।एक थी.।।७।।
प्रथमाचार्य शांतिसागर के दर्शन की इच्छा जागी।
चलीं क्षुल्लिका श्री विशालमती जी के संग वह वैरागी।।
गुरुवाणी सुन वीरमती आनंद मगन हो रहती थी।।एक थी.।।८।।
कुंथलगिरि में पुन: शांतिसागर के चरणों में रहकर।
देख समाधी उनकी फिर पाये आचार्य वीरसागर।।
आर्यिका दीक्षा लेने की बस मन में समाई रहती थी।।एक थी.।।९।।
आखिर वह दिन आ ही गया जब गुरुवर ने दीक्षा दे दी।
ज्ञानमती आर्यिका बना बस छोटी सी शिक्षा दे दी।।
अपने नाम को ध्यान में रख ये ज्ञानसाधना करती थीं।।एक थी.।।१०।।
गुरुवर की प्रिय शिष्या को कुछ पूर्वजन्म संस्कार मिला।
बिना पढ़े ही कठिन-कठिन ग्रंथों का उनको सार मिला।।
संघ में सबको शास्त्रों का अध्ययन कराया करती थीं।।एक थी.।।११।।
देखो! वह कन्या मैना ही ज्ञानमती कहलाती हैं।
सदी बीसवीं की वह गणिनीप्रमुख मात कहलाती हैं।।टेक.।।
अष्टसहस्री का हिन्दी अनुवाद चार सौ ग्रंथ लिखे।
षट्खण्डागम के सूत्रों पर सोलह संस्कृत ग्रंथ लिखे।।
साहित्यिक रचनाओं में वे शुभ उपयोग लगाती हैं।।देखो.।।१२।।