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04.1 गुणस्थान

November 28, 2022BooksHarsh Jain

गुणस्थान


जिन विषयों का आश्रय लेकर जीव द्रव्य का प्ररूपण किया जाता हैं, वे प्ररूपणा कहलाती हैं। गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग इस प्रकार ये बीस प्ररूपणा पूर्वाचार्यों ने कही हैं।

इनमें से सर्वप्रथम गुणस्थान का विवेचन किया जा रहा है-


१.१ गुणस्थान का अर्थ

(Gunsthanas-Stages of Spiritual Development)-


गुण का अर्थ होता है ‘आत्मिक गुण’ तथा स्थान का अर्थ है विकास। इस प्रकार आत्मिक गुणों के विकास की क्रमिक अवस्थाओं को गुण-स्थान कहते हैं। जीव के परिणाम सदा एक से नहीं रहते। उसके मोह एवं मन, वचन, काय की वृत्ति के कारण अंतरंग परिणामों में उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। गुणस्थान आत्म-परिणामों में होने वाले इन उतार-चढ़ावों का बोध कराता है। साधक कितना चल चुका है तथा कितना आगे और चलना है ? गुणस्थान इसे बताने वाले मार्ग सूचक पट्ट हैं। गुणस्थान जीव के मोह और निर्मोह दशा की भी व्याख्या करता है। यह संसार और मोक्ष के अन्तर को स्पष्ट करता है। गुणस्थानों के आधार पर जीवों के बंध और अबंध का भी पता चलता है। गुणस्थान आत्म-विकास का दिग्दर्शक है।

इसीलिए जैनागम में आत्मा की विकास-यात्रा को गुणस्थानों द्वारा अत्यंत सुन्दर ढंग से विवेचित किया गया है, जो कि न केवल साधक की विकास यात्रा की विभिन्न मनोभूमियों का चित्रण करता है, अपितु आत्मा की विकास यात्रा की पूर्व भूमिका से लेकर गंतव्य आदर्श तक की समुचित व्याख्या भी प्रस्तुत करता है।

मोह तथा मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के कारण जीव के भावों में प्रतिक्षण होने वाले उतार-चढ़ावों का बोध जिससे होता हैं, जैन आगम में उसे गुणस्थान कहते हैं। जीव के परिणाम (भाव) अनन्त हैं लेकिन मलिन परिणामों से लेकर विशुद्ध परिणामों अर्थात् मिथ्यादृष्टि से लेकर मोक्ष प्राप्त करने तक की अनन्त वृद्धियों के क्रम को बताने हेतु इन गुणस्थानों को १४ श्रेणियों में विभाजित किया गया हैं। ये ही १४ गुणस्थान कहलाते हैं। जैसे ज्वर से पीड़ित व्यक्ति का तापमान थर्मामीटर द्वारा नापा जाता है, उसी प्रकार आत्मा के आध्यात्मिक विकास या पतन की नाप इन गुणस्थानों के द्वारा की जाती है।


१.२ चौदह गुणस्थान के लक्षण

(Characteristics of Fourteen stages of Spiritual Development)-


१. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान- मिथ्यात्व कर्म के उदय से होने वाले तत्त्वार्थ के अश्रद्धान को अर्थात् विपरीत श्रद्धान को मिथ्यात्व कहते हैंं। इस गुणस्थान वाले जीव को मिथ्यादृष्टि जीव कहते हैंं। उसे सच्चा धर्म अच्छा नहीं लगता हैं। जैसे ज्वर से पीड़ित व्यक्ति को मधुर रस भी अच्छा नहीं लगता हैं, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि को सच्चा धर्म अच्छा नहीं लगता हैं। निगोदिया जीव, एकेन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव सभी जीव मिथ्यादृष्टि होते हैंं, अतः उनके प्रथम गुणस्थान ही होता हैं।

२. सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी एक के उदय में आ जाने पर उपशम सम्यक्त्व से पतित होकर जीव जब तक मिथ्यात्व में नहीं आता, तब तक उसे सासादन सम्यग्दृष्टि जाना जाता है। इसकी अवधि बहुत छोटी (जघन्य १ समय व उत्कृष्ट ६ आवली) होती हैं। जैसे-पहाड़ की चोटी से कोई व्यक्ति लुढ़के तो जब तक वह जमीन पर नहीं आ जाता तब तक न तो वह पहाड़ की चोटी पर रहता हैं और न ही जमीन पर रहता है। सम्यक्त्व चोटी के समान है और मिथ्यात्व धरा के समान है। इस गुणस्थान में आने के बाद जीव नियम से पहले गुणस्थान में पहुंच जाता है। फिर पुरुषार्थ करके वह ऊपर वाले गुणस्थानों में जा सकता है।

३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान-सम्यक्त्व और मिथ्यात्व से मिश्रित भाव को सम्यक्-मिथ्यादृष्टि कहते हैंं। जैसे दही और गुड़ का मिश्रित स्वाद होता हैं। सम्यक्त्वमिथ्यात्व प्रकृति के उदय से जीव का तत्त्व के विषय में श्रद्धान और अश्रद्धान दोनों होना संभव हैं अतः इसे मिश्रभाव या मिश्रगुणस्थान भी कहते हैंं। जैसे-पहिले से स्वीकृत देवी-देवताओं को त्यागे बिना, अरहन्त भी देव हैंं ऐसी दृष्टि वाला मनुष्य ।

४. असंयत (अविरत) सम्यग्दृष्टि गुणस्थान-जो जीव सम्यग्दृष्टि तो हैं लेकिन संयम नहीं पालता हैं, वह असंयत सम्यग्दृष्टि हैं। जो हिंसा आदि पांच पापों का नियमानुसार त्यागी नहीं हैं अर्थात् जिसके व्रत नहीं हैं, उसे अविरत कहते हैंं। जो सच्चे देव-शास्त्र-गुरु पर श्रद्धान रखता है किन्तु संयम (व्रत आदि) से रहित हैं तथा इन्द्रियों के विषय आदि से विरत नहीं हुआ हैं, वह अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती हैं। इसमें अनन्तानुबन्धी कषाय का अभाव होता हैं।

दर्शनमोह के उपशम होने से सम्यग्दृष्टि है किन्तु चारित्रमोह के उदय से चारित्र ग्रहण नहीं कर पा रहा है अतः वह असंयत हैं।

५. संयतासंयत (देशविरत) गुणस्थान-सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानपूर्वक व्रत, समिति आदि रूप चारित्र का पालन करना संयम है और इस संयम को धारण करने वाला मुनि संयत है। इस प्रकार संयत से अभिप्राय संयमी से हैं। महाव्रती श्रमण संयत कहलाता हैं। जो संयत भी हो और असंयत भी हो, वह संयतासंयत कहलाता है। अनन्तानुबन्धी तथा अप्रत्याख्यान कषाय के अनुदय होने से सम्यक्त्व सहित अणुव्रत के धारक जीव (व्रती, श्रावक, क्षुल्लक, ऐलक) संयतासंयत कहलाते हैंं। जो हिंसा आदि पांच पापों का स्थूल रूप से त्याग करने वाला हैं, वह संयतासंयत हैं। वह जिनेन्द्र भगवान में श्रद्धान रखता हैं और त्रस जीवों की हिंसा का त्यागी भी है, अतः संयमी है किन्तु वह स्थावर जीवों की हिंसा का त्यागी नहीं होता है अतः वह असंयमी भी है। अतः वह इस पांचवें गुणस्थान में आता है। आर्यिकाओं के भी उपचार महाव्रत होने से उनका पांचवां गुणस्थान होता है।

६. प्रमत्त-संयत (प्रमत्त-विरत) गुणस्थान-प्रमत्त का अर्थ होता है प्रमादी। जो साधु मात्र संज्वलन कषाय के उदय से सहित होता हुआ रत्नत्रय का पालन करता हैं किन्तु व्यक्त या अव्यक्त प्रमाद सहित भी होता है, वह प्रमत्त-संयत गुणस्थानवर्ती है। इसमें अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान तथा प्रत्याख्यान कषायों का अभाव होता है और केवल संज्वलन कषाय रहती है।

७. अप्रमत्त-संयत गुणस्थान-जिन मुनियों के सभी प्रकार के प्रमादों से रहित संयम भाव रहता है और रत्नत्रय से युक्त हैं, वे अप्रमत्त संयत गुणस्थान वाले कहलाते हैंं। इसमें संज्वलन कषाय मंद रहती हैं।

८. अपूर्वकरण गुणस्थान-अपूर्व का अर्थ होता है जो पूर्व में नहीं हुआ हो और करण का अर्थ होता है परिणाम। इस गुणस्थान में न तो किसी कर्म का सम्पूर्ण उपशम होता है और न सम्पूर्ण क्षय होता है किन्तु उसके लिये तैयारी होती है।

दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम या क्षय करके जो भी उपशम या क्षपक-श्रेणी चढ़ते हैंं, उन जीवों के अपूर्व परिणाम होते हैंं, वह अपूर्वकरण नामक आठवाँ गुणस्थान है। इसमें संज्वलन कषाय अत्यन्त मंद रहती है।

९. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान-जिस गुणस्थान में विवक्षित किसी एक समय में विद्यमान सब जीवों के परिणाम परस्पर समान होते हैंं, वह अनिवृत्तिकरण गुणस्थान है। अपूर्वकरण गुणस्थान में तो सभी जीवों के परिणाम समान भी होते हैंं और असमान भी होते हैंं, मगर इस नवमें गुणस्थान में समान ही होते हैंं। इस गुणस्थान में ३६ प्रकृतियों का उपशम या क्षय होता हैं। ध्यान की एकाग्रता बढ़ती जाती है और इसमें केवल संज्वलन लोभ कषाय शेष रहती है।

१०. सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान-सूक्ष्म कषाय को सूक्ष्म साम्पराय कहते हैंं, जहां मात्र सूक्ष्म लोभ का उदय रह जाता है। जब ध्यानस्थ मुनि मात्र सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त लोभ कषाय के उदय को अनुभव करता है, वह सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान है।

उपशम श्रेणी वाला इस गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान में जाता है। क्षपक श्रेणी वाला मोह का सर्वथा नाश करके दसवें से बारहवें गुणस्थान में पहुंच जाता है।

११. उपशांतमोह (उपशांत कषाय) गुणस्थान-सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का उपशम करने वाले साधु के उपशांत मोह गुणस्थान होता हैं। इस गुणस्थान का काल समाप्त होने पर मोहनीय कर्म उदय में आ जाता है, जिससे जीव नीचे के गुणस्थानों में गिरता है। जो इस ग्यारहवें गुणस्थान में आता है, उसका पतन निश्चित है। जैसे किसी बर्तन की भाप को यदि दबा दिया जाता हैं तो वह वेग पाकर ढक्कन को गिरा देती है।

१२. क्षीणकषाय (क्षीण मोह) गुणस्थान-जिनके समस्त मोहनीय कर्म क्षीण (नष्ट) हो गया है, उन्हें क्षीण कषाय कहते हैंं। दसवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का क्षय करने वाले साधक सीधे इस गुणस्थान में आते हैंं। इस गुणस्थान के अन्त में घातिया कर्मों (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय) का क्षय होता है। इस गुणस्थान वाले का पतन नहीं होता हैं और वह ऊपर के गुणस्थानों में ही चढ़ता है।

१३. सयोगकेवली गुणस्थान-चार घातिया कर्मों का नाश करने पर जीव को केवलज्ञान हो जाता है और वह केवली कहलाता है। जब तक केवली योग (विहार, उपदेश आदि क्रियाएँ) सहित होते हैंं, वे सयोगकेवली नामक तेरहवें गुणस्थानवर्ती होते हैंं।

१४. अयोगकेवली गुणस्थान-सभी कर्मों से रहित अवस्था को अयोगकेवली कहते हैंं। जब केवली भगवान अपने अंतिम समय में विहार, उपदेश क्रियाएँ छोड़कर ध्यानस्थ हो जाते हैंं और अपने शेष ४ अघातिया कर्मों की बची हुई प्रकृतियों का क्षय करते हैंं, उनके अयोगकेवली गुणस्थान होता हैं। इस गुणस्थान का काल अ, इ, उ, ऋ, लृ इन पांच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण में लगने वाला समय मात्र है। इसके उपरान्त वे सर्वथा कर्म रहित हो जाते हैंं और मोक्ष लाभ प्राप्त करके लोक के शिखर पर स्थित सिद्धालय में जाकर विराजमान हो जाते हैंं, इन्हें ही सिद्ध कहते हैंं।


१.३ गुणस्थान के निमित्त

(Causes of Stages of Spiritual Development)-


मोह और योग के निमित्त से ये गुणस्थान होते हैं –

(१) प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान दर्शनमोहनीय कर्म के निमित्त से होते हैंं।

(२) पांचवें से बारहवें गुणस्थान चारित्रमोहनीय कर्म के निमित्त से होते हैंं।

(३) तेरहवां व चौदहवां गुणस्थान योग के निमित्त से होते हैंं।

कर्मों में मोहनीय कर्म सबसे अधिक शक्तिशाली है। यह जीव को सच्चे मार्ग (आत्मस्वरूप) का न तो भान होने देता हैं और न उस मार्ग पर चलने देता है परन्तु आत्मा से ज्यों ही मोह का पर्दा हटने लगता है त्यों ही उसके गुण विकसित होने लगते हैं अतः इन गुणस्थानों की रचना में मोह के चढ़ाव/उतार का ही ज्यादा हाथ होता है।

विशेष-
(१) सभी संसारी जीवों के कोई न कोई गुणस्थान होता हैं। मोह व योग के अभाव के कारण मुक्त जीव के गुणस्थान नहीं होता हैं।

(२) एक समय में जीव के एक गुणस्थान ही होता है।

(३) प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान तक असंयत हैं। शेष सभी में सम्यक्दर्शन व चारित्र पाया जाता है।

(४) आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका व प्रतिमाधारी व्रतियों के पांचवाँ गुणस्थान होता हैं।

(५) मुनियों के ६ से १२ तक गुणस्थान होते हैंं। वर्तमान पंचमकाल में मुनि हीन-संहनन के कारण सातवें से आगे के गुणस्थानों में नहीं जा सकते हैं और वे भावों में परिवर्तन के साथ-साथ छठे तथा सातवें गुणस्थानों में घड़ी के पैण्डूलम की भांति चढ़ते-उतरते रहते हैं।

(६) देवगति व नरकगति में प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान तक होते हैंं। तिर्यंचगति में प्रथम से पंचम गुणस्थान तक होते हैं। मनुष्यगति में प्रथम से चौदहवें गुणस्थान तक होते हैंं। सिद्धगति में गुणस्थान नहीं होते हैंं।

(७) बहिरात्मा के १, २, ३ गुणस्थान होते हैंं। अन्तरात्मा के ४ से १२ (जघन्य के ४, मध्यम के ५-६ व उत्तम के ७ से १२) गुणस्थान होते हैंं। परमात्मा के १३-१४ (सकल परमात्मा के १३वाँ व निकल परमात्मा के १४वाँ) गुणस्थान होते हैंं।

(८) मोहनीय कर्म के नाश हो जाने पर १२ वां गुणस्थान प्राप्त होता है। मोहनीय कर्म के चले जाने के कारण शेष कर्मों की शक्ति भी क्षीण हो जाती है अतः बारहवें गुणस्थान के अंत में मुनि शेष ३ घातिया (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय) कर्मों का नाश करके केवली हो जाते हैं जो तेरहवां गुणस्थान है।


१.४ गुणस्थानों में जीवों की संख्या

(Number of Jeevas in Different Gunsthanas)-


अढ़ाई द्वीप में विभिन्न गुणस्थानों में जीवों की उत्कृष्ट संख्या निम्न प्रकार है-

क्र. गुणस्थान उपशम श्रेणी क्षपक श्रेणी कुल
1. प्रथम – – अनन्तानन्त
2. द्वितीय – – असंख्य
3. तृतीय – – असंख्य
4. चतुर्थ – – असंख्य
5. पंचम – – असंख्य
6. छठवें – – 5,93,98,206
7. सातवें – – 2,98,99,103
8. आठवें 299 598 897
9. नवें 299 598 897
10. दसवें 299 598 897
11. ग्यारहवें 299 – 299
12. बारहवें – 598 598
13. तेरहवें – – 8,98,502
14. चौदहवें – – 598
योग 8,99,99,997

एकेन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव तथा लब्ध्यपर्याप्तक सम्मूर्च्छन जीवों का प्रथम गुणस्थान होता है। ये अपने जीवन में सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं कर सकते हैंं। इनकी संख्या अनन्तानन्त है। द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम गुणस्थानों में जीवों की संख्या असंख्यात है जिनमें मनुष्यों की संख्या क्रमशः ५२ करोड़, १०४ करोड़, ७०० करोड़ और १३ करोड़ है तथा शेष अन्य गतियों के जीव हैंं। संयमी जीवों के छठे से चौदहवां गुणस्थान होता है और इनमें जीवों की अधिकतम संख्याओं का कुल योग ३ कम ९ करोड़ कहा गया है। ये अढ़ाई द्वीप में ही होते हैंं। ये मुनिराज भावलिंगी होते हैंं। द्रव्यलिंगी मुनिराज १, २, ३, ४ और ५ वें गुणस्थान में होते हैंं।


१.५ उपशम/क्षपक श्रेणी

(Subsidential Ladder/Destructional Ladder)-


जहां मोहनीय कर्म का उपशम करते हुए जीव आगे बढ़ता है, वह उपशम श्रेणी है। इसमें मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम किया जाता है। इसमें ८, ९, १० तथा ११ वाँ गुणस्थान होते हैंं। उपशम श्रेणी चढ़ने वाला जीव नियम से नीचे उतरता है।

जहां मोहनीय कर्म का क्षय करता हुआ जीव आगे बढ़ता है, वह क्षपक श्रेणी है। इसमें मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का क्षय किया जाता है। इस श्रेणी में ८, ९, १० तथा १२ वाँ ये ४ गुणस्थान होते हैंं।

क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैंं। इस श्रेणी वाले जीव का नीचे की ओर पतन नहीं होता है और मरण भी नहीं होता है। उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाले जीवों से क्षपक श्रेणी वाले जीवों की संख्या दुगुनी होती है। इस पंचम काल में वर्तमान में ये दोनों श्रेणी नहीं होती हैंं अर्थात् मुनि आठवें या आगे के गुणस्थानों में नहीं चढ़ सकते हैंं।


१.६ गुणस्थानों में चढ़ना/उतरना

(Upward/Downward Movement in Gunsthanas)-


जैसे-जैसे कर्म छूटते जाते हैंं, गुणस्थानों में वृद्धि होती जाती है और नीचे के गुणस्थान वाला ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ता है। भावों की विशुद्धि घटने पर ऊपर के गुणस्थानों वाला नीचे के गुणस्थानों पर उतरता है। इस प्रकार उतार-चढ़ाव का यह क्रम चलता ही रहता है। जब जीव १२ वें गुणस्थान में पहुँच जाता है तो वह नीचे नहीं उतरता है और क्रमशः

१३ वें और १४ वें गुणस्थान में चढ़ता है। इसके पश्चात् शेष चारों अघातिया कर्मों का नाश करके गुणस्थानातीत अवस्था मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।

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