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05.3 तपाचार एवं वीर्याचार

December 2, 2022BooksHarsh Jain

तपाचार एवं वीर्याचार


३.१ कायक्लेशादि रूप बारह प्रकार के तपों में कुशल एवं अग्लान रहना तथा उत्साहपूर्वक इन तपों का अनुष्ठान करना ‘तपाचार’ है। तपाचार के बाह्य और आभ्यन्तर की अपेक्षा दो प्रकार हैं—


३.२ बाह्य तप-


जो बाह्य जनों में प्रकट हो वह ‘बाह्यतप’ हैं। बाह्य—तप के छह भेद हैं—

३.२.१ अनशन तप-

चार प्रकार के आहार का त्याग करना ‘अनशन’ कहलाता है। यह साकांक्ष एवं निराकांक्ष के भेद से दो प्रकार का है-

साकांक्ष अनशन तप-काल की मर्यादापूर्वक भोजनाकांक्षा से युक्त होकर बेला, तेला, चौला, पांच उपवास, पन्द्रह दिवस, एक माह का उपवास, कनकावली, एकावली आदि तपश्चरण के विधान ‘साकांक्ष—अनशन’ तप है।

निराकांक्ष अनशन तप-मरण समय निकट समझकर जीवन पर्यन्त के लिए आहार शरीर आदि का त्याग ‘निराकांक्ष अनशन’ तप है। यह तीन प्रकार से होता है।

(१) भक्त प्रतिज्ञा-दो से लेकर अड़तालीस पर्यन्त निर्यापकों के द्वारा जिनकी परिचर्या की जाती है, जो अपनी ओर पर के उपकार की अपेक्षा रखते हैं ऐसे मुनि का जीवन पर्यन्त के लिए आहार का परित्याग ‘भक्त—प्रत्याख्यान’ है।

(२) इंगिनीमरण-जो उपकार की अपेक्षा सहित हैं और पर के उपकार से निरपेक्ष हैं वह ‘इंगिनी मरण’ है।

(३) प्रायोपगमन मरण-जिस मरण में अपने और पर की अपेक्षा नहीं है वह ‘प्रायोपगमन मरण’ है। ये तीन भेद पंडितमरण के अन्तर्गत हैं।

३.२.२ अवमौदर्य तप-

भूख से कम भोजन करना अर्थात् पुरुष का प्राकृतिक आहार बत्तीस कवल (ग्रास) प्रमाण होता है तथा स्त्रियों का अट्ठाईस ग्रास प्रमाण होता है। इनमें से एक—एक ग्रास क्रमश: कम आहार ग्रहण करते हुए एक ग्रास अथवा एक सिक्थ तक आहार ग्रहण करना ‘अवमौदर्य-तप’ है।

यह अवमौदर्य तप उत्तम क्षमा आदि दस धर्म, षडावश्यक, आतापन आदि योग, ध्यान, स्वाध्याय, चारित्र पालन, निद्राविजय में उपग्रह (उपकार) करता है, इतना ही नहीं वरन् इस तप से इन्द्रियां स्वच्छन्द प्रवृत्ति नहीं करतीं।

३.२.३ रस परित्याग तप-

आस्वादन रूप क्रिया—धर्म का नाम रस है। इस दृष्टि से दूध, दही, घी, तेल, गुड़, नमक आदि द्रव्यों तथा कटु तिक्त, कषायला, अम्ल और मधुर इस रस का पूर्णत: त्याग करना रस परित्याग तप है।

३.२.४ वृत्ति परिसंख्यान तप-

भोजन, भाजन, घर-बार इन्हें वृत्ति कहते हैं। इस वृत्ति का परित्याग अर्थात् परिमाण, नियन्त्रण, ग्रहण करना वृत्ति परिसंख्यान है।

३.२.५ कायक्लेश तप-

स्थान, शयन आदि धर्मोपकार के हेतुभूत विविध साधनों से शास्त्रानुसार विवेकपूर्वक वृक्षमूल, अभ्रावकाश, आतापनादि से शरीर को परिताप देना कायक्लेश तप है।

३.२.६ विविक्तशयनासन-

सामान्यत: इसका अर्थ है बाधारहित एकान्त स्थान में रहना। मूलाचार में कहा है कि तिर्यंच, मनुष्य सम्बन्धी, स्त्री जाति, सविकारिणी देवी अर्थात् भवनवासी, व्यन्तरादि से सम्बन्धित देवांगनाएं तथा गृहस्थ इन सबसे संसक्त घर, आवास आदि तथा अप्रमत्तजनों के संसर्ग से रहित एकान्त स्थानों में रहना विविक्त शयनासन तप है।


३.३ आभ्यन्तर तप-


चिन्तन, मनन और अनुशीलन द्वारा मन को एकाग्र शुद्ध और निर्मल बनाना यह आभ्यन्तर तप के कार्य हैं। आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार के हैं-

३.३.१ प्रायश्चित्त तप-

पूर्वकाल में किये हुए पापों का विनाश करके जिसके द्वारा आत्मा को निर्मल बनाया जाए वह ‘प्रायश्चित्त तप’ है। मूलाचार में प्रायश्चित्त के अन्यान्य आठ नामों का उल्लेख है-पूर्वकर्म क्षपण, क्षेपण, निर्जरण, शोधन, धावन, पुंछन, उत्क्षेपण और छेदन।

प्रायश्चित्त तप के भेद-

प्रायश्चित्त तप के दस भेद हैं।

१. आलोचना-आचार्य अथवा जिनदेव के समक्ष अपने में उत्पन्न हुए दोषों का चारित्राचारपूर्वक निवेदन करना ‘आलोचना’ है। इसके द्वारा श्रमण तीन शल्यों (माया, मिथ्यात्व एवं निदान) को दूरकर देता है। इससे हृदय में निर्मलता का संचार होता है और अन्तर—जीवन निर्दोष बनता है। आलोचना जिन दोषों से रहित होकर की जाती है वे दस दोष निम्नलिखित हैं—

(१) आकम्पित-अन्न, पान, उपकरण आदि देकर आचार्य को अपना आत्मीय बनाकर दोषों का निवेदन करना।

(२) अनुमानित-शरीर की शक्ति, आहार और बल की अल्पता दिखाकर अनुनयपूर्वक दीन वचनों से आचार्य को अनुमत करना, उनके मन में करुणा उत्पन्न कर दोष निवेदन करना।

(३) यद्दृष्ट–जो दोष दूसरे साधु देख चुके उनकी तो आलोचना कर लेना, बाकी दोष छिपा लेना।

(४) बादर-बड़े दोष कहना, छोटे छिपाना।

(५) सूक्ष्म-छोटे दोषों का निवेदन करना, बड़े छिपा लेना।

(६) छन्न-इसका अर्थ प्रच्छन्न है अर्थात् किसी बहाने दोष कथन कर उस दोष का उपयुक्त प्रायश्चित्त अपने गुरु से जानकर स्वत: प्रायश्चित्त ले लेना।

(७) शब्दाकुलित-जब सभी मिलकर एक साथ पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक आदि प्रतिक्रमण कर रहे हों तो उसी समय बीच में अपने दोष निवेदन करना ताकि आचार्य या दूसरे साधु उसे अच्छी तरह न सुन सकें।

(८) बहुजन-एक आचार्य से अपने दोष निवेदन करने पर उन्होंने जो प्रायश्चित्त दिया है, उस पर अश्रद्धा करके दूसरे आचार्य से प्रायश्चित्त पूछना।

(९) अव्यक्त-लघु प्रायश्चित्त के उद्देश्य से प्रायश्चित्त देने में अकुशल के समक्ष अपने दोष निवेदन करना।

(१०) तत्सेवी-जो अपने सदृश दोषों से युक्त हैं, उसी से अपने दोष निवेदन करना ताकि वह बड़ा प्रायश्चित्त न दे सकें।

२. प्रतिक्रमण-प्रमादवश कृत दोषों का शोधन करना ‘प्रतिक्रमण’ है अर्थात् कृत, कारित और अनुमोदना के द्वारा किये हुए पापों की निवृत्ति के लिए ‘मिच्छा मे दुव्ाäकडं’ मेरा दुष्कृत मिथ्या हो—ऐसा मानसिक पश्चात्ताप करना प्रतिक्रमण है। यह दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक आदि रूप है।

३. तदुभय-जिस दोष की शुद्धि आलोचना एवं प्रतिक्रमण इन दोनों के करने से हो वह ‘तदुभय’ है।

४. विवेक-जिस वस्तु के त्याग से दोष की विशुद्धि हो उन संसक्त (अप्रासुक) अन्न—पान—उपकरण आदि का त्याग ‘विवेक’ है।

५. व्युत्सर्ग-काल का नियम करके कायोत्सर्ग अर्थात् शरीर के व्यापार को रोककर एकाग्रतापूर्वक ध्येय वस्तु में उपयोग लगाना ‘व्युत्सर्ग’ है।

६. तप-अनशन, अवमौदर्य आदि करना तप है।

७. छेद-दोषों की लघुता या गुरुता के अनुसार उसकी निवृत्ति हेतु पक्ष, मास, वर्ष आदि काल प्रमाण की दीक्षा छेदकर कम कर देना ‘छेद’ नामक प्रायश्चित्त है।

८. मूल-विपरीत आचरण से उत्पन्न दोषों की शुद्धि के लिए चारित्र पर्याय का सर्वथा छेदकर नई दीक्षा देना ‘मूल’ नामक प्रायश्चित्त है।

९. परिहार-दोष करने वाले श्रमण को दोषानुसार पक्ष, मास आदि काल तक अपने संसर्ग से अलग कर देना तथा उससे किसी तरह का सम्पर्क न रखना ‘परिहार प्रायश्चित्त’ है।

१०. श्रद्धान-सम्यग्दर्शन को छोड़कर मिथ्यात्व में उन्मुख श्रमण को श्रद्धायुक्त बनाकर पुन: दीक्षित करना अथवा मानसिक दोष के होने पर उसके परिमार्जन के लिए ‘मेरा दोष मिथ्या हो’—ऐसा अभिव्यक्त करने को ‘श्रद्धान—प्रायश्चित्त’ कहते हैं। इस प्रकार प्रायश्चित्त के भेद—प्रभेद हैं।

३.३.२ विनय तप-

ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के अतिचार रूप अशुभ–क्रियाओं से निवृत्ति का नाम ‘विनय तप’ है। विनयतप के निम्नलिखित पांच भेद हैं-

१. दर्शन विनय-उपगूहन, स्थितिकरणादि अंगों को धारण करना तथा शंका, कांक्षा आदि दोषों का वर्जन करना ‘दर्शन विनय’ है।

२. ज्ञान विनय-श्रुतज्ञान के प्रति भक्ति, बहुमान आदि करना ‘ज्ञान—विनय’ है। जो संवर—निर्जरा का कारण है। यह ज्ञान सम्बन्धी विनय आठ प्रकार की होती है :

(१) काल विनय-द्वादशांग और चतुर्दश पूर्वों को कालशुद्धि से पढ़ना, व्याख्यान करना अथवा परिवर्तन करना ‘काल विनय’ है।

(२) ज्ञानविनय-हाथ पैर धोकर पर्यंकासन से बैठकर ग्रंथों का अध्ययन करना ‘ज्ञान विनय’ है।

(३) उपधान विनय-अवग्रह विशेष विनय के साथ पढ़ना ‘उपधान विनय’ है।

(४) बहुमान विनय-जो ग्रंथ पढ़ते हैं और जिनके मुख से सुनते हैं उस शास्त्र एवं गुरु दोनों की पूजा करना, उनके गुणों का स्तवन करना ‘बहुमान विनय’ है।

(५) अनिह्नव विनय-जिस ग्रंथ को पढ़ते हैं और जिस गुरु से पढ़ते हैं उनका नाम कीर्तित करना, उस ग्रंथ या गुरु का नाम नहीं छिपाना ‘अनिह्नव विनय’ है।

(६) व्यंजनशुद्ध विनय-शब्दों का शुद्ध पढ़ना ‘व्यंजनशुद्ध’ विनय’ है।

(७) अर्थशुद्ध विनय-शब्दों का अर्थ शुद्ध करना अर्थशुद्ध विनय है।

(८) तदुभय विनय-शब्द, अर्थ दोनों का शुद्ध रखना व्यंजनार्थ ‘उभय शुद्ध विनय’ है।

३. चारित्र विनय-इन्द्रियों का निरोध, कषायों का निग्रह तथा समिति, गुप्ति की रक्षा में प्रयत्न यह सब ‘चारित्र—विनय’ है।

४. तपो विनय-आतापन आदि उत्तर गुणों में उत्साह, उनका अच्छी तरह अभ्यास, श्रद्धा, उचित आवश्यकों में हानि—वृद्धि न करना तपोविनय है। इसके साथ—साथ तपोनिष्ठ साधु में और तप में भक्ति रखना, अन्य मुनियों की अवहेलना नहीं करना, आगम में कथित चारित्र वाले साधु का यह सब तपो विनय के अन्तर्गत है।

५. औपचारिक विनय-रत्नत्रय के धारक श्रमण के अनुकूल भक्तिपूर्वक प्रवृत्ति करना ‘औपचारिक विनय’ है। यह विनय तीन प्रकार की है।

(१) कायिक औपचारिक विनय-अपनी काय के द्वारा साधु वर्ग का जो यथायोग्य उपचार किया जाता है। यह ‘कायिक’ औपचारिक–विनय है। यह सात प्रकार की है।

१. अभ्युत्थान-आचार्य आदि गुरुजनों के आगमन पर आदरपूर्वक उठना।

२. सन्नति-ऋषियों को अंजुलि जोड़कर नमन करना।

३. आसनदान-गुरुजनों के आगमन पर आसन प्रदान करना।

४. अनुप्रदान-पुस्तक आदि देना।

५. कृतिकर्म-सिद्ध, श्रुत और गुरुभक्तिपूर्वक कायोत्सर्ग करना।

६. अनुव्रजन-प्रस्थान के समय गुरुओं के पीछे—पीछे चलना या थोड़ी दूर तक साथ जाना।

७. आसनत्याग-गुरुओं के आगमन पर अपना आसन छोड़ देना।

यह सब कायिक विनय के अन्तर्गत आता है।

(२) वाचिक औपचारिक विनय-पूज्य भावरूप बहुवचन युक्त, हित, मित, प्रिय, सूत्रानुवीची (आगमानुकूल) अनिष्ठुर, अकर्कश, उपशान्त, अगृहस्थ, अक्रिया और अनीहन (अपमानरहित) वचन बोलना ‘वाचिक उपचार—विनय’ है। इसके चार भेद हैं—

१. हितवचन-धर्म संयुक्त वचन बोलना।

२. मितवचन-fजसमें अक्षर कम हों, अर्थ बहुल हो ऐसे वचन बोलना।

३. परिमित वचन-हित मित वचन बोलना अर्थात् निष्प्रयोजन नहीं बोलना।

४. अनुवीचिभाषण-आगम से अविरुद्ध वचन बोलना।

(३) मानसिक औपचारिक विनय-िंहसादि पाप और विश्रुति रूप सम्यक्त्व की विराधना के परिणामों का त्याग करना तथा प्रिय और हित परिणामयुक्त होना ‘मानसिक—उपचार’ विनय है। इस विनय के दो भेद हैं-

१. अकुशल मननिरोध-पापास्रव करने वाले अशुभ मन का निरोध।

२. कुशल मनप्रवृत्ति-धर्म में चित्त को लगाना। औपचारिक विनय के उपर्युक्त तीनों भेदों में से प्रत्येक के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो–दो उपभेद भी होते हैं-

परोक्ष विनय-जब गुरु चक्षु आदि से परे दूर हैं तब उनकी जो विनय की जाती है वह ‘परोक्ष विनय’ है।

प्रत्यक्ष विनय-जब गुरु प्रत्यक्ष में हैं, चक्षु आदि इन्द्रियों के गोचर हैं तब उनकी विनय ‘प्रत्यक्ष—विनय’ है।

वस्तुत: विनय जिनशासन का मूल है, मोक्ष का द्वार है, विनय से संयम, तप व ज्ञान होता है। विनय के द्वारा आचार्य एवं सर्वसंघ आराधित होता है। विनय से आचार, जीव कल्प आदि गुणों का उद्योतन होता है। आत्मशुद्धि, निर्द्वंदता, आर्जव, मार्दव, लघुता, भक्ति एवं आह्लाद गुण प्रगट होते हैं। कीर्ति, मैत्री, मानभंजन, गुरुओं में बहुमान, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन और गुणों का अनुमोदन ये सब विनय के गुण हैं।

विनय से हीन मनुष्य की सम्पूर्ण शिक्षा निरर्थक है। विनय ही वास्तविक शिक्षा का फल है, विनय से अल्पज्ञानी भी कर्मों का क्षय कर लेता है। विनय ही सर्व कल्याणों का हेतु है।

३.३.३ वैयावृत्त्य तप-

यह आभ्यन्तर तप का तृतीय भेद है। जिसका अर्थ है—सेवा करना, कार्य में व्यावृत होना या धर्म साधना में सहायक प्रासुक वस्तु के द्वारा अपनी सेवा द्वारा सभी साधर्मिक साधुओं का कष्ट दूर करना, उन्हें सहयोग या अनुकूलता प्रदान करना ‘वैयावृत्त्य तप’ है।

आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणधर, नवदीक्षित बालमुनि, वृद्ध अर्थात्, वय, तप आदि गुणों में वृद्ध मुनियों से कुलों और गच्छों की सर्व सामर्थ्य से जैसे–शैयावकाश रूप ? निषद्या (आसन आदि) उपाधि, प्रतिलेखना, विशुद्ध आहार, औषधि, वाचना, विकिंचन और वन्दना द्वारा श्रमणों की सेवा करना ‘वैयावृत्त्य तप’ है।

जो मुनि मार्गजन्य श्रम से थक गये हों, जिन्हें रास्ते में चोर आदि ने सताया हो, सिंह—व्याघ्रादि जंगली जानवरों, दुष्ट राजाओं, नदी के द्वारा बाधा उत्पन्न होने से तथा महामारी जैसे रोग, दुर्भिक्ष आदि से पीड़ित होने पर उनका संग्रह करके अनुकूल स्थान में लाना, संरक्षण आदि करना वैयावृत्त्य तप है।

वैयावृत्त्य में कुशल श्रमण को ‘प्रज्ञा-श्रमण’ कहा गया है क्योंकि ऐसा श्रमण विनय तथा वैराग्ययुक्त, जितेन्द्रिय तथा सर्वसंघ का प्रतिपालक होता है।

३.३.४ स्वाध्याय तप-

स्वाध्याय तप की दो निरूक्तियाँ हैं-

(१) स्व + अध्याय। यहां स्व से तात्पर्य आत्मा के लिए हितकारक, ‘अध्याय’ का अर्थ अध्ययन अर्थात् आत्मा के लिए हितकारक परमागम का अध्ययन ‘स्वाध्याय’ है।

(२) सु + आ + अध्याय, यहां सु का अर्थ सम्यक््â शास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन—अध्यापन, श्रवण, मनन और चिन्तन को स्वाध्याय कहा जाता है।

जिनोपदिष्ट बारह अंगों एवं चौदह पूर्वों का उपदेश करना, प्रतिपादन आदि करना ‘स्वाध्याय तप’ है।

स्वाध्याय शील श्रमण पंचेन्द्रियों का संवर, मन, वचन, काय इन तीन गुप्तियों का पालन करता है। आगम और गुरु के प्रति विनयी रहता हुआ अपने चित्त को स्वाध्याय द्वारा एकाग्र करता है, आत्मस्वरूप का मनन करता है, अपने प्रकाशमय स्वरूप को जानकर सम्पूर्ण जग में प्रकाश बांटता है क्योंकि स्वाध्याय तो ज्ञानरूपी सूर्य को प्रकाशित करने का साधन है, जिसे अज्ञान के मेघों ने ढक रखा है।

स्वाध्याय के भेद-

स्वाध्याय के पांच भेद हैं-

वाचना-निर्दोष ग्रंथ व्याख्यान (प्रतिपादन) करना ‘वाचना’ है।

पृच्छना-संशय का उच्छेद करने या निर्णय की पुष्टि के लिए शास्त्रों के गूढ़ अर्थ को दूसरों से पूछना ‘पृच्छना’ है।

आम्नाय-पठित ग्रंथों को शुद्ध उच्चारणपूर्वक बार—बार दोहराना या पढ़ना ‘परिवर्तना’ है इसे ही आम्नाय कहते हैं।

अनुप्रेक्षा-जाने हुए अर्थ का मन में पुन:—पुन: मनन, चिंतन करना अनुप्रेक्षा है।

धर्मोपदेश स्वाध्याय-पठित परिचित या जानी हुई वस्तु का लौकिक फल की आकांक्षा के बिना रहस्य समझना या धर्मकथा आदि का अनुष्ठान करना या धर्मोपदेश देना।

स्वाध्याय में कालशुद्धि आदि का महत्त्व-स्वाध्याय तप में काल, द्रव्य, क्षेत्र और भाव इन चार शुद्धियों का विशेष महत्त्व है। इनकी शुद्धि के बिना स्वाध्याय करने में अनेक दोष हैं-

काल शुद्धि के चार भेद माने गये हैं-

(१) रात्रि का पूर्वभाग।

(२) दिन का पश्चिम भाग।

(३) वैरात्रिक काल।

(४) गोसर्गिक काल।

इस प्रकार इन चार कालों में से दिन का पूर्व और अपरकाल तथा रात्रि का पूर्व और अभीक्ष्णकाल स्वाध्याय के योग्य है। स्वाध्याय का प्रारम्भ काल (सूर्योदय के बाद) जंघाच्छाया अर्थात् सात पद है तथा समाप्तिकाल अपराह्न काल में जंघाच्छाया शेष रहने तक है। आषाढ़ मास में पूर्वाह्न के समय दो पद प्रमाण जंघाच्छाया तथा पौष मास में मध्याह्न के प्रारम्भ में चार पद प्रमाण जंघाच्छाया रहने पर स्वाध्याय समाप्ति का काल है क्योंकि आषाढ़ मास के अन्तिम दिन से प्रत्येक महीने दो-दो अंगुल छाया बढ़ते-बढ़ते पौष मास तक चार पद प्रमाण हो जाती है और उधर पौष मास से लेकर प्रत्येक महीने क्रमश: दो-दो अंगुल छाया कम होते हुए आषाढ़ मास के अन्तिम दिन में दो पद प्रमाण रह जाती है।

काल शुद्धि में जो ग्रंथ पढ़े जा सकते हैं वे हैं–सर्वज्ञ के मुख से अर्थ ग्रहण करके गणधरों द्वारा रचित द्वादशांग तथा प्रत्येक बुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्न दशपूर्वी—इनके द्वारा रचित सूत्र ग्रंथ किन्तु कालशुद्धि के बिना अस्वाध्याय काल में श्रमणों और आर्यिकाओं के लिए इन सूत्र ग्रंथों को पढ़ना योग्य नहीं है। उपर्युक्त सूत्रग्रंथों के अतिरिक्त अन्य ग्रंथ तो काल शुद्धि आदि न होने पर भी अस्वाध्याय काल में पढ़े जा सकते हैं। जैसे-आराधना निर्युक्ति, मरण—विभक्ति, संग्रह—स्तुतियां, प्रत्याख्यान, आवश्यक, धर्मकथा तथा इन जैसे और भी अन्यान्य ग्रंथ।

काल शुद्धि के साथ ही दिशा आदि से सम्बन्धित उत्पातों या विघ्नों में भी स्वाध्याय करने का निषेध किया है जैसे—
दिग्दाह-उत्पातवश कभी—कभी दिशाओं का अग्निवर्ण हो जाना।

उल्कापात-पुच्छल तारे का टूटना या तारे के आकार के पुद्गल पिण्ड का गिरना।

बिजली चमकना।

चडत्कार-मेघों में संघट्ट से वङ्कापात होना।

ओले गिरना।

इन्द्रधनुष दिखना।

दुर्गन्ध पैâलना।

लोहित-पीतवर्ण की सन्ध्या का होना।

दुर्दिन-पानी की सतत् वर्षा होते रहना एवं बादलों का निरन्तर आच्छादित रहना।

चन्द्र ग्रहण।

सूर्यग्रहण।

कल आदि उपद्रव।

धूमकेतु।

भूकम्प।

मेघों का गरजना आदि बहुत से दोषों के उपस्थित रहने पर स्वाध्याय वर्जित है।

काल शुद्धि के साथ द्रव्य, क्षेत्र एवं भाव-शुद्धि भी अनिवार्य है। चारों दिशाओं में यदि सौ हाथ प्रमाण दूर तक रक्त, मांस आदि अपवित्र पदार्थ दिखाई दें तो स्वाध्याय के समय अपने और दूसरों के मन में संक्लेश परिणाम नहीं होना चाहिए।

इस प्रकार सभी तपों के मध्य में स्वाध्याय तप का अपना विशेष महत्त्व है। सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट बारह प्रकार के अभ्यन्तर और बाह्य तपों में स्वाध्याय के समान न तो कोई तप कर्म है, न होगा।

३.३.५ ध्यान तप-

‘ध्यै चिन्तायाम्’ धातु से ध्यान शब्द बना है। जिसका अर्थ है-चित्त शुद्धि, एक विषय में चित्त का स्थिर करना ‘ध्यान’ है अर्थात् गमन, भोजन, शयन और अध्ययन आदि विविध—क्रियाओं में भटकने वाली चित्तवृत्ति का एक क्रिया में रोक देना निरोध है। जिस प्रकार वायुरहित प्रदेश में दीपशिखा अपरिस्पन्द रहती है, उसी तरह निराकुलदेश में एक लक्ष्य में बुद्धि और शक्तिपूर्वक रोकी गई चित्तवृत्ति बिना व्याक्षेप के वहीं स्थिर रहती है। इस निश्चल दीपशिखा के समान निश्चल रूप से अवभासमान ज्ञान ही ‘ध्यान’ है।

ध्यान तप के माध्यम से साधक चित्त की चंचलता को रोककर एकाग्रता द्वारा आत्मिक शक्ति का विकास करता हुआ मुक्ति पथ की ओर प्रयाण करता है।

ध्यान के भेद-ध्यान के अप्रशस्त और प्रशस्त ये दो मुख्य भेद हैं-इनमें आर्तध्यान और रौद्रध्यान–ये दो अप्रशस्त ध्यान हैं तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये दो प्रशस्त ध्यान हैं। इस प्रकार ध्यान के चार भेद हैं।

जैसे-चारों दिशाओं में बहने वाली वायु से गिरिराज (मेरू पर्वत) कभी चलायमान नहीं होता उसी प्रकार योगी को भी अविचलितरूप से ध्यान को निरन्तर ध्याते हुए कभी भी उपसर्ग आदि से विचलित नहीं होना चाहिए।

३.३.६ व्युत्सर्ग तप-

व्युत्सर्ग शब्द में वि का अर्थ विशिष्ट और उत्सर्ग का अर्थ त्याग अर्थात् त्याग करने की विशिष्ट विधि को व्युत्सर्ग कहते हैं। क्रोधादि रूप आभ्यन्तर और क्षेत्र, धन, धान्यादि रूप बाह्य परिग्रह का त्याग ‘व्युत्सर्ग—तप’ है। (इस प्रकार निसंगता, निर्भयता और जीवन की लालसा का त्याग ही ‘व्युत्सर्ग’है।)

आभ्यन्तर व्युत्सर्ग-मिथ्या, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, क्रोध, मान, माया, लोभ ये चौदह प्रकार के आभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग ‘आभ्यन्तर व्युत्सर्ग’ है।

बाह्य व्युत्सर्ग-क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयन, आसन, कुप्य और भांड ये बाह्य परिग्रह हैं, इनका परित्याग करना बाह्य व्युत्सर्ग है।

इन बारह प्रकार के तप से युक्त हो जो विधिपूर्वक अपने कर्मों का क्षयकर निर्ममतापूर्वक शरीर त्याग करते हैं वे अनुत्तर निर्वाण पद को प्राप्त होते हैं अतएव आध्यात्मिक उत्कर्ष की प्राप्ति हेतु साधना के क्षेत्र में ये तप दिव्य रसायन हैं।


३.४ वीर्याचार-


द्रव्य की स्वशक्ति विशेष का नाम ‘वीर्य’ है। ज्ञान, तप आदि शुभ कार्य के विषय में शक्ति का अतिक्रमण न करना और न ही शक्ति का छिपाना ‘वीर्याचार’ है।

आहार, औषधि आदि से उत्पन्न बल और वीर्य को न छिपाकर उसका उपयोग प्राणिसंयम, इन्द्रिय तथा तपश्चरण आदि में, प्रतिसेवा, प्रतिश्रवण एवं संवास तीन अनुमति दोष रहित यथोक्त चारित्र में, अपनी—अपनी आत्मा को युक्त करना ‘वीर्याचार’ है।
वीर्याचार का पालन तीन अनुमति दोष रहित होकर किया जाता है।

प्रतिसेवा अनुमति दोष-पात्र के उद्देश्य से लाई हुई आहारादि सामग्री का सेवन एवं ग्रहण करना।

प्रतिश्रवण अनुमति दोष-दाता द्वारा उद्देश्य की विज्ञप्ति के बाद भी यदि श्रमण आहार आदि तथा अन्य उपकरण ग्रहण करता है या ग्रहण के बाद अपने को लक्ष्य कर लायी हुयी सामग्री का ज्ञान होने पर भी कुछ न बोलना या उसका त्याग न करना ‘प्रतिश्रवण’ अनुमति दोष है।

संवास अनुमति दोष-सावद्य के ममत्ववश संक्लेश परिणाम उत्पन्न होना अर्थात् गृहस्थ के साथ सदा सम्बन्ध रखते हुए उपकरणादि के प्रति ममत्व भाव रखना तृतीय ‘संवास’ नामक अनुमति दोष है।

संयम युक्त होकर ही वीर्याचार का पालन किया जाता है। प्राणि संयम एवं इन्द्रिय संयम इन दो संयमों में प्राणि संयम के सत्रहभेद हैं-

प्राणि संयम-

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति—इन पंचकायिक जीवों द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय–इन चार प्रकार के त्रस जीवों तथा अजीवकाय की रक्षा करना—दस प्रकार का संयम है।

अप्रतिलेख-बिना देखे—शोधे पदार्थ उठाना-रखना।

दु:प्रतिलेख-असावधानीपूर्वक शोधन करना।

उपेक्षासंयम-संमूर्च्छनादि जीवों की उपेक्षा करना।

अपहरण संयम-पंचेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जीवों को एक जगह से निकालकर असावधानीपूर्वक दूसरे स्थानों में छोड़ देना, इन चार में प्रवृत्ति न करना एवं मन, वचन, काय की प्रवृत्ति जीव रक्षण में रखना, इस प्रकार सत्रह प्रकार का प्राणि संयम है।

इन्द्रिय संयम-पांच रस, पांच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्श तथा षड्ज, ऋषभ, गान्धार, माध्यम, पंचम, धैवत और निषाद—ये सप्त—स्वर एवं मन इन अट्ठाईस विषयों का निरोध करना अट्ठाईस प्रकार वâा ‘इन्द्रिय-संयम’ है। इन भेदों में से मन की प्रवृत्ति का निरोध नोइन्द्रिय संयम कहलाता है।

इस प्रकार संक्षेप में श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य का आत्मविशुद्धि हेतु उपयोग करना ही क्रमश: दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार कहलाता है।

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