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तप का महत्त्व

August 14, 2017Books, स्वाध्याय करेंHarsh Jain

तप का महत्त्व


बंधुओं! परमात्मा पद की प्राप्ति से पूर्व जिन—जिन सीढ़ियों का सहारा लेना पड़ता है उनमें से शक्तितस्तप की भावना अपने को तप की प्रेरणा दे रही है। संसारी प्राणी का परिभ्रमण कर्मों के कारण चल रहा है। संसार परिभ्रमण से छुटकारा पाने हेतु कर्मो का क्षय करना जरूरी है। कर्मों के क्षय के लिए तप का सहारा लेना पड़ता है। कर्म क्षमार्थं तप्यते इति तप: कर्मों के क्षय करने के लिये जो तप किया जाता है वही तप है।
इच्छानिरोधस्तप: इच्छाओं का निरोध करना भी तप है। मानव की असीम इच्छाएँ हैं उन असीम इच्छाओं को तप के माध्यम से ही रोका जा सकता है।
विषमता के, कटुता के, आवेश के क्षणों में समता रखना भी तप है। सहिष्णुता का विकास आपके जीवन में तप करता है।

प्रतिकूलता के क्षणों में अगर आप डगमगा नहीं जाते, धैर्य— साहस रखते हैं तो बहुत बड़ी साधना कहलाएगी । लौकिक क्षेत्र में भी बिना तपे कोई काम नहीं होता। सोना जितना तपता है उतना ही वह मूल्यवान होता है। बिना तपे रोटी को आप खा नहीं सकते । सुबह से लेकर शाम तक आप जो—जो भी कार्य करते हैं, प्रतिक्षण आप तपों का कार्य करते हैं तो रसोईघर में दही बड़ा, पूड़ी, पकवान आपकी क्षुधा मिटाते हैं उनको अग्नि परीक्षा में खरा उतरना पड़ता हैं, अगर वह अग्नि परीक्षा में खरे न उतरे तो आप उन्हें खा नहीं सकते। आचार्यों ने तप के छह बाह्य तथा छह अंतरंग इस प्रकार से बारह भेद किए हैं। बहिरंग तप अंतरंग तप की साधना में सहयोगी हैं। जिस प्रकार दूध को तपाने के लिए बर्तन सहयोगी है उसी प्रकार बहिरंग तप भी अंतरंग तपों में बर्तन के सदृश सहयोगी हैं । अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश ये ६ बाह्य तप हैं। प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्ति, स्वाध्याय, ध्यान, व्युत्सर्ग ये ६ अंतरंग तप हैं।
तीर्थंकर बनने की प्रक्रिया में आज वैयावृत्ति की भावना सेवा का संदेश देती है। इसे अंतरंग तपों में भी गिना गया है। ‘निशदिन वैयावृत्य करैया सो निश्चय भव नीर तरैया।’ वैयावृत्ति का सामान्य अर्थ सेवा— सुश्रुषा करना है। हाथ दबाने तक वैयावृत्ति सीमित नहीं है। किसी की परेशानी को अगर आप दूर कर देते हैं, किसी पीडित की पीड़ा को हर लेते हैं , किसी के दुख को आप दूर कर देते हैं, किसी बेसहारा को सहारा देते हैं तो वह भी वैयावृत्ति है।

आचार्यों ने वैयावृत्ति के दो भेद किए हैं निश्चय और व्यवहार। अपनी आत्मा की व्यथा को दूर कर देना, जन्म—जरा—मृत्यु के दुखों को दूर करना निश्चय वैयावृत्ति है। व्यवहार से परोपकार करना वैयावृत्ति है।
वैयावृत्ति का पात्र कौन हो सकता है ? जो नि:स्वार्थ भाव से दूसरे लोगों की सेवा कर सकता हैं, जिसके अंदर करुणा, दया, मैत्री की भावना रहती है वही वैयावृत्ति कर सकता है। साथ ही जिनके अंदर ग्लानी न हो, जुगुप्सा न हो वही वैयावृत्ति कर सकता है। अगर सामने वाला हमारा उपकार करता है तो उस उपकार का फल मैं भी चुकाऊँ , ऐसा नहीं सोचना चाहिए। अगर आप यह सोचते हैं कि इसने जो उपकार किया है उसका बदला मैं कब चुका पाऊँगा तो इसका मतलब यह हुआ कि उसके ऊपर आपत्ति, संकट आए और कब उसके संकट दूर करने के लिए मुझे अवसर मिले। अरे! हमें यह सोचना चाहिए कि किसी के ऊपर हम उपकार नहीं करते हैं बल्कि अपने कर्तव्य का पालन करते हैं।

अध्यात्म की दृष्टि से कोई किसी की वैयावृत्ति नहीं कर सकता। निमित्त , नैमित्तिक दृष्टि से परस्पर में समानता, परोपकार आदि की भावना काम करती है। दूसरों पर उपकार करके भूल जाना चाहिए, किंतु जिन्होंने हम पर उपकार किया है उनके उपकार का सदैव स्मरण करना चाहिए। वैयावृत्ति का अर्थ है बुराइयों की ओर से अपने आपको हटाकर अच्छाइयों की ओर ले जाना। घर—परिवार में आज परस्पर सेवा की भावना नहीं रही। अगर पुत्र—पिता की आज्ञा में चलता है तो यह भी वैयावृत्ति भावना का अंग है और अगर आप पिता जी के, सासू जी के पैर दबाते हैं लेकिन उनकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकते हैं तो यह वैयावृत्ति नहीं कहला सकती। गुरू की आज्ञा के अनुसार अगर आप चलते हैं तो वह भी वैयावृत्ति है।
वैयावृत्ति करने से गुणग्राह्यता, श्रद्धा, भक्ति , कर्म— निर्जरा, जिज्ञासा का पालन , वात्सल्य, निर्विचिकित्सा आदि १८ गुणों का प्रकटीकरण होता है।
विद्यार्थी अवस्था में विद्यार्थी १६-१७ साल कितना श्रम करता है तब कहीं वह डॉक्टर, इंजीनियर बन पाता है। एक व्यापारी भी कितना परिश्रम करता है, भूख, प्यास सहन करता है तभी धन कमा पाता है। एक पर्वतारोही पर्वत चढ़ते समय भूख,प्यास, सर्दी,गर्मी सहन करता है तभी वह लक्ष्य तक पहुँच पाता है। एक किसान चार माह तपस्या करता है तभी फसल प्राप्त कर पाता है। तपना जरूरी है।
तप की ओर कदम बढ़ाएँ तो निश्चित जीवन महान बन सकता है। जिन्होंने तप का आश्रय लिया वे महान बन गए और जो विषय—भोगों की ज्वाला में जलते रहते हैं, वह जीवन को दुर्गति की ओर ले जाते हैं। उत्तम तप की आराधना जीवन में हो। इच्छाएँ कम हों, ऐसी भावना भाएँ तो निश्चित ही जीवन महान बन सकता है।

जैन जागृति,अगस्त, २०१४

 

Tags: Solahkaran Bhavna
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