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जैन साधु की नग्नता निर्दोष है

July 15, 2017स्वाध्याय करेंHarsh Jain

जैन साधु की नग्नता निर्दोष है


साधु शब्द हमें संयम और साधना की ओर ले जाता है। भारतीय संस्कृति आज विश्व के कोने कोने में अपने धर्म और अध्यात्म के कारण ही विख्यात हैं । भारत संचार के तमाम देशों में इसीलिए महान माना जाता है कि जितने भी बड़े—बड़े साधु, मुनि, महापुरूष, संत, महात्मा, भगवान, अरिहंत हुए वे सभी इसी भारत देश में ही हुए हैं और उन्होंने इस विश्व को धर्म और अध्यात्म का पाठ पढ़ाया। चाहे हम श्री रामको लें, महावीर को लें, बुद्ध को लें, ईसा को लें, गुरुनानक या मोहम्मद को लें सभी इसी वसुंधरा पर जन्मे और धर्म व अध्यात्म की शिक्षा दी।सभी ने अहिंसा और दया को ही प्रमुखता दी। अहिंसा और दया का संदेश इन सबसे भी बहुत पहले कर्म युग के प्रारम्भ काल में नाभिराय के पुत्र आदिब्रह्मा भगवान ऋषभदेव ने दिया जिनके पुत्र चक्रवर्ती भरत के नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। जैसा कि वैदिक ग्रन्थ विष्णुपुराण के द्वितीयांश अ—१ में कहा है,
नैभै: पुत्रश्च ऋषभ:,ऋषभाद् भरतो अभवत् । तस्य नाम्नात्विदं वर्ष भारतं चेति कीर्तयते।।
इसी तरह सत्य की पुष्टि मारकण्डेय पुराण, स्कन्द पुराण, वराहपुराण, वायुपुराण, महापुराण, ब्रह्मणपुराण, अग्निपुराण, लिंगपुराण, कर्मपुराण, नारदपुराण, शिवपुराण, गुरूपुराण तथा मनुस्मृति आदि ग्रन्थों से भी होती है। अर्थात् जबसे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा उससे भी पहले भगवान ऋषभदेव प्रथम दिगम्बर साधु के रूप में महान साधक हुए। जिनके द्वारा ही धर्म की स्थापना भोगभूमि के उपरांत हुई। उनसे पूर्व चौदह कुलकर या मनु हुए जिनके समय में भोगभूमि काल था। धर्म—कर्म की शुरूआत भगवान ऋषभदेव से हुई । जैन संस्कृति में भगवान ऋषभदेव को प्रथम तीर्थंकर माना गया है। इसी तरह वैदिक संस्कृति में भी उन्हें परम अर्हंत नग्न रूप में ही पूजा जाता है। चतुर्थकाल में भगवान ऋषभदेव तथा अन्य तेईस तीर्थंकर भगवंतों ने करोड़ों मुनियों ने जिस दिगम्बर नग्न साधु के रूप में घोर तपश्चरण किया। उसी तप को आज भी जैन साधु करते हैं। अध्यात्म साधना में निराकुलता सर्वोपरि है और जब तक जरा भी परिग्रह है तब तक पूर्ण निराकुलता की प्राप्ति नहीं हो सकती । अत: निराकुलता, निश्च्तता, निष्पापता, निष्परिग्रहता, निरागता तथा निर्दोषता के लिए नग्नता आवश्यक हैं। नग्नता के अभाव में उक्त गुणों की प्राप्ति पूर्णत: संभव नहीं है। किसी ने यथार्थ ही कहा है।
फांस तनक सी तन में साले, चाह लंगोटी की दुख भाले।
अर्थात् जिस तरह से शरीर में छोटी सी फांस भी बहुत अधिक पीड़ा देती है, उसी तरह एक लंगोटी की इच्छा भी बढ़ते बढ़ते पूरा संसार बसा देती है, वस्त्र होने पर धोने की चिंता, सिलवाने की चिंता, सुखाने की चिंता, धोने के लिए बाल्टी, साबुन, सोडा, पानी, सुरक्षा आदि की चिंता अनेकों चिन्तायें लग जाती हैं, विकल्प लग जाते हैं तब निष्काम साधक भी निश्चिंत होकर भी प्रभु आराधना नहीं कर सकता।
जैन साधु की नग्नता निर्विकार होने से निर्दोष है, नग्नता का अर्थ है निष्परिग्रह, जो वर्षों की साधना संयम और तप से प्राप्त होती है। जबकि सविकार नग्न होना कोई महत्वपूर्ण नहीं है। जैन धर्म व साधना में उसका कोई मूल्य नहीं है। जैन साधु मात्र तन से नग्न नहीं होते, उनकी नग्नता एक बहुत बड़ी त्याग, तपस्या व संयम सहित होती है। जैनियों में जितने भी दिगम्बर साधु हैं वे सभी पढ़े लिखे और लखपति, करोड़पति सम्राट घराने से संस्कारित युवक होते हैं। जैन धर्म में अंगहीन, गंवार, अनपढ़, दीन—हीन, कुसंस्कारित, नीच व अकुलीन लोगों को दिगम्बर मुनिदीक्षा नहीं दी जाती है। जैन साधु को श्रमण भी कहा जाता है जो कि प्रमाद रहित निर्दोष आचरण करने में सदा श्रमशील रहते हैं । जैन साधुओं के हाथ में मयूर पंख की पीछी तथा काष्ठ का कमण्डल होता है ये इनके मुख्य उपकरण कहलाते हैं तथा यह ही इनके मुख्य चिन्ह हैं। इनसे रहित कोई भी मुनि नहीं होता है। जैन साधुओं के अट्ठाइस मूलगुण होते हैं तथा चौरासी लाख उत्तर गुण होते हैं। इनमें से मुख्य हैं चौबीस घण्टे में दिन में एक बार ही अन्न—जल मौनपूर्वक बिना याचना के ग्रहण करना, हजार कि.मी. भी जाना हो तो पैदल ही जाना, अपने सिर तथा दाढ़ी मूछों के बाल दो, या तीन या चार माह में हाथों से खींचकर निकालना, सर्दी,गर्मी या बरसात में किसी भी मौसम में गद्दे, तकिये और बिस्तर आदि वस्त्रों का उपयोग नहीं करना। सत्य, अहिंसा, अचौर्य ,अपरिग्रह व ब्रह्मचर्य महाव्रतों को दृढ़ता के साथ पालन करना, गाली नहीं देना, हमेशा ज्ञान ध्यान की साधना करना, रात्रि में नहीं चलना व रात्रि में मौन रहना, छोटे बड़े सभी जीवों की रक्षा करना आदि गुणों का सभी जैन मुनि पालन करते हैं। इन गुणों से गुणीजन इनकी पूज्यता और महानता का अनुमान लगा सकते हैं। मूलाचार नाम के ग्रन्थ में लिखा है—
भक्खं वक्वंकं हिययं साधि जो चरदि बिच्च सो साहू। ऐसो सुद्विद्, साहु भणियो जिणसासणे भयवं।।
अर्थात् जो आहार शुद्धि, वचन शुद्धि और मन शुद्धि रखते हुए सदा ही चरित्र का पालन करता है, जैन शासन में ऐसे साधु को भगवान समझ है अर्थात ऐसे महामुनि चलते फिरते भगवान ही हैं। जैन साधु इसलिए भी निर्दोष हैं कि वे संसार की सभी बड़ी, समान व छोटी स्त्रियों को माता, बहन तथा बेटी की दृष्टि से देखते हैं और यही भाव उनकी अंतरंग व बहिरंग दिगम्बर निर्विकार मुद्रा से प्रकट होता है। हम यदि गुणी हैं तो गुणों का समादर करें उनकी त्याग तपस्या व निर्दोषता का महत्व समझें और अनुभव करें कि नग्न दिगम्बर मुनि होना आज के भौतिक युग में कितना कठिन है। फिर भी आज इस पंचम काल में हमें सतयुग के समान मुनियों के दर्शन हो रहे हैं। यह हमारा परम सौभाग्य ही है जो हमें इन वीतरागी दिगम्बर सन्तों का समागम मिल रहा है। ‘‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’’ राष्ट्रीय स्तर के गीत की उक्त पंक्ति कितनी सुंदर है संसार का कोई भी धर्म आपस में लड़ना झगड़ना नहीं सिखाता अत: हम आपस में लड़ना नहीं , भाईचारा बनाना सीखें व अपनी प्राचीन भारतीय संस्कृति की सुरक्षा करें। जैन साधु समाज राष्ट्र व विश्व के परम हितैषी व शुभचिंतक है, परम अहिंसक हैं व पर्यावरण रक्षक हैं । वे पेड़ पौधों व पत्तियों को तोड़ना भी पाप समझते हैं। परम दयालु हैं घास पर भी पैर नहीं रखते , नल नहीं चलाते, व्यर्थ लाईट—पंखा चलवाने में भी अपराध व दोष मानते हैं। कभी भी किसी होटल आदि पर शराब—चाय, पान—सुपारी, गांजा—भांग, बीड़ी—सिगरेट तो क्या पानी पीते हुए भी नहीं दिखेंगे। कभी किसी से याचना या भीख मांगते हुए नहीं मिलेंगे। अपने मुख से अपशब्द या गालियां देते हुए नहीं मिलेंगे । इसके अलावा प्रतिदिन तीन बार आत्म ध्यान व अपने द्वारा जाने—अनजाने हुए सूक्ष्म भूलों व विचारों की निन्दा, आलोचना व प्रतिक्रमण, प्रायश्चित आदि करते हैं। वे भावना भाते हैं ‘‘सुखी रहें सब जीव जगत के , कोई कभी न घबराये। बैर पाप अभिमान छोड़ जग नित्य नये मंगल गावें।’’ अधिक क्या कहें वे चींटी से लेकर हाथी तक के छोटे बड़े जीवों के रक्षक हैं। जैन साधु संतों की प्रेरणा से निर्मित आज इस भारत भूमि पर एक नहीं सैंकडों ऐसे विद्यालय हैं जिनमें लाखों लाख विद्यार्थी प्रतिदिन अध्ययन अध्यापन करते हैं। इसी तरह देश में सैंकडों औषधालय ऐसे हैं जो कि जैन साधुओं की प्रेरणा से निर्मित अथवा संचालित हैं । जिनमें हजारों लोग प्रतिदिन मुफ्त औषधियाँ प्राप्त कर स्वास्थ्य लाभ लेते हैं सैकड़ों पुस्तकालय हैं, जिनसे ज्ञानार्जन कर समाज व राष्ट्र उन्नत होता है। जैन साधु स्वयं ही सद्विचार एवं सदाचरण के चलते फिरते विद्यालय हैं जो नित्य ही अपने दिव्य उपदेशों व संदेशों के द्वारा समाज में फैल रही बुराइयों जैसे जुंआ, नशाखोरी चोरी हिंसा आदि से लाखों लोगों को विरक्त कर समाज व देश का कल्याण करते हैं तथा बदले में आपसे कुछ भी नहीं लेते हैं। अत: मात्र उनके दिगम्बर रूप को ही न देखें इनके साथ साथ अनेक गुणों को भी देखें व ऐसे सच्चे साधुओं के प्रति विनयवान हो। तभी हमारा व हमारे देश का कल्याण होगा।
 
Tags: Digamber Muni
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