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गौतम गणधर वाणी (अध्याय -10)

August 25, 2022गौतम गणधर वाणीSurbhi Jain

अध्याय १० – वीरभक्ति:


यः सर्वाणि चराचराणि विधिवद्-द्रव्याणि तेषां गुणान्।

पर्यायानपि भूतभाविभवतः, सर्वान् सदा सर्वदा।

जानीते युगपत् प्रतिक्षणमतः, सर्वज्ञ इत्युच्यते

सर्वज्ञाय जिनेश्वराय महते, वीराय तस्मै नमः।।१।।

वीरः सर्वसुरासुरेन्द्रमहितो, वीरं बुधाः संश्रिताः

वीरेणाभिहतः स्वकर्मनिचयो, वीराय भक्त्या नमः।

वीरात्तीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं, वीरस्य वीरं तपो

वीरे श्री द्युति-कान्ति-कीर्ति-धृतयो, हे वीर! भद्रं त्वयि।।२।।

ये वीरपादौ प्रणमन्ति नित्यं, ध्यानस्थिताः संयमयोगयुक्ताः।

ते वीतशोका हि भवन्ति लोके, संसारदुर्गं विषमं तरंति।।३।।

व्रतसमुदयमूलः संयमस्कन्धबन्धो,

यमनियमपयोभिर्वर्धितः शीलशाखः।

समितिकलिकभारो गुप्तिगुप्तप्रवालो

गुणकुसुमसुगन्धिः सत्तपश्चित्रपत्रः।।४।।

शिवसुखफलदायी यो दयाछाययोद्यः (द्घः)

शुभजनपथिकानां खेदनोदे समर्थः।

दुरितरविजतापं प्रापयन्नन्तभावं

स भवविभवहान्यै नोऽस्तु चारित्रवृक्षः।।५।।

चारित्रं सर्वजिनैश्चरितं, प्रोत्तं च सर्वशिष्येभ्यः।

प्रणमामि पंचभेदं, पंचमचारित्रलाभाय।।६।।

धर्मः सर्वसुखाकरो हितकरो, धर्मं बुधाश्चिन्वते।

धर्मेणैव समाप्यते शिवसुखं, धर्माय तस्मै नमः।

धर्मान्नास्त्यपरः सुहृद्भवभृतां, धर्मस्य मूलं दया,

धर्मे चित्तमहं दधे प्रतिदिनं, हे धर्म! मां पालय।।७।।

धम्मो मंगलमुद्दिट्ठं (मुक्किट्ठं), अहिंसा संयमो तवो।

देवा वि तस्स पणमंति, जस्स धम्मे सया मणो ।।८।।

पद्यानुवाद – (चौबोल छंद)

जो विधिवत् सब लोक चराचर, द्रव्यों को उनके गुण को।

भूत भविष्यत् वर्तमान, पर्यायों को भी नित सबको।।

युगपत समय-समय प्रति जाने, अतः हुए सर्वज्ञ प्रथित।

उन सर्वज्ञ जिनेश्वर महति, वीर प्रभु को नमूँ सतत।।१।।

वीर सभी सुर असुर इन्द्र से, पूज्य वीर को बुध सेवें।

निज कर्मों को हता वीर ने, नमः वीर प्रभु को मुद से।।

अतुल प्रवर्ता तीर्थ वीर से, घोर वीर प्रभु का तप है।

वीर में श्री द्युति कांति कीर्ति, धृति हैं हे वीर! भद्र तुममें।।२।।

जो नित वीर प्रभू के चरणों, में प्रणमन करते रुचि से।

संयम योग समाधीयुत हो, ध्यान लीन होते मुद से।।

इस जग में वे शोक रहित हो, जाते हैं निश्चित भगवन् ।

यह संसार दुर्ग विषमाटवि, इसको पार करें तत्क्षण।।३।।

व्रत समुदाय मूल है जिसका, संयममय स्कंध महान् ।

यम अरु नियम नीर से सिंचित, बढ़ी सुशाखाशील प्रधान।।

समिति कली से भरित गुप्तिमय, कोंपल से सुन्दर तरु है।

गुण कुसुमों से सुरभित सत्तप, चित्रमयी पत्तों युत है।।४।।

शिवसुख फलदायी यह तरुवर, दयामयी छाया से युत।

शुभजन पथिक जनों के खेद, दूर करने में समरथ नित।।

दुरित सूर्य के हुए ताप का, अन्त करे यह श्रेष्ठ महान् ।

वर चारित्र वृक्ष कल्पद्रुम, करे हमारे भव की हान।।५।।

सभी जिनेश्वर ने भवदुःखहर, चारित को पाला रुचि से।

सब शिष्यों को भी उपदेशा, विधिवत् सम्यक् चारित ये।।

पाँच भेद युत सम्यक् चारित, को प्रणमूँ मैं भक्ती से।

पंचम यथाख्यात चारित की, प्राप्ति हेतु वंदूँ मुद से।।६।।

धर्म सर्वसुख खानि हितंकर, बुधजन करें धर्म संचय।

शिवसुखप्राप्त धर्म से होता, उसी धर्म के लिए नमन।।

धर्म से अन्य मित्र नहिं जग में, दयाधर्म का मूल कहा।

मन को धरूँ धर्म में नित, हे धर्म! करो मेरी रक्षा।।७।।

धर्म महा मंगलमय है यह, कहा वीर प्रभु ने जग में।

प्रमुख अहिंसा संयम तपमय, धर्म सदा उत्तम सब में।।

जिसके मन में सदा धर्म है, सुरगण भी उसको प्रणमें।

मैं भी नमूं धर्म को संतत, धर्म बसो मेरे मन में।।८।।

इति श्री गौतमगणधरवाण्यां दशमोऽध्याय:।।१०।।

Tags: Goutam gadhar vaani
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