इसमें पृथ्वी तल से ७९० योजन से लेकर ९०० योजन तक की ऊँचाई अर्थात् ११० योजन में स्थित ज्योतिषी देवों के विमानों को बतलाया है। इस विमानों से सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे मय अपने परिवारों के धु्रवों को छोड़कर अढ़ाई द्वीप में तो सुमेरू पर्वत के चारों ओर परिभ्रमण करते हुए दिखाये गये हैं और इसके बाहर वाले अवस्थित दिखाये गये हैं। पाठ में इन्हीं विमानों की स्थित ऊँचाई और विस्तार का ठीक प्रमाण ग्रन्थान्तरों से देख शोध कर सही लिखा है।
सूर्य और चन्द्र विमानों में जिन चैत्यालयों का स्वरूप भी यथावत् संक्षिप्त रूप से बताया गया है। किस देव की कितनी स्थिति है इसे भी पाठ में खोला गया है और किस-किस प्रकार उनका भ्रमण है उस पर भ्ज्ञी पूर्ण प्रकाश डाला गया है। सूर्य एवं चन्द्रमा जिन १८४ वीथियों में होकर गमन करते हैं उनका प्रमाण शास्त्रोक्त विधि से सही निकाल कर लिखा गया है। जम्बूद्वीप में होने वाले दो सूर्य और दो चन्द्रमा किस प्रकार सुमेरू के चारों ओर परिभ्रमण करते हैं, उनकी गतियों का माप आधुनिक मान्य माप के आधार पर सही निकाला गया है। रात-दिन का होना, उनका बड़ा-छोटा होना, ऋतुओं का होना, ग्रहण का होना, सूर्य के उत्तरायण व दक्षिणायन का होना, इत्यादि सभी खगोल सम्बन्धी तत्त्वों का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया है।
वर्तमान में वैज्ञानिकों की चन्द्रलोक यात्रा की चर्चा यत्र-तत्र-सर्वत्र ही हो रही है। जैन एवं अजैन, सभी बन्धुगण प्राय: इस चर्चा में बड़ी ही रुचि से भाग ले रहे हैं, जैन सिद्धान्त के अनुसार यह यात्रा कहाँ तक वास्तविक है, इस पाठ को पढ़ने वाले आस्तिक्य बुद्धिधारी पाठकगण स्वयंमेव ही निर्णय कर सकते हैं।
इस विषय पर विशेष ऊहापोह न करके इस पाठ में केवल जैन सिद्धान्त के अनुसार ज्योतिर्लोक का कुछ थोड़ा-सा वर्णन किया जा रहा है।
आज प्राय: बहुत से जैन बन्धुओं को भी यह मालूम नहीं है कि जैन सिद्धान्त में सूर्य, चन्द्रमा एवं नक्षत्रों आदि के विमानों का क्या प्रमाण है एवं वे यहाँ से कितनी ऊँचाई पर हैं इत्यादि ? क्योंकि त्रिलोकसार, तिलोयपण्णत्ति, लोक विभाग, श्लोकवार्तिक, आदि ग्रन्थों के स्वाध्याय का प्राय: आजकल अभाव सा ही देखा जाता है।
इसीलिए कुछ जैन बन्धु भी भौतिक चकाचौंध में पड़कर वैज्ञानिकों के वाक्यों को ही वास्तविक मान लेते हैं अथवा कोई-कोई बन्धु संशय के झूले में ही झूलने लगते हैं।
वास्तव में वैज्ञानिक लोग तो हमेशा ही किसी भी विषय के अन्वेषण एवं परीक्षण में ही लगे रहते हैं। किसी भी विषय में अंतिम निर्णय देने में वे स्वयं ही असमर्थ हैं। ऐसा वे स्वयं ही लिखा करते हैं।
परन्तु अनादिनिधन जैन सिद्धान्त में परम्परागत सर्वज्ञ भगवान ने सम्पूर्ण जगत को केवलज्ञान रूपी दिव्य चक्षु से प्रत्यक्ष देखकर प्रत्येक वस्तु तत्त्व का वास्तविक वर्णन किया है। उनमें कुछ ऐसे भी विषय हैं, जो कि हम लोगों की बुद्धि एवं जानकारी से परे हैं। उसके लिये कहा है कि—
सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं, हेतुभिर्नैव हन्यते।
आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं, नान्यथावादिनो जिना:।।
अर्थ—जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा गया कोई-कोई तत्त्व अत्यन्त सूक्ष्म है। किसी भी हेतु के द्वारा उसका खण्डन नहीं हो सकता है परन्तु—‘‘जिनेन्द्र देव ने ऐसा कहा है’’ इतने मात्र से ही उस पर श्रद्धान करना चाहिये। क्योंकि ‘‘जिनेन्द्र भगवान अन्यथावादी नहीं हैं’’ इस प्रकार की श्रद्धा से जिनका हृदय ओतप्रोत है उन्हीं महानुभावों के लिये यह मेरा प्रयास है।
तथा जो आधुनिक जैन बन्धु या अजैन बन्धु अथवा वैज्ञानिक लोग जो कि मात्र जैनधर्म में ‘‘ज्योतिर्लोक के विषय में क्या मान्यता है’’ यह जानना चाहते हैं, उनके लिये ही संक्षेप से यह विवरण दिया गया है।
ज्योतिष्क देवों के ५ भेद हैं—१. सूर्य, २. चन्द्रमा, ३. ग्रह, ४. नक्षत्र, ५. तारा।
इनके विमान चमकीले होने से इन्हें ज्योतिष्क देव कहते हैं। ये सभी विमान अर्धगोलक के सदृश हैं तथा मणिमय तोरणों से अलंकृत होते हुये निरन्तर देव-देवियों से एवं जिन मंदिरों से सुशोभित रहते हैं। अपने को जो सूर्य, चन्द्र, तारे आदि दिखाई देते हैं यह उनके विमानों का नीचे वाला गोलाकार भाग है।
ये सभी ज्योतिर्वासी देव मेरू पर्वत को ११२१ योजन अर्थात् ४४,८४,००० मील छोड़कर नित्य ही प्रदक्षिणा के क्रम से भ्रमण करते हैं। इनमें चन्द्रमा एवं सूर्य ग्रह ५१० योजन प्रमाण गमन क्षेत्र में स्थित परिधियों के क्रम से पृथक्-पृथक् गमन करते हैं। परन्तु नक्षत्र और तारे अपनी-अपनी एक परिधि रूप मार्ग में ही गमन करते हैं।
उपरोक्त ५ प्रकार के ज्योतिर्वासी देवों के विमान इस चित्रा पृथ्वी से ७९० योजन से प्रारम्भ होकर ९०० योजन की ऊँचाई तक अर्थात् ११० योजन में स्थित हैं। यथा—इस चित्रा पृथ्वी से ७९० योजन के ऊपर प्रथम ही ताराओं के विमान हैं। अनन्तर १० योजन जाकर अर्थात् पृथ्वीतल से ८०० योजन जाकर सूर्य के विमान हैं तथा ८० योजन अर्थात् पृथ्वी तल से ८८० योजन (३५,२०,००० मील) पर चन्द्रमा के विमान हैं।
विमानों के नाम | योजन में | मील में |
इस पृथ्वी से तारे | ७९० योजन से ऊपर | ३१६०००० मील पर |
इस पृथ्वी से सूर्य | ८०० योजन से ऊपर | ३२००००० मील पर |
इस पृथ्वी से चन्द्र | ८८० योजन से ऊपर | ३५२०००० मील पर |
इस पृथ्वी से नक्षत्र | ८८४ योजन से ऊपर | ३५३६००० मील पर |
इस पृथ्वी से बुध | ८८८ योजन से ऊपर | ३५५२००० मील पर |
इस पृथ्वी से शुक्र | ८९१ योजन से ऊपर | ३५६४००० मील पर |
इस पृथ्वी से गुरु | ८९४ योजन से ऊपर | ३५७६००० मील पर |
इस पृथ्वी से मंगल | ८९७ योजन से ऊपर | ३५८८००० मील पर |
इस पृथ्वी से शनि | ९०० योजन से ऊपर | ३६००००० मील पर |
सूर्य का विमान योजन का है। यदि १ योजन में ४००० मील के अनुसार गुणा किया जाये तो ३१४७ मील का होता है एवं चन्द्रमा का विमान योजन अर्थात् ३६७२ मील का है।
शुक्र का विमान १ कोश का है। यह बड़ा कोश लघु कोश से ५०० गुणा है। अत: ५००²२ मील से गुणा करने पर १००० मील का आता है। इसी प्रकार—
ताराओं के विमानों का सबसे जघन्य प्रमाण कोश अर्थात् २५० मील का है।
बम्बों का प्रमाण | योजन से | मील से | किरणें |
सूर्य | ४८/६१ योजन से | ३१४७ -३३/६१ | १२००० |
चन्द्र | ५६/६१ योजन | ३६७२-८/६१ | १२००० |
शुक्र | १ कोश | १००० | २५०० |
बुध | कुछ कम आधा कोश | कुछ कम ५०० मील | मंद किरणें |
मंगल | कुछ कम आधा कोश | कुछ कम ५०० मील | मंद किरणें |
शनि | कुछ कम आधा कोश | कुछ कम ५०० मील | मंद किरणें |
गुरु | कुछ कम १ कोश | कुछ कम १००० मील | मंद किरणें |
राहु | कुछ कम १ योजन | कुछ कम ४००० मी | मंद किरणें |
केतु | कुछ कम १ योजन | कुछ कम ४००० मील | मंद किरणें |
केतु | कुछ कम १ योजन | कुछ कम ४००० मील | मंद किरणें |
तारे 1/2 कोश २५० मील मंद किरणें
इन सभी विमानों की बाहल्य (मोटाई) अपने-अपने विमानों के विस्तार से आधी-आधी मानी गयी है।
राहु के विमान चन्द्र विमान के नीचे एवं केतु के विमान सूर्य विमान के नीचे रहते हैं अर्थात् ४ प्रमाणांगुल (२००० उत्सेधांगुल) प्रमाण ऊपर चन्द्र-सूर्य के विमान स्थित होकर गमन करते रहते हैं। ये राहु-केतु के विमान ६-६ महीने में पूर्णिमा एवं अमावस्या को क्रम से चन्द्र एवं सूर्य के विमानों को आच्छादित करते हैं। इसे ही ग्रहण कहते हैं।
सभी ज्योतिर्देवों के विमानों में बीचोंबीच में एक-एक जिनमंदिर है और चारों ओर ज्योतिर्वासी देवों के निवास स्थान बने हैं।
वे जिन भवन समुद्र के सदृश गंभीर शब्द करने वाले मर्दल, मृदंग, पटह आदि विविध प्रकार के दिव्य वादित्रों से नित्य शब्दायमान हैं। उन जिन भवनों में तीन छत्र, सिंहासन, भामण्डल और चामरों से युक्त जिन प्रतिमायें विराजमान हैं।
उन जिनेन्द्र प्रासादों में श्री देवी व श्रुतदेवी यक्षी एवं सर्वाण्ह व सानत्कुमार यक्षों की मूर्तियाँ भगवान के आजू-बाजू में शोभायमान होती हैं। सब देव गाढ़ भक्ति से जल, चंदन, तंदुल, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलों से परिपूर्ण नित्य ही उनकी पूजा करते हैं।
चन्द्रदेव की उत्कृष्ट आयु | — १ पल्य और १ लाख वर्ष की है। |
सूर्यदेव की उत्कृष्ट आयुु | — १ पल्य और १ हजार वर्ष की है। |
शुक्रदेव की उत्कृष्ट आयुु | — १ पल्य और १०० वर्ष की है। |
वृहस्पतिदेव की उत्कृष्ट आयुु | — १ पल्य की है। |
बुध, मंगल आदि की उत्कृष्ट आयुु | — आधा पल्य की है। |
देवों की तथा ताराओं की उत्कृष्ट आयुु | — चौथाई पल्य की है। |
तथा ज्योतिष्क देवांगनाओं की आयु अपने-अपने पति की आयु से आधा प्रमाण होती है।
सूर्य के विमान ३१४७ मील के हैं एवं इससे आधे मोटाई लिये हैं तथा अन्य वर्णन उपर्युक्त प्रकार के चन्द्र के विमानों के सदृश ही है। सूर्य की देवियों के नाम—द्युतिश्रुति, प्रभंकरा, सूर्यप्रभा, अर्चिमालिनी ये चार अग्रमहिषी हैं। इन एक-एक देवियों के चार-चार हजार परिवार देवियाँ हैं एवं एक-एक अग्रमहिषी विक्रिया से चार-चार हजार प्रमाण रूप बना सकती हैं।
बुध के विमान स्वर्णमय चमकीले हैं। शीतल एवं मंद किरणों से युक्त हैं। कुछ कम ५०० मील के विस्तार वाले हैं तथा उससे आधे मोटाई वाले हैं। पूर्वोक्त चन्द्र, सूर्य विमानों के सदृश ही इनके विमानों में भी जिन मंदिर, वेदी, प्रासाद आदि रचनायें हैं। देवी एवं परिवार देव आदि तथा वैभव उनसे कम अर्थात् अपने-अपने अनुरूप हैं। २-२ हजार आभियोग्य जाति के देव इन विमानों को ढोते हैं।
शुक्र के विमान उत्तम चांदी से निर्मित २५०० किरणों से युक्त हैं। विमान का विस्तार १००० मील का एवं बाहल्य (मोटाई) ५०० मील की है। अन्य सभी वर्णन पूर्वोक्त प्रकार ही है।
वृहस्पति के विमान स्फटिक मणि से निर्मित सुन्दर मंद किरणों से युक्त कुछ कम १००० मील विस्तृत एवं इससे आधे मोटाई वाले हैं। देवी एवं परिवार आदि का वर्णन अपने-अपने अनुरूप तथा बाकी मंदिर, प्रासाद आदि का वर्णन पूर्वोक्त ही है।
मंगल के विमान पद्मराग मणि से निर्मित लाल वर्ण वाले हैं। मंद किरणों से युक्त ५०० मील विस्तृत, २५० मील बाहल्ययुक्त हैं। अन्य वर्णन पूर्ववत् है।
शनि के विमान स्वर्णमय, ५०० मील विस्तृत एवं २५० मील मोटे हैं। अन्य वर्णन पूर्ववत् है।
नक्षत्रों के नगर विविध-विविध रत्नों से निर्मित रमणीय मंद किरणों से युक्त हैं। १००० मील विस्तृत व ५०० मील मोटे हैं। ४-४ हजार वाहन जाति के देव इनके विमानों को ढोते हैं। शेष वर्णन पूर्ववत् है।
ताराओं के विमान उत्तम-उत्तम रत्नों से निर्मित, मंद-मंद किरणों से युक्त १००० मील विस्तृत, ५०० मील मोटाई वाले हैं। इनके सबसे छोटे से छोटे विमान २५० मील विस्तृत एवं इससे आधे बाहल्य वाले हैं।
पहले यह बताया जा चुका है कि जम्बूद्वीप १ लाख योजन (१००००० x ४००० = ४०००००००० मील) व्यास वाला है एवं वलयाकार (गोलाकार) है।
सूर्य का गमन क्षेत्र पृथ्वी तल से ८०० योजन (८०० x ४००० = ३२००००० मील) ऊपर जाकर है।
वह इस जम्बूद्वीप के भीतर १८० योजन एवं लवण समुद्र में ३३० योजन है अर्थात् समस्त गमन क्षेत्र ५१० योजन या २०४३१४७ मील है।
इतने प्रमाण गमन क्षेत्र में १८४ गलियाँ हैं। इन गलियों में सूर्य क्रमश: एक-एक गली में संचार करते हैं। इस प्रकार जम्बूद्वीप में दो सूर्य तथा दो चन्द्रमा हैं।
इस ५१० योजन के गमन क्षेत्र में सूर्य बिम्ब को एक-एक गली योजन प्रमाण वाली है। एक गली से दूसरी गली का अन्तराल २-२ योजन का है।
अत: १८४ गलियों का प्रमाण 48/61x १८४ = १४४-48/61 योजन हुआ। इस प्रमाण को ५१० योजन गमन क्षेत्र में से घटाने पर ५१०-48/61 — १४४-48/61 = ३६६ योजन कुल गलियों का अंतराल क्षेत्र रहा।
३६६ योजन में एक कम गलियों का अर्थात् गलियों के अन्तर १८३ हैं उसका भाग देने से गलियों के अन्तर का प्रमाण ३६६ १८३ = २ योजन (८००० मील) का आता है। इस अन्तर में सूर्य की १ गली का प्रमाण योजन को मिलाने से सूर्य के प्रतिदिन के गमन क्षेत्र का प्रमाण २ योजन (१११४७ -33/61 मील) का हो जाता है।
इन गलियों में एक-एक गली में दोनों सूर्य आमने-सामने रहते हुये एक दिन रात्रि (३० मुहूर्त) में एक गली के भ्रमण को पूरा करते हैं।
जब दोनों सूर्य अभयंतर गली में रहते हैं तब आमने-सामने रहने से पहले सूर्य से दूसरे सूर्य का आपस में अन्तर ९९६४० योजन (३९८४६०००० मील) का रहता है एवं प्रथम गली में स्थित सूर्य का मेरू से अन्तर ४४८२० योजन (१७९२८०००० मील) का रहता है।
अर्थात् १ लाख योजन प्रमाण वाले जम्बूद्वीप में से जम्बूद्वीप सम्बन्धी, दोनों तरफ के सूर्य के गमन क्षेत्र को घटाने से १००००० — १८० x २ = ९९६४० योजन आता है तथा इसमें मेरू पर्वत का विस्तार घटाकर शेष को आधा करने से मेरू से प्रथम वीथी में स्थित सूर्य का अन्तर निकलता है। 99640-10000/2 = ४४८२० योजन (१७९२८०००० मील) का होता है।
अभ्यन्तर (प्रथम) गली की परिधि का प्रमाण ३१५०८९ योजन (१२६०३५६००० मील) है। इस परिधि का चक्कर (भ्रमण) २ सूर्य १ दिन-रात में लगाते हैं। अर्थात् जब १ सूर्य भरत क्षेत्र में रहता है तब दूसरा सूर्य ठीक सामने ऐरावत क्षेत्र में रहता है। जब १ सूर्य पूर्व विदेह में रहता है, तब दूसरा पश्चिम विदेह में रहता है। इस प्रकार उपर्युक्त अंतर से (९९६४० योजन) गमन करते हुये आधी परिधि को १ सूर्य एवं आधी को दूसरा सूर्य अर्थात् दोनों मिलकर ३० मुहूर्त (२४ घण्टे) में १ परिधि को पूर्ण करते हैं।
पहली गली से दूसरी गली की परिधि का प्रमाण १७-38/61 योजन (४३००००० मील) अधिक है। अर्थात् ३१५०८९ + १४-38/61 = ३१५१०६योजन अधिक-अधिक होता है। यथा—३१५१०६-38/61 + १७-38/61 योजन = ३१५१२४-15/61 योजन प्रमाण तीसरी गली की परिधि है। इसी प्रकार बढ़ते-बढ़ते मध्य की ९२वीं गली की परिधि का प्रमाण—३१६७०२ योजन (१२६६८०८००० मील) है। तथैव आगे वृिंद्धगत होते हुये अंतिम बाह्य गली की परिधि का प्रमाण—३१८३१४ योजन (१२७३२५६००० मील) है।
प्रथम गली में सूर्य के रहने पर उस गली की परिधि (३१५०८९ योजन) के १० भाग कीजिये। एक-एक गली में २-२ सूर्य भ्रमण करते हैं। अत: एक सूर्य के गमन सम्बन्धी ५ भाग हुये। उन ५ भागों में से २ भागों में अंधकार (रात्रि) एवं ३ भागों में प्रकाश (दिन) होता है। यथा—३१५०८९ # १० = ३१५०८-9/10 योजन दसवां भाग (१२६०३५६०० मील) प्रमाण हुआ। एक सूर्य सम्बन्धी ५ परिधि का आधा ३१५०८९ # २ = १५७५४ योजन है। उसमें दो भाग में अंधकार एवं ३ भागों में प्रकाश है।
इसी प्रकार से क्रमश: आगे-आगे की वीथियों में प्रकाश घटते-घटते एवं रात्रि बढ़ते-बढ़ते मध्य की गली में दोनों ही (दिन-रात्रि) २-१/२-२–१/२ भाग में समान रूप से हो जाते हैं। पुन: आगे-आगे की गलियों में प्रकाश घटते-घटते तथा अंधकार बढ़ते-बढ़ते अंतिम बाह्य गली में सूर्य के पहुँचने पर ३ भागों में रात्रि एवं २ भागों में दिन हो जाता है अर्थात् प्रथम गली में सूर्य के रहने से दिन बड़ा एवं अंतिम गली में रहने से छोटा होता है।
इस प्रकार सूर्य के गमन के अनुसार ही भरत-ऐरावत क्षेत्रों में और पूर्व-पश्चिम विदेह क्षेत्रों में दिन-रात्रि का विभाग होता रहता है।
श्रावक मास में जब सूर्य पहली गली में रहता है। उस समय दिन १८ मुहूर्त१ (१४ घंटे २४ मिनट) का एवं रात्रि १२ मुहूर्त (९ घंटे ३६ मिनट) की होती है।
पुन: दिन घटने का क्रम—
जब सूर्य प्रथम गली का परिभ्रमण पूर्ण करके दो योजन प्रमाण अंतराल के मार्ग को उल्लंघन कर दूसरी गली में जाता है तब दूसरे दिन दूसरी गली में जाने पर परिधि का प्रमाण बढ़ जाने से एवं मेरू से सूर्य का अंतराल बढ़ जाने से दो मुहूर्त का ६१वाँ भाग (१ मिनट) दिन घट जाता है एवं रात्रि बढ़ जाती है। इसी तरह प्रतिदिन दो मुहूर्त के ६१वें भाग प्रमाण घटते-घटते मध्यम गली में सूर्य के पहुँचने पर १५ मुहूर्त (१२ घंटे) का दिन एवं १५ मुहूर्त की रात्रि हो जाती है।
तथैव प्रतिदिन २ मुहूर्त के ६१वें भाग घटते-घटते अंतिम गली में पहुँचने पर १२ मुहूर्त (९ घंटे ३६ मिनट) का दिन एवं १८ मुहूर्त (१४ घंटे २४ मिनट) की रात्रि हो जाती है।
जब सूर्य कर्कट राशि में आता है तब अभ्यंतर गली में भ्रमण करता है और जब सूर्य मकर राशि में आता है तब बाह्य गली में भ्रमण करता है।
विशेष—श्रावण मास में जब सूर्य प्रथम गली में रहता है तब १८ मुहूर्त का दिन एवं १२ मुहूर्त की रात्रि होती है। वैशाख एवं कार्तिक मास में जब सूर्य बीचों-बीच की गली में रहता है तब दिन एवं रात्रि १५-१५ मुहूर्त (१२ घण्टे) के होते हैं।
तथैव माघ मास में सूर्य जब अंतिम गली में रहता है तब १२ मुहूर्त का दिन एवं १८ मुहूर्त की रात्रि होती है।
श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन जब सूर्य अभ्यंतर मार्ग (गली) में रहता है, तब दक्षिणायन का प्रारम्भ होता है एवं जब १८४वीं (अंतिम गली) में पहुँचता है तब उत्तरायण का प्रारम्भ होता है। अतएव ६ महीने में दक्षिणायन एवं ६ महीने में उत्तरायण होता है।
जब दोनों ही सूर्य अंतिम गली में पहुँचते हैं तब दोनों सूर्यों का परस्पर में अन्तर अर्थात् एक सूर्य से दूसरे सूर्य के बीच का अंतराल—१००६६० योजन (४०२६४०००० मील) का रहता है। अर्थात् जम्बूद्वीप १ लाख योजन है तथा लवण समुद्र में सूर्य का गमन क्षेत्र ३३० योजन है उसे दोनों तरफ का लेकर मिलाने पर १००००० ± ३३० ± ३३० · १००६६० योजन होता है। अंतिम गली से अंतिम गली तक यही अंतर है।
जब सूर्य प्रथम गली में रहता है तब एक मुहूर्त में ५२५१-२६/६० योजन (२१००५९४३३-१/३ मील) गमन करता है। अर्थात्—प्रथम गली की परिधि का प्रमाण ३१५०८९ योजन है। उनमें ६० मुहूर्त का भाग देने से उपर्युक्त संख्या आती है क्योंकि २ सूर्यों के द्वारा ३० मुहूर्त में १ परिधि पूर्ण होती है। अत: १ परिधि के भ्रमण में कुल ६० मुहूर्त लगते हैं। अतएव ६० का भाग दिया जाता है।
उसी प्रकार जब सूर्य बाह्य गली में रहता है तब बाह्य परिधि में ६० का भाग देने से—३१८३१४ # ६० = ५३०५-१४/६० योजन (२१२२०९३३-१/३ मील) प्रमाण १ मुहूर्त में गमन करता है।
एक मिनट में सूर्य की गति ४४७६२३-११/१८ मील प्रमाण है। अर्थात् १ मुहूर्त की गति में ४८ मिनट का भाग देने से १ मिनट की गति का प्रमाण आता है। यथा—२१२२०९३३ # ४८ = ४४७६२३-११/१८ योजन ?
जब सूर्य एक पथ से दूसरे पथ में प्रवेश करता है तब मध्य के अन्तराल २ योजन (८००० मील) को पार करते हुये ही जाता है। अतएव इस निमित्त से १ दिन में १ मुहूर्त की वृद्धि होने से १ मास में ३० मुहूर्त (१ अहोरात्र) की वृद्धि होती है। अर्थात् यदि १ पथ के लांघने में दिन का इकसठवाँ भाग १/६४ उपलब्ध होता है तो १८४ पथों के १८३ अंतरालों को लांघने में कितना समय लगेगा१/६१— x १८३ # १ = ३ दिन तथा २ सूर्य सम्बन्धी ६ दिन हुये।
इस प्रकार प्रतिदिन १ मुहूर्त (४८ मिनट) की वृद्धि होने से १ मास में १ दिन तथा १ वर्ष में १२ दिन की वृद्धि हुई एवं इसी क्रम से २ वर्ष में २४ दिन तथा ढाई वर्ष में ३० दिन (१ मास) की वृद्धि होती है तथा ५ वर्ष (१ युग) में २ मास अधिक हो जाते हैं।
जब सूर्य पहली गली में आता है तब अयोध्या नगरी के भीतर अपने भवन के ऊपर स्थित चक्रवर्ती सूर्य विमान में स्थित जिनबिम्ब का दर्शन करते हैं। इस समय सूर्य अभ्यंतर गली की परिधि ३१५०८९ योजन को ६० मुहूर्त में पूरा करता है। इस गली में सूर्य निषध पर्वत पर उचित होता है वहाँ से उसे अयोध्या नगरी के उâपर आने में ९ मुहूर्त लगते हैं। अब जब वह ३१५०८९ योजन प्रमाण उस वीथी को ६० मुहूर्त में पूर्ण करता है तब वह ९ मुहूर्त में कितने क्षेत्र को पूरा करेगा। इस प्रकार त्रैराशिक करने पर३१५०८९/६० x ९ = ४७२६३ योजन अर्थात् १८९०५३४००० मील होता है।
जितने काल में एक परमाणु आकाश के १ प्रदेश को लांघता है उतने काल को १ समय कहते हैं। ऐसे असंख्यात समयों की १ आवली होती है। अर्थात्—
असंख्यात समयों की १ आवली
संख्यात आवलियों का १ उच्छवास
७ उच्छवासों का १ स्तोक
७ स्तोकों का १ लव
३८ -१/२ लवों की १ नाली१
२ घटिका का १ मुहूर्त होता है।
इसी प्रकार ३७७३ उच्छ्वासों का एक मुहूर्त होता है एवं ३० मुहूर्त२ का १ दिन-रात होता है अथवा २४ घण्टे का १ दिन-रात होता है।
१५ दिन का १ पक्ष | २ पक्ष का १ मास |
२ मास की १ ऋतु | ३ ऋतुओं का १ अयन |
२ अयन का १ वर्ष | ५ वर्षों का १ युग होता है। |
प्रति ५ वर्ष के पश्चात् सूर्य श्रावक कृष्णा १ को पहली गली में आता है।
जब सूर्य श्रावक कृष्णा १ के दिन प्रथम गली में रहता है तब दक्षिणायन होता है एवं उसी वर्ष माघ कृष्णा ७ को उत्तरायन है। तथैव दूसरी वर्ष—
श्रावक कृष्णा १३ को दक्षिणायन एवं माघ शुक्ला ४ को उत्तरायन होता है। तीसरी वर्ष—श्रावक शुक्ला १० को दक्षिणायन, माघ कृष्णा १ को उत्तरायन। चौथी वर्ष—श्रावण कृष्णा ७ को दक्षिणायन, माघ कृष्णा १३ को उत्तरायन। पांचवें वर्ष—श्रावण शुक्ला ४ को दक्षिणायन, माघ शुक्ला १० को उत्तरायन होता है।
पुन: छठे वर्ष से उपरोक्त व्यवस्था प्रारम्भ हो जाती है अर्थात्—पुन: श्रावण कृष्णा १ के दिन दक्षिणायन एवं माघ कृष्णा ७ को उत्तरायन होता है। इस प्रकार ५ वर्ष में एक युग समाप्त होता है और छठे वर्ष से नया युग प्रारम्भ होता है। इस प्रकार प्रथम वीथी से दक्षिणायन एवं अंतिम वीथी से उत्तरायन होता है।
सूर्य के उदय निषध और नील पर्वत पर ६३ हरि और रम्यक क्षेत्रों में २ तथा लवण समुद्र में ११९ हैं। ६३ + २ + ११९ = १८४ हैं। इस प्रकार १८४ उदय स्थान होते हैं।
चन्द्र का विमान ५६/६१ योजन (३६७२-८/६१ मील) व्यास का है। सूर्य के समान चन्द्रमा का भी गमन क्षेत्र ५१०-४८/६१ योजन है। इस गमन क्षेत्र में चन्द्र की १५ गलियाँ हैं। इनमें वह प्रतिदिन क्रमश: एक-एक गली में गमन करता है। चन्द्र बिम्ब के प्रमाण योजन की ही एक-एक गली हैं अत: समस्त गमन क्षेत्र में चन्द्र बिम्ब प्रमाण १५ गलियों को घटाने से एवं शेष में १ कम (१४) गलियों का भाग देने से एक चन्द्र गली से दूसरी चन्द्र गली के अन्तर का प्रमाण प्राप्त होता है। यथा—
५१०-४८/६१ -५६/६१ x १५ = ५१०-४८/६१ — १३-४७/६१ = ४९७ योजन
इसमें १४ का भाग देने से—४९७ # १४ = ३५ योजन (१४२००४-२९२/४२७ मील) प्रमाण एक चन्द्र गली से दूसरी चन्द्र गली का अन्तराल है।
इसी अन्तर में चन्द्र बिम्ब के प्रमाण को जोड़ देने से चन्द्र के प्रतिदिन के गमन क्षेत्र का प्रमाण आता है। यथा—३५ +५६/६१= ३६-१७९/४२७ योजन अर्थात् १४५६५३-१६९/४२७ मील प्रतिदिन गमन करता है।
इस प्रकार प्रतिदिन दोनों ही चन्द्रमा १-१ गलियों में आमने-सामने रहते हुये एक-एक गली का परिभ्रमण पूरा करते हैं।
चन्द्र को एक गली के पूरा करने का काल
अपनी गलियों में से किसी भी एक गली में संचार करते हुये चन्द्र को उस परिधि को पूरा करने में ६२ मुहूर्त प्रमाण काल लगता है। अर्थात् एक चन्द्र कुछ कम २५ घण्टे में १ गली का भ्रमण करता है। सूर्य को १ गली के भ्रमण में २४ घण्टे एवं चन्द्र को १ गली के भ्रमण में कुछ कम २५ घण्टे लगते हैं।
चन्द्रमा की प्रथम वीथी (गली) ३१५०८९ योजन की है। उसमें एक गली को पूरा करने का काल ६२-२३/२२१ मुहूर्त का भाग देने से १ मुहूर्त की गति का प्रमाण आता है। यथा—३१५०८९ # ६२-२३/२२१ = ५०७३-७७४४/१३७२५ योजन एवं ४००० से गुणा करके इसका मील बनाने पर—२०२९४२५६-४६६/५४९ # ४८ = ४२२७९७-३१/१६४७ मील प्रमाण एक मुहूर्त (४८ मिनट) में चन्द्रमा गमन करता है।
इस मुहूर्त प्रमाण गमन क्षेत्र के मील में ४८ मिनट का भाग देने से १ मिनट की गति का प्रमाण आ जाता है। यथा—२०२९४२५६ ´ ४८ · ४२२७९७मील होता है। अर्थात् चन्द्रमा १ मिनट में इतने मील गमन करता है।
जब यहाँ मनुष्य लोक में चन्द्र बिम्ब पूर्ण दिखता है। उस दिवस का नाम पूर्णिमा है। राहु ग्रह चन्द्र विमान के नीचे गमन करता है और केतु ग्रह सूर्य विमान के नीचे गमन करता है। राहु और केतु के विमानों के ध्वजा दण्ड के ऊपर चार प्रमाणांगुल (२००० उत्सेधांगुल) प्रमाण ऊपर जाकर चन्द्रमा और सूर्य के विमान हैं। राहु और चन्द्रमा अपनी-अपनी गलियों को लांघकर क्रम से जम्बूद्वीप की आग्नेय और वायव्य दिशा से अगली-अगली गली में प्रवेश करते हैं अर्थात् पहली से दूसरी, दूसरी से तीसरी आदि गली में प्रवेश करते हैं।
पहली से दूसरी गली में प्रवेश करने पर चन्द्र मण्डल के १६ भागों में से १ भाग राहु के गमन विशेष से आच्छादित होता हुआ दिखाई देता है।
इस प्रकार राहु प्रतिदिन एक-एक मार्ग में चन्द्र बिम्ब की १५ दिन तक एक-एक कलाओं को ढकता रहता है। इस प्रकार राहु बिम्ब के द्वारा चन्द्र की १-१ कला का आवरण करने पर जिस मार्ग में चन्द्र की १ ही कला दिखती है वह अमावस्या का दिन होता है।
फिर वह राहु प्रतिपदा के दिन से प्रत्येक गली में १-१ कला को छोड़ते हुये पूर्णिमा को पन्द्रहों कलाओं को छोड़ देता है जब चन्द्र बिम्ब पूर्ण दीखने लगता है। उसे ही पूर्णिमा कहते हैं। इस प्रकार कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष का विभाग हो जाता है।
इस प्रकार ६ मास में पूर्णिमा के दिन चन्द्र विमान पूर्ण आच्छादित हो जाता है उसे चन्द्रग्रहण कहते हैं तथैव छह मास में सूर्य के विमान को अमावस्या के दिन केतु का विमान ढक देता है उसे सूर्य ग्रहण कहते हैं।
विशेष—ग्रहण के समय दीक्षा, विवाह आदि शुभ कार्य वर्जित माने हैं तथा सिद्धान्त ग्रन्थों के स्वाध्याय का भी निषेध किया है।
सबसे मन्द गमन चन्द्रमा का है। उससे शीघ्र गमन सूर्य का है। उससे तेज गमन ग्रहों का, उससे तीव्र गमन नक्षत्रों का एवं सबसे तीव्र गमन ताराओं का है।
इन ज्योतिषी देवों में चन्द्रमा इन्द्र है तथा सूर्य प्रतिन्द्र है। अत: एक चन्द्र (इन्द्र) के—१ सूर्य (प्रतीन्द्र), ८८ ग्रह, २८ नक्षत्र, ६६ हजार ९७५ कोड़ाकोड़ी तारे ये सब परिवार देव हैं।
१ करोड़ को १ करोड़ से गुणा करने पर कोड़ाकोड़ी संख्या आती है।
१००००००० x १००००००० = १०००००००००००००
एक तारे से दूसरे तारे का अन्तर
एक तारे से दूसरे तारे का जघन्य अन्तर १४२ मील अर्थात् महाकोश है। इसका लघु कोश ५०० गुणा होने से हुआ उसका मील बनाने पर ² २ · १४२ हुआ।
मध्यम अन्तर—५० योजन (२०००० मील) का है एवं उत्कृष्ट अन्तर—१०० योजन (४००००० मील) का है।
जम्बूद्वीप में दो चन्द्र सम्बन्धी परिवार तारे १३३ हजार ९५० कोड़ाकोड़ी प्रमाण हैं। उनका विस्तार जम्बूद्वीप के ७ क्षेत्र एवं ६ पर्वतों में है देखिये चार्ट—
क्षेत्र एवं पर्वत | तारों की संख्या कोड़ाकोड़ी से |
भरत क्षेत्र में | ७०५ कोड़ाकोडी तारे |
हिमवन पर्वत में | १४१० कोड़ाकोडी तारे |
हेमवत क्षेत्र में | २८२० कोड़ाकोडी तारे |
महाहिमवान पर्वत में | ५६४० कोड़ाकोडी तारे |
हरि क्षेत्र में | ११२८० कोड़ाकोडी तारे |
निषध पर्वत में | २२५६० कोड़ाकोडी तारे |
विदेह क्षेत्र में | ४५१२० कोड़ाकोडी तारे |
नील पर्वत में | २२५६० कोड़ाकोडी तारे |
रम्यक क्षेत्र में | ११२८० कोड़ाकोडी तारे |
रुक्ति पर्वत में | ५६४० कोड़ाकोडी तारे |
हैरण्यवत क्षेत्र में | २८२० कोड़ाकोडी तारे |
शिखरी पर्वत में | ४११० कोड़ाकोड़ी तारे |
ऐरावत क्षेत्र में | ७०५ कोड़ाकोड़ी तारे |
कुल जोड़ १३३९५० कोड़ाकोड़ी हैं। इस प्रकार २ चन्द्र सम्बन्धी सम्पूर्ण ताराओं का कुल जोड़ १३३९५००००००००००००००० प्रमाण है।
जो अपने स्थान पर ही रहते हैं। प्रदक्षिण रूप से परिभ्रमण नहीं करते हैं उन्हें ध्रुव तारे कहते हैं।
वे जम्बूद्वीप में ३६, लवण समुद्र में १३९, धातकी खण्ड में १०१०, कालोदधि समुद्र में ४११२० एवं पुष्करार्ध द्वीप में ५३२३० हैं।
ढ़ाई द्वीप के आगे सभी ज्योतिष्क देव एवं तारे स्थिर ही हैं।
द्वीप-समुद्र में | चन्द्रमा | सूर्य |
जम्बूद्वीप | 2 | 2 |
लवण समुद्र | 4 | 4 |
धातकी खण्ड | 12 | 12 |
कालोदधि समुद्र | 42 | 42 |
पुष्करार्द्ध द्वीप | 72 | 72 |
नोट—सर्वत्र ही १-१ चन्द्र, १-१ सूर्य (प्रतीन्द्र), ८८-८८ ग्रह, २८-२८ नक्षत्र एवं ६६ हजार ९७५ कोड़ाकोड़ी तारे हैं। इतने प्रमाण परिवार देव समझना चाहिये।
इस ढ़ाई द्वीप के आगे-आगे असंख्यात द्वीप एवं समुद्र पर्यन्त दूने-दूने चन्द्रमा एवं दूने-दूने सूर्य होते गये हैं।
मानुषोत्तर पर्वत से इधर-उधर के ही ज्योतिर्वासी देवगण हमेशा ही मेरू की प्रदक्षिण देते हुए गमन करते रहते हैं और इन्हीं के गमन के क्रम से दिन, रात्रि, पक्ष, मास, संवत्सर आदि का विभाग रूप व्यवहार काल जाना जाता है।
१. कृत्तिका, २. रोहिणी, ३. मृगशीर्षा, ४. आर्द्रा, ५. पुनर्वसू, ६. पुष्य, ७. आश्लेषा, ८. मघा, ९. पूर्वाफाल्गुनी, १०. उत्तराफाल्गुनी, ११. हस्त, १२. चित्रा, १३. स्वाति, १४. विशाखा, १५. अनुराधा, १६. ज्येष्ठा, १७. मूल, १८. पूर्वाषाढ़ा, १९. उत्तराषाढ़ा, २०. अभिजित, २१. श्रवण, २२. घनिष्ठा, २३. शतभिषक, २४. पूर्वाभाद्रपदा, २५. उत्तराभाद्रपदा, २६. रेवती, २७. अश्विनी, २८. भरिणी।
धातकी खण्ड का व्यास ४ लाख योजन का है। इसमें १२ सूर्य एवं १२ चन्द्रमा हैं। ५१० योजन प्रमाण वाले यहाँ पर ६ गमन क्षेत्र हैं। एक-एक गमन क्षेत्रों में पूर्ववत् २-२ सूर्य-चन्द्र परिभ्रमण करते हैं।
कालोदधि समुद्र का व्यास ८ लाख योजन का है। यहाँ पर ४२ सूर्य एवं ४२ चन्द्रमा हैं। यहाँ पर ५१० योजन प्रमाण वाले २१ गमन क्षेत्र अर्थात् वलय हैं। यहाँ पर भी प्रत्येक वलय में २-२ सूर्य एवं चन्द्र तथा उनकी १८४-१८४ एवं १५-१५ गलियाँ हैं। मात्र परिधियाँ बहुत ही बड़ी-बड़ी होने से गमन अतिशीघ्र रूप होता है।
पुष्करवर द्वीप १६ लाख योजन का है। उसमें बीच में वलयाकार (चूड़ी के आकार वाला) मानुषोत्तर पर्वत है। मानुषोत्तर पर्वत के इस तरफ ही मनुष्यों के रहने के क्षेत्र हैं। इस आधे पुष्करवर द्वीप में भी धातकी खण्ड के समान दक्षिण और उत्तर दिशा में दो इष्वाकार पर्वत हैं। जो एक ओर से कालोदधि समुद्र को छूते हैं एवं दूसरी ओर मानुषोत्तर पर्वत का स्पर्श करते हैं। यहाँ पर भी पूर्व एवं पश्चिम में १-१ मेरू होने से २ मेरू हैं तथा भरत क्षेत्रादि क्षेत्र एवं हिमवन् पर्वत आदि पर्वतों की भी संख्या दूनी-दूनी है।
मध्य में मानुषोत्तर पर्वत के निमित्त से इस द्वीप के दो भाग हो जाने से ही इस आधे भाग को पुष्करार्ध कहते हैं।
इस पुष्करार्ध द्वीप में ७२ सूर्य एवं ७२ चन्द्रमा हैं। इनके ५१० योजन प्रमाण वाले ३६ गमन क्षेत्र (वलय) हैं। प्रत्येक में २-२ सूर्य एवं २-२ चन्द्र हैं। एक-एक वलय में १८४-१८४ सूर्य की गलियाँ तथा १५-१५ चन्द्र की गलियाँ हैं। १८ वलयों में सूर्य-चन्द्र आदि ३ मेरूओं (१ जम्बूद्वीप सम्बन्धी एवं २ धातकी खण्ड सम्बन्धी) की ही प्रदक्षिणा करते हैं। शेष १८ वलय के सूर्य, चन्द्रादि २ पुष्करार्ध के मेरू सहित पाँचों ही मेरूओं की सतत प्रदक्षिणा करते रहते हैं।