Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

आचार्य श्री जिनसेन जी – ‘पार्श्वाभ्युदय’ काव्य

September 19, 2017साधू साध्वियांjambudweep

आचार्य जिनसेन (द्वितीय) और उनका ‘पार्श्वाभ्युदय’ काव्य

-विद्यावाचस्पति डॉ. श्रीरंजनसूरि देव, पटना
 

जैन काव्यों की महनीय परम्परा में, आचार्य जिनसेन (द्वितीय) द्वारा प्रणीत ‘पार्श्वाभ्युदय’ काव्य की उपादेयता सर्वविदित है। आचार्य जिनसेन (द्वितीय), आचार्य नेमिचंद्र शास्त्री की ऐतिहासिक कृति ‘तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा’ (खंड २) के अनुसार श्रुतधर और प्रबुद्धाचार्यों के बीच की कड़ी थे। इनकी गणना सारस्वताचार्यों में होती है। यह अपनी अद्वितीय सारस्वत प्रतिभा और अपार कल्पना-शक्ति की महिमा से ‘भगवत् जिनसेनाचार्य’ कहे जाते थे।

 
यह मूलग्रंथों के साथ ही टीका ग्रंथों के भी रचयिता थे। इनके द्वारा रचित चार ग्रंथ प्रसिद्ध हैं-जयधवला टीका का शेष भाग, ‘आदिपुराण’ या ‘महापुराण’, ‘पार्श्वाभ्युदय’ और ‘वर्धमान पुराण’। इनमें ‘वर्धमान पुराण’ या ‘वर्धमान चरित’ उपलब्ध नहीं है। आचार्य जिनसेन (द्वितीय) ईसा की आठवीं-नवीं शती में वर्तमान थे। यह काव्य, व्याकरण, नाटक, दर्शन, अलंकार, आचारशास्त्र, कर्म सिद्धांत प्रभृति अनेक विषयों में बहुश्रुत विद्वान थे। यह अपने योग्य गुरु के योग्यतम शिष्य थे।
 
जैन सिद्धांत के प्रख्यात ग्रंथ ‘षट्खंडागम’ तथा ‘कसायपाहुड’ के टीकाकार आचार्य वीरसेन (सन् ७९२ से ८२३ ई.) इनके गुरु थे। क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी द्वारा सम्पादित ‘जैनेन्द्र सिद्धांत कोश’ में भी उल्लेख है कि आचार्य जिनसेन, धवला टीका के कत्र्ता श्री वीरसेन स्वामी के शिष्य तथा उत्तरपुराण के कत्र्ता श्री गुणभद्र के गुरु थे और राष्ट्रकूट-नरेश जयतुंग एवं नृपतुंग, अपरनाम अमोघवर्ष (सन् ८१५ से ८७७ ई.) के समकालीन थे। राजा अमोघवर्ष की राजधानी मान्यखेट में उस समय विद्वानों का अच्छा समागम था।
 
विशेष दृष्टव्य-‘‘तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा’’, डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री, पृ.३३७। ‘जैनेन्द्र सिद्धांत कोश’ के संदर्भानुसार आचार्य जिनसेन आगर्भ दिगम्बर थे; क्योंकि इन्होंने बचपन में आठ वर्ष की आयु तक लंगोटी पहनी ही नहीं और आठ वर्ष की आयु में ही दिगम्बरी दीक्षा ले ली। इन्होंने अपने गुरु आचार्य वीरसेन की, कर्मसिद्धांत-विषयक गं्रथ ‘षट्खंडागम’ की अधूरी ‘जयधवला’ टीका को, भाषा और विषय की समान्तर प्रतिपादन- शैली में पूरी किया था और इनके अधूरे ‘महापुराण’ या ‘आदिपुराण’ को (कुल ४७ पर्व) जो ‘महाभारत’ से भी बड़ा है, इनके शिष्य आचार्य गुणभद्र ने पूरा किया था।
 
गुणसेन द्वारा पूरा किया गया अंश या शेषांश उत्तरपुराण नाम से प्रसिद्ध है। पंचस्तूपसंघ की गुर्वावलि के अनुसार वीरसेन के एक और शिष्य थे-विनयसेन। आचार्य जिनसेन (द्वितीय) ने दर्शन के क्षेत्र में जैसी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया है, वैसी ही अपूर्व मनीषा काव्य के क्षेत्र में भी प्रदर्शित की है। इस संदर्भ में इनकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व की संस्कृत काव्यकृति ‘पार्श्वाभ्युदय’ उल्लेखनीय है। प्रस्तुत काव्य के अंतिम दो श्लोकों से ज्ञात होता है कि उपर्युक्त राष्ट्रकूटवंशीय नरपति अमोघवर्ष के शासनकाल में इस विलक्षण कृति की रचना हुई। श्लोक इस प्रकार हैं-
इति विरचितमेतत्काव्यमावेष्ट्य मेघं बहुगुणमपदोषं कालिदासस्य काव्यम्। मलिनितपरकाव्यं तिष्ठातादाशाशाज्र्: भुवनमवतु देव: सर्वदाऽमोघवर्ष:।। श्रीवीरसेनमुनिपादपयोजभृंग: श्रीमानभूद्विनयसेनमुनिर्गरीयान्। तच्चोदितेन जिनसेनमुनीश्वरेण काव्यं व्यधायि परिवेष्टित मेघदूतम्।।

अर्थात् प्रस्तुत ‘पार्श्वाभ्युदय’ काव्य कालिदास कवि के अनेक गुणों से युक्त निर्दोष काव्य ‘मेघदूत’ को आवेष्टित करके रचा गया है। मेघसन्देश-विषयक अन्य काव्य को निष्प्रभ करने वाला यह काव्य यावच्चन्द्र विद्यमान रहे। और, राजा अमोघवर्ष सदा जगद्रक्षक बने रहें। यहाँ ‘देव: अमोघवर्ष’ शब्द मेघ का वाचक भी है। इस पक्ष में इसका अर्थ होगा-सफलवृष्टि करने वाला मेघ’। दूसरे श्लोक का अर्थ है-श्री वीरसेन मुनि के पद-पंकज पर मंडराने वाले भृंग-स्वरूप श्रेष्ठ श्रीमान् विनयसेन मुनि की प्रेरणा से मुनिश्रेष्ठ जिनसेन ने ‘मेघदूत’ को परिवेष्टित करके इस ‘पार्श्वाभ्युदय’ काव्य की रचना की।
 
पूर्वोक्त महामुनि आचार्य वीरसेन, विनयसेन और जिनसेन नामक मुनिपुंगवों के गुरु थे। विनयसेन की प्रार्थना पर ही आचार्य जिनसेन ने कालिदास के समग्र ‘मेघदूत’ को समस्यापूर्ति के द्वारा आवेष्टित कर पार्श्वाभ्युदय की रचना की। चार सर्गों में पल्लवित इस काव्य में कुल ३६४ (प्रथम: ११८; द्वितीय:११८; तृतीय: ५७; चतुर्थ: ७१) श्लोक हैं। इसका प्रत्येक श्लोक ‘मेघदूत’ के क्रम से, श्लोक के चतुर्थांश या अद्र्धांश को समस्या के रूप में लेकर पूरा किया गया है।
 
समस्यापूर्ति का आवेष्टन तीन रूपों में रखा गया है- १. पादवेष्टित, २. अर्धवेष्टित और ३. अन्तरितावेष्टित। अन्तरितावेष्टित में भी एकांतरित और द्वयन्तरित ये दो प्रकार हैं। प्रथम ‘पादवेष्टित’ में, चतुर्थ चरण में ‘मेघदूत’ के किसी श्लोक का कोई एक चरण रखा गया है और ‘अर्धवेष्टित’ में ‘मेघदूत’ के किसी श्लोक के दो चरणों का विनियोग तृतीय-चतुर्थ चरणों के रूप में किया गया है और फिर ‘अंतरितावेष्टित’ में, ‘मेघदूत’ के श्लोकों को ‘पार्श्वाभ्युदय’ के जिस श्लोक में प्रथम और चतुर्थ चरण में रखा गया है , उसकी संज्ञा ‘द्वयन्तरितार्धवेष्टित’ है तथा जिस श्लोक में प्रथम और तृतीय चरण के रूप में रखा गया है, उसकी संंज्ञा ‘एकान्तरित’ है।
 
इस प्रकार की व्यवस्था का ध्यातव्य वैशिष्ट्य यह है कि ‘मेघदूत’ के उद्धत चरणों के प्रचलित अर्थ को विद्वान् कवि आचार्य जिनसेन ने अपने स्वतंत्र कथानक के प्रसंग से जोड़ने में विस्मयकारी विलक्षणता का परिचय दिया है। यहाँ समस्या-पूूर्ति के उक्त प्रकारों का एक-एक उदाहरण द्रष्टव्य है।
पादवेष्टित— श्रीमन्मूत्त्र्या मरकतमयस्तम्भलक्ष्मीं वहन्त्या योगैकाग्रयस्तिमिततरया तस्थिवांसं निदध्यौ। पार्श्व दैत्यो नभसि विहरन्बद्धवैरेण दग्ध: कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत:।।(सर्ग १:श्लोक १) अर्धवेष्टित— रम्योत्संगे शिखरनिपतन्निर्झरारावहृद्ये पर्यारूढद्रुमपरिगतोपत्यके तत्र शैले। विश्रान्त: सन्व्रज वमनदीतीरजामां निषिन्चञ्नुद्यानानां नवजलकणैर्यूथिकाजालकानि।।
(सर्ग १: श्लो. १०१) एकान्तरितावेष्टित— उत्संगे वा मलिनवसने सौम्य निक्षिप्यवीणां गाढोत्कण्ठं करूणविरुतं विप्रलापायभानम्। मद्दगोत्रांक विरचितपदं गेयमुद्गातुकामा त्वामुद्दिश्य प्रचलदलकं मूच्र्छनां भावयन्ती।। (सर्ग ३: श्लो. ३८) द्वयन्तरितार्धवेष्टित— आलोके ते निपतति पुरा सा बलिव्याकुलावा त्वत्सम्प्राप्त्यै विहितनियमान्देवताभ्योभजन्त:। बुद्धयारूढं चिरपरिचितं त्वदगतं ज्ञातपूर्वं मात्सादृश्यं विरहतनु वा भावेगम्यं लिखन्ती।। (सर्ग ३: श्लो. ३६) द्वयन्तरितार्धवेष्टित का द्वितीय प्रकार— अन्तस्तापं प्रपिशुनयता स्वंकवोष्णेन भूयो नि:श्वासेनाधर किसलयक्लेशिना विक्षिपत्नी।
शुद्धस्नानात्परुषमल नूनमागण्डलम्बं विश्लिष्टं वा हरिणचरितं लाञ्छनं तन्मुखेन्दो:।।(सर्ग ३: श्लो. ४६) इस श्लोक के द्वितीय-तृतीय चरणों में ‘मेघदूत’ के श्लोक के द्वितीय-तृतीय चरणों का विन्यास हुआ है। एकान्तरितावेष्टित का द्वितीय प्रकार— चित्रन्यस्तामिव सवपुषं मन्मथीयावस्था माधिक्षमां विरहशयने सन्निषण्णैक पार्श्वम्। तापापास्त्यै हृदयानिहितां हारयष्टिं दधाना प्राचीमूले तनुमिव कलामात्रशेषां हिमांशो:।।
(सर्ग ३: श्लो. ४४) इस श्लोक के द्वितीय-चतुर्थ चरणों में ‘मेघदूत’ के श्लोक के द्वितीय-चतुर्थ चरणों का विनियोग हुआ है। पादवेष्टित का द्वितीय प्रकार— मामाकाशप्रणिहित भुजं निर्दयाश्लेषहेतो- रुन्तिष्ठासुं त्वदुपगमन प्रत्ययात्स्वप्नजातात्। सख्यो दृष्ट्वा सकरुणमृदुव्यावहासिं दधाना: कामोन्मुग्धा: स्मरयितुमहो संश्रयन्ते विबुद्धान्।। (सर्ग ४: श्लो: ३६) इस श्लोक में प्रथमचरण ‘मेघदूत’ के श्लोक का है। इसलिए इसकी आख्या पूर्वार्ध पादवेष्टित है।
पादवेष्टित का तृतीय प्रकार— आनद्रासंगादुपहितरतेर्गाढमाश्लेषवृन्ते- र्लब्धायास्ते कथमपि मया स्वप्नसंदर्शनेषु। विश्लेषस्स्याद्विहितरुदितैराधिजैराशुबोधै: कामोऽसह्यं घटयतितरां विप्रलम्भावतारम्।। (सर्ग ४: श्लोक ३७)

प्रस्तुत श्लोक में द्वितीय चरण ‘मेघदूत’ के श्लोक का है। इस प्रकार, कवि श्री जिनसेन ने पादवेष्टित, पादार्धवेष्टित, और पादान्तरितावेष्टित के रूप -वैभिन्नय की अवतारणा द्वारा ‘पार्श्वाभ्युदय’ काव्य के रचना शिल्प में चमत्कार-वैचित्र्य उत्पन्न कर अपनी अद्भुत काव्यप्रौढिता का आह्लादक परिचय दिया है। आचार्य जिनसेन राजा अमोघवर्ष के गुरु थे, यह काव्य के प्रत्येक सर्ग की समाप्ति में, मूल काव्य और उसकी सुबोधिका व्याख्या की पुष्पिका में उल्लिखित है: ‘इत्यमोघवर्षपरमेश्वर-परमगुरु श्री जिनसेनाचार्य विरचित मेघदूतवेष्टितवेष्टिते पार्श्वाभ्युदय….!’ प्रसिद्ध जैन विद्वान् श्री पन्नालाल बाकलीवाल के अनुसार राष्ट्र वूâटवंशीय राजा अमोघवर्ष ७३६ शकाब्द में कर्णाटक और महाराष्ट्र का शासक था।
 
इसने लगातार तिरसठ वर्षों तक राज्य किया। इसने अपनी राजधानी मलखेड या मान्यखेट में विद्या एवं सांस्कृतिक चेतना के प्रचुर प्रचार-प्रसार के कारण विपुल यश र्अिजत किया था। ऐतिहासिकों का कहना है कि इस राजा ने ‘कविराजमार्ग’ नामक अलंकार-ग्रंथ कन्नड-भाषा में लिखा था। इसके अतिरिक्त, ‘प्रश्नोत्तर रत्नमाला’ नामक एक लघुकाव्य की रचना संस्कृत में की थी।
 
यह राजा आचार्य जिनसेन के चरणकमल के नमस्कार से अपने को बड़ा पवित्र मानता था। ‘पापार्श्वाभ्युदय के अंत में सुबोधिका-टीका, जिसकी रचना आचार्य मल्लिनाथ की मेघदूत-टीका के अनुकरण पर हुई है, के कत्र्ता पंडिताचार्य योगिराट् की ओर से ‘काव्यावतर’ उपन्यस्त हुआ है, जिससे ‘पार्श्वाभ्युदय’ काव्य की रचना की एक मनोरंजक पृष्ठभूमि की सूचना मिलती है- एक बार कालिदास नाम का कोई ओजस्वी कवि राजा अमोघवर्ष की सभा में आया और उसने स्वरचित ‘मेघदूत’ नामक काव्य को अनेक राजाओं के बीच, बड़े गर्व से, उपस्थित विद्वानों की अवहेलना करते हुए सुनाया।
 
तब, आचार्य जिनसेन ने अपने सतीथ्र्य आचार्य विनयसेन के आग्रहवश उक्त कवि कालिदास के गर्व-शमन के उद्देश्य से सभा के समक्ष उसका परिहास करते हुए कहा कि यह काव्य (मेघदूत) किसी पुरानी कृति से चोरी करके लिखा गया है, इसीलिए इतना रमणीय बन पड़ा है। इस बात पर कालिदास बहुत रुष्ट हुआ और जिनसेन से कहा-‘यदि यही बात है, तो लिख डालो कोई ऐसी ही कृति।’
 
इस पर जिनसेन ने कहा-‘ऐसी काव्यकृति तो मैं लिख चुुका हूँ, किन्तु है वह यहाँ से दूर किसी दूसरे नगर में। यदि आठ दिनों की अवधि मिले तो उसे यहाँ लाकर सुना सकता हूूँ। आचार्य जिनसेन को राज्यसभा की ओर से यथाप्रार्थित अवधि दी गई और उन्होंने इसी बीच तीर्थंकर पापार्श्वथ की कथा के आधार पर ‘मेघदूत’ की पंक्तियों से आवेष्टित करके ‘पार्श्वाभ्युदय’ जैसी महार्घ काव्य रचना कर डाली और उसे सभा के समक्ष उपस्थित कर कवि कालिदास को परास्त कर दिया। पार्श्वाभ्युदय’ का संक्षिप्त कथावतार इस प्रकार है-भरतक्षेत्र में सुरम्य नामक देश में पोदनपुर नाम का एक नगर था।
 
वहाँ अरविन्द नाम का राजा राज्य करता था। उस राजा के कमठ और मरुभूति नाम के दो मंत्री थे, जो द्विजन्मा विश्वभूति तथा उसकी पत्नी अनुंधरी के पुत्र थे। कमठ की पत्नी का नाम वरुणा था और मरुभूति की पत्नी वसुन्धरा नाम की थी। एक बार छोटा भाई मरुभूति शत्रु-राजा वज्रवीर्य के विजय के लिए अपने स्वामी राजा अरविन्द के साथ युद्ध में गया। इस बीच मौका पाकर दुराचारी अग्रज कमठ ने अपनी पत्नी वरुणा की सहायता से भ्रातृ पत्नी वसुंधरा को अंगीकृत कर लिया।
 
राजा अरविन्द जब शत्रु विजय करके वापस आया, तब उसे कमठ की दुर्वृत्ति की सूचना मिली। राजा ने मरुभूति के अभिप्रायानुसार नगर में प्रवेश करने के पूर्व ही अपने भृत्य के द्वारा कमठ के नगर-निर्वासन की आज्ञा घोषित कराई, क्योंकि राजा ने दुर्वृत्त कमठ का मुँह देखना भी गवारा नहीं किया। कमठ अपने अनुज पर क्रुद्ध होकर जंगल चला गया और वहाँ उसने तापस-वृत्ति स्वीकार कर ली । अपने अग्रज कमठ की निर्वेदात्मक स्थिति से जाने क्यों मरुभूति को बड़ा पश्चाताप हुआ। जंगल जाकर उसने अपने अग्रज कमठ को ढूँढ निकाला और वह उसके पैरों पर गिरकर क्षमा माँगने लगा। क्रोधान्ध कमठ ने पैरों पर गिरे हुए मरुभूति का सिर पत्थर मारकर फोड़ डाला, जिससे उसकी वहीं तत्क्षण मृत्यु हो गई।
 
इस प्रकार, अकालमृत्यु को प्राप्त मरुभूति आगे भी अनेक बार जन्म-मरण के चक्कर में पड़ता रहा। एक बार वह पुनर्भव के क्रम में काशी जनपद की वाराणसी नगरी में महाराज विश्वसेन और महारानी ब्राह्मी देवी के पुत्र-रूप में उत्पन्न हुआ और तपोबल से तीर्थंकर पापार्श्वथ बनकर पूजित हुआ। अभिनिष्क्रमण के बाद, एक दिन, तपस्या करते समय पापार्श्वथ को पुनर्भवों के प्रचंड में पड़े हुए संबर नाम के प्रसिद्ध कमठ ने देख लिया। देखते ही उसका पूर्व जन्म का वैर भाव जग पड़ा और उसने मुनीन्द्र पापार्श्वथ की तपस्या में विविध विघ्न उपस्थित किये। अंत में मुनीन्द्र के प्रभाव से कमठ को सद्गति प्राप्त हुई।
 
जिज्ञासु जनों के लिए इस कथा का विस्तार जैन पुराणों में द्रष्टव्य है। मरुभूति का अपने भव से पापार्श्वथ के भव में प्रोन्नयन या अभ्युदय के कारण इस काव्यकृति का पार्श्वाभ्युदय नाम सार्थक है। इस ‘पार्श्वाभ्युदय’ काव्य में कमठ यक्ष के रूप में कल्पित है और उसकी प्रेयसी भ्रातृपत्नी वसुन्धरा की यक्षिणी के रूप में कल्पना की गई है। राजा अरविन्द कुबेर है, जिसने कमठ का एक वर्ष के लिए नगर-निर्वासन का दण्ड दिया था। शेष अलकापुरी आदि की कल्पनाएँ ‘मेघदूत’ का ही अनुसरण-मात्र हैं। आचार्य जिनसेन ने ‘मेघदूत’ की कथावस्तु को आत्मसात् कर उसे ‘पार्श्वाभ्युदय’ की कथावस्तु के साथ किस प्रकार प्रासंगिक बनाया है, इसके दो-एक उदाहरण द्रष्टव्य हैंं।
तस्यास्तीरे मुहुरुपलवान्नूध्र्वशोषं प्रशुष्यन्- नुब्दाहुस्सन्परुसमनस: पंचतापं तपो य:। कुर्वन्नस्म स्मरति जडधीस्तापसानां मनोज्ञां स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु।।’ (सर्ग १: श्लोक३)
मन्दबुद्धि कमठ उस सिंधु नदी के तीर पर बार-बार पत्थरों को पकड़ता था। ऊपर से पड़ने वाली तीव्र धूप से उसके शरीर के अवयव सूख रहे थे। ऊपर हाथ उठाते हुए वह कठिन चिन्तनपूर्वक पंचाग्नि तापने का तप कर रहा था। शीतल छाया वाले पेड़ों से युक्त रामगिरि नामक पर्वत पर वास करता हुआ वह तपस्वियों के लिए मनोरम स्थान का स्मरण तक नहीं करता था।
त्वां ध्यायन्त्या विरहशयनाभोगमुक्ताखिलाङ्ग्या: शंके तस्या मृदुतलमवष्टभ्य गण्डोपधानम्। ‘हस्तन्यस्तं मुखमसकलव्यक्ति लम्बालकत्वा- दिन्दोर्दैन्यं त्वदुपसरणक्लिष्टकान्तिर्विभत्र्ति।।’ (सर्ग ३: श्लोक २७)

विरह की शय्या पर जिसका सारा शरीर निढाल पड़ा है, ऐसी वसुन्धरा तुम्हारा ध्यान करती हुई अपने कपोलतल में कोमल तकिया लिए लेट गई होगी; संस्कार के अभाव में लम्बे पड़े अपने केशों में आधे छिपे मुख को हाथ पर रखे हुए होगी, उसका वह मुख मेघ से आधे ढके क्षीण कान्ति वाले चंद्रमा की भाँति शोचनीय हो गया होगा, ऐसी मेरी आशंका है। प्रौढ काव्यभाषा में लिखित प्रस्तुत काव्य मेघदूत के समान ही मन्दाक्रान्ता छंद मेें आबद्ध है। तेईसवें तीर्थंकर पापार्श्वथ स्वामी की तीव्र तपस्या के अवसर पर उनके पूर्वभव के शत्रु संबर या कमठ द्वारा उपस्थापित कठोर कायक्लेशों तथा सम्भोगश्रृंगार से संवलित प्रलोभनों का अतिशय प्रीतिकर और रुचिरतर वर्णन इस काव्य का शैल्पिक वैशिष्ट्य है।
 
मेघदूत जैसे शृंगारकाव्य को शांतरस के काव्य में परिणत करना कवि श्री जिनसेन की असाधारण कवित्व-शक्ति को इंगित करता है। संस्कृत के संदेश काव्यों या दूतकाव्यों में सामान्यतया विप्रलम्भ श्रृंगार तथा विरह-वेदना की पृष्ठभूमि रहती है। परन्तु जैन कवियों ने संदेशकाव्यों में श्रृंगार से शांत की और प्रस्थिति उपन्यस्त कर एतद्विध काव्य-परम्परा को नई दिशा प्रदान की है।
 
त्याग और संयम को जीवन का सम्बल समझने वाले जैन कवियों ने श्रृंगारचेतनामूलक काव्य-विधा में भारत के गौरवमय इतिहास तथा उत्कृष्टतर संस्कृति के महार्घ तत्वों का समावेश किया है। संदेशमूलक काव्यों में तीर्थंकर जैसे शलाकापुरुषों के जीवनवृत्तों का परिगुम्फन किया है। ‘मेघदूत’ के श्लोकों के चरणों पर आश्रित समस्यापूत्र्ति के बहुकोणीय प्रकारों का प्रारंभ कवि श्री जिनसेन द्वितीय के ‘पार्श्वाभ्युदय’ से होता है। यही नहीं, जैन काव्य-साहित्य में दूतकाव्य की परम्परा का प्रवत्र्तन भी ‘पार्श्वाभ्युदय’ से ही हुआ है। इस दृष्टि से इस काव्य का ऐतिहासिक महत्त्व है।
 
‘पार्श्वाभ्युदय’ से तो ‘अभ्युदय’-नामान्त काव्यों की परम्परा ही प्रचलित हो गई। इस संदर्भ में ‘धर्मशर्माभ्युदय’ (हरिश्चंद्र : तेरहवीं शती); ‘धर्माभ्युदय’ (उदयप्रभ सूरि : तेरहवीं शती) ‘कप्फिणाभ्युदय’ (शिव स्वामी : नवम शती); ‘यादवाभ्युदय’ (वेंकटनाथ वेदान्तदेशिक : तेरहवीं शती); ‘भरतेश्वराभ्युदय’ (आशाधर : तेरहवीं शती) आदि काव्य उल्लेख्य हैं।विशेष दृष्टव्य-‘‘संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान’’, डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री, (भारतीय ज्ञानपीठ, १९७१) पृ. २३७। ‘मेघदूत’ की प्रभावान्विति से आविष्ट होने पर भी ‘पार्श्वाभ्युदय’ की काव्यभाषा, शैली की दृष्टि से सरल नहीं; अपितु जटिल है।
 
फलत: कथावस्तु सहसा पाठकों को हृदयंगम नहीं होती। समस्यापूर्ति के रूप में गुम्फन होेने के कारण तथा कथावस्तु के बलात् संयोजन के कारण भी मूल के अर्थ बोध में विपर्यस्तता की अनुभूति होती है। मूलत: ‘पार्श्वाभ्युदय’ प्रतिक्रिया में प्रगति एक कठिन काव्य है। ‘पार्श्वाभ्युदय’ समस्यापूर्तिपरक काव्य होने पर भी इसमें कविकृत अभिनव भाव-योजना अतिशय मनोरम है। किन्तु संदेश-कथन की रमणीयता ‘मेघदूत’ जैसी नहीं है। इसमें जैनधर्म के किसी सिद्धांत का कहीं भी प्रतिपादन नहीं हुआ है, किन्तु वैलाश पर्वत और महाकाल-वन में जिनमंदिरों और जिन प्रतिमाओं का वर्णन अवश्य हुआ है।
 
जगह-जगह सूक्तियों का समावेश काव्य को कलावरेण्य बनाता है। इस प्रसंग में- ‘रम्यस्थानं त्यजति न मनो, दुर्विधान प्रतीहि’ (१.७४); ‘पापापाये प्रथममुदितं कारणं भक्तिरेव’ (२.६५); ‘कामोऽसह्यंघटयतितरां विप्रलम्भावतारम्’ (४.३७) आदि भावगर्भ सूक्तियाँ दृष्टव्य हैं। शब्दशास्त्रज्ञ आचार्य जिनसेन का भाषा पर असाधारण अधिकार है। इनके द्वारा अप्रयुक्त क्रियापदों का पदे-पदे प्रयोग ततोऽधिक शब्द-चमत्कार उत्पन्न करता है। बड़े-बड़े वैयाकरणों की तो परीक्षा ही ‘पार्श्वाभ्युदय’ में सम्भव हुई है।
 
इस संदर्भ में आचार्य कवि श्री के द्वारा प्रयुक्त ‘ही’, (‘हि’ के लिए); ‘स्फावयन्’ (·वर्धयन्); ‘प्रचिकटयिषु:’ (·प्रकटयितुमिच्छु:); ‘वित्तानिघ्न:’ (·वित्ताधीन:); ‘मङ्क्षु’ (·शीघ्रेण); ‘सिषिधुष:’ (·सिद्धादेवताविशेषा:); ‘पेणीयस्व’ (·अत्यर्थं पानं विेधेहि); ‘रवेन’ (·गगनेन); ‘प्रोथिनी’ (·लम्बोष्ठी); ‘मुरुण्ड:’ (·वत्सराजोनरेन्द्र); ‘हेपयन्त्या:’ (·विडम्बयन्त्या:); ‘निर्दिधक्षेत्’ (·निर्दग्धुमिच्छेत); ‘वैजयार्थम्’ (·विजयस्यार्थस्येदं); ‘जिगलिषु’ (·गलितुमिच्छु); ‘शंफलान्पम्फलीति’ (·शं सुखमेव फलं येषां तान् भृशं फलति); ‘गहक्तमाना:’ (·जुगुप्सावन्त:); ‘जाघटीति’ (·भृशं घटते) आदि नाति प्रचलित शब्द विचारणीय हैं। ‘पार्श्वाभ्युदय’ आचार्य जिनसेन का अवश्य ही एक ऐसा पार्यन्तिक काव्य है, जिसका अध्ययन-अनुशीलन कभी अशेष नहीं होगा। काव्यात्मक चमत्कार, सौन्दर्य-बोध, बिम्बविधान एवं रसानुभूति के विविध उपादान ‘पार्श्वाभ्युदय’ में विद्यमान हैं।
 
निबन्धनपटुता, भावानुभूति की तीव्रता, वस्तुविन्यास की सतर्वâता, विलास वैभव, प्रकृति-चित्रण आदि साहित्यिक आयामों की सघनता के साथ ही भोगवाद पर अंकुशारोपण जैसी वण्र्य वस्तु का विन्यास ‘पार्श्वाभ्युदय’ की काव्यप्रौढि को सातिशय चारुता प्रदान करता है। काव्यकार आचार्य जिनसेन ने अर्थव्यंजना के लिए ही भाषिक प्रयोग वैचित्र्य से काम लिया है।
 
‘काव्यावतार’ में वर्णित कथा-प्रसंग के आधार पर यदि आचार्य जिनसेन को कालिदास का समकालीन माना जाय तो, यह कहना समीचीन होगा कि भारतीय सभ्यता के इतिहास में जिस युग में इस देश की विशिष्ट संस्कृति सर्वाधिक विकसित हुई थी, उसी युग में ‘पार्श्वाभ्युदय’ के रचयिता विद्यमान थे। वह कालिदास की तरह भारतीय इतिहास के स्वर्णयुग के कवि थे। इस युग की सभ्यता और संस्कृति साहित्य में ही नहीं; अपितु ललित, वास्तु, स्थापत्य आदि विभिन्न कलाओं में परिपूर्णता के साथ व्यक्त हुई है। आचार्य जिनसेन (द्वितीय) इस युग के श्रेष्ठ कवि थे और इन्होंने समय की बाह्य वास्तविकता अर्थात् सभ्यता का चित्रण तो किया ही है, साथ ही उसकी अंतरंग चेतना का भी जिसे हम संस्कृति कह सकते हैं, मनोहारी समाहार प्रस्तुत किया है।
Tags: Ancient Aacharyas, Muni
Previous post आचार्य श्री शांतिसागर जी-पंचतीर्थ रक्षक Next post मुनि श्री सुधर्म कीर्ति जी

Related Articles

मुनि श्री अर्पित सागर जी

May 14, 2018jambudweep

मुनि श्री सुधासागर जी

June 10, 2022jambudweep

आचार्य श्री समंतभद्र जी

February 12, 2017jambudweep
Privacy Policy