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तीन चौबीसी पूजा

December 6, 2020पूजायेंjambudweep

तीन चौबीसी पूजा


स्थापना
गीता छंद
 
मंगलमयी सब लोक में, उत्तम शरण दाता तुम्हीं।
वर तीन चौबीसी जिनेश्वर, तीर्थकर्ता मान्य ही।।
इस भरत में ये भूत संप्रति, भावि तीर्थंकर कहे।
आह्वान करके जो जजें, वे स्वात्मसुख संपति लहें।।१।।
 
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
 
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
 
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
 
 
 
 
 
 
 
अथाष्टक
स्रग्विणी छंद
 
नीर सरयू नदी का भरा लायके।
धार देऊँ प्रभो पाद में आयके।। ती
न चौबीसी तीर्थंकरों को जजूँ |
जन्म व्याधी हरूँ सर्व दुःख से बचूँ।।१।।
 
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
 
 
 
गंध सौगंध कर्पूर केशर मिली।
पाद चर्चंत सम्यक्त्व कलिका खिली।।
तीन चौबीसी तीर्थंकरों को जजूँजन्म
व्याधी हरूँ सर्व दुःख से बचूँ।।२।।
 
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
 
 
 
 
 
दुग्ध के फेन सम स्वच्छ अक्षत लिये।
पुंज को धारते स्वात्म संपत लिये।।
तीन चौबीसी तीर्थंकरों को जजूँ।
जन्म व्याधी हरूँ सर्व दुःख से बचूँ।।३।।
 
ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
 
 
 
 
 
केवड़ा मोगरा पुष्प अरविंद है।
नाथ पद पूजते कामशर भंग है।।
तीन चौबीसी तीर्थंकरों को जजूँ।
जन्म व्याधी हरूँ सर्व दुःख से बचूँ।।४।।  
 
 ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्यः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
 
 
 
मुद्ग लाडू इमरती कनक थाल में।
पूजते भूख व्याधी हरूँ हाल में।।
 तीन चौबीसी तीर्थंकरों को जजूँ।
जन्म व्याधी हरूँ सर्व दुःख से बचूँ।।५।। 

 ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्यः नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

 

 

स्वर्ण के पात्र मे  ज्योति कर्पूर की।

नाथ की आरती मोह को चूरती।।

तीन चौबीसी तीर्थंकरों को जजूँ।

जन्म व्याधी हरूँ सर्व दुःख से बचूँ।।६।। 

 ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्यः दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

 

 

धूप दशगंध ले अग्नि में खेवते।

कर्म की भस्म हो नाथ पद सेवते।।

तीन चौबीसी तीर्थंकरों को जजूँ।

जन्म व्याधी हरूँ सर्व दुःख से बचूँ।।७।।  

ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्यः धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

 

आम अंगूर केला अनंनास ले।

नाथ पद अर्चते मुक्तिकांता मिले।।

तीन चौबीसी तीर्थंकरों को जजूँ।

जन्म व्याधी हरूँ सर्व दुःख से बचूँ।।८।।

ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा।

 

 

नीर गंधादि वसु द्रव्य ले थाल में।

अघ्र्य अर्पण करूँ नाय के भाल में।।

तीन चौबीसी तीर्थंकरों को जजूँ।

जन्म व्याधी हरूँ सर्व दुःख से बचूँ।।९।। 

 ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्यःअर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

 

सोरठा

 तीर्थंकर परमेश, त्रिभुवन शांतीकर सदा।

त्रिकरण शुद्धी हेत, शांतीधारा मैं करूँ।।१०।।

                                        शांतये शांतिधारा।

हरसिंगार प्रसून, सुरभित करते दश दिशा।

तीर्थंकर पदपद्म, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।

                                           दिव्य पुष्पांजलिः।

 

 

 

 

जाप्य-ॐ ह्रीं त्रैकालिकद्वासप्ततितीर्थंकरेभ्यो नमः।

 

 

जयमाला 

दोहा

 तीर्थंकर के जन्म से, नगरि अयोध्या वंद्य।

गाऊँ गुणमाला अबे, पाऊँ सौख्य अनिंद्य।।१।।

शेरछंद

 जैवंत मुक्तिकान्त देव देव हमारे।

जैवंत भक्तवृन्द भवोदधि से उबारें।।

जैवंत तीन काल के तीर्थेश बहत्तर।

जैवंत तीस चौबिस के सर्व तीर्थंकर।।२।।

जय भूतकाल के अनंतानंत तीर्थंकर।

जय जय भविष्य के अनंतानंत तीर्थंकर।।

इन भूत भावि जिनकी जन्मभूमि अयोध्या।

शाश्वत त्रिलोक वंद्य महातीर्थ अयोध्या।।३।।

जय पंचकल्याणक पति जिनराज को नमूँ।

जय दो या तीन कल्याणक पती नमूँ।।

हे नाथ! आप जन्म के छह माह ही पहले।

धनराज रत्नवृष्टि करें मात के महले।।४।।

जब आप मात गर्भ में अवतार धारते।

तब इन्द्र सपरिवार आय भक्ति भाव से।।

प्रभु गर्भ कल्याणक महाउत्सव विधी करें।

माता पिता की भक्ति से पूजन विधी करें।।५।।

हे नाथ! आप जन्मते सुरलोक हिल उठे।

इन्द्रासनों के कंप से आश्चर्य हो उठे।।

भेरी करा सब देव का आह्वान करे हैं।

जन्माभिषेक करने का उत्साह भरे हैं।।६।।

सुरराज आ जिनराज को सुरशैल ले जाते।

सुरगण असंख्य मिलके महोत्सव को मनाते।।

जब आप हो विरक्त देव सर्व आवते।

दीक्षा विधी उत्सव महामुद से मनावते।।७।।

जब घातिया को घात ज्ञानसंपदा भरें।

तब इन्द्र आ अद्भुत समवसरण विभव करें।।

जब आप मृत्यु जीत मुक्तिधाम में बसें।

सिद्ध्यंगना के साथ परमानंद सुख चखें।।८।।

सब इन्द्र आ निर्वाण महोत्सव मनावते।

प्रभु पंचकल्याणकपती को शीश नवाते।।

मैं आप शरण पायके सचमुच कृतार्थ हूँ।

बस ‘‘ज्ञानमती’’ पूर्ण होने तक ही दास हूँ।।९।।

 

ॐ ह्रीं भूतवर्तमानभविष्यत्-द्वासप्ततितीर्थंकरेभ्य: जयमालापूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।

                                                                            शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।

दोहा

 पंचमगति के हेतु मैं, नमन करूँ पंचांग।

परमानंद अमृत अतुल, मिले सौख्य सर्वांग।।१०।।

।। इत्याशीर्वाद:।।

 

Tags: Vrat's Puja
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