Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

01. णमोकार मंत्र का अर्थ

July 9, 2020Booksjambudweep

णमोकार मंत्र का अर्थ एवं महिमा


णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।१।।
अर्थ- अर्हंतों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो और लोक में सर्व साधुओं को नमस्कार हो।

(१) ‘णमो अरिहंताणं’

‘अरिहननादरिहंता!’ ‘अरि’ अर्थात् शत्रुओं के ‘हननात्’ अर्थात् नाश करने वाले होने से ‘अरिहंत’ कहलाते हैं। नरक, तिर्यंच, कुमानुष और प्रेत इन पर्यायों में निवास करने से होने वाले जो अशेष दु:ख हैं, उन दु:खों को प्राप्त कराने में निमित्त कारण होने से मोह को ‘अरि’ अर्थात् शत्रु कहा है। शंका-केवल मोह को ही अरि मान लेने पर शेष कर्मों का व्यापार निष्फल हो जावेगा ? समाधान-ऐसी बात नहीं है, क्योंकि बाकी के सभी कर्म मोह के ही आधीन हैं। मोह के बिना शेष कर्म अपने-अपने कार्य की उत्पत्ति में व्यापार करते हुए नहीं पाये जाते हैं। जिससे कि वे अपने कार्य में स्वतंत्र समझे जावें। इसलिए सच्चा अरि मोह ही है और शेष कर्म उसी के आधीन हैं। शंका-मोह कर्म के नष्ट हो जाने पर कितने ही काल तक शेष कर्मों की सत्ता रहती है, इसलिए उनका मोह के आधीन होना नहीं बनता है ? समाधान-ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि मोहरूप अरि के नष्ट हो जाने पर जन्म-मरण की परम्परारूप संसार के उत्पादन की सामथ्र्य शेष कर्मों में नहीं रहती है। इसलिए उनका सत्त्व असत्त्व के समान हो जाता है तथा केवलज्ञानादि सम्पूर्ण आत्म गुणों के आविर्भाव के रोकने में समर्थ कारण होने से भी मोह प्रधान शत्रु है और उस शत्रु के नाश करने से ‘अरिहंत’ यह संज्ञा प्राप्त होती है। ‘रजोहननाद्वा अरिहंता’। अथवा रज अर्थात् आवरण कर्मों के नाश करने से ‘अरिहंत’ होते हैं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म धूलि की तरह बाह्य और अंतरंग स्वरूप समस्त त्रिकालगोचर अनंत अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय स्वरूप वस्तुओं को विषय करने वाले बोध और अनुभव के प्रतिबंधक होने से रज कहलाते हैं। मोह को भी रज कहते हैं, क्योंकि जिस प्रकार जिनका मुख भस्म से व्याप्त होता है, उनमें जिह्मभाव-कार्य की मदंता देखी जाती है, उसी प्रकार मोह से जिनकी आत्मा व्याप्त हो रही है, उनके भी जिह्मभाव देखा जाता है अर्थात् उनकी स्वानुभूति में कालुष्य, मंदता या कुटिलता पाई जाती है। शेष कर्मों का विनाश इन तीन कर्मों के विनाश का अविनाभावी है। ‘रहस्याभावाद्वा अरिहंता’। अथवा ‘रहस्य’ के अभाव से भी अरिहंत होते हैं। रहस्य अंतराय कर्म को कहते हैं। इस अंतराय कर्म का नाश शेष तीन घातिया कर्मों के नाश का अविनाभावी है और अंतराय कर्म के नाश होने पर अघातिया कर्म भ्रष्ट बीज के समान नि:शक्त हो जाते हैं। ‘अतिशयपूजार्हत्वाद्वार्हन्त:।’ अथवा सातिशय पूजा के योग्य होने से अर्हंत होते हैं, क्योंकि गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण इन पाँचों कल्याणकों में देवों द्वारा की गई पूजाएँ देव, असुर और मनुष्यों को प्राप्त पूजाओं से अधिक अर्थात् महान् है, इसलिए इन अतिशयों के योग्य होने से अर्हन्त होते हैं। अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य, क्षायिक-सम्यक्त्व, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग और क्षायिकउपभोग आदि प्रगट हुए अनंत गुण स्वरूप होने से जिन्होंने यहीं पर सिद्धस्वरूप प्राप्त कर लिया है, स्फटिक मणि के पर्वत के मध्य से निकलते हुए सूर्य बिम्ब के समान जो देदीप्यमान हो रहे हैं, अपने शरीर प्रमाण होने पर भी जिन्होंने अपने ज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त कर लिया है, अपने ज्ञान में ही सम्पूर्ण प्रमेय के प्रतिभासित होने से जो विश्वरूपता को प्राप्त हो गये हैं, सम्पूर्ण रोगों के दूर हो जाने के कारण जो निरामय हैं, सम्पूर्ण पापरूपी अंजन के नष्ट हो जाने से जो निरंजन है और दोषों की कलाएँ-सम्पूर्ण दोषों से रहित होने के कारण जो निष्कलंक हैं, ऐसे उन अरिहंतों को नमस्कार हो।

(२) ‘णमो सिद्धाणं’

जो निष्ठित अर्थात् पूर्णत: अपने स्वरूप में स्थित हैं, कृतकृत्य हैं, जिन्होंने अपने साध्य को सिद्ध कर लिया है और जिनके ज्ञानावरणादि आठ कर्म नष्ट हो चुके हैं उन्हें सिद्ध कहते हैं। शंका-सिद्ध और अरिहंतों में क्या भेद है ? समाधान-आठ कर्मों को नष्ट करने वाले सिद्ध होते हैं और चार घातिया कर्मों को नष्ट करने वाले अरिहंत होते हैं। यही उन दोनों में भेद है। शंका-चार घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने पर अरिहंतों की आत्मा के समस्त गुण प्रगट हो जाते हैं इसलिए सिद्ध और अरिहंत में गुणकृत भेद नहीं हो सकता है ? समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि अरिहंतों के अघातिया कर्मों का उदय और सत्त्व दोनों विद्यमान हैं। इसलिए इन दोनों में भेद है। शंका-ये अघातिया कर्म शुक्लध्यानरूप अग्नि के द्वारा अधजले हो जाने के कारण उदय और सत्त्व के विद्यमान रहते हुए भी अपना कार्य करने में समर्थ नहीं हैं ? समाधान-ऐसा भी नहीं है, क्योंकि यदि आयु आदि कर्म अपने कार्य में असमर्थ माने जायें, तो शरीर का पतन हो जाना चाहिए, परन्तु शरीर आदि का पतन तो होता नहीं है अत: आयु आदि शेष कर्मों का कार्य करना सिद्ध है। शंका-उन कर्मों का कार्य तो चौरासी लाख योनिरूप जन्म, जरा और मरण से युक्त संसार है। वह अघातिया कर्मों के रहने पर भी अरिहंत परमेष्ठी के नहीं पाया जाता है तथा अघातिया कर्म आत्मा के गुणों के घात करने में असमर्थ भी हैं। इसलिए अरिहंत और सिद्ध में गुणों की अपेक्षा कोई भेद नहीं है ? समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि जीव के ऊध्र्वगमन स्वभाव का प्रतिबंधक आयु कर्म का उदय उनके विद्यमान है तथा सलेपत्व और निर्लेपत्व की अपेक्षा तो इन दोनों में भेद स्पष्ट ही है। आठों कर्मों से रहित, आठ गुणों से युक्त और तीन लोक के मस्तक पर विराजमान ऐसे सिद्धपरमेष्ठियों को यहाँ नमस्कार किया गया है।

(३) ‘णमो आइरियाणं’

जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच प्रकार के आचारों का स्वयं आचरण करते हैं और दूसरे साधुओं से आचरण कराते हैं, उन्हें आचार्य कहते हैं। जो चौदह विद्यास्थानों के पारंगत हैं, ग्यारह अंग के धारी हैं अथवा आचारांग मात्र के धारी हैं अथवा तत्कालीन स्वसमय और परसमय में पारंगत हैं, मेरु के समान निश्चल हैं, पृथ्वी के समान सहनशील हैं, जिन्होंने समुद्र के समान मल-दोषों को बाहर फैक दिया है और जो सात प्रकार के भय से रहित हैं उन्हें आचार्य कहते हैं। प्रवचनरूपी समुद्र में अवगाहन करने से जिनकी बुद्धि निर्मल हो गई है, जो निर्दोषरीति से छह आवश्यकों का पालन करते हैं, मेरु के समान निष्कम्प हैं, शूरवीर हैं, सिंह के समान निर्भीक हैं, निर्दोष हैं, देश, कुल और जाति से शुद्ध हैं, जो संघ के संग्रह और अनुग्रह में कुशल हैं, कीर्तिमान हैं, जो सारण-आचरण, वारण-निषेध और शोधन-व्रतों की शुद्धि करने वाली क्रियाओं में नित्य ही उद्युक्त हैं, उन्हें आचार्य परमेष्ठी कहते हैं, ऐसे आचार्यों को यहाँ नमस्कार किया गया है।

(४) ‘णमो उवज्झायाणं’

चौदह विद्यास्थान-चौदह पूर्वों का व्याख्यान करने वाले उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं। अथवा तत्कालीन परमागम के व्याख्यान करने वाले उपाध्याय होते हैं। वे संग्रह-शिष्यों को दीक्षा देना और अनुग्रह-उनका संरक्षण करना, आदि गुणों को छोड़कर पहले कहे गये आचार्य के समस्त गुणों से युक्त होते हैं। जो साधु चौदह पूर्वरूपी समुद्र में प्रवेश करके मोक्षमार्ग में स्थित हैं तथा मोक्ष के इच्छुक शीलंधरों अर्थात् मुनियों को उपदेश देते हैं, उन मुनीश्वरों को उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं। ऐसे उपाध्यायों को यहाँ नमस्कार किया गया है।

(५) ‘णमो लोए सव्वसाहूणं’

लोक में अर्थात् ढाई द्वीपवर्ती सर्व साधुओं को नमस्कार हो। जो अनंतज्ञानादि रूप शुद्ध आत्मा के स्वरूप की साधना करते हैं उन्हें साधु कहते हैं। जो पाँच महाव्रतों को धारण करते हैं, तीन गुप्तियों से सुरक्षित हैं, अठारह हजार शील के भेदों को धारण करते हैं और चौरासी लाख उत्तर गुणों का पालन करते हैं, वे साधु परमेष्ठी होते हैं। सिंह के समान पराक्रमी, गज के समान स्वाभिमानी, बैल के समान भद्र प्रकृति, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह गोचरी वृत्ति करने वाले, पवन के समान नि:संग, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गंभीर, सुमेरु के समान परीषह और उपसर्गों के आने पर अकम्प, चन्द्रमा के समान शांतिदायक, मणि के समान प्रभापुंजयुक्त, पृथ्वी के समान सर्वबाधाओं को सहने वाले, सर्प के समान अनियत वसतिका आदि में निवास करने वाले, आकाश के समान निरालंबी और सदा काल मोक्ष का अन्वेषण करने वाले साधु होते हैं। ऐसे सम्पूर्ण कर्मभूमियों में उत्पन्न होने वाले त्रिकालवर्ती साधुओं को नमस्कार किया गया है। पाँच परमेष्ठियों को नमस्कार करने में इस नमस्कार मंत्र में ‘सर्व’ और ‘लोक’ पद हैं वे अंत दीपक हैं, अत: सम्पूर्ण क्षेत्र में रहने वाले त्रिकालवर्ती अरिहंत आदि देवताओं को नमस्कार करने के लिए उन्हें प्रत्येक नमस्कारात्मक पद के अर्थ के साथ जोड़ लेना चाहिए। शंका-जिन्होंने आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लिया है, ऐसे अरिहंत और सिद्धपरमेष्ठी को नमस्कार करना योग्य है, किन्तु आचार्यादिक तीन परमेष्ठियों ने आत्मस्वरूप को प्राप्त नहीं किया है, अत: उनमें देवपना नहीं आ सकता है, इसलिए उन्हें नमस्कार करना योग्य नहीं है ? समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि अपने-अपने भेदों से अनंत भेदरूप रत्नत्रय ही देव है, अतएव रत्नत्रय से युक्त जीव भी देव हैं, अन्यथा (यदि रत्नत्रय की अपेक्षा देवपना न माना जाये तो) सम्पूर्ण जीवों को देव मानने की आपत्ति आ जायेगी। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि आचार्यादिक भी रत्नत्रय के यथायोग्य धारक होने से देव हैं। क्योंकि अरिहंतादि से आचार्यादि में रत्नत्रय के सद्भाव की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है। अर्थात् जिस तरह अरिहंत, सिद्ध में रत्नत्रय का सद्भाव है, उसी तरह आचार्यादि में भी रत्नत्रय का सद्भाव है अत: आंशिक रत्नत्रय की अपेक्षा से इनमें देवपना बन जाता है। आचार्यादि में स्थित तीन रत्नों का सिद्धपरमेष्ठी में स्थित रत्नों से भी भेद नहीं है। यदि दोनों के रत्नत्रय में सर्वथा भेद मान लिया जावे, तो आचार्यादि में स्थित रत्नों के अभाव का प्रसंग आ जावेगा। शंका-सम्पूर्ण रत्न अर्थात् पूर्णता को प्राप्त रत्नत्रय ही देव है, रत्नों का एकदेश देव नहीं हो सकता है ? समाधान-ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि रत्नों के एकदेश में देवपना न मानने पर रत्नों की समग्रता में भी देवपना नहीं बन सकता है। अर्थात् जो कार्य जिसके एकदेश में नहीं देखा जाता है, वह उसकी समग्रता में कहाँ से आ सकता है ? शंका-आचार्यादि में स्थित रत्नत्रय समस्त कर्मों के क्षय करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं, क्योंकि उनके रत्न एकदेश हैं ? समाधान-यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ‘‘जिस प्रकार पलाल राशि को जलानेरूप कार्य करने में अग्निसमूह समर्थ है, उसी प्रकार से अग्नि का एक कण भी उसको जलाने में समर्थ है। ऐसे ही यहाँ पर भी समझना चाहिए। इसलिए आचार्यादि भी देव हैं, यह बात निश्चित हो जाती है।‘‘अग्निसमूहकार्यस्य पलालराशिदाहस्य तत्कणादप्युपलम्भात्। तस्मादाचार्या-दयोऽपि देवा इति स्थितम्।’’

अरिहंतों को पहले नमस्कार क्यों किया ?

शंका-सर्वप्रकार के कर्मलेप से रहित सिद्धपरमेष्ठी के विद्यमान रहते हुए अघातिया कर्मों के लेप से युक्त अरिहंतों को आदि में नमस्कार क्यों किया जाता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सबसे अधिक गुण वाले सिद्धों में श्रद्धा की अधिकता के कारण अरिहंत परमेष्ठी ही हैं, अर्थात् अरिहंत परमेष्ठी के निमित्त (उपदेश) से ही अधिक गुण वाले सिद्धों में सबसे अधिक श्रद्धा उत्पन्न होती है। अथवा यदि अरिहंत परमेष्ठी न होते तो हम लोगों को आप्त, आगम और पदार्थ का परिज्ञान नहीं हो सकता था किन्तु अरिहंत परमेष्ठी के प्रसाद से हमें इस बोध की प्राप्ति हुई है। इसलिए उपकार की अपेक्षा भी आदि में अरिहंतों को नमस्कार किया जाता है।
शंका-इस प्रकार आदि में अरिहंतों को नमस्कार करना तो पक्षपात है ?
समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि ‘न पक्षपातो दोषाय, शुभपक्षवृत्ते: श्रेयोहेतुत्वात्’। यह पक्षपात दोषोत्पादक नहीं है। किन्तु शुभ पक्ष में रहने से वह कल्याण का ही कारण है तथा द्वैत को गौण करके अद्वैत की प्रधानता से किये गये नमस्कार में द्वैतमूलक पक्षपात बन भी तो नहीं सकता है। अर्थात् पक्षपात वहीं संभव है जहाँ दो वस्तुओं में से किसी एक की ओर अधिक आकर्षण होता है। परन्तु यहाँ परमेष्ठियों को नमस्कार करने में दृष्टि प्रधानतया गुणों की ओर रहती है, अवस्थाभेद की प्रधानता नहीं है। इसलिए यहाँ पक्षपात किसी भी प्रकार संभव नहीं है। अथवा आप्त की श्रद्धा से ही आप्त, आगम और पदार्थों के विषय में दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न होती है, इस बात को प्रसिद्ध करने के लिए भी आदि में अरिहंतों को नमस्कार किया गया है। श्री गौतमस्वामी भी कहते हैं-
जस्संतियं धम्मपहं णिगच्छे, तस्संतियं वेणयियं पउंजे। सक्कारए तं सिरपंचएण, काएण वाया मणसा य णिच्चं।।
जिनके समीप मैंने धर्ममार्ग को प्राप्त किया है उनके समीप विनय युक्त होकर प्रवृत्ति करता हूँ तथा उनका मैं शिरपंचक अर्थात् दोनों घुटने टेककर, दोनों हाथ जोड़कर और मस्तक को पृथ्वी पर झुकाकर पंचांग नमस्कारपूर्वक मन-वचन-काय से निरन्तर सत्कार करता हूँ।
१. ‘‘अग्निसमूहकार्यस्य पलालराशिदाहस्य तत्कणादप्युपलम्भात्। तस्मादाचार्या-दयोऽपि देवा इति स्थितम्।’’
इस महामंत्र के अर्थ को समझकर यह निश्चित हो जाता है कि ‘णमो अरिहंताणं’ और ‘णमो अरहंताणं’ दोनों पाठ शुद्ध हैं तथा अरिहंत और सिद्धों में रत्नत्रय पूर्ण प्रकट हो चुके हैं किन्तु आचार्य, उपाध्याय और साधु में ये रत्नत्रय एकदेश ही प्रकट हुए हैं, फिर भी ये तीनों परमेष्ठी भी पूज्य हैं, वंद्य हैं। सिद्धों के यद्यपि सम्पूर्ण कर्म समाप्त हो चुके हैं फिर भी अरिहंत परमेष्ठी उपदेशक होने से सर्वोपकारी हैं इसलिए उन्हें पहले नमस्कार करने में दोष नहीं है प्रत्युत गुण ही है, क्योंकि शुभपक्ष में किया गया पक्षपात, पक्षपात नहीं कहलाता है वह हित के लिए ही होता है। इस महामंत्र को पढ़ते समय प्रत्येक पदों के अर्थ का चिंतवन करना चाहिए।

महामंत्र की महिमा

णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।१।।
अर्थ-अर्हंतों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो और सर्व साधुओं को नमस्कार हो। पंचपरमेष्ठी वाचक इस महामंत्र में सम्पूर्ण द्वादशांग निहित है। यथा- ‘‘आचार्यों ने द्वादशांग जिनवाणी का वर्णन करते हुए प्रत्येक की पदसंख्या तथा समस्त श्रुतज्ञान अक्षरों की संख्या का वर्णन किया है। इस महामंत्र में समस्त श्रुतज्ञान विद्यमान है क्योंकि पंचपरमेष्ठी के अतिरिक्त अन्य श्रुतज्ञान कुछ नहीं है। अत: यह महामंत्र समस्त द्वादशांग जिनवाणीरूप है। इस महामंत्र का विश्लेषण करने पर निम्न निष्कर्ष सामने आते हैं- इस मंत्र में ५ पद और ३५ अक्षर हैं। णमो अरिहंताणं·७ अक्षर, णमो सिद्धाणं·५, णमो आइरियाणं·७, णमो उवज्झायाणं·७, णमो लोए सव्वसाहूणं· ९ अक्षर, इस प्रकार इस मंत्र में कुल ३५ अक्षर हैं। स्वर और व्यंजनों का विश्लेषण करने पर ऐसा प्रतीत होता है- यथा-ण्+अ+म्+ओ+अ+र्+इ+ह्+अं+त्+आ+ण्+अं। ण्+अ+म्+ओ+स्+इ+द्+ध्+आ+ण्+अं। ण्+अ+म्+ओ+आ+इ+र्+इ+य्+आ+ण्+अं। ण्+अ+म्+ओ+उ+व्+अ+ज्+झ्+आ+य्+आ+ण्+अं। ण्+अ+म्+ओ+ल्+ओ+ए+स्+अ+व्+व्+अ+स्+आ+ह्+उâ+ण्+अं।
इस तरह प्रथम पद में ६ व्यंजन, ६ स्वर, द्वितीय पद में ६ व्यंजन, ५ स्वर, तृतीय पद में ५ व्यंजन, ७ स्वर, चतुर्थ पद में ६ व्यंजन, ७ स्वर, पंचम पद में ८ व्यंजन, ९ स्वर हैं। इस मंत्र में सभी वर्ण अजंत हैं, यहाँ हलन्त एक भी वर्ण नहीं है। अत: ३५ अक्षरों में ३५ स्वर और ३० व्यंजन होना चाहिए था किन्तु यहाँ स्वर ३४ हैं। इसका प्रधान कारण यह है कि ‘णमो अरिहंताणं’ इस पद में ६ ही स्वर माने जाते हैं। मंत्रशास्त्र के व्याकरण के अनुसार ‘णमो अरिहंताणं’ पद के ‘अ’ का लोप हो जाता है। यद्यपि प्राकृत में ‘एङ:’त्रिविक्रम व्याकरण पृ. ४, सूत्र २१/२। -नेत्यनुवर्तते। एङि त्येदोतौ। एदोतो: संस्कृतोक्त: संधि: प्राकृते तु न भवति। यथा देवो अहिणंदणो, अहो अच्चरिअं, इत्यादि। सूत्र के अनुसार संधि न होने से ‘अ’ का अस्तित्व ज्यों का त्यों रहता है। ‘अ’ का लोप या खंडाकार नहीं होता है, किन्तु मंत्रशास्त्र में ‘बहुलम्’ सूत्र की प्रवृत्ति मानकर ‘स्वरयोरव्यवधाने प्रकृतिभावो लोपो वैकस्य।’जैन सिद्धांत कौमुदी, पृ. ४, सूत्र १/२/२। इस सूत्र के अनुसार ‘अरिहंताणं’ वाले पद के ‘अ’ का लोप विकल्प से हो जाता है अत: इस पद में ६ ही स्वर माने जाते हैं। अत: मंत्र में कुल ३५ अक्षर होने पर भी ३४ ही स्वर माने जाते हैं। इनमें जो द्धा, ज्झा, व्व से संयुक्ताक्षर हैं, उनमें से एक-एक व्यंजन लेने से ३० व्यंजन होते हैं। इस प्रकार से कुल स्वर और व्यंजनों की संख्या ३४±३०·६४ है। मूल वर्णों की संख्या भी ६४ ही है। प्राकृत भाषा के नियमानुसार अ, इ, उ और ए मूल स्वर तथा ज झ ण त द ध य र ल व स और ह ये मूल व्यंजन इस मंत्र में निहित हैं। अतएव ६४ अनादि मूलवर्णों को लेकर समस्त श्रुत-ज्ञान के अक्षरों का प्रमाण निम्न प्रकार निकाला जा सकता है। गाथा सूत्र निम्न प्रकार है-
चउसट्ठिपदं विरलिय दुगं च दाऊण संगुणं किच्चा। रूऊणं च कए पुण सुदणाणस्सक्खरा होंति।।
अर्थ-उक्त चौंसठ अक्षरों का विरलन करके प्रत्येक के ऊपर दो का अंक देकर परस्पर सम्पूर्ण दो के अंकों का गुणा करने से लब्ध राशि में एक घटा देने से जो प्रमाण रहता है, उतने ही श्रुतज्ञान के अक्षर होते हैं। इस नियम से गुणाकार करने पर-
एकट्ठ च च य छस्सत्तयं च च य सुण्णसत्ततियसत्ता। सुण्णं णव पण पंच य एक्वंâ छक्केक्कगो य पणयं च।।
अर्थात् एक आठ चार-चार-छह-सात-चार-चार-शून्य-सात-तीन-सात-शून्य-नौ-पाँच-पाँच-एक-छह-एक-पाँच, यह संख्या आती है। इस गाथा सूत्र के अनुसार १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ ये समस्त श्रुतज्ञान के अक्षर होते हैं। इस प्रकार णमोकार मंत्र में समस्त श्रुतज्ञान के अक्षर निहित हैं, क्योंकि अनादिनिधन मूलाक्षरों पर से ही उक्त प्रमाण निकाला गया है अत: संक्षेप में समस्त जिनवाणीरूप यह मंत्र है। इसका पाठ या स्मरण करने से कितना महान् पुण्य का बंध होता है तथा केवलज्ञान लक्ष्मी की प्राप्ति भी इस मंत्र की आराधना से होती है। ज्ञानार्णव में श्री शुभचन्द्राचार्य ने इस मंत्र की आराधना को बताते हुए लिखा है- त्रिविक्रम व्याकरण पृ. ४, सूत्र २१/२। २. जैन सिद्धांत कौमुदी, पृ. ४, सूत्र १/२/२। ‘‘इस लोक में जितने भी योगियों ने मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त किया है, उन सबने श्रुतज्ञानभूत इस महामंत्र की आराधना करके ही प्राप्त किया है। इस महामंत्र का प्रभाव योगियों के अगोचर है। फिर भी जो इसके महत्व से अनभिज्ञ होकर वर्णन करना चाहता है, मैं समझता हूँ कि वह वायुरोग से व्याप्त होकर ही बक रहा है। पापरूपी पंक से संयुत भी जीव यदि शुद्ध हुए हैं, तो इस मंत्र के प्रभाव से ही शुद्ध हुए हैं। मनीषीजन भी मंत्र के प्रभाव से ही संसार के क्लेश से छूटते हैं।’’श्रियमात्यन्तिकीं प्राप्ता योगिनो येऽत्र केचन। अमुमेव महामंत्रं, सु समाराध्य केवलम्।। (ज्ञानार्णव) मंगलमंत्र णमोकार : एक अनुचिंतन पुस्तक के आधार से। इसलिए इस महामंत्र की महिमा को अचिन्त्य ही समझना चाहिए।
Tags: Gyanamrat Part - 1
Previous post 01. प्रकृति प्रकरण Next post 09. नवदेवता पूजा

Related Articles

23. दशलक्षण धर्म

July 7, 2017Harsh Jain

18. आर्यिका चर्या

July 7, 2017jambudweep

09. सप्त परमस्थान

July 15, 2017Harsh Jain
Privacy Policy