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जीवद्रव्य

July 13, 2017Books, स्वाध्याय करेंHarsh Jain

जीवद्रव्य


‘सद्द्रव्यलक्षणम्’ इस सूत्र के अनुसार द्रव्य का लक्षण है ‘सत्’ और सत् का लक्षण है ‘‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुत्तं सत्’’ उत्पाद व्यय और धौव्य से सहित वस्तु ही सत् कहलाती है। वस्तु की नवीन पर्याय की उत्पत्ति का नाम उत्पाद है। वस्तु की पहली पर्याय के विनाश को व्यय कहते हैं और दोनों ही अवस्था में द्रव्य की मौजूदगी का नाम ध्रौव्य है। जैसे मनुष्य के मरते ही मनुष्य पर्याय का व्यय, अगली देवपर्याय का उत्पाद और दोनों ही अवस्थाओं में जो जीव द्रव्य विद्यमान है, उसी का नाम है ध्रौव्य। इसी तरह से अचेतन घड़े आदि में भी जाना जाता है। जैसे कि मिट्टी से घट पर्याय का उत्पाद, मृत्पिंड पर्याय का विनाश और दोनों अवस्थाओं में मिट्टी का बने रहना यह ध्रौव्य गुण है। यह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य प्रत्येक द्रव्य में पाया जाता है। द्रव्य का दूसरा लक्षण है-‘‘गुणपर्ययवद्द्रव्यम्’’ गुण और पर्यायों के समूह का नाम ही द्रव्य है। जैसे जीव द्रव्य में ज्ञान, दर्शन आदि गुण हैं और मनुष्य, देव आदि पर्यायें हैं। इन गुण पर्यायों से अतिरिक्त जीव नाम की कोई चीज नहीं है। सिद्धों में भी शुद्ध ज्ञान, दर्शन और सिद्धत्व आदि पर्यायें विद्यमान हैं। इस प्रकार से द्रव्यों का वर्णन करते हुए श्री नेमिचन्द्राचार्य कहते हैं-

जीवमजीवं दव्वं, जिणवरवसहेण जेण णिद्दिट्ठं।
देविंदविंदवंदं, वंदे तं सव्वदा सिरसा।।१।।
जिनवर में श्रेष्ठ सुतीर्थंकर, जिनने जग को उपदेशा है।
बस जीव अजीव सुद्रव्यों को, विस्तार सहित निर्देशा है।
सौ इन्द्रों से वंदित वे प्रभु, उनको मैं वंदन करता हूँ।
भक्ती से शीश झुका करके, नितप्रति अभिनंदन करता हूँ।।१।।

जिणवरवसहेण जेण-जिनवर में प्रधान ऐसे जिन तीर्थंकर देव ने, जीवमजीवं दव्वं-जीव और अजीव द्रव्य को, णिद्दिट्ठं-कहा है। देविंदविंदवंदं-देवेन्द्रों के समूह से वंदना योग्य, तं-ऐसे उन भगवान को मैं सव्वदा-नित्य ही, सिरसा वंदे-शिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ। यहाँ पर आचार्यश्री ने दो द्रव्यों को कहने की प्रतिज्ञा की है। क्योंकि द्रव्य दो ही हैं-जीव और अजीव। अजीव द्रव्य के पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ऐसे पाँच भेद हो जाने से द्रव्य छह हो जाते हैं। इस छोटे से लघुकाय द्रव्यसंग्रह ग्रंथ में आचार्य महोदय ने छहों द्रव्यों का बहुत ही सुन्दर विवेचन किया है। इस गाथा में जिनेन्द्रदेव को सौ इन्द्रों से वंद्य कहा है। सो वे सौ इन्द्र कौन-कौन से हैं- भवनवासियों के ४०±व्यन्तरों के ३२±कल्पवासियों के २४±ज्योतिषियों के सूर्य-चन्द्र ये २±मनुष्यों में चक्रवर्ती १±और तिर्यंचों में सिंह १·१००, ये सौ इन्द्र हैं। अब सर्वप्रथम जीव द्रव्य का वर्णन करते हैं-

जो जीता है सो जीव कहा, उपयोगमयी वह होता है।
मूर्ती विरहित कर्ता स्वदेह, परिमाण कहा औ भोक्ता है।।
संसारी है औ सिद्ध कहा, स्वाभाविक ऊध्र्वगमनशाली।
इन नव अधिकारों से वर्णित, है जीव द्रव्य गुणमणिमाली।।२।।

प्रत्येक प्राणी जीव है, उपयोगमय है, अमूर्तिक है, कर्ता है, स्वदेह परिमाण रहने वाला है, भोक्ता है, संसारी है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊध्र्वगमन करने वाला है। ये जीव के नव विशेष लक्षण हैं। इन सबका आगे पृथक्-पृथक् निरूपण करेंगे। उनमें से सर्वप्रथम जीव का लक्षण बताते हैं-

जिसके व्यवहार नयापेक्षा, तीनों कालों में चार प्राण।
इन्द्रिय बल आयू औ चौथा, स्वासोच्छ्वास ये मुख्य जान।।
निश्चयनय से चेतना प्राण, बस जीव वही कहलाता है।
ये दोनों नय से सापेक्षित, होकर पहचाना जाता है।।३।।

जिसके व्यवहारनय से तीनों कालों में इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण हैं और निश्चयनय से चेतना प्राण है, वह जीव कहलाता है। जीव को जीव क्यों कहते हैं ? यहाँ पर इसी बात को स्पष्ट किया है। निश्चयनय वस्तु की स्वाभाविक अवस्था को प्रगट करता है और व्यवहारनय वस्तु के औपाधिक परसंसर्गजन्य भावों को भी ग्रहण कर लेता है। उदाहरण के लिए ‘जल ठंडा है’ क्योंकि उसका स्वभाव ठंडा ही है किन्तु जब जल अग्नि के ऊपर चढ़ा देने से खूब खौल रहा है, तब गर्म हो गया है। निश्चयनय उस खौलते हुए जल को भी ठंडा ही कहेगा क्योंकि जल का स्वभाव ठंडा है तथा व्यवहारनय उस खौलते हुए जल को गरम कहेगा क्योंकि उस जल को कोई शरीर के ऊपर डाल ले तो जल जायेगा, फफोले उठ जायेंगे। जल का स्वभाव ठंडा होते हुए भी उस समय वह जल अग्नि का काम कर रहा है अत: विचारपूर्वक देखा जाय तो ये दोनों ही नय अपने-अपने विषय को कहने में सत्य हैं, असत्य नहीं हैं। जल अपने स्वभाव से ठंडा है। स्वभाव पर दृष्टि रखने वाला निश्चयनय सही कह रहा है तथा अग्नि के संसर्ग से जल गरम है अत: व्यवहारनय भी झूठा नहीं है। उसे झूठा कहने वाले भला खौलते जल को शरीर पर डालेंगे क्या ? नहीं, अत: यह नय भी सच्चा ही है। उसी प्रकार से निश्चयनय जीव के चेतना प्राण को कहता है। चेतना का अर्थ है ज्ञान-दर्शन, जो कि जीव में किसी न किसी अंश में सतत् पाए ही जाते हैं तथा व्यवहारनय से सदा ही इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण पाए ही जाते हैं। इनके बगैर संसार में जीव का अस्तित्व ही नहीं है। इन्द्रियाँ पाँच हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण। बल तीन हैं-कायबल, वचनबल और मनोबल। आयु एक प्राण है और श्वासोच्छ्वास एक, ऐसे सब मिलकर दश प्राण हो जाते हैं।

पंचेन्द्रिय जीवों में देव, नारकी, मनुष्य और पंचेन्द्रिय सैनी तिर्यंचों के दशों प्राण होते हैं। असैनी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के मनोबल से रहित नव प्राण होते हैं। चार इन्द्रिय जीव के प्रारंभ की चार इन्द्रियाँ, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये आठ प्राण होते हैं। तीन इन्द्रिय जीवों के चक्षु से रहित सात प्राण होते हैं। दो इन्द्रिय जीवों के घ्राण से रहित छह प्राण होते हैं और एकेन्द्रिय जीवों के स्पर्शन नामक एक इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण ही होते हैं। संसारी जीवों के ये प्राण पाये जाते हैं। मुक्त जीवों में इन इन्द्रिय आदि दश प्राणों का अभाव होते हुए भी उनमें चेतना यह प्राण विद्यमान रहता है अत: वे जीव ही कहलाते हैं न कि अजीव अथवा तत्त्वार्थराजवार्तिक में श्री अकलंकदेव ने ऐसा कहा है कि भूतपूर्व नैगमनय की अपेक्षा से सिद्धों में भी दश प्राणों की अपेक्षा जीवत्व मानना चाहिए। यदि कदाचित् व्यवहारनय को झूठा कह दिया जाए तो संसारी जीवों का अस्तित्व ही समाप्त हो जावेगा अथवा हम और आप सभी जीवों के इन्द्रिय, बल, आयु आदि प्राण असत्य ही ठहरेंगे किन्तु ऐसी बात नहीं है अत: व्यवहारनय का कथन सत्य ही है जो कि प्रतीतिसिद्ध जीव के जीवत्व को साध रहा है।

Tags: Mahapuraan saar
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