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जिनवाणी की महिमा!

July 8, 2017स्वाध्याय करेंjambudweep

जिनवाणी की महिमा


(कानजी पंथ की धारणा है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए कुन्दकुन्द स्वामी का समयसार ही सदा अभ्यसनीय, पठनीय एवं मननीय ग्रन्थरत्न है। अन्य शास्त्र अनुपयोगी हैं। इस निबन्ध में कुन्दकुद स्वामी की वाणी दी गईं, जो सम्पूर्ण जिनवाणी के प्रथमानुपयोग, करणानुयोग, चरणानुपयोग, द्रव्यानुयोग रूप अंगों का अभ्यास आवश्यक बताती हैं। वे महर्षि चारों अन्योग तथा द्वादशांग वाणी को प्रणाम करते हैं। विचारक सोचेें कि कानजी पंथ कुन्दकुन्द स्वामी की धर्म देशना के विरुद्ध श्रद्धा, ज्ञान तथा प्रचार कार्यं करता है। यह विचित्र बात है, कि वह अपने को श्रेष्ठ कुन्दकुन्द भक्त तथा उनकी वाणी रहस्य का ज्ञाता कहता है। आचार्यदेव समस्त जिनवाणी को प्रणाम करते हैं, और चारों अनुयोगों का अभ्यास आवश्यक मानते हैं। समयसार मार्मिक तथा सूक्ष्म बुद्धि वालों के योग्य शास्त्र है। आश्चर्य है कि उसे मंदमति भी अपने अवगाहन योग्य मानते हैं। इस निबंध में आगम की सर्वज्ञ प्रतिपादित दृष्टि का वर्णन किया गया है।) आचार्य कुन्दकुन्द ने दर्शनपाहुड में कहा है—
जिणं वयण मोसहमिणं, विसय सुहविरेयणं अमिदभूदं।’’
‘‘जर—मरण—वाहि—हरणं, खयकरणं सव्वदुक्खाणं।।१७।।
सर्वज्ञ जिनेश्वर की दिव्यवाणी औषधिरूप है, वह विषयसुखों का परित्याग कराती है, वह अमृतमय—मरणरहित अवस्था को प्रदान कराती है, अमृत सदृश मधुर भी है, वह जन्म मरण तथा व्याधि का विनाश करती है। जिनवाणी के द्वारा सर्वदु:खों का क्षय होता है। कुन्दकुन्द स्वामी ने सम्पूर्ण द्वादशांग जिनवाणी को इन शब्दों द्वारा प्रणामांजलि अर्पित की है—
‘‘सिद्धवरसासणाणं, सिद्धाणं कम्मचक्कमुक्काणं।’’
‘‘काऊण णमुक्कारं भत्तीए णमामि अंगाइं।।’’
जिनका श्रेष्ठ शासन सर्वत्र प्रसिद्ध है तथा जो कर्मचक्र से मुक्त हो गये हैं, उन सिद्ध भगवान को प्रणामकर मैं भक्तिपूर्वक द्वादशांगवाणी को नमस्कार करता हूँ। कुन्दकुन्द स्वामी बोध पाहुड में कहते हैं कि मेरे श्रुत केवली भगवान भद्रबाहु स्वामी सम्पूर्ण द्वादशांग श्रुत के ज्ञाता थे।
‘‘बारस अंग वियाणं, चउदस—पुव्वंग—विउल—वित्थरणं।
सुयणाणि भद्दबाहू गमयगुरु भयवओ जयसो।।६२।।
चौदह पूर्वरूप विपुल विस्तार मुक्त द्वादशांग के ज्ञाता गमक गुरु श्रुत केवली भगवान भद्रवाहु जयंवत हों अर्थात् उनको हमारा नमस्कार हो। कुन्दकुन्द स्वामी ने आचारांग, सूत्रकृतांग आदि द्वादशांग जिनवाणी को श्रुतभक्ति में प्रणाम करते हुए कहा है—
एवं मया सुदपवरा, भत्तीराएण संथुया तच्चा।
सिग्घं में सुदलाहं, जिणवरवसहा पयच्छंतु।।११।।
इस प्रकार द्वादशांग श्रुतज्ञान का निरूपण करने वाले गणधर देव की मैं भक्ति तथा प्रेमभाव से हार्दिक स्तुति करता हुआ जिनेन्द्र भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि वे मुझे पूर्ण श्रुतज्ञान प्रदान करें। एकांतवादी व्यक्ति जिनवाणी को समयसार रूप ही समझते हैं, उन्हें अन्य आगम प्रिय नहीं लगता। उसका पठन—पाठन वे नहीं करते, तथा अन्य आगम के प्रति दुर्भाव धारण करते हैं। उन्हें कुन्दकुन्द स्वामी की उपरोक्त वाणी यह ज्ञापित करती है, कि समस्त द्वादशांग वन्दनीय है। यदि वह उपयोगी तथा आत्मकल्याण दाता न होता, तो कुन्दकुन्द स्वामी के गुरु भद्रवाहु श्रुतकेवली उसका परिज्ञान करने का कष्ट क्यों उठाते? भाव पाहुड में वे मुनिजनों को सम्पूर्ण श्रुतज्ञान की आराधना हेतु प्रेरणा देते हुए करते हैं—
तित्थयर भासियत्थं, गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं।
भावहि अणुदिणु, अतुलं, विसुद्ध भावेण सुयणाणं।।९०।।
तीर्थंकर के द्वारा अर्थरूप से प्रतिपादित, गणधर देव द्वारा सम्यक्—रूप ग्रन्थरूप में निर्मित अनुपम श्रुतज्ञान की निर्मलभावपूर्वक प्रतिदिन भावना करो अर्थात् समस्त श्रुत को प्रणाम करते हुए यह भावना करो, कि वह श्रुतज्ञान हमें प्राप्त हो। समस्त जिनागम का अभ्यास आत्मा में निर्मलता उत्पन्न करता है। यह समझना कि हमारा हित केवल अध्यात्म साहित्य द्वारा होगा, संकुचित चिंतन का परिणाम है। पात्र केशरी आचार्य को देवागम स्तोत्र रूप न्यायशास्त्र के सुनने से जैनधर्म में समीचीन श्रद्धा उत्पन्न हुई थी । इस युग के विद्धानों के गुरु पूज्य न्यायवाचस्पति पं. गोपालदास जी बरैया की जैनधर्म में श्रद्धा त्रिलोकसार की सूक्ष्म गणित की देशना द्वारा हुई थी। वैष्णव कुल में उत्पन्न भद्र परिणामी ब्र. बाबा भागीरथ जी की जैनधर्म में भक्ति पद्मपुराण की मधुरकथा सुनकर उत्पन्न हुई थी। विद्यावारिधि बैंरिस्टर चम्पतराय जी ने मुझसे कहा था ‘‘ जैनधर्म के कर्मों का विवेचन, विशेषकर आयुकर्म का वर्णन पढ़कर मेरा मन वेदान्त से हटकर जैन धर्म की ओर झुका था’’ इस प्रकार द्वादशांग जिनवाणी की समस्त देशना आसन्न भव्य जीव को सम्यक्त्व के उन्मुख बनाती है। महावीरष्टक के रचियता कवि भागचन्द जी समस्त जिनवाणी को ‘निजधर्म की कहानी’ कहते हैं उनका मधुर भजन है—
लांची तो तो गंगा यह वीतराग वानी, अविच्छिन्नधारा निजधर्म की कहानी।।१।।
जामें अतिही विमल अगाध ज्ञानपानी, जहा नहीं सयंशयादि पंक की निशानी।।२।।
सप्तभंग जँह तरंग उछलत सुखदानी, संतजन मरालवृन्द रमें नित्यज्ञानी।।३।।
जाके अवगाहतें शुद्ध होय प्रानी, भागचन्द निहचै घट मांहि या प्रमानी।।४।।
यह द्वादशांग जिनवाणी चार अनुयोगों में विभक्त है। महापुराण में कहा है कि— ‘‘श्रुत स्कध अर्थात् सम्पूर्ण श्रुतज्ञान चार महाधिकार कहे गये है। पहिला अनुयोग सत्पुरूषों के पवित्र चरित्र का प्रतिपादन करता है। दूसरा महाधिकार करणानुयोग तीनों लोकों का वर्णन करता है, जिस प्रकार ताम्रपत्र पर कुल क्रमागत वंशावली लिखी रहती है। जिनेन्द्र देव ने तीसरे महाधिकार में चरित्र की शुद्धि का निरूपण किया है। उसे चरणानुयोग कहा है।चौथा द्रव्यानुयोग अधिकार है, उसमें नय, प्रमाण, निक्षेप सत्संख्यादि, निर्देंश स्वामित्वादि की अपेक्षा द्रव्यों का निर्णय किया जाता है।’’ जिसकी क्षयोपसम शक्ति विशिष्ट है, उसे चारों अनुयोगों का रहस्य ज्ञातकर जिनवाणी की लोकत्तरता का अवबोध होगा। अल्पज्ञानी को थोड़े भी वैराग्य युक्त ज्ञान से सिद्धि प्राप्त हो जाती है। भावपाहुड में कहा—
तुसमासं घोसंतो, भाव विंसुद्धो, महाणुभावो य णामेण य सिवभूई, केवलणाणी पुडं जाओ।।२५।।
निर्मल भाव वाले, महानप्रभावयुक्त शिवभूति मुनि तुस—माष—भिन्न—(दाल—छिल्का जैसे जुदे हैं; इसी प्रकार मेरी आत्मा शरीरादि से भिन्न है) इतने ज्ञान मात्र से केवलज्ञानी हुए।

(१)

महाधिकारा श्चत्वार:, श्रुतस्कंधस्य वर्णिता:। तेषामाद्योनुयोगोडयं: सतां सच्चरिताश्रय:।।२।।९८।।

द्वितीय: करणादि: स्यादनुयोग: सयत्रवै। त्रैलोक्यक्षेत्र संख्यानं कुल पत्रेधिरोपितम् ।।९९।।

चरणादि स्तृतीय:, स्यादनुयोगो जिनोदित: यत्रचर्या विधानस्य, पराशुद्धि रुदाहृता।।१००।।

तुर्यो द्रव्यानुयोगस्तु, द्रव्याणां यत्र निर्णय:। प्रमाणनय निक्षेपैं: सदाद्यैश्च किमादिभि:।।१०१।

मूलाचार के समय अधिकार में कहा है धीरो वइरग्गपरो थोवं पिय

सिक्खिउण सिज्झंदि णय सिज्झदि बेरग्ग विहीणों पडिदूण सत्थाई।।३।।

वैराग्य सहित धीर पुरुष अल्प शिक्षा प्राप्त करके ही सिद्धि को प्राप्त करता है, किन्तु वैराग्य शून्य सर्वशास्त्रों का ज्ञाता होते हुए भी कर्मक्षय नहीं कर पाता। इस प्रसंग में समन्तभद्र स्वामी का आप्तमीमांसा में किया गया कथन मनन योग्य है।
अज्ञानाच्चेद् ध्रवो बन्धो, श्रेयानंत्यान्न केवली।
ज्ञानास्तोका द्विमोक्षश्चे दज्ञाना द्वहुतो न्यथा।।९६।।
यदि यह कहा गया कि अज्ञान से नियम से बन्ध होता है, तो ज्ञेय—वस्तु अनन्त है; उनका ज्ञान न हो सकने से कोई भी सर्वज्ञ केवली नहीं हो सकेगा। यदि यह कहा जाय, कि थोड़ा ज्ञान मोक्ष प्रदाता होगा, तब बहुत अज्ञान बन्ध का कारण होने से मोक्ष नहीं हो पायेगा। यहाँ आचार्य कहते हैं, कि अज्ञान से बन्ध होता है, ऐसी मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि पदार्थों की संख्या अनन्त है। इससे अज्ञान का प्रमाण अधिक होने से सदा बन्ध होगा.तब मोक्ष का अभाव होगा। इस स्थिति में जैन शासन की दृष्टि को इस प्रकार कहा गया है—
अज्ञानात् अज्ञान से बन्धो नाज्ञानाद्वीत मोहत:।
ज्ञानस्तोकाच्च मोक्ष: स्या—दमोहान्मोहतो न्यथा।।९८।।
मोहयुक्त अज्ञान से बन्ध होता है; वीत—मोह पुरुष के अज्ञान से बन्ध नहीं होता है। उसे अल्पज्ञान से ही मोक्ष प्राप्त होगा, जो मोह रहित है, किन्तु मोहयुक्त ज्ञान से बन्ध होगा। यहाँ लमन्तभद्र स्वामी ने यह बात सिद्ध की है, कि ज्ञान की अधिकता या न्यूनता के साथ मोक्ष की प्राप्ति का सम्बन्ध नहीं है, मोह सहित महान ज्ञान भी मोक्षसाधक नहीं है। मोक्ष का साधक मोह रहित अल्पज्ञान भी है। कुन्दकुन्द स्वामी ने रयणसार में इस एकान्तपक्ष का निराकरण किया है कि ज्ञान मात्र से मोक्ष होता है। आध्यात्मिक चर्चा में सदा कहा जाता है, कि ज्ञान मात्र से मोक्ष होता है। अध्यात्मिक चर्चा में सदा कहा जाता है, कि ज्ञान के होने पर तत्काल हो जाता है। उन्होंने कहा है—
णाणी खवेइ कम्मं णाणवलेणेदि सुबोलए अण्णाणी।
विज्जो भेसज्ज महं, जाणे, इदि णस्सदे वाही।।७२।।
ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञान के बल से कर्मों का क्षय करता है, ऐसा कथन करने वाला अज्ञानी है; कारण मैं वैद्य हूँ, मै औषधि को जानता हूँ, क्या उस औषधि को सेवन न कर ज्ञान मात्र से रोग दूर हो जायेगा? औषधि का ज्ञानमात्र रोग निवारण नहीं करता है, इसी प्रकार सम्यग्ज्ञान के साथ सम्यक्चारित्र भी आवश्यक है। शंका—सम्यग्ज्ञान की अपार महिमा है, कोटि वर्ष तपस्या से जितनी कर्म निर्जरा नहीं होती है, उतनी कर्म—ाqनर्जरा ज्ञानी पुरुष क्षण मात्र में कर दिया करता है। प्रवचनसार में कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है—
जं अण्णाणी कम्मं, खवेदि भवसय सहस्यकोडीहिं।
तं णाणी तिंहि गुत्तो, खवेइ उस्सासमेत्तेण।।२३८।।
अज्ञानी कोटि सहस्र भवों में जितनी कर्मो की निर्जरा करता है, उतनी निर्जरा ज्ञानी त्रिगुप्त द्वारा एक स्वास मात्रकाल में कर लेता है। इसी गाथा को ध्यान में रखकर छहढ़ाला में यह कथन किया गया है—
कोटि जन्म तप तपै, ज्ञान बिन कर्म झरै। ज्ञानी के छिन मांहि, त्रिगुप्तितें सहज टरैं ते।।
समाधान—कुन्दकुन्द स्वामी ने रयणसार में जो कहा है, उनकी प्रवचनसार की उक्ति से तनिक भी विरोध नहीं आता। प्रवचनसार में ज्ञानी जीव के उच्छासमात्र में महान निर्जरा कही है, उस निर्जरा का कारण त्रिगुप्ति अर्थात् मनगुप्ति, वचनगुप्ति कायगुप्ति रूप गुप्तित्रय कहा है। गुप्ति का अन्तर्भाव चारित्र में किया है—
असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं।
वद—समिदि—गुत्तिरूवं ववहारणयादु जिणभणियं।।४५।।
अशुभ से निवृत्ति तथा शुभ में प्रवृत्ति को चारित्र जानो। जिनेन्द्र देव ने व्यवहारनय से व्रत समिति गुप्ति रूप चारित्र कहा है। मोक्ष प्राप्ति में सम्यक्चारित्र की महत्वपूर्ण स्थिति है। सयोग केवली भगवान के श्रेष्ठ सम्यक्त्व के साथ पूर्ण ज्ञान भी पाया जाता है, फिर भी वे तेरहवें गुण स्थान में मोक्ष नहीं प्राप्त कर पाते। संयोग केवली का उत्कृष्ट काल देशोन एक कोटि पूर्व है। उतने काल तक श्रेष्ठ सम्यक्त्व और पूर्ण ज्ञान समलंकृत होते हुए भी उन्हें सिद्ध पद नहीं मिलता। जब संयोगीजिन योग—निरोधकर अयोग केवली होते हैं, तब पूर्ण गुप्ति हो जाने से अयोगी जिनके पूर्ण संवर होता है, और पंचलघु अक्षर उच्चारण में जितना काल लगता है, उतने काल में वे मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान की पूर्णता हो जाने पर भी जब तक चारित्र की पूर्णता न होगी, तब तक मोक्ष नहीं होगा, क्योंकि मोक्ष का कारण रत्नत्रय है। मोक्ष प्राप्ति में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र तीनों की एकता को कारण माना गया है। ज्ञान की दृष्टि से पूर्ण जिनवाणी जीव का कल्याण करती है। शास्त्राभ्यास द्वारा सम्यग्ज्ञान प्रापत होने के अनन्तर चारित्र की परिपूर्णता आवश्यक है। भेद विज्ञान की प्राप्ति, चारों अनुयोगों के अभ्यास द्वारा आसन्न भव्य जीव को हो जाती है। द्रव्यानुपयोग ही मोक्ष प्रदाता है, उनमें भी समयसार का अभ्यास ही सर्वोपरि है, यह एकान्त पक्ष सत्य से दूर है। शास्त्रज्ञान द्वारा साध्य है वीतरागता। वीतरागता की उपलब्धि एकांतवादी चारित्र के बिना सोचता है। विचार करने पर ज्ञात होगा, कि चारित्र मोह का भेद राग है। चारित्र मोह का उपशम या क्षय होने पर यथाख्यात चारित्र होता है। िंसह और मृगपति परस्पर पर्यायवाची है, उनमें भेद नहीं है, इसी प्रकार वीतरागता और चारित्र की प्राप्ति एक अर्थ के ज्ञापक हैं। एकांतवादी को थोड़ा विचारना चाहिए कि अध्यात्म शास्त्र पढने वाला जब मुनि दीक्षा लेगा, तब उसे निर्दोष मुनिचर्या का ज्ञान चरणानुयोग के अभ्यास बिना कैसे प्राप्त होगा? संकट, उपसर्ग, परीषह विजय के समय प्रथमानुपयोग में प्रतिपादित महान पुरुषार्थी मुनीन्द्रों का उज्जवल जीवन आत्मा को धर्य प्रदाता होगा। करणानुपयोग द्वारा वह सम्पूर्ण विश्व का स्वरूप समझेगा।। तीन लोक की स्थिति का सम्यक् रूप से परिज्ञान संस्थानविचय धर्म ध्यान का सहायक है। लोकोनुप्रेक्षा में भी वह अनुयोग उपयोगी रहता है। समाधिमरण काल में समाधिमरण पाठ में वर्णित सुकुमाल, सुकौशल आदि मुनियों की स्मृति परलोक प्रयाण करते समय भावों को निर्मल बनाने में अद्भुत सहायता देती है। कलकत्ते के समाज नेता स्व. बाबू जुगमंदरदास जी जैन ने एक बार हमें सुनाया था, कि वे क्रांति दल में थे। अंग्रेजों उनको पकड़कर अपारकष्ट देकर सर्वभेद प्रकट करने को मजबूर किया था। किन्तु वे उन यातनाओं के समक्ष नहीं झुके थे। कोड़ो द्वारा बेरहमी से पिटाई होने पर जब वे घबरा जाते थे, तब शौचादि जाने का बहाना करने पर उन्हें कुछ मिनिटों का छुटकारा मिलता था। उन्होंने कहा था—हमारी माता जी को समाधिमरण पाठ आता था। माता के पाठ को सुनकर मुझे भी वह पाठ याद हो गया था। मैं अपनी अपार अवर्णनीय पीड़ा के क्षणों में पढ़ता था—
धन्य धन्य सुकुमाल महामुनि, कैसे धीरज धारी।
एक श्यालनी जुग बच्चायुत, पांव भख्यो दु:खकारी।।
यह उपसर्स सह्यो धर थिरता, आराधन चित्तधारी।
तो तुम्हरे जिय कोंन दु:ख है; मृत्यु महोत्सव भारी।।३१।।
धन्य धन्य जु सुकौशल स्वामी व्याघ्री ने तन खायो।
तो भी श्री मुनि नेक डिगे नहिं, आतम सौं चितलायो।।
यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चितधारी।
तो तुम्हरे जिय कौन दु:ख है, मृत्यु महोत्सव भारी।।३२।।
इस प्रकार समाधिमरण पाठ का स्मरण करने से मेरे महान धैर्य, स्फूति तथा साहस का जागरण हो जाता था, इसके पश्चात् तरह तरह की व्रूरतापूर्ण यातनायें मुझे दी जाती थीं किन्तु मुझे कष्ट का भान नहीं होता था।’’ इस सत्य घटना के प्रकाश में विवेकी व्यक्ति के ध्यान में समस्त जिनागम का महत्व आ जाना चाहिए। जब शीलवती स्त्री पर कोई अत्याचार करने को तत्पर होता है, तब वह चन्दना, सीता, अन्जना आदि की जीवनी स्मरण कर अपनी आत्मा को धैर्य प्रदान करती है। उससे उसका आत्मबल जग जाता है। वीर पुरुषों और वीरांगनाओं की जीवनगाथा ने भारत को स्वतन्त्र बनाने में राष्ट्र सेवको अपार प्रेरणा साहस तथा क्षमता प्रदान की थी। इसलिए सच्चरित्र आत्माओं के जीवन पर प्रकाश डालने वाले प्रथमानुयोग का महत्व नहीं भूलना चाहिए। चारों अनुयोगों में वह प्रथम ही नहीं है; आत्मा को सत्पथ में प्रवत्त कराने में भी वह प्रथम है, अद्वितीय है। अल्पज्ञानी तथा महाज्ञानी दोनों को हितकारी है। यथार्थ बात यह है कि स्याद्वाद वाटिका में जितने सुमन हैं,सभी महान सौरभ सम्पन्न तथासौन्दर्ययुक्त है। गुलाब या कमल पुष्प आपको अच्छे लगते हैं। उन्हें आप शौक से पसन्द कीजिये, किन्तु चम्पा, मालती, मन्दार पारिजात आदि सुमन राशि का तिरस्कार न कीजिए। एकान्तवादी वर्ग यदि सचमुच में कुन्दकुन्द स्वामी की शिक्षा को महत्वपूर्ण मानता है, तो उसका कत्र्तव्य है, कि उनके इस कथन के रहस्य पर दृष्टि दे। उन्होंने समयसार के मोक्षाधिकार में मोक्ष का क्या हेतु है यह बात इस गाथा में स्पष्ट की है—
बंधाणं च सहावं वियाणिओ अप्पणो सहावं च।
बंधेसु जो विचरज्जदि, सो कम्मविमोक्खणं कुणई।।२९३।।
जो आत्मा के स्वभाव और बन्ध के स्वरूप को समझकर बन्ध से दूर होता है, वह सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करता है। आत्मास्वरूप का परिज्ञान द्रव्यानुपयोग के अभ्यास द्वारा होगा। कर्मबन्ध का यर्थाथ स्वरूप समझने के लिये गोम्मटसार कर्मकाण्ड, तत्वार्थसूत्र, षट्खंडागम, कषाय पाहुड आदि करणानुयोग के शास्त्रों का परिज्ञान उपयोगी होगा। बन्ध के कारणों से विरक्ति हेतु पद्मपुराण आदि रूप प्रथमानुयोग तथा सागारधर्मामृत, मूलाचार आदि रूप चरणानुयोगशास्त्र लाभप्रद होंगे। प्रथमानुयोग के अभ्यास द्वारा आसन्न भव्य जीव वैराग्य भाव भूषित होगा। चरणानुपयोग से आचरण विषयक मार्ग अवगत कर मुमुक्षु रत्नत्रय की समीचीन आराधना करता हुआ अभेद रत्नत्रय के द्वारा सिद्ध परमात्मा बन सकेगा। इस गाथा से इस बात का संकेत प्राप्त होता है, कि समस्त जिनागम हितकारी है यर्थाथ में वह ‘निजधर्म’ की कहानी है। विवेकी व्यक्ति का कत्र्तव्य है कि दुराग्रह का परित्याग कर सत्यपक्ष को शिरोधार्य करे। चारों अनुयोगों का आनन्द प्राप्त कर जीवन को सफल तथा स्वच्छ बनाने के लिए धार्मिक व्यक्तियों को प्रयत्नरत रहना चाहिए। माहेज्वर दूर करने की क्षमता चारों अनुयोगों में हैं। पंचास्तिकाय, जिसे कुन्दकुन्द स्वामी ‘पवयणसार’ जिनागम का सार कहते हैं, के मंगलपद्य में आचार्य महाराज ने महाश्रमण महावीर के मुख से उत्पन्न द्वादशांगवाणी को प्रणाम किया है, तथा उसे चारों गति में परिभ्रमण का निर्वाणदाता कहा है। गाथा इस प्रकार है—
समण मुहुग्गदमट्ठं, चदुग्गदि—णिवारणं सणित्वाणं।
एसो पणमिय सिरसा समयमियं सुणह वोच्छामि।।२।।
विषयासक्त व्यक्ति सदाचार को प्रेरणा देने वाली सामग्री न पढ़कर अध्यात्मभासी बनकर अकल्याण पथ का पथिक बनता है। सच्चा मुमुक्षु सम्पूर्ण जिनागम के अभ्यास द्वारा अपनी आत्मा को सन्मार्ग में लगता है। दौलतराम जी ने कहा है— जनवाणी सुधासम जानके नित पीजो धीधारी।
 
Tags: Saraswati Maa
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