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जीवविज्ञान की अवधारणाओं का निरूपण (तत्त्वार्थसूत्र में)

July 15, 2017स्वाध्याय करेंHarsh Jain

तत्वार्थसूत्र में जीव विज्ञान की अवधारणाओं का निरूपण


सारांश

जैन दर्शन एवं विज्ञान के प्रतिबिम्ब ‘तत्वार्थसूत्र’ में जीव विज्ञान की मूलभूत एवं आधुनिक अवधारणाओं से अत्यधिक तथा आश्चर्यजनक समानतायें परिलक्षित होती हैं । पारिस्थितिकी, जैव भूगर्भीय चक्र, वर्गीकरण विज्ञान, वनस्पतियों का महत्व, जैव विविधता संरक्षण तथा सूक्ष्म जीवों का महत्व इत्यादि पर इस ग्रन्थ में अनेक सूत्र दिये गये हैं । वनस्पतियों में जीवन की सत्य सिद्ध अवधारणा से लेकर आधुनिकतम क्राँतिकारी क्लोनिंग तक की घटना के बारे में स्पष्ट सूत्र सामने आते हैं जिनके व्यापक अध्य्यन, अन्वेषण तथा प्रचार—प्रसार के द्वारा जैन दर्शन की उन्नति के साथ—साथ संतुलित एवं सुखी संसार का सृजन हो सकेगा।

प्रस्तावना

जैन धर्म एक वैज्ञानिक धर्म तथा तत्वार्थसूत्र जैन ग्रन्थों में प्रतिनिधि ग्रंथ है । वनस्पतियों की जीवन्तता,जैव विविधता आदि जीव विज्ञान से संबंधित कुछ विचारों पर पूर्व में ‘तीर्थंकर’ इन्दौर के जैन जैविकी विशेषांक तथा जैन विद्या विचार संगोष्ठी—निष्कर्ष— ९६, इत्यादि में कुछ आलेख आ चुके है परन्तु प्रस्तुत शोध—पत्र इनके साथ—साथ अन्य समानताओं को बिल्कुल वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास है । वैसे तो जैन—विज्ञान तथा जीवविज्ञान के संबंधों पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है परन्तु प्रस्तुत शोध—पत्र में बिल्कुल तटस्थ रूप से संक्षेप में निम्नलिखित बिन्दुओं पर विचार किया गया है—
१. पर्यावरण विज्ञान तथा परस्परोपग्रह
२. पदार्थों का चक्रण तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य
३. वर्गीकरण विज्ञान तथा त्रस स्थावर
४. सूक्ष्मजीव वनस्पतियाँ तथा स्थावर
५. वनस्पतियों का महत्व
६. जैव विविधता संरक्षण तथा अहिंसा
७. सूक्ष्म जीवों का प्रकृति संतुलन में महत्व
८. प्राणी प्रतिलिपि निर्माण— ‘क्लोनिंग’ तथा सम्मूर्छन

सिद्धान्त

तत्वार्थसूत्र के सूत्रों से प्रत्यक्ष रूप से परिलक्षित हो रही आश्चर्यजनक आधुनिक जीव वैज्ञानिक समानताओं को इस रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है जिससे इसे सामान्य विद्वान भी आसानी से स्वीकार कर सके। ‘स्वतंत्रता के सूत्र ’ राष्ट्रीय विज्ञान संगोष्ठी, सागवाड़ा में प्रस्तुत शोधपत्र म्/द.डा. सुन्दरलाल जी आयुवैदाचार्य, वीर मार्ग, ग्राम एवं पोस्ट— ककरवाहा, जि. टीकमगढ़— ४७२०१०। संदर्भित अधिकांश वैज्ञानिक विचार विद्यालयीन स्तर की विज्ञान की पुस्तकों में मिल जायेंगे अर्थात् [[तत्वार्थसूत्र]] तथा जीव विज्ञान दोनों को सिर्पâ सतही, सहज, सरल स्पर्श से ही ऐसी धारणा बनती है कि वास्तव में जीवविज्ञान तथा जैन विज्ञान के अन्तर्सम्बन्धों के ऊपर काफी कुछ शोध किया जा सकता है । ये सारे तथ्य इसलिये और भी महत्वपूर्ण हो जाते है कि यह सिद्धान्त / विचार अत्याधुनिक उपकरणों के अभाव में सहस्रों वर्ष पूर्व प्रतिपादित किये गये हैं ।

विश्लेषण तथा विवेचन

१. पारिस्थितिकी तथा परस्परोपग्रह पर्यावरण विज्ञान या परिस्थितिकी वर्तमान में जीव विज्ञान की प्रमुख शाखा है तथा विज्ञान की अन्य सभी शाखाओं में इनका समान रूप से महत्व है जिसकी सर्वमान्य परिभाषा निम्नानुसार है— Ecology is the study of reciprocal relationship between living organisms and their environment अर्थात् विभिन्न जीवों के बीच का तथा जीवों का उनके वातावरण के बीच का पारस्परिक संबंध ‘पारिस्थितिकी’ है ।
इस सन्दर्भ में तत्वार्थसूत्र में जैन धर्म का सिद्धान्त वाक्य भी है ‘‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’’ (५/२१) अर्थात् जीव द्रव्य का कार्य एक दूसरे की सहायता करता है । तात्पर्य यह है कि जीवन (प्रकृति) के सफल संचालन के लिए एक—दूसरे का सहयोग (परस्परोग्रह—पारस्परिक सम्बन्ध) अत्यावश्यक है । इस प्रकार से परिस्थितिकी की परिभाषा तथा उपरोक्त सूत्र दोनों के माध्यम से समान रूप से एक ही अर्थ समझाया गया है कि—
२. पदार्थों का चक्रण तथा उत्पाद, व्यय और ध्रोव्य  विभिन्न प्रकार के पदार्थों का भूमि से जीवों तक का चक्रण जैव—भूगर्भीय चक्रण कहलाता है जिसमें विभिन्न प्रकार के तत्व जैसे— कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन आदि मुख्य है । ये तत्व अपने नये रूपों में बदलते रहते हैं तथा पूर्व रूपों को परिवर्तित करते रहते हैं फिर भी वह मूल तत्व अपरिवर्तित बना रहता है । इस सम्बन्ध में ग्रंथ में दो सूत्र दृष्टय है— सद् द्रव्य लक्षणम् (५/२९) उत्पाद व्यय ध्रौव्य युत्तं सत् (३०) अर्थात् द्रव्य का लक्षण सत् है , जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सहित होता है वह सत् है । अर्थात् द्रव्य उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त होता है । उत्पाद का अर्थ है: द्रव्य में नवीन अवस्था की उत्पत्ति, व्यय का अर्थ है : पूर्व अवस्था का विनाश तथा ध्रौव्य का अर्थ है: द्रव्य की अविनाशिता का सिद्धान्त। उदाहरण के तौर पर कार्बन चक्र में वृक्ष ण्ध् (कार्बनडाइआक्साइड) तथा जल प्रकाश की उपस्थिति में भोजन बनाते हैं इसका विभिन्न जीव उपयोग करते हैं अर्थात् अपने पूर्व रूपों का विनाश (व्यय) करते हुये नये रूपों को उत्पन्न (उत्पाद) करता रहता है फिर भी कार्बन की मात्रा स्थिर रहती है ।
३. वर्गीकरण विज्ञान एवं त्रस तथा स्थावर परम्परागत रूप से दृश्य सचल प्राणी ही जीव माने जाते रहें हैं । वर्गीकरण विज्ञान  के पितामह वैरोलस लीनियस ने जीवों को दो जगतों में बाँटा है १. वनस्पति जगत २. जन्तु जगत। वनस्पति जगत के अंतर्गत विभिन्न सूक्ष्म जीवों को भी रखा गया है । तत्वार्थ सूत्र में ‘‘संसारिणस्त्र स स्थावर:’’ (२/१२) तथा ‘‘पृथिव्यप्तेजोवायु— वनस्पतय:’’ (२/१५) सूत्र के अनुसार संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार है, इनमें से स्थावर पाँच प्रकार के हैं— पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकारक। इस प्रकार तत्वार्थसूत्र में जीवों को त्रस अर्थात् जन्तुजगत तथा स्थावर अर्थात् वनस्पतिजगत+सूक्ष्मजीव, इन दो महावर्गों में वर्गीकृत किया गया है । यह सिद्धान्त लीनियस से हजारों वर्ष पूर्व स्थापित कर दिया गया था। वास्तव में जीवों का यह प्राचीनतम वैज्ञानिक वर्गीकरण है जिसका उल्लेख विभिन्न पाठ्य पुस्तकों में किया जाना चाहिए।
४. सूक्ष्म जीव, वनस्पति तथा स्थावर का जैविक अस्तित्व  कुछ शताब्दियों पूर्व वनस्पितियों को जीवित कोई भी नहीं मानता था। परन्तु हमारे जैन धर्म के समस्त ग्रन्थ समस्त वनस्पतियों को मनुष्य के ही समान जीवधारी मानते आये हैं जिसे भारतीय वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु ने सत्य सिद्ध कर दिया और अन्तत: यह विचार अब वैज्ञानिक सत्य बन चुका है । सूक्ष्मदर्शी के अविष्कार के साथ ही एक नये अदृश्य जैव समुदाय, सूक्ष्मजीव जगत वैज्ञानिकों के सामने आया तथा मिट्टी में, जल में, वायु में पाये जाने वाले असंख्य प्रकार के सूक्ष्म जीव तो खोजे जा ही चुके है । अग्नि में भी जीव मिले हैं— डिस्कवर (जुलाई ८४/पृ. ७३/ कालम २) के अनुसार ७०० अंश फारेनहाइट तापक्रम में पृथ्वीगर्भ की ८६०० फुट गहरी ज्वावलामुखियों में भी सूक्ष्मजीव मिले हैं । अभी कुछ वर्षों में आधुनिकतम सूक्ष्मदर्शियों से देखे गये इन सूक्ष्म जीवों का विवरण भी हजारों वर्षों पूर्व तत्वार्थसूत्र में आ गया है— ‘वनस्पत्यान्तानामेकम्’ (२/२२) अर्थात् पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु तथा वनस्पति से सम्बन्धित अर्थात् पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के एकमात्र स्पर्शन इन्द्रिय होती है । कायिक का अर्थ यहां पर उनके रहने के स्थान से है । अर्थात् पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु तथा वनस्पति में एक इन्द्रिय जीव होते हैं । तात्पर्य यह है कि पृथ्वी /जल/वायु/ वनस्पति तो शरीर है और उनमें रहने वाले जीव पृथ्वीकायिक आदि नामों से जाने जाते हैं ।
५. वनस्पतियों का महत्व  विभिन्न वनस्पतियों का जन—जीवन तथा लोक साहित्य में विभिन्न उपयोगों का अध्ययन मानवजात वनस्पति विज्ञान कहलाता है जो कि आज एक अत्यन्त उपयोगी शाखा के रूप में सामने आयी है । वनस्पतियों का उपयोग मानव जीवन के विकास के साथ जुड़ा है । जैन साहित्य, जैनदर्शन, जैन अध्यात्म में सर्वत्र ही वनस्पतियों को विकसित मनुष्य के समान ही महत्व दिया गया है और उसमें भी सुख, दु:ख आदि का ज्ञान होता है— ऐसा माना गया है । इसलिए अनेक अनावश्यक विनाश का निषेध भी किया गया है ।
६. जैव विविधता संरक्षण एवं अहिंसा  आज जबकि दिन—प्रतिदिन जीव—जन्तुओं की संख्या कम होती जा रही है, अनेक जातियाँ हमेशा के लिए विलुप्त हो चुकी है तथा अनेकानेक जातियाँ दुर्लभ/संकटापन्न हो गयी है, तब जाकर वैज्ञानिकों का ध्यान तीव्रता से इनके संरक्षण की ओर हो गया है कि संकटापन्न जीवों को ‘रेड डाटा बुक’ में शामिल कर इन्हें बचाने के प्रयास हो रहे हैं । प्राकृतिक संतुलन, जीवन की स्थिरता एवं अस्तित्व के लिए सभी जीवों का होना आवश्यक है । अप्रेल १९९२ में रियो—डि—जेनेरियो में जैव विविधता पर ‘पृथ्वी’ नामक अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन भी हो चुका है । इस परिप्रेक्ष्य में अहिंसा परमों धर्म की अलख जगाने वाले, जैन के तत्वार्थसूत्र ग्रंन्थ में प्रत्येक तीव की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के लिए जीव दया (अहिंसा) के व्यापक निर्देश दिये गये हैं ।
तत्वार्थ सूत्र में कहा गया है ‘वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपण समित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च’ (७/४) अर्थात् वाग्गुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्या समिति, आदाननिक्षेपण समिति और आलोकित पान— भोजन, ये पाँच अहिंसा व्रत की भावनाएँ हैं । वाग्गुप्ति एवं मनोगुप्ति क्रमश: वचन एवं मन की प्रवृत्ति को रोकना है । ईर्या समिति चलते समय आगे की चार हाथ जमीन देखने का लक्ष्य करना है जिससे जमीन में चलने वाले लघु/दीर्घ काय जीवों की रक्षा हो सके । आदाननिक्षेपण समिति वस्तु को रखते /उठाते समय जीव रक्षा का ध्यान रखना और आलोकित पान योजन भोजनपान ग्रहण करते समय देखने और सोधने का ध्यान रखना है । जैव संरक्षण के इस कार्य को न करने पर चेताया गया है कि — ‘हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम्’ (७/९) अर्थात् हिंसादि पाँच पापों के होने पर इस लोक में तथा पर लोक में सांसारिक और पारमार्थिक प्रयोजनों का नाश तथा निंदा की प्राप्ति होती है । इस तरह से जीव दया अहिंसा आदि के द्वारा जैन धर्म में जीवों का /जैव विविधता का संरक्षण जो हजारों वर्षों से किया जा रहा है उसके बारे में वैज्ञानिक अभी—अभी जागे हैं ।
७. प्रकृति संतुलन में सूक्ष्म जीवों का योगदान जल, वायु तथा मृदा में पाये जाने वाले सूक्ष्म जीव नाना प्रकार के कार्य करते रहते हैं । सबसे प्रमुख कार्य विभिन्न मृत कार्बनिक पदार्थों को उनके मूल अवयवों में पुन: अपघटित करना होता है । अत: इन्हें अपघटक कहते हैं तथा किसी भी परिस्थितिक तंत्र में इनका महत्वपूर्ण स्थान होता है । विभिन्न प्रकार के उद्योगों सिरका, चमड़ा, जूट, डेयरी, औषधि में जीवाणु तथा कवक आदि सूक्ष्मजीवों का व्यापक उपयोग होता है । मनुष्यों तथा अन्य जन्तुओं से निकली बेकार वायु कार्बडाइआक्साइड को ग्रहण करके भोजन बनाकर समस्त जीव जगत का पोषण करना तथा प्राणवायु प्रदान करने का महानतम कार्य वनस्पतियों द्वारा किया जाता है और इन समस्त सूक्ष्म जीवों तथा वनस्पतियों को [[तत्वार्थसूत्र]] में वर्गीकृत तथा वर्णित कर उनकी उपयोगिता उजागर की है । इन्हें आत्मधारी जीव बताकर हजारों वर्ष पूर्व ही इनका महत्व प्रकट कर दिया गया है ।
८. प्राणी प्रतिलिपि निर्माण ‘क्लोनिंग’ तथा सम्मूर्च्छन जीवविज्ञान की शाखा जैव प्रौद्योगिकी के वैज्ञानिक डॉ. इग्नन विल्मिट ने स्कॉटलैंड के रोसलिन इंस्टीट्यूट में क्लोनिंग की क्रिया द्वारा डॉली नामक भेड़ का क्लोन उत्पन्न किया है । क्लोनिंग का अर्थ होता है— एक समान प्रतियाँ । गन्ना तथा गुलाब के पौधों की तरह कलम काटकर इस जानवर को पैदा किया गया है । नर और मादा भेड़ के समागम के बिना, मादा भेड की सामान्य दैहिक थन की कोशिका से बनी उसी जैसी रंग, रूप, आकार, व्यवहार वाली इस संतान से सबको भौंचक्का कर दिया है तथा सारे संसार में यह बहस का प्रमुख मुद्दा बन गया है । इस क्राँतिकारी घटना के बारे में तत्वार्थसूत्र के द्वितीय अध्याय में अक्षरश: स्पष्ट उल्लेख आया है । ‘सम्मूर्च्छन गर्भोपपादा जन्म’) (२/३१) अर्थात् जन्म—सम्मूर्छन, गर्भ और उपपाद तीन प्रकार का होता है । गर्भ जन्म तो सामान्य मानवादि जन्तुओं में पाया जाता है जिसमें रज और वीर्य के संयोग से नया शरीर बनता है । सम्मूर्छन जन्म को टीकाकारों ने निम्नानुसार परिभाषित किया है सम्मुर्छन जन्म वह जन्म है जिसमें अपने शरीर के योग्य पुद्गल परमाणुओं के द्वारा माता—पिता के रज के और वीर्य के बिना ही शरीर की रचना होती है । यही तो क्लोनिंग है । क्लोनिंग में रज और वीर्य के बिना नर और मादा भेड़ के समागम के बिना शरीर के योग्य परमाणुओं के द्वारा सामान्य दैहिक कोश्किा से ) नया जीव निर्मित किया जाना एक अत्यंत आश्चर्यकारी साम्य है ।

उपसंहार

इस प्रकार से एक ओर जहाँ जीव विज्ञान के सारभूत सिद्धान्तों पारिस्थितिकी जैवभूगर्भीय चक्रण, वर्गीकरण विज्ञान के बारे में तत्वार्थ सूत्र में स्पष्ट समानता दर्शाने वाले सूत्र सामने आते है वहीं जैव विविधता संरक्षण, सूक्ष्म जीवों की महत्ता तथा क्लोनिंग जैसी आधुनिकतम अवधारणाओं पर अत्यंत उपयुक्त विचार मिलते हैं । अत: जैनधर्म/दर्शन/ विज्ञान के इस महान लघु ग्रन्थ तत्वार्थसूत्र के विभिन्न सूत्रों में जिस तरह से जीव विज्ञान के विविध पक्षों की पुष्टि, संरक्षण एवं संवर्धन संहस्रों वर्ष पूर्व किया गया है वह आधुनिक जैनाजैन वैज्ञानिकों के लिए अनपेक्षित रूप से उपेक्षित एक वैज्ञानिक जनधर्म जैन दर्शन के वृहद् साहित्य की ओर दृष्टिपात करने का आव्हान करता है । विज्ञान अधिक धर्म सम्मत / नैतिक हो सके तथा धर्म अधिक वैज्ञानिक हो सके इस हेतु आवश्यक है कि जैन विज्ञान एवं जीव विज्ञान के अन्तर्सम्बन्धों पर व्यापक रूप से अन्वेषण एवं अनुसन्धान कार्य आयोजित किया जाये।

सन्दर्भ

१. तत्वार्थ सूत्र, आचार्य उमास्वामी ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि, चतुर्थ संस्करण, १९८२, पृ. ४५१—४६६
२. स्वतंत्रता के सूत्र (मोक्षशास्त्र, तत्वार्थ सूत्र), आचार्य कनकनन्दी, धर्म दर्शन विज्ञान शोध प्रकाशन, बड़ौत, प्रथम संस्करण, १९९२, पृ.६६८ प्राप्त—८/११/९७ जैनविज्ञान और जीवविज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन मोक्ष शास्त्र जीवशास्त्र जैनविज्ञान (तत्वार्थ सूत्र) जीवविज्ञान (विज्ञान सूत्र)
१. परस्परोपग्रहो जीवानाम् जीवों का परस्पर सम्बन्ध ‘परिस्थितिकी’
२. उत्पादव्ययध्रौव्य युत्तं सत् विभिन्न मूल तत्व नये रूपों में बदलकर, पुराने रूपों को छोड़कर भी स्वयं अविनाशी
३. संसारिणस्त्रसस्थावराः लीनियस का जीव वर्गीकरण — जीवों को पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पतया: स्स्थावर: वनस्पति तथा जन्तु जगत में विभक्त करता है ।
४. वनस्पत्यन्तानामेकम् भूमि, जल, वायु, अग्नि, वनस्पति में जीवन
५. जम्बुद्वीपलवणोदादय: ……. वनस्पति का महत्व— मानवजाति वानस्पतिकी
६. वाङ्मनोगुप्तिर्यादान निक्षेपण— वभिन्न जीवों की प्रजातियों को जैव विविधता समित्यालोकित पान भोजनानि—पञ्च के लिए बचाना
७. वनस्पत्यन्तानामेकम् प्रकृमित संतुलन में सूक्ष्म जीवों का महत्व
८. सम्मूर्च्छनगर्भोंपपादा जन्म प्राणी प्रतिलिपि निर्माण— ‘क्लोनिंग’
 
Tags: Tatvaarth Sutra
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