सर्वज्ञ भगवान से अवलोकित अनंतानंत अलोकाकाश के बहुमध्य भाग में ३४३ राजू प्रमाण पुरुषाकार लोकाकाश है। यह लोकाकाश जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल इन पांचों द्रव्यों से व्याप्त है। आदि और अन्त से रहित-अनादि अनंत है, स्वभाव से ही उत्पन्न हुआ है। छह द्रव्यों से सहित यह लोकाकाश स्थान निश्चय ही स्वयं प्रधान है। इसकी सब दिशाओं में नियम से अलोकाकाश स्थित है।
इस लोक के ३ भेद हैं-अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक।
अधोलोक का आकार स्वभाव से वेत्रासन के सदृश, मध्यलोक का आकार खड़े किए हुए मृदंग के ऊपरी भाग के समान एवं ऊर्ध्वलोक का आकार खड़े हुए मृदंग के सदृश है।
सम्पूर्ण लोक की ऊँचाई १४ राजू प्रमाण है एवं मोटाई सर्वत्र ७ राजू है।
अधोलोक की ऊँचाई ७ राजू, मध्यलोक की ऊंचाई एक लाख ४० योजन एवं ऊर्ध्वलोक की ऊंचाई
७ राजू प्रमाण है। असंख्यातों योजनों का एक राजू होता है। १४ राजू ऊंचे लोक में ७ राजू में नरक एवं ७ राजू में स्वर्ग हैं, इन दोनों के मध्य में एक लाख ४० योजन ऊंचा सुमेरु पर्वत है, बस इसी सुमेरू प्रमाण ऊँचाई वाला मध्यलोक है जो कि ऊर्ध्वलोक का कुछ भाग है और वह राजू में ना कुछ के समान है अतएव ऊँचाई के वर्णन में ७ राजू में अधोलोक एवं सात राजू में ऊर्ध्वलोक कहा गया है।
लोक की चौड़ाई का प्रमाण-नरक के तलभाग में चौड़ाई ७ राजू है। घटते-घटते यह चौड़ाई मध्यलोक में एक राजू रह गई है, पुनः मध्यलोक से ऊपर बढ़ते-बढ़ते ब्रह्म लोक-पांचवे स्वर्ग तक चौड़ाई पुनः एक राजू रह गई है।
त्रसनाली का प्रमाण-तीनों लोकों के बीचोंबीच में एक राजू चौड़ी एवं एक राजू मोटी तथा कुछ कम १३ राजू ऊंची त्रसनाली है। इस त्रसनाली में ही त्रस जीव पाये जाते हैं।
अधोलोक के राजू का वर्णन-मृदंगाकार अधोलोक में रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा ये सात पृथिवियां हैं, जो कि कुछ कम एक-एक राजू के अन्तराल से हैं अर्थात् इन पृथिवियों की मोटाई क्रम से एक लाख ८० हजार योजन, ३२ हजार योजन, २८ हजार योजन आदि है। मध्यलोक के अधोभाग से लेकर पहला राजू शर्करा पृथ्वी के अधोभाग में होता है अर्थात् एक राजू में रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा ये दोनों ही पृथ्वी हैं, इसके आगे दूसरा राजू प्रारम्भ होकर बालुकाप्रभा के अधोभाग में पूर्ण होता है। तीसरा राजू पंकप्रभा पृथ्वी के अधोभाग में समाप्त होता है। इसके अनन्तर चौथा राजू धूमप्रभा के अधोभाग में, पांचवा राजू तमःप्रभा के अधोभाग में, छठा राजू महातमःप्रभा के अन्त में एवं सातवां राजू अधोलोक के तलभाग में समाप्त होता है। मतलब यह है कि एक राजू में २ नरक, ५ राजू में पांच नरक, ऐसे ६ राजू में ७ नरक एवं एक राजू में निगोद भाग स्थित है-ऐसा समझना चाहिए।
अधोलोक के तल भाग में | ७ राजू |
सातवीं पृथ्वी के निकट | ६१/७ राजू |
छठी पृथ्वी के निकट | ५२/७ राजू |
पांचवी पृथ्वी के निकट | ४३/७ राजू |
चौथी पृथ्वी के निकट | ३४/७ राजू |
तीसरी पृथ्वी के निकट | ३४/७ राजू |
दूसरी पृथ्वी के निकट | १६/७ राजू |
प्रथम पृथ्वी के निकट | १६/७ राजू |
सम्पूर्ण मध्यलोक की चौड़ाई एक राजू मात्र ही है।
ऊर्ध्वलोक में राजू के प्रमाण का वर्णन-मध्यलोक के ऊपरी भाग से सौधर्म विमान के ध्वजदण्ड तक एक लाख ४० योजन कम ११/२ राजू प्रमाण ऊंचाई है। इसके आगे माहेन्द्र और सानत्कुमार के ऊपरी भाग तक ११/२ राजू पूर्ण होता है, अनन्तर ब्रह्मोत्तर के ऊपरी भाग में १/२ राजू, कापिष्ठ के ऊपरी भाग में १/२ राजू, महाशुक्र के ऊपरी भाग में १/२ राजू एवं सहस्रार के ऊपरी भाग में १/२ राजू, आनत के ऊपरी भाग में १/२ राजू, आरण के ऊपरी भाग में १/२ राजू समाप्त होता है। पुनः एक राजू की ऊँचाई में ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश, ५ अनुत्तर एवं सिद्धशिला हैं।
११/२+११/२+१/२+१/२+१/२+१/२+१/२+१/२+१=७ राजू
सौधर्म, ईशान स्वर्ग के अन्त में चौड़ाई | २५/७ राजू |
सानत्कुमार, माहेन्द्र स्वर्ग के अन्त में चौड़ाई | ४३/७ राजू |
ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर स्वर्ग के अन्त में चौड़ाई | ५ राजू |
लांतव, कापिष्ठ स्वर्ग के अन्त में चौड़ाई | ४३/७ राजू |
शुक्र, महाशुक्र स्वर्ग के अन्त में चौड़ाई | ३६/७ राजू |
सतार, सहस्रार स्वर्ग के अन्त में चौड़ाई | ३६/७ राजू |
आनत, प्राणत स्वर्ग के अन्त में चौड़ाई | २५/७ राजू |
आरण, अच्युत स्वर्ग के अन्त में चौड़ाई | २१/७ राजू |
९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश ५ अनुत्तर एवं सिद्धशिलात्मक चौड़ाई | १ राजू |
अपने-अपने अन्तिम इन्द्रक विमान संबंधी ध्वजदण्ड के अग्रभाग तक उन-उन स्वर्गों का अंत समझना चाहिए और लोक का जो अन्त है वही कल्पातीत भूमि का अंत है।
जैन सिद्धान्त में ८ पृथ्वी मानी गई हैं। ७ नरक की ७ पृथ्वी एवं एक मोक्ष पृथ्वी ऐसे पृथ्वी के ८ भेद हैं।
इस लोकाकाश को चारों तरफ से वेष्टित करके तीन वातवलय हैं। ये वायुकायिक जीवों के शरीर स्वरूप हैं। यद्यपि वायु अस्थिर स्वभाव वाली है फिर भी ये तीनों वातवलय स्थिर स्वभाव वाले वायुमण्डल हैं। इनके १-घनोदधिवातवलय, २-घनवातवलय एवं ३-तनुवालवलय ये तीन भेद हैं।
घनोदधि वातवलय गोमूत्र वर्ण वाला है, घनवात मूंग के समान वर्ण वाला एवं तनुवात अनेक वर्ण वाला है। चारों तरफ से लोक को वेष्टित करके प्रथम घनोदधि वातवलय स्थित है। इस घनोदधि को वेष्टित करके घनवात एवं घनवात को वेष्टित करके तनुवालवलय स्थित है। तनुवातवलय के चारों तरफ अनन्त अलोकाकाश है।
आठ पृथिवियों के नीचे तलभाग में एक राजू की ऊंचाई तक इन तीनों वायुमण्डलों में से प्रत्येक की मोटाई बीस हजार योजन प्रमाण है। सातवें नरक में पृथिवी के पार्श्व भाग में क्रम से इन तीनों वातवलयों की मोटाई सात, पांच और चार योजन है। इसके ऊपर मध्यलोक के पार्श्व भाग में पांच, चार और तीन योजन प्रमाण है। इसके आगे तीनों वायु की मोटाई ब्रह्मस्वर्ग के पार्श्व भाग में क्रम से ७, ५ और ४ योजन है तथा ऊर्ध्वलोक के अन्त में पार्श्व भाग में ५, ४ व ३ योजन प्रमाण है।
लोकशिखर के ऊपर तीनों वातवलयों की मोटाई क्रमशः २ कोस, एक कोस और कुछ कम एक कोस प्रमाण है अर्थात्-
लोक के शिखर पर-२ कोस, एक कोस, ४२५ धनुष कम एक कोस (१५७५ धनुष)।
यह लोक तल में ७ राजू, मध्य में एक, पांचवे स्वर्ग में ५ और अन्त में एक राजू है। इन चारों स्थानों की चौड़ाई को जोड़ देने से ७+१+५+१=१४ राजू हुए । इस १४ में ४ का भाग देने से १४/४=३ १/२ राजू
हुए । इसमें लोक के दक्षिण-उत्तर की मोटाई को गुणा कर देने से ३१/२*७=२४१/२ हुए। फिर इस चौड़ाई और मोटाई के गुणनफल में १४ राजू का गुणा कर देने से २४१/२*१४=३४३ राजू हुए। इस लोकाकाश का घनफल ३४३ राजू प्रमाण है।
अधोलोक में सबसे पहली मध्यलोक से लगती हुई रत्नप्रभा पृथ्वी है। इससे कुछ कम एक राजू नीचे शर्कराप्रभा है। इसी प्रकार से एक-एक राजू नीचे बालुकाप्रभा आदि पृथ्वियाँ हैं।
घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये नाम भी इन सातों ही पृथ्वियों के अनादिनिधन हैं।
रत्नप्रभा पृथ्वी के ३ भाग हैं-खरभाग, पंकभाग और अब्बहुल भाग।
रत्नप्रभा पृथ्वी १ लाख ८० हजार योजन मोटी है। इसमें खरभाग १६,००० योजन, पंक भाग ८४,००० योजन एवं अब्बहुलभाग ८०,००० योजन का है।
इसमें से भी खरभाग १६ भेदों से सहित है।
चित्रा, वज्रा, वैडूर्या, लोहिता, कामसारकल्पा, गोमेदा, प्रवाला, ज्योतिरसा, अंजना, अंजनमूलिका, अंका, स्फटिका, चन्दना, सवर्थिका, वकुला और शैला ये १६ भेद हैं।
खरभाग की मोटाई १६००० योजन है एवं ये उपर्युक्त पृथ्वियां भी सोलह हैं। प्रत्येक पृथ्वी एक-एक हजार योजन प्रमाण मोटाई वाली है। लम्बाई और चौड़ाई से ये पृथ्वियां लोक के बराबर हैं।
इस मध्यलोक में सबसे प्रथम चित्रा पृथ्वी है। जिसके ऊपर के भाग पर ही मध्यलोक की रचना है। इस चित्रा पृथ्वी में अनेक वर्णों से युक्त महीतल, शिलातल, उपपाद, बालु, शक्कर, शीशा, चांदी, सुवर्ण इन के उत्पत्तिस्थान वज्र, लोहा, तांबा, रांगा, मणिशिला, सिंगरफ, हरिताल, अंजन, प्रवाल, गोमेद, रुचक, कदंब, स्फटिकमणि, जलकांतमणि, सूर्यकांतमणि, चन्द्रकांतमणि, वैडूर्य, गेरु, चन्द्राश्म आदि विविध वर्ण वाली अनेक धातुएँ हैं इसीलिए इस पृथ्वी का ‘चित्रा’ नाम सार्थक है।
खरभाग और पंकभाग में भवनवासी तथा व्यंतरवासी देवोंं के निवास हैं। अब्बहुल भाग में प्रथम नरक के बिल हैं जिनमें नारकी लोगों के आवास हैं।
यह पहली रत्नप्रभा पृथ्वी बहुत प्रकार के रत्नों से सहित शोभायमान होती है अत: इसका ‘रत्नप्रभा’ नाम सार्थक है।
रत्नप्रभा | १ लाख ८० हजार योजन |
शर्कराप्रभा | ३२००० योजन |
बालुकाप्रभा | २८००० योजन |
पंकप्रभा | २४००० योजन |
धूमप्रभा | २०००० योजन |
तम:प्रभा | १६००० योजन |
महातम:प्रभा | ८००० योजन |
ये सातों ही पृथ्वियां ऊर्ध्व दिशा को छोड़ शेष ९ दिशाओं में घनोदधि वातवलय से लगी हुई हैं परन्तु आठवीं मोक्षपृथ्वी दशों दिशाओं में ही घनोदधि वातवलय को छूती है।
प्रथम पृथ्वी के | ३०,००००० बिल |
द्वितीय पृथ्वी के | २५,००००० बिल |
तृतीय पृथ्वी के | १५,००००० बिल |
चौथी पृथ्वी के | १०,००००० बिल |
पांचवीं पृथ्वी के | ३,००००० बिल |
छठी पृथ्वी के | ९९,९९५ बिल |
एवं सातवीं पृथ्वी के | ५ बिल |
शीत-उष्ण बिलों का प्रमाण-पहली, दूसरी, तीसरी व चौथी पृथ्वी के सभी बिल एवं पाँचवीं पृथ्वी के चार भागों में से तीन भाग ३/४ प्रमाण बिल अत्यन्त उष्ण होने से वहां रहने वाले जीवों को तीव्र गर्मी की पीड़ा पहुंचाने वाले हैं। पांचवीं पृथ्वी में अवशिष्ट १/४ भाग प्रमाण बिल तथा छठी और सातवीं पृथ्वी में स्थित नारकियों के बिल अत्यन्त शीत होने से वहां रहने वाले जीवों को भयानक शीत की वेदना देने वाले हैं।
नारकियों के उपर्युक्त ८४,००,००० बिलों में से ८२,२५,००० उष्ण एवं १,७५,००० बिल अत्यन्त शीत हैं।
यदि उष्ण बिल में मेरु के बराबर लोहे का शीतल पिंड डाल दिया जाए तो वह तलप्रदेश तक न पहुंचकर बीच में ही मैन (मोम) के टुकड़े के समान पिघलकर नष्ट हो जाएगा।
इसी प्रकार यदि मेरु पर्वत के बराबर लोहे का उष्ण पिंड शीत बिल में डाल दिया जाए तो वह भी तल प्रदेश तक न पहुँचकर बीच में ही नमक के टुकड़े के समान विलीन हो जाएगा।
बकरी, हाथी, घोड़ा, भैंस, गधा, ऊंट, बिल्ली, सर्प और मनुष्यादिक के सड़े हुए मांस की गंध की अपेक्षा नारकियों के बिल अनंतगुणी दुर्गन्ध से युक्त हैं। स्वभावत: गाढ़ अन्धकार से परिपूर्ण ये नारकियों के बिल क्रकच, कृपाण, छुरिका, खैर की आग, अति तीक्ष्ण सुई और हाथियों की चिंघाड़ से भी अत्यन्त भयानक हैं।
नारक बिलों में भेद-ये नारकियों के बिल इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक के भेद से तीन प्रकार के हैं।
इन्द्रक-जो अपने पटल के सब बिलों के बीच में हो वह इंद्रक कहलाता है।
श्रेणीबद्ध-जो बिल चारों दिशाओं और चारों विदिशाओं में पंक्ति से स्थित रहते हैं वे श्रेणीबद्ध हैं।
प्रकीर्णक-श्रेणीबद्ध बिलों के बीच में इधर-उधर रहने वाले बिलों में प्रकीर्णक संज्ञा है।
रत्नप्रभा आदिक ७ पृथ्वियों में क्रम से १३,११,९,७,५,३,१ इस प्रकार कुल ४९ इंद्रक बिल हैं। इन्हें प्रस्तार एवं पटल भी कहते हैं।
प्रथम नरक में १३ इन्द्रक पटल हैं। ये एक पर एक ऐसे खन पर खन बने हुए के समान हैं। ये तलघर के समान भूमि में हैं एवं चूहे आदि के बिलों के समान हैं। औंधे मुख बने हुए हैं। व्यवस्थित दरवाजे, खिड़की आदिकों से रहित हैं इसीलिए इनका बिल नाम सार्थक है।
नरक | इन्द्रक | श्रेणीबद्ध | प्रकीर्णक |
प्रथम पृथ्वी में | १३ | ४४२० | २९९५५६७ |
द्वितीय पृथ्वी में | ११ | २६८४ | १४९७३०५ |
तृतीय पृथ्वी में | ९ | १४७६ | १४९८५१५ |
चतुर्थ पृथ्वी में | ७ | ७०० | ९९९२९३ |
पंचम पृथ्वी में | ५ | २६० | २९९७३५ |
छठीं पृथ्वी में | ३ | ६ | ९९९३२ |
सातवीं पृथ्वी में | १ | ४ | ० |
४९ | ९६०४ | ८३९० ३४७ |
ये जन्मस्थान घम्मा, वंशा और मेघा नाम की तीसरी पृथ्वी तक उष्ट्रिका, कोथली, कुंभी, पुद्गलिका, मुद्गर और नाली के समान हैं।
चौथी और पांचवीं पृथ्वी में जन्मभूमियों के आकार गाय, हाथी, घोड़ा, भस्त्रा, अब्जपुट, अम्बरीष और द्रौणी जैसे हैं।
छठी और सातवीं पृथ्वी की जन्मभूमियां झालर, द्वीपी, चक्रवाक, श्रृगाल, गधा, बकरी, ऊँट और रीछ के सदृश आकार वाली हैं।
नारकियों की ये सभी जन्मभूमियाँ अन्त में करोंत के सदृश चारों तरफ से गोल भयंकर हैं। इन नरकों में बकरी, हाथी, भैंस, घोड़ा, गधा, ऊँट, बिलाव और मेढ़े आदि के सड़े-गले शरीरों के दुर्गन्ध की अपेक्षा अनन्तगुणी अधिक दुर्गन्ध है।
इन जन्मभूमियों का विस्तार एक, दो कोस आदि नीचे लिखे प्रमाण है एवं इनकी ऊँचाई अपने-अपने विस्तार से पंचगुणी है, यथा-
नरकों में | उपपाद स्थान का विस्तार | ऊँचाई |
प्रथम नरक में | १ कोस | ५ कोस |
द्वितीय नरक में | २ कोस | १० कोस |
तृतीय नरक में | ३ कोस | १५ कोस |
चतुर्थ नरक में | १ योजन (४ कोस) | ५ योजन |
पंचम नरक में | २ योजन (८ कोस) | १० योजन |
छठे नरक में | ३ योजन (१२ कोस) | १५ योजन |
सातवें नरक में | १०० योजन (४०० कोस) | ५०० योजन |
इन उपपाद स्थानों में एक, दो, तीन, पांच और सात द्वार-कोन और इतने ही दरवाजे हैं। यह व्यवस्था केवल श्रेणी और प्रकीर्णक बिलों में ही है। इन्द्रक बिलों में ये स्थान ३ द्वार और ३ कोनों से युक्त हैं। ये सब जन्मस्थान हमेशा ही अनन्तगुणित अन्धकार से व्याप्त हैं।
नरक में उत्पत्ति का वर्णन-नारकी जीव पाप से नरक बिल में उत्पन्न होकर एक मुहूर्त काल में छहों पर्याप्तियों को पूर्ण कर आकस्मिक भय को प्राप्त होता है पश्चात् वह नारकी जीव भय से कांपता हुआ बड़े कष्ट से चलने के लिए प्रस्तुत होकर और छत्तीस आयुधों के मध्य में गिरकर वहां से गेंद के समान उछलता है।
प्रथम पृथ्वी में जीव सात योजन (उत्सेध योजन) छ: हजार पांच सौ धनुष प्रमाण ऊपर उछलता है, इसके आगे शेष पृथ्वियों में उछलने का प्रमाण क्रम से उत्तरोत्तर दूना-दूना है।
नरक के दु:खों का वर्णन-जिस प्रकार दुष्ट व्याघ्र मृग के बच्चे को देखकर उसके ऊपर टूट पड़ता है उसी प्रकार क्रूर पुराने नारकी उस नवीन नारकी को देखकर धमकाते हुए उसकी ओर दौड़ते हैं। जिस प्रकार कुत्तों के झुण्ड एक दूसरे को दारुण दु:ख देते हैं उसी प्रकार नारकी नित्य ही परस्पर दुस्सह पीड़ादिक दिया करते हैं। वे नारकी जीव चक्र, बाण, शूली, तोमर, मुद्गर, करोंत, भाला, सुई, मूसल और तलवार आदि शस्त्र, अस्त्र, वन एवं पर्वत की आग तथा भेड़िया, व्याघ्र, तरक्ष, श्रृगाल, कुत्ता, बिलाव और सिंह इन पशुओं के अनुरूप परस्पर में सदैव अपने-अपने शरीर की विक्रिया किया करते हैं। ये नारकी गहरे बिल, धुंआ, वायु, खप्पर, यन्त्र, चूल्हा, चक्की, बर्छी आदि के आकार रूप अपने-अपने शरीर की विक्रिया करते हैं। और तो क्या, ये नारकी दूसरों को दु:ख देने के लिए दावानल अग्नि, सड़े रक्त और कीड़ों से युक्त नदी, सरोवर, कूप और वापी आदि रूप से अपने-अपने शरीर की ही विक्रिया करते हैं। इन नारकियों के पृथक् विक्रिया नहीं होती है, अपृथक विक्रिया ही होती है।
कोई नारकी व्याघ्र, सिंहादिक बनकर अन्य नारकी को खाने लगते हैं। कोई नारकी किसी नारकी के द्वारा हजारों यंत्रों में पेले जाते हैं। कोई किसी को खम्भों में बांधकर लोहे के संबल से मारते हैं, कोई जाज्वल्यमान दुष्प्रेक्ष्य अग्नि में फेंके जाते हैं, कोई नारकी आरों से चीरे जाते हैं, कोई भयंकर भालों से बेधे जाते हैं। कितने ही नारकी जीव लोहे की कड़ाहियों के तपे हुए तेल में डाले जाते हैं और कितने ही अग्नि में तपाये जाते हैं। कभी-कभी कोयले और उपलों की आग में झुलसे हुए ये नारकी जीव शीतल जल समझकर वैतरणी नदी में प्रवेश करते हैं। उसमें उनका शरीर अनेकोें रोगों से पूर्ण हो जाता है क्योंकि वह वैतरणी सड़े हुए खून, पीव से भरी और असंख्य जीवों से व्याप्त रहती है। वहां के नारकी ही इन विक्रियाओं को करते हैं क्योंकि वहाँ पर विकलत्रय जीव पैदा नहीं होते हैं। उस वैतरणी में वैंâची के समान तीक्ष्ण जल के आकार से परिणत हुए नारकी अन्य नारकियों के शरीरों को दुस्सह अनेक प्रकार की पीड़ाओं को पहुंचाते हैं। वैतरणी नदी के जल में नारकी कछुआ, मेंढक और मगर प्रभृति जलजीवों के विविध रूपों को धारण कर एक-दूसरे का भक्षण करते हैं परन्तु वहां पर सहसा विशाल ज्वालाओं वाली महान अग्नि उठती है। जिस अग्नि से उन नारकियों के सम्पूर्ण अंग तीक्ष्ण ज्वालाओं से जल जाते हैं पुन: वे ही नारकी शीतल छाया की आशा से असिपत्र वन में प्रवेश करते हैं। वहां पर भी वज्रदण्ड और तलवार की धार के समान पैने उन वृक्षों के पत्ते नारकियों के शरीर को विदीर्ण करके खण्ड-खण्ड कर देते हैं। उसी प्रकार से वहां चक्र, बाण, तोमर, मुद्गर, तलवार, भाला, मूसल तथा अस्त्र-शस्त्र उनके सिर पर गिरते हैं, अनन्तर जिनके शिर छिद गए हैं, हाथ-पैर आदि अंग खण्डित हो गए हैं, जिनके नेत्र और आंतों के समूह बाहर निकल पड़े हैं ऐसे वे नारकी अशरण होकर उस वन को छोड़कर भागते हैं। तब गृद्ध, गरुड़, काक आदि वज्र मुख वाले व तीक्ष्ण दांतों वाले पक्षी बन करके नारकी उन नारकियों के शरीर को भक्षण करने लगते हैं। कोई-कोई नारकी उन नारकियों के अंग और उपांगों को प्रचण्ड घातों से चूर्ण कर घावों पर क्षार पदार्थ तेजाब आदि डाल देते हैं। घावों में क्षार पदार्थों के डालने से वे नारकी करुणापूर्ण विलाप करते हैं और दु:ख देने वाले नारकी के चरणों में पड़ते हैं, फिर भी वे निर्दयी नारकी उन्हें खण्ड-खण्ड करके चूल्हे में डाल देते हैं। कोई-कोई नारकी परस्त्री में आसक्त होने वालों के शरीरों से तप्तायमान लोहपुतली को चिपका देते हैं। पूर्व भव में मांसभक्षण प्रेमी नारकी के शरीर के ही मांस को काट-काट कर कोई नारकी उन्हीं के मुख में जबरन डालते हैं। मधु और मद्य के सेवन करने वाले प्राणियों को अन्य नारकी अत्यन्त तपे हुए द्रवित लोहे को जबरदस्ती पिला देते हैं जिससे उनके अवयव समूह भी पिघल जाते हैं। जिस प्रकार तलवार के प्रहार से भिन्न हुआ कुएं का जल फिर वापस मिल जाता है उसी प्रकार अनेकानेक शस्त्रों से छिन्न-भिन्न किया गया नारकियों का शरीर भी फिर से मिल जाता है। तात्पर्य यह है कि नारकियों की आयु पूरी हुए बिना अकालमरण नहीं होता है।
नरक की भूमि तप्तायमान लोहे के सदृश दु:खद स्पर्श वाली, सुई के समान तीखी दूब से व्याप्त है। उस पृथ्वी से इतना दु:ख होता है कि जैसे एक साथ ही हजारों बिच्छुओं ने डंक मारा हो। उन नारकियों के उदर, नेत्र, मस्तक आदि सभी अवयव करोड़ों रोगों से जर्जरित रहते हैं। नरक में नारकियों के एक साथ ही ५ करोड़ ६८ लाख ९९ हजार ५ सौ ८४ रोग उदय में बने रहते हैं।
नारकियों का आहार और मिट्टी के दोष-कुत्ते, गधे आदि जानवरों के अत्यन्त सड़े हुए मांस और विष्टा आदि की अपेक्षा भी अनंतगुणी दुर्गन्धि से युक्त ऐसी उस नरक की मिट्टी को घम्मा नरक के नारकी अत्यन्त भूख की वेदना से व्याकुल होकर भक्षण करते हैं और दूसरे आदि नरकों में उससे भी अधिक गुणी अशुभ दुर्गन्धित मिट्टी को खाते हैं। घम्मा पृथ्वी के प्रथम पटल के आहार की मिट्टी को यदि इस मध्यलोक में डाल दिया जावे तो उसकी दुर्गन्धि से एक कोस पर्यन्त के जीव मृत्यु को प्राप्त हो सकते हैं। इससे आगे दूसरे, तीसरे आदि पटलों में आधे-आधे कोस प्रमाण अधिक होते हुए मारणशक्ति बढ़ती गई है और सातवें नरक के अन्तिम उन्चासवें पटल में मिट्टी की मारण शक्ति २५ कोस प्रमाण हो जाती है।
तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके नरक जाने वालों का वर्णन-कोई-कोई जीव इस मध्यलोक में तीर्थंकर प्रकृति के बंध के पहले यदि नरकायु का बंध कर लेते हैं तो पहले, दूसरे या तीसरे नरक तक जा सकते हैं। वे तीर्थंकर प्रकृति के सत्त्व वाले जीव भी वहां पर असाधारण दु:खों का अनुभव करते रहते हैं और सम्यक्त्व के माहात्म्य से पूर्वकृत कर्म के विपाक का चिंतवन करते रहते हैं। जब इनकी आयु ६ महीने अवशेष रह जाती है तब स्वर्ग के देव नरक में जाकर चारों तरफ से परकोटा बनाकर उस नारकी के उपसर्ग का निवारण कर देते हैं और मध्यलोक में रत्नों की वर्षा, माता की सेवा आदि उत्सव होने लगते हैं।
नारकी के दु:खों के भेद-नरकों में नारकियों को चार प्रकार के दु:ख होते हैं-क्षेत्रजनित, शारीरिक, मानसिक और असुरकृत।
नरक में उत्पन्न हुए शीत, उष्ण, वैतरणी नदी, शाल्मलिवृक्ष आदि के निमित्त से होने वाले दु:ख क्षेत्रज कहलाते हैं।
शरीर में उत्पन्न हुए रोगों के दु:ख और मारकाट, कुंभीपाक आदि के दु:ख शारीरिक दु:ख कहलाते हैं।संक्लेश, शोक, आकुलता, पश्चाताप आदि के निमित्त से उत्पन्न हुए दु:ख मानसिक दु:ख कहलाते हैं
एवं तीसरी पृथ्वी पर्यन्त संक्लेश परिणाम वाले असुरकुमार जाति के भवनवासी देवों के द्वारा उत्पन्न कराये गए दु:ख असुरकृत दु:ख कहलाते हैं।
असुरकुमार कृत दु:खों का वर्णन-पूर्व में देवायु का बंध करने वाले मनुष्य या तिर्यञ्च अनन्तानुबन्धी में से किसी एक का उदय आ जाने से रत्नत्रय को नष्ट करके असुरकुमार जाति के देव होते हैं।
सकिनानन, असिपत्र, महाबल, रुद्र, अंबरीष आदिक असुरकुमार जाति के देव तीसरी बालुकाप्रभा पृथ्वीतक जाकर नारकियों को क्रोध उत्पन्न करा-कराकर परस्पर में युद्ध कराते हैं और प्रसन्न होते हैं।
नरक में अवधिज्ञान का वर्णन-नरक में उत्पन्न होते ही अंतर्मुहूर्त के बाद छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाती हैं और भवप्रत्यय अवधिज्ञान प्रगट हो जाता है। जो मिथ्यादृष्टी नारकी हैं उनका अवधिज्ञान विभंगावधि-कुअवधि कहलाता है एवं सम्यक्दृष्टि नारकियों का ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है।
अवधि के क्षेत्र का प्रमाण-प्रथम नरक में अवधिज्ञान का विषय एक योजन है। आगे-आगे आधे-आधे कोस की हानि होकर सातवें नरक में वह एक कोस मात्र रह जाता है। यथा-
इस अवधिज्ञान के प्रगट होते ही वे नारकी पूर्व भव के पापों को, वैर विरोध को एवं शत्रुओं को जान लेते हैं। जो सम्यग्दृष्टि हैं वे अपने पापों का पश्चाताप करते रहते हैं किन्तु जो मिथ्यादृष्टि हैं वे पूर्व भव में किसी के द्वारा किए गए उपकार को भी अपकाररूप समझकर यद्वा-तद्वा आरोप लगाते हुए मार-काट करते रहते हैं। कोई भद्र मिथ्यादृष्टि जीव पाप के फल को भोगते हुए अत्यन्त दु:ख से घबड़ा कर पापों का पश्चाताप करके ‘‘वेदना अनुभव’’ नामक निमित्त से सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेते हैं।
तात्पर्य यह है यदि कोई नारकी पाप के फल को भोगते हुए यह सोचते हैं कि हाय! मैंने परस्त्री सेवनकिया था जिसके फलस्वरूप मुझे यहां पर गरम-गरम लोहपुतली से आलिंगन कराया जाता है। मैंने मद्यपान किया था जिसके फलस्वरूप मुझे यहां पर तांबा गला-गला कर पिलाया जाता है। हाय! हाय! मैंने पूर्व जन्म में गुरुओं की शिक्षा नहीं मानी, भगवान की वाणी पर विश्वास नहीं किया, नियम लेकर भंग किया इत्यादि के फलस्वरूप मुझे ये नरक यातनाएं भोगने को मिली हैं। अब इनसे हमें छुटकारा वैâसे मिले, कहां जायें, क्या करें ? इत्यादि विलाप करते-करते जिनधर्म पर प्रेम करते हुए श्रद्धा से सम्यक्त्वरूपी अमूल्य निधि को प्राप्त कर लेते हैं।
नरक में सम्यक्त्व के कारण-घम्मा आदि तीन पृथ्वियों में मिथ्यात्व भाव से संयुक्त नारकियों में से कोई जातिस्मरण से, कोई दुर्वार वेदना से व्यथित होकर, कोई देवों के सम्बोधन को प्राप्त कर अनन्त भवों के चूर्ण करने में निमित्तभूत ऐसे सम्यग्दर्शन को ग्रहण करते हैं।
पंकप्रभा आदि शेष चार पृथ्वियों के नारकी जीव देवकृत प्रबोध के बिना जातिस्मरण और वेदना के अनुभव मात्र से ही सम्यक्त्व को ग्रहण कर सकते हैं।
जिनने पहले नरक आयु का बंध कर लिया है पुन: सम्यक्त्व को प्राप्त किया है, ऐसे जीव सम्यक्त्व सहित मरकर प्रथम नरक में ही जा सकते हैं अन्यत्र नहीं। सभी नरकों में सम्यक्त्व के लिए कारणभूत सामग्री मिल जाने से नारकी जीव सम्यक्त्व को ग्रहण कर सकते हैं।
नरक में जाने के कारण-जो मद्य पीते हैं, मांस की अभिलाषा करते हैं, जीवों का घात करते हैं, शिकार करते हैं, क्षणमात्र के इन्द्रिय सुख के लिए पाप उत्पन्न करते हैं, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के वशीभूत होकर असत्य वचन बोलते हैं, काम से उन्मत्त, जवानी में मस्त, परस्त्री में आसक्त होकर जीव नरकों में चिरकाल तक नपुंसकवेदी होते हैं और अंतत: दु:खों को प्राप्त होते हैं।
नारकियों के शरीर की अवगाहना-रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम सीमंतक पटल के नारकियों के शरीर की ऊंचाई ३ हाथ है। इसके आगे के पटलों में बढ़ते-बढ़ते सातवीं पृथ्वी के अन्तिम अवधिस्थान नामक इन्द्रक बिल में ५०० धनुष प्रमाण शरीर की अवगाहना है।
नारकियों की लेश्याएं- सभी नारकी जीवों के परिणाम हमेशा अशुभतर ही होते हैं एवं लेश्याएं भी अशुभतर होती हैं। उनके शरीर भी अशुभ कर्म के उदय से हुंडक संस्थान वाले वीभत्स और अत्यन्त भयंकर होते हैं। यद्यपि उनका शरीर वैक्रियक है फिर भी उसमें मल, मूत्र, पीव आदि सभी वीभत्स सामग्री रहती है। कदाचित् कोई नारकी जीव सोचते हैं कि हम शुभ कार्य करें परन्तु कर्मोदय से अशुभ ही होता है। वे दु:ख दूर करने के लिए जितने भी उपाय करते हैं उनसे दूना दु:ख ही बढ़ता जाता है। कषायों के उदय से अनुरंजित मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। उसके ६ भेद हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल। प्रारम्भ की तीन लेश्याएं अशुभ और शेष शुभ हैं। नरक में सर्वदा अशुभतर और अशुभतम ही लेश्याएं रहती हैं।
प्रथम और द्वितीय नरक में – | कापोत लेश्या। |
तृतीय नरक में – | ऊपर कापोत और नीचे नील लेश्या। |
चौथे नरक में – | नील लेश्या। |
पांचवें नरक में – | ऊपर भाग में नील और नीचे भाग में कृष्ण लेश्या। |
पांचवें नरक में – | कृष्ण लेश्या। |
पांचवें नरक में – | परम कृष्ण लेश्या होती है। |
नारकियों की आयु-दु:खों से घबड़ाकर नारकी जीव मरना चाहते हैं किन्तु आयु पूरी हुए बिना मर नहीं सकते हैं। उनके शरीर तिल के समान खण्ड-खण्ड होकर भी पारे के समान पुन: मिल जाते हैं। इन नारकियों की जघन्य आयु कम से कम १० हजार वर्ष है एवं उत्कृष्ट आयु ३३ सागर है। १० हजार वर्ष से एक समय अधिक से लेकर एवं तेतीस सागर से एक समय कम के मध्य की सभी आयु मध्यम कहलाती है।
प्रथम नरक में १३ पटल हैं। प्रथम पटल की उत्कृष्ट आयु (९०,००,०००) नब्बे लाख वर्ष हो जाती है। ऐसे ही आगे-आगे के पटलों में जघन्य आयु का प्रमाण पूर्व-पूर्व के पटलों की उत्कृष्ट आयु का प्रमाण है। ऐसे ही प्रथम नरक की उत्कृष्ट आयु दूसरे नरक की जघन्य आयु मानी गई है। जैसे-प्रथम नरक की उत्कृष्ट आयु एक सागर है, वही दूसरे नरक में जघन्य आयु है।
विशेष-इस प्रकार से आयु प्रमाण काल तक उन नरकों में नारकियों को क्षणमात्र के लिए भी सुख नहीं है, प्रतिक्षण दारुण दु:खों का ही अनुभव होता रहता है। इन नारकियों के शरीर आयु के अन्त में वायु से ताड़ित मेघों के समान नि:शेष विलीन हो जाते हैं। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार से पूर्व में किए गए दोषों से जीव नरकों में जिन नाना प्रकार के दु:ख को प्राप्त करते हैं, उन दु:खों के स्वरूप का सम्पूर्णतया वर्णन करने के लिए भला कौन समर्थ है। यहां पर जो जीव पापों में प्रवृत्त होकर आनन्द मानते हैं वे ही जीव चिरकाल तक ऐसे नरकवास में निवास करते हैं।
नरक में नारकियों के जन्म लेने के अन्तर का वर्णन-इन नरकों में यदि कोई भी नारकी कुछ समय तक जन्म न लेवे तथा वहां नारकियों के उत्पन्न होने में व्यवधान पड़ जावे उसका नाम अन्तर है। वह अन्तर प्रथम नरक में अधिक से अधिक २४ मुहूर्त का है। ऐसे ही सभी का अन्तर दिखाते हैं-
प्रथम नरक में | २४ मुहूर्त |
द्वितीय नरक में | ७ दिन |
तृतीय नरक में | १५ दिन |
चतुर्थ नरक में | १ मास |
पांचवे नरक में | २ मास |
छठे नरक में | ४ मास |
सातवें नरक में | ६ मास |
कौन-कौन से जीव किन-किन नरकों में जाने की योग्यता रखते हैं ?-कर्मभूमि के मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीव ही इन नरकों में उत्पन्न हो सकते हैं किन्तु नारकी, देव, भोगभूमियां, विकलत्रय और एकेन्द्रिय जीव नरकों में नहीं जा सकते हैं। इन नरकों से निकले हुए जीव भी वापस नरक में उसी भव से नहीं जा सकते हैं, न देव हो सकते हैं एवं विकलत्रय, एकेन्द्रिय और भोगभूमिया भी नहीं हो सकते हैं। मतलब यही है कि नरक से निकलकर नारकी जीव कर्मभूमियां मनुष्य और तिर्यंच ही होते हैं। इनमें भी गर्भज, संज्ञी एवं पर्याप्त ही होते हैं।
असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीव मात्र घम्मा पृथ्वी में जाने की योग्यता रखते हैं। सरीसृप प्रथम और द्वितीय नरक में जाने की योग्यता रखते हैं। पक्षी तृतीय पृथ्वी तक, भुजंग आदि चतुर्थ पृथ्वी तक, सिंह पांचवीं तक, स्त्रियां छठी तक एवं मत्स्य और मनुष्य सातवीं पृथ्वी तक जाने की योग्यता रखते हैं।
नरक से निकलकर नारकी किन-किन पर्यायों को प्राप्त कर सकते हैं ?-नरक से निकलकर कोई भी जीव अनंतर भव में चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण और प्रतिनारायण नहीं हो सकता है, यह बात निश्चित है।
प्रथम तीन पृथ्वियों से निकले हुए कोई जीव तीर्थंकर हो सकते हैं।
चौथी पृथ्वी तक के नारकी वहां से निकलकर चरमशरीरी होकर उसी भव से मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हैं। पांच पृथ्वी तक के जीव संयमी मुनि हो सकते हैं। छठी पृथ्वी तक के नारकी जीव देशव्रती हो सकते हैं। सातवीं पृथ्वी से निकलकर जीव कदाचित् सम्यक्त्व को ग्रहण कर सकते हैं परन्तु ये सातवीं पृथ्वी से निकले हुए नारकी नियम से पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक, संज्ञी तिर्यंच ही होते हैं, मनुष्य नहीं हो सकते हैं यह नियम है।
इस प्रकार अति संक्षेप से नरक लोक का वर्णन किया गया है जो कि भव्य जीवों को नरक के दु:खों से भय उत्पन्न कराने के लिए एवं सुख के साधन धर्म में आदर कराने के लिए है। विशेष वर्णन अन्यत्र देखना चाहिए।
भवनवासी देव
देवों के चार भेद हैं-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिर्वासी और कल्पवासी।
भवनवासी देवों के स्थान-पहले रत्नप्रभा पृथ्वी के ३ भाग बताये जा चुके हैं उनमें से खरभाग में राक्षस जाति के व्यन्तर देवों को छोड़कर सात प्रकार के व्यन्तर देवों के निवासस्थान हैं और भवनवासी के असुर जाति के देवों के स्थान हैं। रत्नप्रभा के पंकभाग में असुर जाति के भवनवासी एवं राक्षस जाति के व्यन्तरों के आवास स्थान हैं।
भवनवासी देवों के भेद-असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार, दिक्कुमार, उदधिकुमार, स्तनितकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार और वायुकुमार।
भवनवासी देवों के भवनों का प्रमाण-असुरकुमार के ६४ लाख, नागकुमार के ८४ लाख, सुपर्णकुमार के ७२ लाख, वायुकुमार के ९६ लाख और शेष छह देवों के ७६, ७६ लाख भवन हैं अत: ७६*६=४५६, ६४+८४+७२+९६+४५६=७,७२,००००० (सात करोड़ बहत्तर लाख) भवन हैं।
जिनमन्दिर-इनमें एक-एक भवनों में एक-एक जिनमन्दिर होने से भवनवासी देवों के ७,७२,००००० प्रमाण जिनमन्दिर हैं। उनमें स्थित जिनप्रतिमाओं को मन, वचन, काय से नमस्कार होवे।
भवनवासी देवों के इन्द्र-भवनवासी देवों के १० कुलों में पृथव्â-पृथव्â दो इन्द्र होते हैं। सब मिलकर २० इन्द्र होते हैं जो अपनी विभूति से शोभायमान हैं।
इन्द्र के परिवार देव-प्रत्येक इन्द्र के परिवार देव दश प्रकार के हैं-प्रतीन्द्र, त्रायस्त्रिंश, सामानिक, लोकपाल, आत्मरक्षक, तीन पारिषद, सात अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक।
इनमें से इन्द्र राजा के सदृश, प्रतीन्द्र युवराज के सदृश, त्रायस्ंित्रश देव पुत्र के सदृश, सामानिक देव पत्नी के सदृश, चारों लोकपाल तन्त्रपालों के सदृश और सभी तनुरक्षक देव राजा के अंगरक्षक के समान हैं। राजा की बाह्य, मध्य और अभ्यन्तर समिति के समान देवों में भी तीन प्रकार की परिषद होती हैं। इन तीनों परिषदों में बैठने वाले देव क्रमश: बाह्य पारिषद, मध्यम पारिषद और आभ्यन्तर पारिषद कहलाते हैं। अनीक देव सेना के तुल्य, प्रकीर्णक देव प्रजा के सदृश, आभियोग्य जाति के देव दास के सदृश और किल्विषक देव चाण्डाल के समान होते हैं इसलिए भवनवासियों के २० इन्द्र और २० प्रतीन्द्र मिलकर ४० इन्द्र हो जाते हैं।
भवनवासियों के निवासस्थान के भेद-इन देवों के निवासस्थान के भवन, भवनपुर और आवास के भेद से तीन भेद होते हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी में स्थित निवास स्थानों को भवन, द्वीप-समुद्रों के ऊपर स्थित निवासस्थानों को भवनपुर और रमणीय तालाब, पर्वत तथा वृक्ष के ऊपर स्थित निवास स्थानों को आवास कहते हैं।
इनमें नागकुमार आदि देवों में से किन्हीं के तो भवन, भवनपुर और आवासरूप तीनों ही तरह के निवासस्थान होते हैं परन्तु असुरकुमारों के केवल एक भवनरूप ही निवासस्थान होते हैं। इनमें भवनवासियों के भवन चित्रा पृथ्वी के नीचे दो हजार से एक लाख योजन पर्यन्त जाकर हैं। ये सब भवन समचतुष्कोण, तीन सौ योजन ऊंचे हैं और विस्तार में संख्यात एवं असंख्यात योजन प्रमाण वाले हैं।
जिनमन्दिर-प्रत्येक भवन के मध्य में एक सौ योजन ऊंचे एक-एक कूट हैं, इन कूटों के ऊपर पद्मराग मणिमय कलशों से सुशोभित चार गोपुर, तीन मणिमय प्राकार, वन ध्वजाओं एवं मालाओं से संयुक्त जिनगृह शोभित हैं। प्रत्येक जिनगृह में १०८, १०८ जिनप्रतिमायें विराजमान हैं। जो देव सम्यग्दर्शन से युक्त हैं वे कर्मक्षय के निमित्त नित्य ही जिनभगवान की भक्ति से पूजा करते हैं। इसके अतिरिक्त सम्यग्दृष्टि देवों से संबोधित किए गए अन्य मिथ्यादृष्टि देव भी कुलदेवता मानकर उन जिनेन्द्रप्रतिमाओं की नित्य ही बहुत प्रकार से पूजा करते हैं।
देवप्रासाद-जिनमन्दिर के चारों तरफ अनेक रचनाओं से युक्त, उत्तम सुवर्ण और रत्नों से निर्मित भवनवासी देवों के महल हैं। जिनमें ये देव अपनी देवांगनाओं के साथ सुखपूर्वक निवास करते हैं तथा इच्छानुसार यत्र-तत्र विचरण करते हुए नाना प्रकार की क्रीडा किया करते हैं।
रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में ७ प्रकार के व्यन्तर देवों के निवासस्थान हैं एवं पंकप्रभा में राक्षसजाति के व्यन्तरदेवों का निवासस्थान है। इन व्यन्तर देवों के भवन, भवनपुर और आवास ऐसे ३ प्रकार के भवन माने गए हैं।
इनमें से रत्नप्रभा पृथ्वी में भवन, द्वीपसमुद्रों में भवनपुर और पर्वत, सरोवर आदि के ऊपर आवास होते हैं। उत्कृष्ट भवनों में से प्रत्येक का विस्तार १२००० योजन और मोटाई ३०० योजन प्रमाण है। जघन्य भवनों में से प्रत्येक के विस्तार का प्रमाण २५ योजन और मोटाई ३/४ योजन है।
इन भवनों के बिल्कुल मध्य भाग में वेदी, ४ वन और चार तोरण द्वारों से रमणीय एवं अपने भवनों की मोटाई के तीसरे भाग प्रमाण कूट होते हैं। इन कूटों के उपरिम भाग पर विविध प्रकार की रचना से संयुक्त सुवर्ण, चांदी और रत्नमयी जिनेन्द्र प्रासाद हैं। ये प्रत्येक जिनेन्द्र भवन झारी, कलश, दर्पण, ध्वजा, चंवर, वींजना, छत्र और ठोना इन एक सौ आठ, एक सौ आठ मंगल द्रव्यों से सहित हैं। इन भवनों में सिंहासन आदि प्रातिहार्यों से सहित और हाथ में चामरों को लिए नागयक्ष देवयुगलों से संयुक्त अकृत्रिम जिनप्रतिमायें विराजमान हैं एवं वहां पर नित्य ही दुंदुभि, मृदंग, मर्दल, जयघण्टा, भेरी, शंख, झांझ, वीणा आदि वादित्रों के सुन्दर शब्द होते रहते हैं।
सम्यग्दृष्टि देव कर्मक्षय के निमित्त गाढ़ भक्ति से विविध द्रव्यों के द्वारा उन जिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा करते हैं, अन्य देवों के उपदेशवश मिथ्यादृष्टि देव भी ‘‘ये कुलदेवता हैं’’ ऐसा समझकर उन जिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा करते हैं। इन कूटों के चारों तरफ ७-८ आदि तलों से युक्त विचित्र आकृतियों से सहित व्यन्तर देवों के प्रासाद हैं। ये प्रासाद लटकती हुई रत्नमालाओं से युक्त, उत्तम तोरणों से युक्त द्वारों वाले, निर्मल, विचित्र, मणिमय शयनों एवं आसनों के समूह से परिपूर्ण हैं। इस प्रकार ये प्रासाद ३०,००० प्रमाण हैं। इनका सम्पूर्ण वर्णन भवनवासी देवों के भवनों के समान है।
कूट, जिनेन्द्रभवन, देवप्रासाद, वेदिका, वन आदि रचनायें भवनों के सदृश ही भवनपुरों और आवासों में भी मानी गई हैं।
व्यन्तर देवों के भेद-किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच इस प्रकार से ये व्यन्तर देव आठ प्रकार के होते हैं।
भूतों के चौदह हजार प्रमाण और राक्षसों के १६ हजार प्रमाण भवन हैं, शेष व्यन्तरों के भवन नहीं हैं।
व्यन्तर देवों के इन्द्रों का वर्णन-इन किन्नर आदि व्यन्तरों में दो-दो इन्द्र और इन्द्रों के दो-दो अग्रदेवियां मानी गई हैं। ये देवियां २-२ हजार वल्लभिकाओं से युक्त होती हैं। इस प्रकार से आठ प्रकार के व्यन्तर देवों में प्रत्येक के २-२ इन्द्र होकर १६ इन्द्र हो जाते हैं। इन १६ इन्द्रों में प्रत्येक के २-२ रूपवती गणिका महत्तरी होती हैं। इन १६ इन्द्रों में से प्रत्येक के प्रतीन्द्र, सामानिक, आत्मरक्ष, तीनों पारिषद, सात अनीक, प्रकीर्णक और आभियोग्य इस प्रकार से ये आठ भेदरूप परिवार देव होते हैं।
व्यन्तर देवों का आहार-किन्नर देव आदि देव एवं देवियां दिव्य, अमृतमय आहार का मन से ही उपभोग करते हैं। उनके कवलाहार नहीं है अत: देवों के आहार का नाम मानसिक आहार है।
पल्य प्रमाण आयु से युक्त देवों के आहार का काल ५ दिन एवं दस हजार वर्ष की आयु वाले देवों का आहार २ दिन बाद होता है, ऐसा जानना चाहिए।
व्यन्तर देवों में जन्म लेने के कारण-जो कुमार्ग में स्थित हैं, दूषित आचरण करने वाले हैं, सम्पत्ति में अत्यधिक आसक्त हैं, बिना इच्छा के विषयों से विरक्त हैं, अकाम निर्जरा करने वाले हैं, अग्नि आदि के द्वारा मरण को प्राप्त करते हैं, संयम लेकर उसे मलिन करते हैं या विनाश करते हैं, सम्यक्त्व से शून्य हैं। पंचाग्नि तप आदि करके मंद कषायी हैं, ऐसे कर्मभूमियाँ मनुष्य या तिर्यञ्च इन व्यन्तर देवों की पर्याय में जन्म लेते हैं। भोगभूमियाँ जीव भी मरकर भावन, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में जन्म लेते हैं।
इस देव पर्याय से च्युत होकर सम्यक्त्व से सहित देव उत्तम मनुष्य पर्याय प्राप्त करते हैं। जो सम्यक्त्व से शून्य ही मरण करते हैं, वे देव कर्मभूमि के मनुष्य या पंचेन्द्रिय, सैनी, पर्याप्तक तिर्यञ्चों में जन्म लेते हैं। कदाचित् विषयों की अत्यासक्ति के कारण मरने के ६ महीने पहले से विलाप और संताप करते हुए मरकर एकेन्द्रिय पर्याय में पृथ्वीकायिक, जलकायिक और प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव भी हो जाते हैं।
व्यन्तर देवों में सम्यक्त्व उत्पत्ति के कारण-कदाचित् ये देव जातिस्मरण, देव ऋद्धिदर्शन, जिनबिम्बदर्शन और धर्मश्रवण के निमित्तों से सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेते हैं।
जातिस्मरण-कदाचित् इन देवों में से किसी को जातिस्मरण होकर कई-कई भवों के पाप, पुण्य कृत्य स्मृति में आ जाते हैं। तब ये पापभीरू होकर पापों की एवं मिथ्यात्व की आलोचना करते हुए सम्यक्त्व को ग्रहण कर लेते हैं।
देव ऋद्धिदर्शन-कदाचित् कोई देव अपने से महान विभूतियों को अन्य देवों के पास देखकर अवधिज्ञान से अपने और उसके पाप-पुण्य का तोल लगाने लगते हैं और सोचते हैं कि मैंने मंद पुण्य किया है जिससे कि सौधर्म आदि के वैभव से शून्य रहा हूँ, इत्यादि सोचते हुए एवं कर्म को मंद करते हुए सम्यक्त्व को ग्रहण करते हैं।
जिनबिम्बदर्शन-कदाचित् ये देव जिनेन्द्र भगवान के पंचकल्याणकों के महोत्सव में आते हैं या और किन्हीं अतिशयशाली जिनमहिमा को देखते हैं अथवा अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन करते हैं तब इन्हें सम्यक्त्व की उत्पत्ति हो जाती है।
धर्मश्रवण-कदाचित् मध्यलोक में मुनियों से धर्मश्रवण करते हैं, कदाचित् देवों की सभा में ही धर्म श्रवण करते हैं जिसके फलस्वरूप सम्यक्त्व निधि को प्रगट कर लेते हैं पुन: सम्यक्त्व के प्रभाव से मरण काल में संताप और संक्लेश न करते हुए शांतभाव से देव पर्याय से च्युत होकर मनुष्य भव प्राप्त कर लेते हैं एवं सम्यक्त्व के फलस्वरूप सम्यक्चारित्र को ग्रहण करके मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
ये व्यंतर देव क्रीड़ाप्रिय होने से इस मध्यलोक में यत्र-तत्र शून्य स्थान, वृक्षों की कोटर, श्मशान भूमि आदि में भी विचरण करते रहते हैं। कदाचित् क्वचित् किसी से पूर्व जन्म का वैर विरोध होने से उसे कष्ट भी दिया करते हैं। किसी पर प्रसन्न होकर उसकी सहायता भी करते हैं। जब सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर लेते हैं तब पापभीरु बनकर धर्मकार्यों में ही रुचि लेते हैं ऐसा समझना चाहिए।