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गृहस्थों के अष्टमूलगुण

December 2, 2022स्वाध्याय करेंjambudweep

गृहस्थों के अष्टमूलगुण


मूलगुण मुख्य गुणों को कहते हैं। जिस प्रकार मूल—जड़ के बिना वृक्ष नहीं ठहरते, उसी प्रकार मूलगुणों के बिना मुनि और श्रावक के व्रत नहीं ठहरते। इस तरह मूलगुण का वाच्यार्थ अनिवार्य आवश्यक गुण है। मुनियों के २८ मूलगुण होते हैं और श्रावकों के ८ मूलगुण होते हैं। श्रावकों के आठ मूलगुणों का उल्लेख कई प्रकार का मिलता है। उपलब्ध श्रावकाचारों में समन्तभद्र का रत्नकरण्डश्रावकाचार सबसे प्राचीन ग्रंथ है। उसमें उन्होंने श्रावकों के मूलगुणों का उल्लेख इस प्रकार किया है—

मद्यमांसमधुत्यागै: सहाणुव्रतपञ्चकम्।
अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमा:।।

मुनियों में उत्तम—गणधरादिकदेव, मद्यत्याग, मांसत्याग और मधुत्याग के साथ पाँच अणुव्रतों को गृहस्थों के मूलगुण कहते हैं।

यहाँ उनका ऐसा अभिप्राय जान पड़ता है कि मुनियों के २८ मूलगुणों में पाँच महाव्रत सम्मिलित हैं अत: गृहस्थों के आठ मूलगुणों में पाँच अणुव्रतों का सम्मिलित होना आवश्यक है। मूलगुण चारित्र गुण की भूमिका हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पाप की प्रणालियों से सम्यग्ज्ञानी जीव का विरत होना सम्यक् चारित्र है अत: सम्यक् चारित्र की भूमिका में पाँच पापों का एकदेश त्याग होना अत्यन्त आवश्यक है। मद्यत्याग आदि यद्यपि अहिंसाणुव्रत के अन्तर्गत हो जाते हैं तथापि विशेषता बतलाने के लिये उनका पृथक् से उल्लेख किया है।

आचार्यश्री जिनसेन स्वामी ने मधुत्याग को मांस त्याग में गर्भित कर उसके स्थान में द्युत त्याग का उल्लेख किया है।

हिंसासत्यस्तेयादब्रह्मपरिग्रहाच्च बादरभेदात्।
द्यूतान्मांसान्मद्याद्विरतिर्गृहिणोऽष्ट सन्त्यमी मूलगुणा:।।

स्थूल हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह तथा जुआ, मांस और मदिरा से विरत होना, ये गृहस्थ के आठ मूलगुण हैं।
आदिपुराण की उपलब्ध प्रतियों में यद्यपि यह श्लोक नहीं पाया जाता है तथापि पण्डितप्रवर आशाधरजी ने सागारधर्मामृत की अपनी स्वोपज्ञ टीका के टिप्पण में जिनसेन के नाम से इसे उद्धृत किया है, इससे जान पड़ता है कि आशाधर जी के समय प्राप्त आदिपुराण की प्रति में यह श्लोक रहा होगा।

जिनसेनाचार्य के परवर्ती आचार्यों ने और भी सरलता करते हुए पाँच अणुव्रतों के स्थान पर पाँच उदुम्बर फलों के त्याग का समावेश किया है। जैसा कि सोमदेव के यशस्तिलकचम्पू सम्बन्धी उल्लेख से स्पष्ट है—

मद्यमांसमधुत्याग: सहोदुम्बरपञ्चकै:।
अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणा: श्रुते।।

मद्य—मांस—मधु के त्याग के साथ पाँच उदुम्बर फलों का त्याग करना ये गृहस्थों के आठ मूलगुण आगम में कहे गये हैं।

इसी मत का समर्थन करते हुए अमृतचन्द्राचार्य ने पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में कहा है—

मद्यं मांसं क्षौद्रं पञ्चोदुम्बरफलानि यत्नेन।
हिंसा व्युपरतिकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव।।६१।।

हिंसा त्याग की इच्छा करने वाले पुरुषों को सर्वप्रथम यत्नपूर्वक मद्य, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फलों को छोड़ना चाहिये।

अमृतचन्द्र स्वामी ने मूलगुणों की उपयोगिता बतलाते हुए पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा है—

अष्टावनिष्टदुस्तर दुरितायतनान्यमूनि परिवर्ज्य।
जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधिय:।।७४।।

अनिष्ट और दुस्तर पाप के स्थानभूत इन आठ का परित्याग कर शुद्धबुद्धि के धारक पुरुष जिनधर्म की देशना के पात्र होते हैं। तात्पर्य यह है कि जब तक गृहस्थ इन आठ पाप स्थानों का त्याग नहीं करता है तब तक वह जिनधर्म का उपदेश सुनने का भी पात्र नहीं है।


सागारधर्मामृत में पण्डित आशाधरजी ने कहा है


तत्रादौ श्रद्दधज्जैनीमाज्ञां हिंसा मपासितुम्।
मद्य मांसमधून्युज्झेत्पञ्च क्षीरिफलानि च।।२।।

उनमें सर्वप्रथम, जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा का श्रद्धान करता हुआ गृहस्थ हिंसा का परित्याग करने के लिये मद्य, माँस, मधु और पाँच क्षीरिफल—उदुम्बरफल का त्याग करें।

आठ मूलगुणों का नाम परिगमन करते हुए उन्हीं आशाधरजी ने कहा है—

अष्टैतान् गृहिणां मूलगुणान् स्थूलवधादि वा।
फलस्थाने स्मरेद् द्यूतं मधुस्थान इहैव वा।।३।।

इन आठ को गृहस्थों के मूलगुण कहा है। कहीं फलों के स्थान में स्थूल हिंसा त्याग आदि अहिंसाणुव्रतादि को और मधु के स्थान में द्यूत का समावेश किया है।

इन मतों के अतिरिक्त आशाधरजी ने एक नवीन मत का समुल्लेख और भी किया है—

मद्यपलमधुनिशाशन पञ्चफलीविरति पञ्चकाप्तनुती।
जीवदया जलगालन मिति च क्वचिदष्टमूलगुणा:।।

मद्य त्याग, मांस त्याग, मधु त्याग, राित्र भोजन त्याग, पञ्चफली त्याग, देवआप्तनुति—देवदर्शन, जीवदया और जलगालन—पानी छानना ये भी कहीं आठ मूलगुण माने गये हैं।


रत्नमाला में शिवकोटि महाराज ने कहा है


मद्यमांसमधुत्याग संयुक्ताणुव्रतानि नु:।
अष्टौ मूलगुणा: पञ्चोदुम्बरैश्चार्यकेश्वपि।।

मद्य—मांस—मधु त्याग के साथ पाँच अणुव्रत धारण करना आठ मूलगुण हैं और कहीं बालकों में मूलगुणों की स्थापना के लिये अणुव्रतों के स्थान पर पाँच उदुम्बर फलों के त्याग का भी समावेश किया गया है।


पञ्चाध्यायी के उत्तरार्ध में पं. राजमल्ल ने भी कहा है


तत्र मूलगुणाश्चाष्टौ गृहिणां व्रतधारिणाम्।
क्वचिदव्रतिनां यस्मात् सर्वसाधारणा इमे।।७२३।।

निसर्गाद्वा कुलाम्नायादायातास्ते गुणा: स्फुटम्।
तद्विना न व्रतं यावत्सम्यक्त्वं च तथाङ्गिनाम्।।७२४।।

एतावता बिनाप्येष श्रावको नास्ति नामत:।
किं पुन: पाक्षिको गूढो नैष्ठिका साधकोऽथवा।।७२५।।

मद्यमांसमधुत्यागी त्यक्तोदुम्बरपञ्चक:।
नामत: श्रावक: ख्यातो नान्यथापि तथा गृही।।७२६।।

व्रती गृहस्थों के आठ मूलगुण होते हैं और कहीं अव्रती गृहस्थों के भी होते हैं क्योंकि मूलगुण व्रती और अव्रती दोनों के साधारण—समान हैं। ये मूलगुण स्वभाव से अथवा कुलाम्नाय से चले आते हैं क्योंकि इनके बिना जीवों के न व्रत होता है और न सम्यक्त्व ही होता है। इनके बिना मनुष्य नाम से भी श्रावक नहीं होता फिर पाक्षिक, गूढ़, नैष्ठिक अथवा साधक तो हो ही वैâसे सकता है ? जो मद्य, मांस और मधु का त्यागी है तथा पाँच उदुम्बर फलों का जिसने त्याग किया है ऐसा गृहस्थ ही नाम से श्रावक होता है अन्य प्रकार से नहीं।

इस संदर्भ में यह बात ध्यान में रखने के योग्य है कि गृहस्थों के मूलगुणों में जो मतभेद पाया जाता है वह क्षेत्र और काल के अनुसार ही उत्पन्न हुआ है। हिंसादि पापों का परित्याग कर मनुष्य सच्चा श्रावक बने, यह सब मतों का सार समझना चाहिए।


यहाँ मद्यत्याग आदि पर भी संक्षेप से विचार कर लेना प्रासंगिक है


मद्यत्याग—

अनेक वस्तुओं को सड़ाकर मदिरा बनाई जाती है जिससे उसमें अनेक जीवों की उत्पत्ति हो जाती है साथ ही उसके पीने से मनुष्य मतवाला होकर धर्म-कर्म सब भूल जाता है। पागलों के समान चेष्टा करता है इसलिये इसका त्याग करना श्रेयस्कर है। भांग, चरस, अफीम आदि नशीली वस्तुओं का सेवन भी इसी मद्य में गतार्थ है अत: मद्यत्यागी को इन सब वस्तुओं का सेवन भी त्याग करने के योग्य है।

मांसत्याग—

त्रस जीवों के घात से मांस की उत्पत्ति होती है। इसमें कच्ची और पक्की दोनों ही अवस्थाओं में उसी वर्ण के अनेक समूर्च्छन जीव उत्पन्न होते रहते हैंं। खाना तो दूर रहा स्पर्श मात्र से उन जीवों का विघात होता है अतएव अिंहसा धर्म की रक्षा के लिये मांसभक्षण का त्याग करना चाहिये। मांसभक्षण करने वाले मनुष्य का हृदय अत्यन्त क्रूर होता है। दयालुता, सहृदयता और परोपकारिता आदि गुण मांसभक्षी जीव में निवास नहीं करते हैं।

मांसभक्षण अनेक दुर्गुणों को उत्पन्न करता है। मांसभक्षी जीव सम्यक्त्व का भी पात्र नहीं है। यद्यपि अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के त्रस और स्थावर हिंसा का त्याग नहीं है तो भी मांसभक्षण जैसे कार्य में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती। जिसके अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी लोभ का अभाव हो गया है तथा प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुण प्रकट हुए हैं वह मांसभक्षण में कभी प्रवृत्त नहीं हो सकता।

कितने ही लोग सिंहादिक दुष्ट जीवों की बात उठाकर यह समर्थन करते हैं कि उनका मांस ही भोजन है अत: सम्यक्त्व होने पर भी वे मांसभक्षण करते रहते हैं परन्तु आगम में सम्यक्त्व तो दूर रहा साधारण सुधार भी जिनके जीवन में हुआ है ऐसे भरत चक्रवर्ती तथा भगवान महावीर स्वामी के जीव जब सिंह पर्याय में थे तब उन्होंने शेष दिनों में हिंसा का त्याग करके ही सन्यास धारण किया है—ऐसी चर्चा आई है।

थोड़ी बहुत धर्म-कर्म की चर्चा कर लेना जुदी बात है और सम्यक्त्व का प्रगट हो जाना एवं उस रूप परिणति बना लेना जुदी बात है। कोई मांसभक्षी मनुष्य कुछ धर्म–कर्म की बात करने लगे और जिनधर्म के प्रति अपनी आस्था प्रकट करने लगे तो इतने मात्र से उसे सम्यग्दृष्टि नहीं समझ लेना चाहिए ।

मधुत्याग—

मधुमक्खियों के मुख से निकली हुई लार ही मधु रूप में परिणत होती है। इसमें अनेक जीवों का निवास है। शास्त्रकारों ने तो यह लिखा है कि मधु की एक बूंद के खाने से उतना पाप होता है जितना कि सात गांवों के जलाने से होता है। इसका तात्पर्य यह है कि सात गांवों में जितने स्थूल जीव रहते हैं उतने सूक्ष्म जीव मधु की एक बूंद में रहते हैं।

मधुमक्खियों के छत्ते में अनेक जीव प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, मधु बनाने वाले लोग उन सब जीवों का संहार करके ही मधु को बनाते हैं। इसके सिवाय मधु में प्रत्येक समय सम्मूर्च्छन जीव उत्पन्न होते रहते हैं अत: विवेकी मनुष्य को इसका त्याग करना चाहिये। सम्यग्दृष्टि तो दूर रहा, साधारण गृहस्थ भी इसका सेवन नहीं कर सकता। जिह्वा इन्द्रिय के लंपट मनुष्य ही नाना कुयुक्तियाँ प्रदर्शित कर इसके सेवन का समर्थन करते हैं, जितेन्द्रिय मनुष्य नहीं, वे औषधि आदि में भी इसका उपयोग नहीं करते।

द्यूतत्याग—

हार-जीत की शर्त लगाकर पाशा आदि से खेलना द्यूत—जुआ कहलाता है। इसके द्वारा अनेक घर बरबाद हो जाते हैं। शास्त्रों में युधिष्ठिर तथा राजा नल आदि की कथाएँ तो प्रसिद्ध हैं ही पर प्रत्यक्ष में भी हम देखते हैं कि जुआरी लोग कभी सुखी नहीं होते। लाटरी आदि लगाना भी जुआ का ही एक रूप है।

किन्हीं दश-पाँच आदमियों को लाटरी से होने वाले भारी लाभ को देख, जनता उसके प्रलोभन में आ जाती है पर यह नहीं देखती कि इस लाटरी से लाखों लोग अपने आवश्यक खर्चों से वंचित रह जाते हैं। जिन लोगों को लाटरी का प्रलोभन लग जाता है वे अपने आवश्यक खर्चों से भी रुपये काटकर लाटरी के टिकटों में लगाते हैं। खेद की बात है कि हमारी सरकार भी इसका प्रचार करती है और किसी को थोड़ा सा देकर जनता से बहुत अधिक रुपया वसूल करती है।

ज्ञानी—विवेकी जीव अपनी लोभकषाय पर नियन्त्रण रखता है और न्यायोचित साधनों से आजीविका का उपार्जन करता है। जुआ और लाटरी आदि कार्य तीव्र लोभ के ही परिणाम हैं।

अहिंसाणुव्रत—

संकल्पपूर्वक त्रस जीवों के घात का त्याग करना तथा स्थावर जीवों की भी निरर्थक िंहसा से दूर रहना अिंहसाणुव्रत है। आरम्भी, विरोधी और उद्यमी हिंसा का त्याग अिंहसाणुव्रत में गर्भित नहीं है।

सत्याणुव्रत—

लोक में जो असत्य के नाम से प्रसिद्ध है ऐसे स्थूल असत्य भाषण का त्याग करना सत्याणुव्रत है। पशुओं में भाषण की कला नहीं है। यह कला मनुष्य को प्राप्त हुई है तो इसके द्वारा स्वपर कल्याण ही करना चाहिये। असत्य भाषण के द्वारा उस कला का दुरुपयोग नहीं करना चाहिये।

अचौर्याणुव्रत—

किसी की गिरी, पड़ी या भूली हुई वस्तु को भी न स्वयं उठाना, न उठाकर किसी को देना अचौर्याणुव्रत है। मिट्टी, पानी आदि सर्वोपयोगी वस्तुएँ सर्वसाधारण के लिये खुले हुए स्थान से यह जीव ग्रहण कर सकता है पर वर्जित स्थान से उन्हें भी ग्रहण नहीं करता। लोभकषाय की तीव्रता में यह जीव इस बात का विचार भूल जाता है कि जिस प्रकार यह धन-धान्यादिक वस्तुएं मेरे लिये इष्ट हैं, इनके बिना मैं दुखी हो जाता हूँ उसी प्रकार दूसरे के लिये भी इष्ट हैं इनके बिना वे भी दुखी होते हैं। इस विचार के बिना ही वह चोरी में प्रवृत्त होता है। चोरी करना जहाँ अधार्मिक परिणति है वहीं अनैतिक परिणति भी है। विवेकी मानव इससे दूर रहता है।

ब्रह्मचर्याणुव्रत—

विवाहित और अविवाहित सभी प्रकार की परस्त्रियों का परित्याग करना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। सद्गृहस्थ के लिये शीलव्रत की रक्षा करना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि इसके बिना सज्जातित्व नामक परमस्थान की सुरक्षा नहीं हो सकती। ब्रह्मचर्याणुव्रत की रक्षा के लिये वेषभूषा और भोजन का सात्त्विक रखना आवश्यक है। अधिकांश लोग कुसंगति में पड़कर शीलव्रत से भ्रष्ट होते हैं अत: निरन्तर कुसंगति से बचना चाहिये।

परिग्रहपरिमाणव्रत—

अपनी आवश्यकता के अनुसार धन-धान्य आदि परिग्रह का परिमाण करना परिग्रह परिमाणाणुव्रत है। इसी का दूसरा नाम इच्छा परिमाण व्रत भी है। परिग्रह से सबका निर्वाह होता है। एक स्थान पर आवश्यकता से अधिक परिग्रह के रुक जाने से अन्यत्र उसकी कमी हो जाती है और कमी के कारण अन्य लोग दुखी हो जाते हैं इसलिये अनावश्यक संग्रह से बचना ही इस व्रत का लक्ष्य है।

पञ्चोदुम्बर फल त्याग—

जो फल, फूल के बिना काठ फोड़कर उत्पन्न होते हैं वे उदुम्बर फल कहलाते हैं। बड़, पीपल, पाकर, कठूमर और अंजीर इन पाँच फलों का इनमें समावेश किया है। बड़, पीपल, पाकर आदि फलों में प्रत्यक्ष त्रस जीव दिखते हैं। इन फलों के खाने से उन जीवों का विघात नियम से होता है अत: अहिंसा व्रत की रक्षा के लिये इनका त्याग करना आवश्यक है।

रात्रिभोजन त्याग—

रात्रि में खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय इन चारों प्रकार के भोजन का त्याग करना रात्रिभोजन त्याग है। पं. आशाधरजी के उल्लेखानुसार मूलगुण का धारी मनुष्य रात्रि में पान, सुपारी तथा पानी का सेवन कर सकता है परन्तु प्रतिमाधारी नैष्ठिक श्रावक इनका सेवन नहीं कर सकता।

आप्तनुति—

प्रतिदिन जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन करना, पूजन करना आदि आप्तनुति कहलाती है। देववन्दना से अपने वीतराग आत्मस्वभाव का लक्ष्य बनता है इसलिये प्रमाद छोड़कर उसे अवश्य करना चाहिये। आचार्यों ने देवदर्शन को सम्यक्त्व की प्राप्ति का बाह्य साधन कहा है।

जीवदया—

आहार—विहार आदि प्रवृत्ति करते हुए जीवदया का भाव रखना जीवदया है। इस गुण का धारी जीव सदा देखभाल कर चलता है तथा अपनी प्रवृत्ति से जीवों का घात नहीं होने देता। मनुष्य को अपनी शक्ति का प्रयोग जीवरक्षा में करना चाहिये न कि जीवघात में।

जलगालन—

पानी की एक बूंद में हजारों जीव हैं यह बात आज यन्त्रों से देखकर अच्छी तरह सिद्ध की जा चुकी है अत: अगालित (बिना छना) जल का त्याग करना गृहस्थ का कर्तव्य है।

इस तरह संक्षेप से मूलगुणों में आई हुई बातों का विचार किया गया है। उपर्युक्त मूलगुणों का धारण करना व्रती और अव्रती दोनों के लिये आवश्यक है। अन्तरङ्ग में प्रतिपक्षी कषायों का अभाव हुआ है या नहीं, इसका निर्णय करना प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय है। चरणानुयोग के अनुसार तो गृहस्थ गृहस्थ के योग्य और मुनि मुनि के योग्य आचार का पालन करता है और श्रद्धा के साथ करता है। किसी के आतंक या ख्याति, लाभ आदि की आकांक्षा से नहीं करता है तो वह चारित्र का धारक कहलाता है। चरणानुयोग ऐसे चारित्र के धारक की भक्ति, विनय आदि करने की आज्ञा देता है।

जैन गृहस्थ का आचार अन्य लोगों की अपेक्षा जो सुधरा हुआ पाया जाता है वह आचार को प्रधानता देने से ही सुधरा हुआ पाया जाता है। आजकल कुछ लोग कह देते हैं कि मूलगुणों के बिना भी सम्यक्त्व हो सकता है, सद्गृहस्थ रहा जा सकता है तथा जिनधर्म की देशना प्राप्त की जा सकती है आदि….. किन्तु ऐसा उपदेश और व्याख्यान करने वाले जैन, गृहस्थों के साथ धोखा करते हैं और उन्हें मोक्षमार्गी बनने से वंचित करते हैं ऐसा समझना चाहिए क्योंकि चरणानुयोग के द्वारा प्रतिपादित चारित्र/रत्नत्रय बुद्धिपूर्वक ही ग्रहण किया जाता है।

Tags: Pravchan's Gyanmati Mataji, Shravak Process
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