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02.4 जैन संस्कृति और पर्यावरण-एक वैज्ञानिक दृष्टि

November 26, 2022Booksjambudweep

जैन संस्कृति और पर्यावरण-एक वैज्ञानिक दृष्टि


पर्यावरण संरक्षण की समस्या


इक्कीसवीं सदी के मानव के समक्ष अपनी दैनिक मूलभूत समस्याओं के अलावा जो सबसे भयंकर और अनिवार्य समस्या उठ खड़ी हुई है, वह है पर्यावरण संरक्षण की समस्या। प्रकृति की वस्तुओं के प्रति मानव समुदाय की उपेक्षा सैकड़ों वर्षों से अनवरतरूप से चलती आ रही थी और वर्तमान काल में अब इसकी विकरालता स्पष्टरूप से दिखलाई पड़ने लगी है। विश्व के लोगों ने अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्रकृति का भरपूर दोहन किया है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि आज सम्पूर्ण विश्व को प्रदूषण की विकराल समस्या से जूझना पड़ रहा है।

पिछली शताब्दियों में हुए वैज्ञानिक प्रयोग, औद्योगिक क्रान्ति की होड़, भौतिक आनन्द, जंगलों की लगातार कटाई, खेतों में जरूरत से अधिक पैदावार बढ़ाने के हिंसक प्रयत्न और निरीह प्राणियों की निर्मम हत्या ने प्राकृतिक वातावरण को छिन्न—भिन्न कर इसे दूषित बना दिया है जिससे प्राकृतिक संतुलन डगमगाने लगा है। आज विकास के नाम पर भूमि, जल और वायु प्रदूषित किये जा रहे हैं तथा अन्तरिक्ष तक में प्रदूषण पैâलाया जा रहा है। इस परिस्थिति में आज प्राणी जगत के संपूर्ण अस्तित्व पर सीधा संकट उपस्थित हो गया है।


कत्लखाने पर्यावरण के दुश्मन


जीवन—दायिनी अिंहसा के अभाव में आज क्रूरता की शक्ति बढ़ने लगी और व्यक्ति मांसाहारी हो गया। इस मांसाहार के कारण हमारे देश में कत्लखाने का खुलने लगे। कत्लखानों का दिनों—दिन बढ़ना पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। मांसाहार िंहसा और क्रूरता की जमीन से पैदा होने वाला आहार है जो प्रकृति के सर्वथा प्रतिकूल है और जिसके कारण पर्यावरण सर्वाधिक प्रदूषित व असंतुलित हो रहा है।

मांस—निर्यात और विदेशी मुद्रा कमाने के लिए कत्ल का रास्ता अपनाना भारतीय संस्कृति और प्रकृति, दोनों के खिलाफ है। हमारा दुर्भाग्य है कि पर्यावरण—संतुलन का हिसाब नहीं रखा जाता। जो भयंकर नुकसान इससे पहुंचेगा उसके बारे में कोई जान नहीं सकेगा। इससे पशुधन अनुपात भी गड़बड़ाया है। घास खाकर दूध देने व श्रम करने वाले पशु—धन का कत्ल कर देना क्या सभ्य मानव समाज का न्याय है ?


भारतीय संस्कृति में पर्यावरण


यद्यपि बीसवीं सदी में पश्चिम के वैज्ञानिकों और विचारकों ने प्रकृति संरक्षण और पर्यावरण पर ध्यान दिया तथा इसके लिए कुछ उपाय भी बतलायें, पर पिछले कई दशकों में उपभोक्ता संस्कृति और भौतिकवादी विचारधारा का जिस तेजी से विकास हुआ है, उससे विश्व के प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास होता गया और आज मानव उसके भयावह परिणामों के भुक्तभोगी हो रहे हैं।

अब इससे बचने के उपाय विश्व के दूसरे देशों के पास नहीं हैं, पर यदि हम भारतीय संस्कृति का अध्ययन करें तो जैन और अन्य धर्म साहित्य भी इस तरह की प्रेरणा देते हैं जिससे हम विश्व के समक्ष उत्पन्न इस त्रासदी का सामना करते हुए उससे बच सकें। अब सभी इस बात की गंभीरता को समझने लगे हैं कि पर्यावरण और प्रकृति की सुरक्षा के लिए धार्मिक एवं नैतिक विश्वासों तथा आस्थाओं पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

जहां वैदिक धर्म में प्रकृति के अंगों, क्रमश: क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर की बात कहकर इसके प्रति आस्था उत्पन्न की गई है, वहीं अन्य धर्मों में भी लोगों को प्रकृति के प्रति उदार रहने का संदेश दिया गया है। पर जैन धर्म एवं इसमें वर्णित जीवन शैली पर विचार करने से यह स्पष्ट पता चलता है कि इसने प्राकृतिक वस्तुओं के संरक्षण पर सबसे अधिक ध्यान दिया है तथा इसके लिए तथ्यपरक मार्गों के अनुसरण करने की बात भी विस्तार से बतलाई है।


मनुष्य पर्यावरण का एक महत्वपूर्ण घटक


मनुष्य पर्यावरण का एक महत्वपूर्ण घटक है, यदि उसके शरीर में विकार उत्पन्न होते हैं तो संपूर्ण पर्यावरण कलुषित हो उठता है। अत: स्वच्छ पर्यावरण के लिए मनुष्य का स्वस्थ होना आवश्यक है। हम वही होते है जो पेट में डालते हैं। ‘`We are, what we eat” अर्थात् पर्यावरण का संबंध हमारे आचार—विचार, खान—पान, आहार—विहार से घनिष्ठरूप से जुडा हुआ है।
पर्यावरण केवल बाह्य जगत से ही नहीें वरन् अन्तर्जगत और जीवन के प्रति दृष्टिकोण से सह संबंधित आन्तरिक पर्यावरण से भी होता है। अर्थात् पर्यावरण के निर्माण में जड़ (पुद्गल) और चेतन (मन—मस्तिष्क, आत्मा) दोनों की अपनी—अपनी निश्चित भूमिका होती है।


आन्तरिक पर्यावरण


आन्तरिक पर्यावरण— मानसिक धरातल से जुड़ा होता है। इसका प्रदूषण व्यक्ति की काषायिक भावों से हुआ करता है, जो क्रोध, मान, माया और लोभरूप एवं हिंसा, अतिभोगवाद एवं संग्रह की दुष्प्रवृत्ति के कारण बढ़ता है। जब तक मन इन कषायों से निर्मुक्त होकर स्वच्छ नहीं होगा, भीतरी पर्यावरण विशुद्धि नहीं बन सकती अस्तु आन्तरिक पर्यावरण की विशुद्धि अहिंसा, करुणा, दया और मैत्री जैसे उदात्त जीवन—मूल्यों से ही संभव हो सकती है।

हमारे देश के ४१ वें संविधान संशोधन द्वारा प्रत्येक नागरिक का यह मूल कर्त्तव्य हो गया है कि वह प्राकृतिक पर्यावरण जिसके अंतर्गत वन, झील, वन्य—प्राणी आदि आते हैं, की रक्षा करे, उसका सम्वर्द्धन करे, प्राणी मात्र के प्रति दया भाव रखे तथा अवैध शिकार से बचे। संविधान की उक्त धारा में पर्यावरण के दोनों घटकों के संरक्षण की बात आ जाती है।

पर्यावरणविदों की मान्यतानुसार, इस विराट सौरमण्डल में केवल पृथ्वी पर अद्भुत जीवन—संरचना है। यहां अगाध सागर, उत्तुंग पर्वत, जीवन रस बहाती नदियाँ और वायुमण्डल की छत्रछाया है। नदियों के जल का सिंचन पाकर इस उर्वरा भूमि पर हरे भरे पेड़—पौधे उत्पन्न हुए हैं। पेड़—पौधोें ने अपनी प्राण—वायु से अन्य जीवधारियों को सांसे दी, भोजन एवं जीवन की आवश्यकताओं की सम्पूर्ति की है। प्रकृति की संपूर्ण व्यवस्था प्राणियों की जीवनधारा को सुरक्षित बनाए रखने की हुआ करती है।

परन्तु मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए अतुल प्राकृतिक—सम्पदा को नष्ट करने में लगा हुआ है। एक संवेदनशील चिंतक ने एक जगह लिखा है— ‘‘आसमा भरा पिंरदों से, पेड़ कोई हरा गिरा होगा’’। इसके कारण पर्यावरण विक्षुब्ध हो रहा है। वह अपने सुख के लिए अन्य प्राणियों की हत्या करने से बाज नहीं आ रहा है। जिस कारण पर्यावरण का संतुलन लड़खड़ा गया है।

आज संपूर्ण विश्व में एक चेतावनी, चिंतन और चेतना का दौर सा चल रहा है। चेतावनी का विषय है— पर्यावरण, चिंतन का विषय है— पर्यावरण का असन्तुलन/प्रदूषण और चेतना का विषय है— पर्यावरण को सन्तुलित/संरक्षित करने का उपाय।
आज की नई सभ्यता, जो आधुनिक टैक्नोलॉजी पर आधारित भोगवादी संस्कृति की प्रणेता है, ने पर्यावरण एवं परिस्थिति को असन्तुलित कर दिया है। पर्यावरण ऐसी प्राकृतिक—सुधा है, जिसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह करोड़ों वर्षों से मानव का संरक्षण एवं सम्पोषण करती आ रही है। लेकिन विकास की अंधी—दौड़ में मानव प्रकृति का अंधाधुंध दोहन कर रहा है।


जैनधर्म के पाँच मूल सिद्धान्त एवं पर्यावरण संरक्षण


जैनधर्म मूलरूप से पांच सिद्धातों पर आधारित है—अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य। इन्हीं मार्गों पर चलकर भौतिक तथा आध्यात्मिकरूप से प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा की जा सकती है। इसके अलावा जैन तीर्थंकरों एवं श्रमणों ने स्वयं एक ऐसा आदर्श जीवन प्रस्तुत किया है, जो उनके दया भाव एवं प्रकृति प्रेम को दर्शाता है। जैनधर्म में अिंहसा को सबसे अधिक महत्व देते हुए प्रकृति के सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों की रक्षा करने का संदेश दिया गया है।

इस मत में जीव के पांच प्रकार निर्धारित किये गये हैं—पृथ्वीकाय, अपकाय (जलकाय), तेउकाय (अग्नि या तेज), वायुकाय तथा वनस्पतिकाय। ये स्थावर जीव हैं, जबकि त्रस जीव के चार प्रकार बतलाये गए हैं—द्वीन्द्रिय (दो इन्द्रिय), त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय। उसी प्रकार जैनधर्म में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति में जीवत्व की अवधारणा कही गयी है। उपर्युक्त जीव स्थिर है और जीवत्व से संपूर्ण ब्रह्माण्ड ओतप्रोत है। जैनधर्म के अनुसार पृथ्वी सजीव है और इसकी िंहसा नहीं होनी चाहिए।

इसके छत्तीस तत्व बतलाये गये हैं जैसे मिट्टी, बालू, लोहा, तांबा, सोना और कोयला वगैरह। इन सभी प्राकृतिक सम्पत्तियों का अत्यधिक दोहन—शोषण नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार जलकायिक जीवों की भी िंहसा नहीं होनी चाहिए। साहित्य में जल को दूषित नहीं करने तथा अनावश्यकरूप से उसकी बरबादी न करने की सलाह दी गई है। प्रदूषित जल से मानव और जल में रहने वाले जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है।


जैन दर्शन में ‘परस्परोपग्रहो जीवनाम्’ का अमर सूत्र एवं पर्यावरण


श्री उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थ सूत्र ग्रंथ में एक महान् सूत्र दिया है—‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’ (५/२१) परस्पर एक जीव का दूसरे जीवों के लिए उपकार है। जगत् में निरपेक्ष जीवन नहीं रह सकता। एक बालक की योग्यता के निर्माण में उसके माता—पिता, गुरु, समाज, शासन, संगति एवं पर्यावरण आदि सभी का उपकार जुड़ा होता है। हर व्यक्ति पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से जुडा है और अन्यान्य ग्रहों की अदृश्य शक्तियों से प्रभावित होता रहता है।

उसके अस्तित्व की डोर धर्म और अधर्म द्रव्य, आकाश, काल और पुद्गल द्रव्य के उपकार से सम्बद्ध है। प्राणी एवं मनुष्य, वनस्पति जगत् के उपकार से निरपेक्ष नहीं। मनुष्य की त्याज्य अशुद्ध हवा जहाँ वृक्ष—पादपों के लिए ग्राह्य होती है, वहीं वनस्पतियों द्वारा उत्सर्जित वायु मानव व अन्य प्राणियों के लिए प्राणवायु है। इस अन्योन्याश्रय सिद्धान्त पर प्रकृति और सम्पूर्ण पर्यावरण टिका हुआ है।


जैन संस्कृति का बहुमान—तीर्थक्षेत्र / मंदिर तथा पर्यावरण


समस्त जैन तीर्थ/सिद्धक्षेत्र/ अतिशय क्षेत्र, हरे—भरे वृक्षों से युक्त पर्वत शिखरों, नदियों के कूलों, झीलों, उद्यानों आदि पर अवस्थित हैं। चाहे वह निर्वाण भूमि सम्मेद शिखर (मधुवन) हो या गिरनार—पर्वत, चाहे श्रवणबेलगोल की विन्ध्यागिरि व चन्द्रगिरि की मनोरम उपत्यकाएँ हों या राजस्थान के आबू पर्वत पर दिलवाड़ा के विश्व—प्रसिद्ध मंदिर या बुन्देलखण्ड के अतिशय क्षेत्र—देवगढ़, कुण्डलपुर, सोनागिरि, गुजरात का शत्रुञ्जय क्षेत्र, पालीताणा या उत्तर प्रदेश का हस्तिनापुर सभी शुद्ध पर्यावरण के पवित्र स्थान हैं।

पुराणों से सिद्ध है कि प्राचीन जैनमंदिर उद्यानों, सरोवरों से घिरे बगीचों में हुआ करते थे। इसीलिए आज भी मंदिरों के सेवकों को माली या बागवान कहते हैं। ध्यान व उपासना के केन्द्र समस्त जिनालय उद्यानों के बीच होते थे। इसका संबंध निश्चित ही पर्यावरण से है जो प्रदूषण से रहित सुरक्षित स्थानों में निर्मित होते थे।

श्रमणों की तपस्थली निर्जन घने वन या पर्वतमालाएँ/गुफाएं हुआ करती थी। २० तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि सम्मेदाचल उनकी तपस्या के कारण अत्यन्त पवित्र पर्यावरण प्रदान कर रहा है। जहाँ घने जंगलों से शुद्ध प्राणवायु (ऑक्सीजन) का अपार भण्डार अनायास ही साधक की साधना को निर्विघ्न बनाये रखता है। प्राकृतिक सुषमा से युक्त, शान्त, एकान्त वातावरण अध्यात्म की साधना में सहायक हुआ करता है। ग्रीष्मकाल में भी वृक्षों के कारण शीतल आर्द्र वायु का संचार सूर्य की तपन को कम कर देता है।


अहिंसा और पर्यावरण संरक्षण


अहिंसा, पर्यावरण के संरक्षण का मूल आधार है। अहिंसा की आचार संहिता जीवों की रक्षा करके पर्यावरण को पूर्ण सन्तुलित रखती है। अहिंसा जैन संस्कृति का प्राण है।

श्रावक की भूमिका में आरंभी, उद्योगी और विरोधी हिंसा त्याज्य नहीं है, परन्तु संकल्पी हिंसा का वह त्यागी होता है। त्रस जीवों की हिंसा का त्यागी होता है तथा एकेन्द्रिय स्थावर जीवों जैसे—पृविी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति की भी अकारण विराधना नहीं करता है।


शाकाहार और पर्यावरण सन्तुलन


इन दोनों का चोली—दामन का संबंध है। प्रकृति ने मानव आहार के लिए वनस्पति व स्वादिष्ट फल—मेवा दिये हैं। जो पशु—पक्षी मानव के प्यार से इतने वफादार बन जाते हैं कि अपना सब कुछ निछावर कर सकते हैं, उन्हें अपना आहार बनाना कितना घृणित है ?

मांसाहार क्रूरता की जमीन से पैदा होने वाला आहार है जो सर्वथा प्रकृति के प्रतिकूल होता है। मांसाहार पृथ्वी पर जलाभाव के लिए उत्तरदायी है। प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि जहाँ प्रति टन मांस उत्पादन के लिए लगभग ५ करोड़ लीटर जल की आवश्यकता होती है, वहाँ प्रति टन चावल/गेहूँ के लिए क्रमश: ४५ लाख व ५ लाख लीटर जल की ही आवश्यकता पड़ती है। अमेरिका में कत्लखानों के कारण पर्यावरण—विनाश की जो स्थिति पैदा हो रही है, वही भारत में होनी सुनिश्चित है।

भारत में पशुधन का जिस गति से विनाश कर मांस उत्पादन किया जा रहा है, वह मांस निर्यात भारत के गणतंत्र शासन की अनीति के कारण हो रहा है जो विदेशी मुद्रा के अर्जन के अलावा और कुछ नहीं देखती। देश के कत्लखाने पर्यावरण के शत्रु हैं। यह अत्यनत विचारणीय है।


श्रमणाचार एवं पर्यावरण


जैन मुनि—अट्टाइस मूल गुणों का पालन करते हैं जो विशुद्ध वैज्ञानिक एवं पर्यावरण संरक्षण के अनुकूल है। मुनि का अपरिग्रह महाव्रत प्रकृति से अतिदोहन पर अंकुश रखने का प्रतीक है। उनका अस्नान मूलगुण, जहाँ जल अपव्यय रोकता है वहीं अयाचित आहार बहुगुणित अभिलाषाओं को विराम देने और सात्त्विक भोजन को आसक्ति रहित होकर करने का विधान है। पेट की भूख से संग्रह प्रवृत्ति नहीं है अपितु अनंत इच्छाओं /लालसा की भूख से संग्रह प्रवृत्ति को बल मिलता है। इसी प्रकार पंच समितियों का पालन भी पर्यावरण संरक्षण में अपनी तरह से योग देता है एवं निर्जन्तु/एकान्त स्थान में मलमूत्र क्षेपण वायु प्रदूषिण के बचाव के लिए है।


श्रावकाचार एवं पर्यावरण


श्रावक बारह प्रकार के आचार का पालन करता है।

(१) पंच अणुव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह परिमाण व्रत) जो मनुष्य के आन्तरिक पर्यावरण की शुद्धि करके मन/भावना को पवित्र बनाते हैं। भावना के परिष्कार से अन्तर्जगत के प्रदूषण का विनाश होता है।

(२) तीन गुणव्रत (दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्ड विरति)।

अनर्थदण्ड विरति के अन्तर्गत—अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादाचरित, िंहसादान और अशुभश्रुति का त्याग करता है। इनके अनुशीलन से बाह्य पर्यावरण शुद्ध रहने के साथ वह अनर्थदण्ड विरति के अन्तर्गत ऐसे व्यापारादि नहीं कर सकता जो प्राणियों को कष्ट पहुँचाये, अनावश्यक जंगल कटवाये, जमीन खुदवाये, जल प्रदूषित करे, विषैली गैस का प्रसार या हिंसा के उपकरणादि देना यह सब हिंसा दान के अंतर्गत आता है। श्रावक इन सब का त्यागी होता है। साम्प्रदायिक तनाव, जातीय दंगे जैसी अशुभ बातों का करना—कराना, सुनना—सुनाना अशुभश्रुति है, जिसका वह त्यागी होता है।

(३) चार शिक्षा व्रत—सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग परिभोग परिमाण और अतिथि संविभाग ये चारों जीवन को संयमित व मर्यादित बनाकर पर्यावरण सन्तुलन में अहम भूमिका का निर्वाहन करते हैं। इसके अलावा श्रावक रात्रिभोजन त्यागी व जल छान कर पीता है जो पर्यावरण प्रदूषण से बचे रहने की अचूक दृष्टि प्रदान करते हैं।


जैन दर्शन में वनस्पति में जीवत्व


जैन सिद्धान्तों में वनस्पति को जीवत्व माना गया है तथा उसमें चेतना की बात स्वीकार की गई है। यहाँ वनस्पति, प्राणी, भू—तत्व और वायु के आपस में गहरे संबंध हैं, यह स्पष्ट किया गया है। वैज्ञानिक शोध भी इसे स्वीकारते हुए यह बतलाती हैं कि पारिस्थितिक रूप से पौधे, जीव और जानवर तक एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। किसी भी समूह में हस्तक्षेप से दूसरे वर्ग पर उसका कुप्रभाव पड़ सकता है।

वनस्पति से जहाँ हम शुद्ध प्राणवायु—ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं, वहीं वे हमें फूल—फल प्रदान करते हैं। तथा वर्षा को लाने में सहायक बनते हैं। वृक्ष से भूमि और वायु का अवशोषण होता है। वनस्पति की उपेक्षा हम नहीं कर सकते। हमारे चारों ओर की हरी—भरी भूमि, हवा तथा पानी हमारा पर्यावरण है।

अपने स्वार्थ में हम जहाँ उन्हें नष्ट कर रहे हैं, वहीं प्रकृति के अविभाज्य अंग पशु, पक्षियों की भी निर्मम हत्या की जा रही है। जैन साहित्य में पशु—पक्षियों तथा पे़ड़—पौधों के साथ दुर्व्यवहार की निंदा एवं उनके प्रति िंहसा की भावना का विरोध किया गया है। जिन कीड़े—मकोड़ों को हम बेकार समझते हैं, जैसे केंचुए, मेंढ़क और सांप वगैरह, वे भी हमारी फसल के लिए उपयोगी हैं।

उधर जंगलों की बेतहाशा कटाई से दिन प्रतिदिन वर्षा की कमी महसूस की जा रही है। इससे एक तरफ तो हवा में धूल और जहर का प्रवेश हो रहा है, तो दूसरी तरफ वायुमंडल का तापमान बढ़ता जा रहा है। पौधों को काटकर जहाँ हम अनावश्यक िंहसा बढ़ा रहे हैं, वहीं इससे प्रदूषण की वृद्धि भी होती जा रही है। जैन धर्म में हजारों वर्ष पहले ही पेड़ पौधों के साथ तृण तक में जीव के अस्तित्व की बात स्वीकार कर ली गई थी। आज हमारे लोभ के कारण वन सम्पदा तेजी से घट रही है, जिससे प्राकृतिक संतुलन और पर्यावरण बिगड़ रहा है।

जैन दर्शन में कहा गया है कि यदि किसी जीव के प्राण को मन, वचन या कर्म से कष्ट पहुंचाया जाता है, तो यह हिंसा है। अहिंसा के अन्तर्गत मात्र जीव हिंसा का त्याग ही नहीं आता, बल्कि उनके प्रति प्रेम का भाव भी व्यक्त करना धार्मिक कृत्य माना गया है। यहां अहिंसा से तात्पर्य मानव संयम और विवेक से है। प्राणियों के कल्याण के लिए व्यक्ति को राग–द्वेष और कटुवचन का त्याग करना चाहिए। विवेक अहिंसा को जन्म देती है, जबकि हिंसा से प्रतिहिंसा होती है। मानव की हिंसक भावना से प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाता है।


तीर्थंकरों के जीवन की घटनाएँ


जैनधर्म के सिद्धांतों एवं उनके आचार—विचार के अलावा हमें तीर्थंकरों तथा जैन मुनियों के जीवन की घटनाओं से भी उनके प्रकृति के प्रति लगाव व प्रेम की झलक दिखलाई पड़ती है। उन लोगों ने हजारों वर्ष पहले से ही स्वयं अपने को प्रकृति के अधिक से अधिक करीब रखा तथा जनमानस को उसी के अनुरूप जीवन जीने की ऐसी पद्धति बतलाई, जिसमें व्यक्ति स्वस्थ व प्रसन्न रह सके।

तीर्थंकरों के जन्म के पूर्व उनकी माताओं द्वारा देखे गये स्वप्नों में प्राकृतिक वस्तुओं या घटनाओं का होना प्राकृतिक जगत से सम्बद्ध मंगल या क्षेम के प्रतीक हैं। वनस्पति जगत को कल्पवृक्ष कहकर प्रकृति का सम्मान किया जाता रहा है। महावीर तथा अन्य तीर्थंकरों ने किसी न किसी वृक्ष के नीचे ध्यान करके ही केवलज्ञान की प्राप्ति की है।

पीपल, वट तथा अशोक के वृक्ष हमारे धार्मिक जीवन से लगातार जुड़े हैं। प्राचीन काल में ऋषि—मुनि स्वयं जंगलों में रहकर प्रकृति की सुरक्षा करते थे। जैन विचारकों ने स्वयं सदैव जीव जन्तु तथा वनस्पति के प्रति संवेदना का भाव रखने का संदेश दिया।


विश्व में प्रकृति के असंतुलन का संकट


आज संपूर्ण विश्व में प्रकृति के असंतुलन का संकट पैदा हो गया है। लोगों ने भौतिकवाद और उपभोक्ता संस्कृति की चकाचौंध में प्रकृति के महत्व को भुला दिया है। अब तो विश्व के वैज्ञानिक यहां तक आशंका प्रगट कर रहे हैं कि आने वाले कुछ दशाब्दियों में पृथ्वी का एक बहुत बड़ा हरा—भरा भाग रेगिस्तान में परिवर्तित हो जायेगा तथा कई क्षेत्र में इतनी तेज गर्मी पड़ने लगेगी कि संभवत: वहां जीवन समाप्त होने का खतरा पैदा हो जाये।

इस गंभीर संकट से त्राण पाने के लिए हमें प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं धर्म में प्रयुक्त उन संदेशों का प्रचार—प्रसार करना पड़ेगा, जिससे लोग प्रकृति के महत्व को अच्छी तरह समझें तथा उनके प्रति अपनी निष्ठुर भावना का परित्याग कर सकें। संपूर्ण जैन धार्मिक साहित्य में अिंहसा पर सबसे अधिक ध्यान दिया गया है और इसके सूक्ष्मतम स्वरूप की विशद् व्याख्या की गई है, ताकि लोग सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राकृतिक जीवों के प्रति भी अिंहसक बन सकें।

यदि हम विश्व में बढ़ रहे प्रदूषण, अपराध, हिंसा एवं प्राणघातक रोगों पर नियंत्रण करना चाहते हैं, तो हमें स्वयं को प्रकृति के अधिक से अधिक करीब ले जाना पड़ेगा। आज प्रकृति संरक्षण सबसे बड़ी मानवीय आवश्यकता है, जिसमें हर स्तर पर हर व्यक्ति को सहभागी होना पड़ेगा। इस तेजी से बढ़ते वैज्ञानिक युग में आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने अतीत से प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करने के उपायों को खोजें तथा उनके महत्व को समझें, ताकि मानवता पर आये प्राकृतिक असंतुलन के गहरे खतरे को टाला जा सके।


पर्यावरण के संबंध में वैज्ञानिक दृष्टि


विज्ञान में पर्यावरण विज्ञान अत्याधुनिक शाखा है। इसमें विज्ञान की विभिन्न शाखाओं एवं इंजीनियिंरग का समावेश है। इसका विकास विज्ञान व कला की विभिन्न शाखाओं एवं इंजीनियिंरग के अध्ययनों के आधार पर होता गया है। अत: इस विज्ञान में सभी शाखाओं का समावेश है।

पर्यावरण को विज्ञान में इस प्रकार परिभाषित किया गया—हम जहाँ रहते हैं और जो प्राकृतिक वस्तुएँ हमें चारों ओर से घेरे हुए हैं, पर्यावरण कहलाता है। आगे कहा गया कि पर्यावरण दो घटकों—जैविक व अजैविक से मिलकर बना है। इन घटकों में आपसी एवं आंतरिक संबंध होते हैं जो कि भोज्य शृंखला का निर्माण करते हैं व जाल के रूप में एक दूसरे से गुंथे हुए रहते हैं।

इस प्रकार यह पर्यावरण एक तंत्र के रूप में कार्य करता है, जिसे हम पर्यावरण तंत्र कहते हैं। शृंखला का आरम्भ पौधों से होता है, जिनके द्वारा जमीन से जल व तत्वों का अवशोषण कर सूर्यप्रकाश की उपस्थिति में वातावरण से कार्बन डाई ऑक्साइड के साथ फोटोसिन्थेसिस (प्रकाश संश्लेषण) की क्रिया कर भोजन का निर्माण करते हैंं।

इसका उपयोग पौधों द्वारा स्वयं भी किया जाता है एवं शाकाहारी जीवों द्वारा किया जाता है जो इस पर आश्रित हैं। शाकाहारी जीवों का भक्षण माँसाहारी जीवों द्वारा किया जाता है। जीवन चक्र समाप्त होने पर मृत शरीर का सूक्ष्म जीवों द्वारा विघटन किया जाता है जिससे तत्व जमीन में वापिस मिल जाते हैं एवं गैसेस वायुमंडल में पहुँच जाती है। इस प्रकार यह चक्र चलता रहता है। इसमें ऊर्जा का संचार एक दिशा में होता है जबकि तत्वों का चक्रीकरण होता रहता है।

इस भोज्य शृंखला में निचले—निचले स्तर पर ऊर्जा के दसवें हिस्से की ही प्राप्ति होती है। इस प्रकार ऊर्जा के संचरण में इसका स्वरूप बदलता है, ना इसका ह्रास होता है और ना ही इसे बनाया जा सकता है।

पर्यावरण विज्ञान को इकोलोजी (पारिस्थितिकी विज्ञान) के अंतर्गत सविस्तार समझाया गया है। इकोलॉजी दो ग्रीक शब्दों—ओइकोस—(घर) एवं लोगोस (अध्ययन), से मिलकर बना है। इसका शाब्दिक अर्थ हुआ—घर में अध्ययन यानी जीवों का उनके रहने के स्थान में ही अध्ययन। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जीवों के आपसी सम्बन्ध एवं उनका वातावरण से सम्बन्ध का विस्तार से अध्ययन ही पर्यावरण या पारिस्थितिकी विज्ञान है।

ई. सन् १८६६ में जर्मन वैज्ञानिक अर्नस्ट हिकेल द्वारा पारिस्थितिकी विज्ञान का नाम दिया गया। बाद में विज्ञान की अन्य शाखाओं के वैज्ञानिकों, जैसे—वनस्पतिशास्त्र, प्राणिशास्त्र, मानवविज्ञान, भूगोल, भूगर्भशास्त्र, रसायनशास्त्र, भौतिकशास्त्र, न्यूक्लियर विज्ञान, माइक्रोबायोलोजी, सामाजिक विज्ञान आदि तथा इंजीनियिंरग क्षेत्र के जुड़ने से इसका विस्तार पर्यावरण विज्ञान एवं इंजीनियिंरग के रूप में हुआ। इस विज्ञान का महत्व दुनिया को यू. एन. की १९७२ में स्टाकेहो में हुई ग्लोबल समिट से समझ में आया।

इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि जैनधर्म/दर्शन/ संस्कृति की बातें पर्यावरण के सरंक्षण/संवर्द्धन में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान करती है।

पर्यावरण का संबंध वैज्ञानिक पहलू से जुड़ा हुआ है। जैन संस्कृति में परोक्ष या प्रत्यक्ष—पर्यावरण से संबंधित समस्त संभावनाएँ समाहित हैं। जैनधर्म का अनुशीलक पर्यावरण सन्तुलन का सम्पोषक व समर्थक होता है।

विश्व को प्राकृतिक आपदाओं / प्रकोपों से निजात दिलाने की दृष्टि से जैनधर्म के सर्वमान्य सिद्धान्त—अिंहसा एवं शाकाहार बड़े सशक्त वैज्ञानिक सिद्धान्त माने जा सकते हैं।

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