Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

तिथि के सम्बन्ध में केशवसेन और महासेन का मत!

February 10, 2017जैन व्रतjambudweep

तिथि के सम्बन्ध में केशवसेन और महासेन का मत


केषाञ्चित् धर्मघटिकाप्रमं सम्मतमस्ति च।
केषाञ्चििद्वशतिघटिकाप्रमं सम्मतमस्ति च।।६।।
केषाञ्चित् केशवसेनादीनां मते कर्णामृतपुराणदिषु धर्मघटिकाप्रमं मतम्।
केचिदाहु:—सेनादीनां काष्ठापारीणां मते िंवशतिघटीमतम्।
केचिदाहु:—सेनादीनां काष्ठापारीणां मते िंवशतिघटीमतम्।
तेषां ग्रन्थेषु सारसंग्रहादिषु तन्मतं तद्वयं दशप्रमं िंवशतिघटीप्रमं न मूलसंघरतसूरय: समाद्रियन्ते।
अतस्तद्वयं निर्मलसमं बहुभि: कुलाद्रिमतमाद्दतमित्यत
अनवच्छिन्नपारंपर्यात् तदुपदेशकबहुसूरिवाक्याच्च
सर्वजनसुप्रसिद्धत्वात् रसघटीमतं श्रेष्ठमन्यतकल्पनोपेतं
मतं सेननन्दिदेवा उपेक्षन्तेऽनाद्रियन्तेऽत: कुन्दकुन्दाद्युपदेशात्
रसघटिका ग्राह्या कार्या इत्यर्थ:।।६।।

अर्थ- किसी के मत (केशवसेन के मत) से दसघटी तिथि होने पर भी—सूर्योदय से लेकर दसघटी तक अर्थात् चार घण्टे तक तिथि के रहने पर दिनभर के लिए वहीं तिथि मानी जाती है। दूसरे आचार्यों के मत से बीसघटी अर्थात् सूर्योदय से आठ घंटों तक रहने पर ही तिथि दिनभर के लिए मानी गयी है। आचार्य केशवसेन के मत से सूर्योदय काल में दसघटी रहने पर ही तिथि ग्राह्य मान ली जाती है। सेनगण और काष्ठपारीणों के मत में बीसघटी रहने पर ही तिथि पूरी मानी जाती है। इन दोनों सम्प्रदायों के मतों को—दस घटी और बीसघटी वाले मतों को मूल संघ के आचार्य प्रमाण नहीं मानते हैं अत: इन दोनों मतो के समान निर्मल बहुतों के द्वारा मान्य कुलाद्रिमत माना गया है। इस मत के द्वारा सर्मिथत निर्दोष परम्परा से प्राप्त तथा इस निर्दोष परम्परा के उपदेशक आचार्यों के वचनों से एवं सभी मनुष्यों में प्रसिद्ध होने से छ:घटी प्रमाण तिथि का प्रमाण माना गया है। अन्य जो तिथिका मान कहा गया है, वह कल्पनामात्र है, समीचीन नहीं है। इसकी सेन और नन्दिगण के आचार्य उपेक्षा अर्थात् अनादर करते हैं। अतएव कुन्दकुन्दादि आचार्यों के उपदेश से सभी मतों की अपेक्षा छ:घटी प्रमाण तिथि का मान ग्राह्य है।

विवेचन

जिस प्रकार तारीख सदा २४ घण्टे तक रहती है, उस प्रकार तिथि सदा २४ घण्टे तक नहीं रहती। तिथि में वृद्धि और ह्रास होता रहता है। कभी कभी एक तिथि दो दिन तक जाती है, जिसे तिथि की वृद्धि कहते हैं। कभी एक तिथि का लोप हो जाता है, जिसे अवम या क्षयतिथि कहते हैं। अधिक से अधिक एक तिथि २६ घंटा ५४ मिनट की हो सकती है अर्थात् पहले दिन जो तिथि सूर्योदय से आरम्भ होती है, वह अगले दिन सूर्योदय के २ घंटा ५४ मिनट तक रह सकती है। एक तिथि का घटयात्मक या दण्डात्मक मान ६७ घटी १५ पल होता है। प्राय: ६० घटी प्रमाण एकाध ही तिथि आती है। प्रतिदिन हीनाधिक प्रमाण तिथि होती रहती है। अब प्रश्न यह उठता है कि जब ६० घटी प्रमाणतिथि न हो तो व्रतादिके लिए कौनसी तिथि ग्रहण करनी चाहिए। क्योंकि पाँच घटी के हिसाब से तिथि वृद्धि और छ:घटी के हिसाब से तिथिक्षय होता है।

उदाहरण

ज्येष्ठ शुक्ला पञ्चमी मंगलवार को ५ घटी ३० पल है। जिस व्यक्ति को पञ्चमी का व्रत करना है, क्या वह मंगलवार को पञ्चमी का व्रत करेगा। यदि मंगलवार को व्रत करता है तो उस दिन ५ घटी ३० पल अर्थात् सूर्योदय के २ घण्टा १२ मिनट के पश्चात् षष्ठी तिथि आ जाती है। व्रत उसे पञ्चमी का करना है षष्ठी का नहीं, फिर वह किस प्रकार व्रत करे। आचार्य ने विभिन्न मत—मतान्तरों का खण्डन करते हुए कहा है कि जिस दिन सूर्योदयकाल में ६ घटी से न्यून तिथि हो उस दिन उस तिथि सम्बन्धी व्रत नहीं करना चाहिए; किन्तु उसके पहले दिन व्रत करना चाहिए। जैसे ऊपर के उदाहरण में पञ्चमी का व्रत मंगलवार को न कर सोमवार को ही करना पड़ेगा। क्योंकि मंगलवार को पञ्चमी ६ घटी से कम है, यदि इस दिन पञ्चमी ६ घटी १५ पल होती तो यह व्रत इसी दिन किया जाता। तिथियों का मान—घटी, पल प्रत्येक पञ्चांग में लिखा रहता है। व्रत के सिवा अन्य कार्यों के लिए वर्तमान तिथि ही ग्रहण की जाती है। अर्थात् जिस कार्य का जो काल है, उस काल में व्याप्त तिथि जब हो, तभी उसको करना चाहिए। उदाहरणार्थ यों कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति को ज्येष्ठ शुक्ला पञ्चमी में विद्यारम्भ संस्कार सम्पन्न करना है। ज्येष्ठ पञ्चमी मंगलवार को ५ घटी ३० पल है तथा सोमवार को ज्येष्टसुदी चतुर्थी १० घटी १५ पल है। विद्यारम्भ के लिए मंगलवार की अपेक्षा सोमवार श्रेष्ठ होता है, सोमवार को चतुर्थी ६ घटी से ऊपर है, अत: व्रत की दृष्टि से इस दिन चतुर्थी ही कहलायेगी, पर यों १० घटी १५ पल के उपरान्त पञ्चमी मानी जायेगी। १० घटी १५ पल के ४ घण्टा ६ मिनट हुए। सूर्योदय इस दिन ५ बजकर २० मिनट पर होता है, अत: ९ बजकर २६ मिनट के पश्चात् सोमवार को विद्यारम्भ किया जा सकता है। यात्रा के लिए भी यही बात है। यदि किसी को पश्चिम दिशा में जाना है तो वह सोमवार को पञ्चमी तिथि में ९ बजकर २६ मिनट के उपरान्त जायगा तथा पूर्व में जाने वाला मंगलवार को पञ्चमी तिथि के रहते हुए प्रात:काल ७ बजकर ३२ मिनट तक यात्रारम्भ करेगा। दान, अध्ययन, शान्ति—पौष्टिक कार्य, आदि के लिए सूर्योदय काल की तिथि ही ग्राह्य मानी गयी है।१ तिथियों की नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा संज्ञाएँ बतायी गयी हैं२। प्रतिपदा, षष्टी और एकादशी की नन्दा; द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी की भद्रा संज्ञा; तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी की जया; चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी की रिक्ता संज्ञा एवं पञ्चमी, दशमी और पूणर््िामा या अमावस्या की पूर्णा संज्ञा है। नन्दा संज्ञक तिथियाँ मंगलवार को, रिक्ता संज्ञक तिथियाँ शनिवार को एवं पूर्णा संज्ञक तिथियाँ बृहस्पतिवार को पड़ें तो सिद्धा कहलाती हैं। सिद्धा तिथियों में किया गया व्यापार, अध्ययन, देन—लेन अथवा किसी भी प्रकार का नवीन कार्य सिद्ध होता है। नन्दा संज्ञक तिथियों में चित्रविद्या, उत्सव, गृहनिर्माण, तान्त्रिक कार्य (जड़ी, बूटी, ताबीज आदि देने के कार्य), कृषि सम्बन्धी कार्य एवं गीत, नृत्य प्रभृति कार्य सुचारु रूप से सम्पन्न होते हैं। भद्रा संज्ञक तिथियों में विवाह, आभूषणनिर्माण, गाड़ी की सवारी, एवं पौष्टिक कार्य; जयासंज्ञक तिथियों में संग्राम, सैनिकों का भर्ती करना, युद्ध क्षेत्र में जाना एवं खर और तीक्ष्ण वस्तुओं का संचय करना; रिक्ता संज्ञक तिथियों में शस्त्रप्रयोग, विषप्रयोग, निन्द्यकार्य, शास्त्रार्थ आदि कार्य एवं पूर्णा संज्ञक तिथियों में माङ्गलिक कार्य, विवाह, यात्रा, यज्ञोपवीत आदि कार्य करना अच्छा होता है। अमावस्या को मांगलिक कार्य नहीं किये जाते है।। इस तिथि में प्रतिष्ठा, जापारम्भ, शान्ति और पौष्टिक कार्य भी करने का निषेध किया गया है। चतुर्थी, षष्ठी, अष्टमी, नवमी, द्वादशी और चतुर्दशी इन तिथियों की पक्षरन्ध्र संज्ञा है। इनमें उपनयन, विवाह, प्रतिष्ठा गृहारम्भ आदि कार्य करना अशुभ बताया है। यदि इन तिथियों में कार्य करने की अत्यन्त आवश्यकता हो तो इनके प्रारम्भ की पाँच घटिकाएँ अर्थात् दो घण्टे अवश्य त्याज्य हैं। अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त तिथियों में सूर्योदय दो घण्टे बाद कार्य करना चाहिए। रविवार को द्वादशी, सोमवार को एकादशी, मंगलवार को पञ्चमी, बुधवार को तृतीया, बृहस्पतिवार को षष्ठी, शुक्रवार को अष्टमी और शनिवार को नवमी तिथि के होने पर दग्धयोग कहलाता है। इस योग में कार्य करने से नाना प्रकार के विघ्न आते हैं। अभिप्राय यह है कि वार और तिथियों के संयोग से कुछ शुभ और अशुभ योग बनते हैं। यदि रविवार को द्वादशी तिथि हो तो दग्धयोग कहलाता है, इसमें शुभ कार्य आरम्भ नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार आगे वाली तिथियों को भी समझना चाहिए। रविवार को चतुर्थी, सोमवार को षष्टी, मंगलवार को सप्तमी, बुधवार को द्वितीया, बृहस्पतिवार को अष्टमी, शुक्रवार को नवमी और शनिवार को सप्तमी तिथि विषमयोग संज्ञक होती हैं। अर्थात् उपर्युक्त तिथियाँ रवि आदि बारों के साथ मिलने से विषम हो जाती हैं, इन विष योगों में भी कोई शुभ कार्य आरम्भ नहीं करना चाहिए। नाम के समान ही यह योग फल देता है। रविवार को द्वादशी, सोमवार को षष्टी, मंगलवार को सप्तमी, बुधवार को अष्टमी, बृहस्पतिवार को नवमी, शुक्रवार को दशमी और शनिवार को एकादशी तिथि हुताशनयोग संज्ञक होती हैं। इन तिथियों में भी रवि आदि वारों के संयोग होने पर शुभ कार्य करना त्याज्य है।
दग्ध विष—हुताशन योग बोधक चक्र रवि. सोम. म. बुध. बृह. शुक्र. शनि. योग १२ ११ ५ ३ ६ ८ ९ दग्धयोग ४ ६ ७ २ ८ ९ ७ विषयोग १२ ६ ७ ८ ९ १० ११ हुताशनयोग
चैत्र में दोनों पक्षों की अष्टमी, नवमी; वैशाख में दोनों पक्षों की द्वादशी; ज्येष्ठ में कृष्णपक्ष की चतुर्दशी, शुक्लपक्ष की त्रयोदशी; आषाढ़ में शुक्लपक्ष की सप्तमी; कृष्णपक्ष की षष्टी, श्रावण में द्वितीया; तृतीया, भाद्रपद में प्रतिपदा, द्वितीया; आश्विन में दशमी, एकादशी; र्काितक में कृष्णपक्ष की पंचमी, शुक्लपक्ष की चतुर्दशी; मार्गशीर्ष में सप्तमी, अष्टमी; पौष में चतुर्थी, पंचमी; माघ में कृष्णपक्ष की पंचमी और शुक्लपक्ष की षष्टी एवं फाल्गुन में शुक्लपक्ष की तृतीया मास शून्य संज्ञक हैं। इन तिथियों में मांगलिक कार्य आरम्भ करने से वंश और धन की हानि होती है। ज्योतिष शास्त्र में उपर्युक्त तिथियाँ निर्बल बतायी गयी हैं। इनमें विद्यारम्भ, गृहारम्भ, वेदीप्रतिष्ठा, पंचकल्याणक, जिनालयारम्भ, उपनयन आदि कार्य नहीं करने चाहिए। मेष और कर्क़ राशि के सूर्य में१ षष्टी, मीन और धन के सूर्य में द्वितीया, वृष और कुम्भ के सूर्य में चतुर्थी, कन्या और मिथुन के सूर्य में अष्टमी,सिंह और वृश्चिक के सूर्य में दशमी, मकर और तुला के सूर्य में द्वादशी तिथि दग्धा संज्ञक बतायी गयी है। मतान्तर से धनु और मीन के सूर्य में द्वितीया, वृष और कुम्भ के सूर्य में चतुर्थी, मेष और कर्क़ के सूर्य में षष्ठी, मिथुन और कन्या के सूर्य में अष्टमी, सिंह और वृश्चिक के सूर्य में दशमी एवं तुला और मकर के सूर्य में द्वादशी तिथि सूर्य—दग्धा संज्ञक होती हैं। कुम्भ और धनु के चन्द्रमा में द्वितीया, मेष और मिथुन के चन्द्रमा में चतुर्थी तुला और सिंह के चन्द्रमा में षष्टी, मकर और मीन के चन्द्रमा में अष्टमी, वृष और कर्क़ के चन्द्रमा में दशमी एवं वृश्चिक और कन्या के चन्द्रमा में द्वादशी तिथि चन्द्र—दग्धा कहलाती हैं। इन तिथियों में उपनयन, प्रतिष्ठा गृहारम्भ आदि कार्य करना र्विजत है।
सूर्यदग्धा तिथि यन्त्र धनु और मीन के सूर्य में २ मिथुन और कन्या के सूर्य में ८ वृष और कुम्भ के सूर्य में ४ सिंह और वृश्चिक में सूर्य में १० मेष और कर्क़ के सूर्य में ६ तुला और मकर के सूर्य में १२चन्द्रदग्धा तिथि यन्त्र कुम्भ और धनु के चन्द्रमा में २ मकर और मीन के चन्द्रमा में ८ मेष और मिथुन के चन्द्रमा में ४ वृष और कर्क़ के चन्द्रमा में १० तुला और िंसह के चन्द्रमा में ६ वृश्चिक और कन्या के चन्द्रमा में १२ इस प्रकार विभिन्न कार्यों के लिए शुभाशुभ तिथियों का विचारकर अशुभ तिथियों का त्याग करना चाहिए। प्रत्येक शुभ—कार्य में समय शुद्धि का विचार करना परमावश्यक है। व्रतारम्भ के लिए तिथि का प्रमाण छ: घटी सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया है।

Previous post लब्धि विधान व्रत की विधि/महिमा Next post तीर्थंकर पंचकल्याणक तिथि व्रत!
Privacy Policy