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दीक्षा के पूर्व दिन भोजन की विधि

February 10, 2017मुनि दीक्षा विधिjambudweep

दीक्षा के पूर्व दिन भोजन की विधि


प्रयोग विधि – दीक्षा ग्रहण के पूर्वदिवस दीक्षार्थी मंदिर में शांतिविधान या गणधरवलय विधान आदि विधान-पूजा आदि करके, गुरु की पूजा करके गुरु को आहार देवे। अनंतर आचार्यदेव, उपाध्याय मुनि या साधु जिनसे दीक्षा लेना है उनके श्रीचरणों में श्रीफल चढ़ाकर अगले दिन के लिए प्रार्थना करे। उस समय आहार के अनंतर गुरु उस दीक्षार्थी को थाली, कटोरा आदि बर्तन में-पात्र में भोजन करने का त्याग दे देवें। तब गुरु के आदेश से श्रावक उस दीक्षार्थी को चौके में पाटे पर बिठाकर भोजन परोस कर दीक्षार्थी को करपात्र में आहार देवें। दीक्षार्थी यदि अव्रती या व्रती-दो से सात आदि प्रतिमा के धारी हैं, वे अपने हाथ धोकर लघु सिद्धभक्ति पढ़कर करपात्र में आहार ग्रहण करें, इसकी विधि निम्न प्रकार है-

अथ भक्तप्रत्याख्याननिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण भावपूजावन्दना-

स्तवसमेतं सिद्धभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहम्।

(९ बार णमोकार मंत्र का जाप्य) पुन: लघु सिद्धभक्ति पढ़ें-

सम्मत्तणाणदंसणवीरियसुहुमं तहेव अवगहणं।

अगुरुलघुमव्वावाहं, अट्ठगुणा होंति सिद्धाणं।।१।।

तवसिद्धे णयसिद्धे, संजमसिद्धे चरित्तसिद्धे य।

णाणम्मि दंसणम्मि य, सिद्धे सिरसा णमंसामि।।२।।

पुनः गवासन से बैठकर अंचलिका पढ़ें-

इच्छामि भंते! सिद्धभत्तिकाउस्सग्गो, कओ तस्सालोचेउं सम्मणाण-सम्मदंसण-सम्मचारित्तजुत्ताणं अट्ठविहकम्मविप्प-मुक्काणं अट्ठगुणसंपण्णाणं, उड्ढलोयमत्थयम्मि पइट्ठियाणं, तव-सिद्धाणं, णयसिद्धाणं, संजमसिद्धाणं, चरित्त सिद्धाणं, अतीताणागदवट्टमाणकालत्तयसिद्धाणं, सव्वसिद्धाणं, णिच्चकालं, अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं।

यदि क्षुल्लक हैं तो पड़गाहन विधि से चौके में जावें, नवधाभक्ति के अनंतर थाली या कटोरा का त्याग गुरु के पास लेकर आहार को गये हैं अत: बैठे ही बैठे करपात्र में आहार ग्रहण करें, उन्हें प्रत्याख्यान निष्ठापन विधि मालूम ही है, यही उपर्युक्त विधि से सिद्धभक्ति पढ़कर आहार ग्रहण करें। अनंतर आहार ग्रहण के बाद यदि क्षुल्लक हैं तो वहीं चौके में प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापन कर लेवें। विधि-

अथ प्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां

सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।

(९ बार णमोकार मंत्र जाप्य कर पूर्वोक्त लघु सिद्धभक्ति पढ़ें) गुरु के पास ‘‘दीक्षा हेतु उपवास लेने की विधि’’ अनंतर गुरु के पास आकर मुनि दीक्षा के लिए उपवास ग्रहण करें, इसकी विधि इस प्रकार है। प्रयोग विधि- अथ वृहत्प्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं श्रीसिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्। (णमोकार मंत्र, चत्तारिदण्डक, अड्ढाइज्जदीव….आदि सामायिकदण्डक पढ़कर २७ श्वासोच्छ्वास में ९ बार णमोकार मंत्र जपकर थोस्सामिस्तव प़ढ़ें।) यथा-तीन आवर्त एक शिरोनति करके- 

सामायिक दण्डक

णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।

चत्तारि मंगलं-अरिहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहु मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं।

चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा।

चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि।

अड्ढाइज्जदीवदोसमुद्देसु पण्णारसकम्मभूमिसु जाव अरहंताणं भयवंताणं आदियराणं तित्थयराणं जिणाणं जिणोत्तमाणं केवलियाणं, सिद्धाणं, बुद्धाणं, परिणिव्वुदाणं, अन्तयडाणं, पारयडाणं, धम्माइरियाणं, धम्मदेसियाणं धम्मणायगाणं, धम्मवरचाउरंग-चक्कवट्टीणं, देवाहिदेवाणं, णाणाणं, दंसणाणं, चरित्ताणं सदा करेमि किरियम्मं। करेमि भंते! सामाइयं सव्वसावज्जजोगं पच्चक्खामि जावज्जीवं तिविहेण मणसा वचसा कायेण ण करेमि ण कारेमि कीरंतं पि ण समणुमणामि। तस्स भंते! अइचारं पडिक्कमामि णिंदामि गरहामि, जाव अरहंताणं, भयवंताणं, पज्जुवासं करेमि ताव कालं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि। (मुकुलित हाथ जोड़कर तीन आवर्त कर एक शिरोनति करके योगमुद्रा से सत्ताईस उच्छ्वास में नव बार णमोकार मंत्र का जाप करें। पुनः पंचांग नमस्कार करके मुक्ताशुक्ति मुद्रा से हाथ जोड़कर ‘‘थोस्सामिस्तव’’ पढ़ें।) 

थोस्सामिस्तव

थोस्सामि हं जिणवरे, तित्थयरे केवली अणंतजिणे।

णरपवरलोयमहिए, विहुय-रयमले महप्पण्णे।।१।।

लोयस्सुज्जोययरे, धम्मं तित्थंकरे जिणे वंदे।

अरहंते कित्तिस्से, चउवीसं चेव केवलिणो।।२।।

उसहमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमइं च।

पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे।।३।।

सुविहिं च पुप्फयंतं, सीयल सेयं च वासुपुज्जं च।

विमलमणंतं भयवं, धम्मं संतिं च वंदामि।।४।।

कुंथुं च जिणविंरदं, अरं च मल्लिं च सुव्वयं च णमिं।

वंदामि रिट्ठणेमिं, तह पासं वड्ढमाणं च।।५।।

एवं मए अभित्थुया, विहुय-रयमला पहीणजरमरणा।

चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु।।६।।

कित्तिय वंदिय महिया, एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धा।

आरोग्गणाणलाहं, दिंतु समाहिं च मे बोहिं।।७।।

चंदेहिं णिम्मल-यरा, आइच्चेहिं अहिय-पहासत्ता।

सायरमिव गंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु।।८।।

(तीन आवर्त एक शिरोनति करके वन्दनामुद्रा से सिद्धभक्ति पढ़ें।) सिद्धभक्ति (हिन्दी पद्यानुवाद) (शंभु छंद) सब सिद्ध कर्म प्रकृती विनाश, निज के स्वभाव को प्राप्त किये।

अनुपमगुण से आकृष्ट तुष्ट, मैं वंदूँ सिद्धी हेतु लिये।।

गुणगण आच्छादक दोष नशें, सिद्धी स्वात्मा की उपलब्धी।

जैसे पत्थर सोना बनता, हों योग्य उपादान अरु युक्ती।।१।।

नहिं मुक्ति अभावरूप निजगुण की, हानि तपों से उचित न है।

आत्मा अनादि से बंधा स्वकृतफल-भुक् तत्क्षय से मुक्ति लहे।।

ज्ञाता दृष्टा यह स्वतनुमात्र, संहार विसर्पण गुणयुत भी।

उत्पाद व व्यय धु्रवयुत निजगुणयुत, अन्य प्रकार नहीं सिद्धी।।२।।

जो अंतर्बाह्य हेतु से प्रगटित, निर्मल दर्शन ज्ञान कहा।

चारित संपत्ती प्रहरण से, सब घाति चतुष्टय हानि किया।।

फिर प्रगट अचिन्त्य सार अद्भुतगुण, केवलज्ञान सुदर्शन सुख।

अरु प्रवर वीर्य सम्यक्त्व प्रभा-मण्डल चमरादिक से राजित।।३।।

जानें देखें यह त्रिभुवन को जो सदा तृप्त हो सुख भोगें।

तम के विध्वंसक समवसरण में सब को तर्पित कर शोभें।।

वे सभी प्रजा के ईश्वर पर की ज्योति तिरस्कृत कर क्षण में।

बस स्व में स्व से स्व को प्रगटित कर स्वयं स्वयंभू आप बनें।।४।।

अवशेष अघाती बेड़ीवत् जो कर्म बली उनको घाता।

सूक्ष्मत्व अगुरुलघु आदि अनंत, स्वाभाविक क्षायिक गुण पाया।।

वे अन्य कर्म क्षय से निज की, शुद्धी से महिमाशाली हैं।

प्रभु ऊध्र्वगमन से एक समय में लोक अग्र पर ठहरे हैं।।५।।

जो अन्याकार प्राप्ति हेतु नहिं हुआ विलक्षण किंचित् कम।

वो पूर्व स्वयं संप्राप्त देह, प्रतिकृति है रुचिर अमूर्त अमम।।

सब क्षुधा तृषा ज्वर श्वास कास,जर मरण अनिष्ट योग रहिता।

आपत्ती आदि उग्र दुःखकर भवगत सुख कौन माप सकता।।६।।

सब सिद्ध स्वयं के उपादान से स्वयं अतिशयी बाधरहित।

वृद्धि व ह्रास से रहित विषय-विरहित, प्रतिशत्रू रहित अमित।।

सब अन्य द्रव्य से निरापेक्ष निरुपम, त्रैकालिक अविनश्वर।

उत्कृष्ट अनंतसार सिद्धों के, हुआ परमसुख अति निर्भर।।७।।

नहिं भूख प्यास अतएव विविध रस-अन्न पान से नहिं मतलब।

नहिं अशुची ग्लानी निद्रादिक, माला शय्या से है क्या तब।।

नहिं रोग जनित पीड़ा है तब, उपशमन हेतु औषधि से क्या।

सब तिमिर नष्ट हो गया दिखे, सब जगत् पुनः दीपक से क्या।।८।।

जो विविध सुनय तप संयम दर्शन, ज्ञान चरित से सिद्ध हुए।

गुण संपद् से युत विश्वकीर्ति व्यापी, देवों के देव हुए।।

उत्कृष्ट जनों से संस्तुत जग में, भूत भावि सांप्रत सिद्धा।

मैं नमूं अनंतों को त्रैकालिक, उन स्वरूप की है इच्छा।।९।।

-दोहा- बत्तिस दोषों से रहित, परम शुद्ध शुभ खान।

करके कायोत्सर्ग जो, भक्ति सहित अमलान।।

नित प्रति वंदे भाव से, सिद्ध समूह महान्।

वह पावे झट परम सुख, ज्ञान सहित शिव धाम।।

अंचलिका (चौबोल छंद)-

हे भगवन् ! श्री सिद्ध भक्ति का, कायोत्सर्ग किया उसका।

आलोचन करना चाहूँ जो, सम्यग्रत्नत्रय युक्ता।।

अठ विधकर्मरहित प्रभु ऊध्र्व-लोक मस्तक पर संस्थित जो।

तप से सिद्ध नयों से सिद्ध, सुसंयम सिद्ध चरित सिध जो।।

भूत भविष्यत् वर्तमान, कालत्रय सिद्ध सभी सिद्धा।

नित्यकाल मैं अर्चूं पूजूं, वंदू नमूं भक्ति युक्ता।।

दुःखों का क्षय, कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।

सुगति गमन हो समाधि मरणं मम जिनगुण संपति होवे।।

अथ वृहत्प्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं

भावपूजावन्दनास्तवसमेतं श्रीयोगिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।

(पूर्ववत् सामायिकदण्डक ९ बार महामंत्र जाप्य व थोस्सामि पढ़कर योगिभक्ति पढ़ें)

योगिभक्ति

जन्म जरा बहु मरण रोग अरु, शोक सहस्रों से तापित।

दुःसह नरक पतन से डरते, सम्यग्बोध हुआ जाग्रत।।

जलबुदबुदवत् जीवन चंचल, विद्युतवत् वैभव सारे।

ऐसा समझ प्रशमहेतू मुनि-जन वन का आश्रय धारें।।१।।

पंच महाव्रत पंच समिति, त्रय गुप्ति सहित हैं मोह रहित।

शम सुख को मन में धारण कर, चर्या करते शास्त्र विहित।।

ध्यान और अध्ययनशील नित, इन दोनों के वश रहते।

कर्म विशुद्धी करने हेतू, घोर तपश्चर्या करते।।२।।

ग्रीष्म ऋतू में सूर्य किरण से, तपी शिलाओं पर बैठें।

मल से लिप्त देहयुत निस्पृह, कर्म बंध को शिथिल करें।।

काम दर्प रति दोष कषायों, से मत्सर से रहित मुनीश।

पर्वत के शिखरों पर रवि के, सन्मुख मुख कर खड़े यतीश।।३।।

सम्यग्ज्ञान सुधा को पीते, पाप ताप को शांत करें।

क्षमा नीर से पुण्यकाय का, वे मुनि सिंचन नित्य करें।।

धरें सदा संतोष छत्र को, तीव्र ताप संताप सहें।

ऐसे मुनिवर ग्रीष्म काल में, कर्मेन्धन को शीघ्र दहें।।४।।

वर्षा ऋतु में मोरकण्ठ सम, काले इन्द्रधनुष वाले।

खूब गरजते शीतल वर्षा, वङ्कापात बिजली वाले।।

ऐसे मेघों को लखकर वे, मुनिगण सहसा रात्रि में।

पुनरपि वृक्ष तलों में बैठें, निर्भय ध्यान धरें वन में।।५।।

मूसल जलधारा बाणों से, ताड़ित होते मुनि पुंगव।

फिर भी चारित से नहिं डिगते, सदा अटल नरसिंह सदृश।।

भव दुःख से भयभीत परीषह, शत्रू का संहार करें।

शूरों में भी शूर महामुनि, वीरों में भी वीर बनें।।६।।

शीत में बरफ कणों से पीड़ित, महाधैर्य कंबल ओढ़ें।

चतुष्पथों में खड़े शीत की, रात बितावें ध्यान धरें।।७।।

आतापन तरुमूल चतुष्पथ, इस विध तीन योगधारी।

सकल तपश्चर्याशाली नित, पुण्य योग वृद्धिंकारी।।

परमानन्द सुखामृत इच्छुक, वे भगवान महामुनिगण।

हमको श्रेष्ठ समाधि शुक्ल, शुचि ध्यान प्रदान करें उत्तम।।८।।

ग्रीष्म ऋतू में गिरि शिखरों पर, वर्षा रात्रि में तरु तल।

शीतकाल में बाहर सोते, उन मुनि को वंदूँ प्रतिपल।।९।।

पर्वत कंदर दुर्गों में जो, नग्न दिगम्बर हैं रहते।

पाणिपात्रपुट से आहारी, वे मुनि परमगती लभते।।१०।।

अंचलिका हे भगवन्! इस योग भक्ति का, कायोत्सर्ग किया रुचि से।

उसकी आलोचन करने की, इच्छा करता हूँ मुद से।।

ढाई द्वीप अरु दो समुद्र की, पन्द्रह कर्मभूमियों में।

आतापन तरुमूल योग, अभ्रावकाश से ध्यान धरें।।१।।

मौन करें वीरासन कुक्कुट, आसन एकपाश्र्व सोते।

बेला तेला पक्ष मास, उपवास आदि बहु तप तपते।।

ऐसे सर्व साधुगण की मैं, सदा काल अर्चना करूँ।

पूजूँ वंदूँ नमस्कार भी, करूँ सतत वंदना करूँ।।२।।

दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।

सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुणसंपद् होवे।।३।।

पुन: आचार्य – गुरु उपवास दे देवें। तब दीक्षार्थी आचार्यभक्ति पढ़कर गुरु को नमस्कार करें।अथ वृहत्प्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां आचार्यवंदनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेणसकल- कर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं आचार्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।(पूर्ववत् सामायिक दण्डक ९ बार महामंत्र जाप्य व थोस्सामि पढ़कर आचार्यभक्ति पढ़ें) 

आचार्यभक्ति:

सिद्ध गुणों की स्तुति में तत्पर, क्रोध अग्नि का नाश किया।

गुप्ती से परिपूर्ण मुक्तियुत, सत्य वचन से भरित हिया।।१।।

मुनि महिमा से जिन शासन के, दीपक भासुरमूर्ति स्वभाव।

सिद्धि चाहते कर्मरजों के, कारण घातन में पटुभाव।।२।।

गुणमणि विरचित तनु षट् द्रव्यों, की श्रद्धा के नित आधार।

दर्शनशुद्ध प्रमादीचर्या, रहित संघ सन्तुष्टीकार।।३।।

उग्र तपस्वी मोहरहित शुभ, शुद्ध हृदय शोभन व्यवहार।

प्रासुक जगह निवास पापहत, आश कुपथ विध्वंसि विचार।।४।।

दशमुंडनयुत दोषसहित, आहारी मुनिगण से अति दूर।

सकल परीषहजयी क्रिया में, तत्पर नित प्रमाद से दूर।।५।।

व्रत में अचलित कायोत्सर्गयुत, कष्ट दुष्ट लेश्या से हीन।

विधिवत् गृहत्यागी निर्मल तनु, इन्द्रियविजयी निद्राहीन।।६।।

उत्कुटिकासन धरें विवेकी, अतुल अखण्डित स्वाध्यायी।

राग लोभ शठ मद मात्सर्यों, रहित पूर्ण शुभ परिणामी।।७।।

धर्मशुक्ल से भावित शुचिमन, आर्तरौद्र द्वय पक्ष रहित।

कुगतिविनाशी पुण्यऋद्धि के, उदय सहित गारवविरहित।।८।।

आतापन तरुमूल योग, अभ्रावकाश में राग सहित।

बहुजन हितकर चरित अभय, निष्पाप महान् प्रभाव सहित।।९।।

इन सब गुण से युक्त तुम्हें, स्थिर योगी आचार्य प्रधान।

बहुत भक्तियुत विधिवत् मुकुलित, करपुटकमल धरूँ शिरधाम।।१०।।

नमूँ तुम्हें कर्मोदय संभव, जन्म जरा मृतिबन्ध रहित।

होवे इति शिव अचल अनघ, अक्षय निर्बाध मुक्तिसुख नित।।११।।

(आचार्यभक्ति की अंचलिका) -चौबोल छंद-

हे भगवन् ! आचार्य भक्ति का, कायोत्सर्ग किया रुचि से i

उसके आलोचन करने की, इच्छा करता हूँ मुद से।।१।।

सम्यग्ज्ञान दरश चारितयुत, पंचाचार सहित आचार्य।

आचारांग आदि श्रुतज्ञानी, उपाध्याय उपदेशकवर्य।।२।।

रत्नत्रय गुण पालन में रत, सर्व साधु का मैं हर्षित।

अर्चन पूजन वंदन करता, नमस्कार करता हूँ नित।।३।।

दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे बोधि लाभ होवे।

सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुणसंपद् होवे।।४।।

अथ वृहत्प्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं

भावपूजावन्दनास्तवसमेतं शांतिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।

(पूर्ववत् सामायिक दण्डक, ९ जाप्य, थोस्सामि पढ़कर शांतिभक्ति पढ़ें) 

शांतिभक्ति

भगवन् ! सब जन तव पद युग की, शरण प्रेम से नहिं आते।

उसमें हेतु विविध दुःखों से, भरित घोर भववारिधि हैं।।

अतिस्पुरित उग्र किरणों से, व्याप्त किया भूमण्डल है।

ग्रीषम ऋतु रवि राग कराता, इंदुकिरण छाया, जल में।।१।।

कुद्धसर्प आशीविष डसने, से विषाग्नियुत मानव जो।

विद्या औषध मंत्रित जल, हवनादिक से विष शांति हो।।

वैसे तव चरणाम्बुज युग-स्तोत्र पढ़ें जो मनुज अहो।

तनु नाशक सब विघ्न शीघ्र, अति शांत हुए आश्चर्य अहो।।२।।

तपे श्रेष्ठ कनकाचल की, शोभा से अधिक कांतियुत देव।

तव पद प्रणमन करते जो, पीड़ा उनकी क्षय हो स्वयमेव।।

उदित रवी की स्पुट किरणों से, ताड़ित हो झट निकल भगे।

जैसे नाना प्राणी लोचन-द्युतिहर रात्रि शीघ्र भगे।।३।।

त्रिभुवन जन सब जीत विजयि बन, अतिरौद्रात्मक मृत्युराज।

भव भव में संसारी जन के, सन्मुख धावे अति विकराल।।

किस विध कौन बचे जन इससे, काल उग्र दावानल से।

यदि तव पाद कमल की स्तुति-नदी बुझावे नहीं उसे।।४।।

लोकालोक निरन्तर व्यापी, ज्ञानमूर्तिमय शान्ति विभो।

नानारत्न जटित दण्डेयुत, रुचिर श्वेत छत्रत्रय हैं।।

तव चरणाम्बुज पूतगीत रव, से झट रोग पलायित हैं।

जैसे सिंह भयंकर गर्जन, सुन वन हस्ती भगते हैं।।५।।

दिव्यस्त्रीदृगसुन्दर विपुला, श्रीमेरु के चूड़ामणि।

तव भामण्डल बाल दिवाकर, द्युतिहर सबको इष्टअति।।

अव्याबाध अचिंत्य अतुल, अनुपम शाश्वत जो सौख्य महान्।

तव चरणारविंदयुगलस्तुति से ही हो वह प्राप्त निधान।।६।।

किरण प्रभायुत भास्कर भासित, करता उदित न हो जब तक।

पंकजवन नहिं खिलते, निद्राभार धारते हैं तब तक।।

भगवन् !तव चरणद्वय का हो, नहीं प्रसादोदय जब तक।

सभी जीवगण प्रायः करके, महत् पाप धारें तब तक।।७।।

शांति जिनेश्वर शांतचित्त से, शांत्यर्थी बहु प्राणीगण।

तव पादाम्बुज का आश्रय ले, शांत हुए हैं पृथिवी पर।।

तव पदयुग की शांत्यष्टकयुत, संस्तुति करते भक्ति से।

मुझ भाक्तिक पर दृष्टि प्रसन्न, करो भगवन् ! करुणा करके।।८।।

शशि सम निर्मल वक्त्र शांतिजिन, शीलगुण व्रत संयम पात्र।

नमूं जिनोत्तम अंबुजदृग को, अष्टशतार्चित लक्षण गात्र।।९।।

चक्रधरों में पंचमचक्री, इन्द्र नरेन्द्र वृंद पूजित।

गण की शांति चहूँ षोडश-तीर्थंकर नमूं शांतिकर नित।।१०।।

तरुअशोक सुरपुष्पवृष्टि, दुंदुभि दिव्यध्वनि सिंहासन।

चमर छत्र भामण्डल ये अठ, प्रातिहार्य प्रभु के मनहर।।११।।

उन भुवनार्चित शांतिकरं, शिर से प्रणमूँ शांति प्रभु को।

शांति करो सब गण को मुझको, पढ़ने वालों को भी हो।।१२।।

मुकुटहारकुंडल रत्नों युत, इन्द्रगणों से जो अर्चित।

इन्द्रादिक से सुरगण से भी, पादपद्म जिनके संस्तुत।।

प्रवरवंश में जन्मे जग के, दीपक वे जिन तीर्थंकर।

मुझको सतत शांतिकर होवें, वे तीर्थेश्वर शांतिकर।।१३।।

संपूजक प्रतिपालक जन, यतिवर सामान्य तपोधन को।

देश राष्ट्र पुर नृप के हेतू, हे भगवन् ! तुम शांति करो।।१४।।

सभी प्रजा में क्षेम नृपति, धार्मिक बलवान् जगत में हो।

समय-समय पर मेघवृष्टि हो, आधि व्याधि का भी क्षय हो।।

चोरि मारि दुर्भिक्ष न क्षण भी, जग में जन पीड़ाकर हो।

नित ही सर्व सौख्यप्रद जिनवर, धर्मचक्र जयशील रहो।।१५।।

वे शुभद्रव्य क्षेत्र अरु काल, भाव वर्तें नित वृद्धि करें।

जिनके अनुग्रह सहित मुमुक्षु, रत्नत्रय को पूर्ण करें।।१६।।

घातिकर्म विध्वंसक जिनवर, केवलज्ञानमयी भास्कर।

करें जगत में शांति सदा, वृषभादि जिनेश्वर तीर्थंकर।।१७।।

अंचलिका

हे भगवन् ! श्री शांतिभक्ति का, कायोत्सर्ग किया उसके।

आलोचन करने की इच्छा, करना चाहूँ मैं रुचि से।।

अष्टमहाप्रातिहार्य सहित जो, पंचमहाकल्याणक युत।

चौंतिस अतिशय विशेष युत, बत्तिस देवेन्द्र मुकुट चर्चित।।

हलधर वासुदेव प्रतिचक्री, ऋषि मुनि यति अनगार सहित।

लाखों स्तुति के निलय वृषभ से, वीर प्रभू तक महापुरुष।।

मंगल महापुरुष तीर्थंकर, उन सबको शुभ भक्ति से।

नित्यकाल मैं अर्चूं, पूजूं, वंदू, नमूं महामुद से।।

दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधिलाभ होवे।

सुगति गमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।

अथ वृहत्प्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण

सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं सिद्धभक्ति-

योगिभक्ति-आचार्यभक्ति-शांतिभक्ती:-कृत्वा

तद्हीनाधिकदोषविशुद्ध्यर्थं समाधिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।

(पूर्ववत् सामायिकदण्डक, ९ जाप्य, थोस्सामि पढ़कर समाधिभक्ति पढ़ें) 

समाधि भक्ति:

स्वात्मरूप के अभिमुख, संवेदन को श्रुतदृग् से लखकर।

भगवन् ! तुमको केवलज्ञान, चक्षु से देखूँ झट मनहर।।१।।

शास्त्रों का अभ्यास, जिनेश्वर, नमन सदा सज्जन संगति।

सच्चरित्रजन के गुण गाऊँ, दोष कथन में मौन सतत।।

सबसे प्रिय हित वचन कहूँ, निज आत्म तत्त्व को नित भाऊं।

यावत् मुक्ति मिले तावत्, भव भव में इन सबको पाऊँ।।२।।

जैनमार्ग में रुचि हो अन्य, मार्ग निर्वेग हो भव-भव में।

निष्कलंक शुचि विमल भाव हों, मति हो जिनगुण स्तुति में।।३।।

गुरुपदमूल में यतिगण हों, अरु चैत्यनिकट आगम उद्घोष।

होवे जन्म जन्म में मम, सन्यासमरण यह भाव जिनेश।।४।।

जन्म जन्म कृत पाप महत अरु, जन्म करोड़ों में अर्जित।

जन्म जरा मृत्यु के जड़ वे, जिन वंदन से होते नष्ट।।५।।

बचपन से अब तक जिनदेवदेव! तव पाद कमल युग की।

सेवा कल्पलता सम मैंने, की है भक्तिभाव धर ही।।

अब उसका फल माँगू भगवन् ! प्राण प्रयाण समय मेरे।

तव शुभ नाम मंत्र पढ़ने में, कंठ अकुंठित बना रहे।।६।।

तव चरणाम्बुज मुझ मन में, मुझ मन तव लीन चरणयुग में।

तावत् रहे जिनेश्वर! यावत्, मोक्षप्राप्ति नहिं हो जग में।।७।।

जिनभक्ती ही एक अकेली, दुर्गति वारण में समरथ।

जन का पुण्य पूर्णकर मुक्ति – श्री को देने में समरथ।।८।।

पंच अरिंजय नाम पंच-मतिसागर जिन को वंदूं मैं।

पंच यशोधर नमूं पंच-सीमंधर जिन को वंदूं मैं।।९।।

रत्नत्रय को वंदूं नित, चउवीस जिनवर को वंदूं मैं।

पंचपरमगुरु को वंदूं, नित चारण चरण को वंदूं मैं।।१०।।

‘‘अर्हं’’ यह अक्षर है, ब्रह्मरूप परमेष्ठी का वाचक।

सिद्धचक्र का सही बीज है, उसको नमन करूँ मैं नित।।११।।

अष्टकर्म से रहित मोक्ष-लक्ष्मी के मंदिर सिद्ध समूह।

सम्यक्त्वादि गुणों से युत श्री-सिद्धचक्र को सदा नमूं।।१२।।

सुरसंपति आकर्षण करता, मुक्तिश्री को वशीकरण।

चतुर्गति विपदा उच्चाटन, आत्म-पाप में द्वेष करण।।

दुर्गति जाने वाले का, स्तंभन मोह का सम्मोहन।

पंचनमस्कृति अक्षरमय, आराधन देव! करो रक्षण।।१३।।

अहो अनंतानंत भवों की, संतति का छेदन कारण।

श्री जिनराज पदाम्बुज है, स्मरण करूँ मम वही शरण।।१४।।

अन्य प्रकार शरण नहिं जग में, तुम ही एक शरण मेरे।

अतः जिनेश्वर करुणा करके, रक्ष मेरी रक्षा करिये।।१५।।

त्रिभुवन में नहिं त्राता कोई, नहिं त्राता है नहिं त्राता।

वीतराग प्रभु छोड़ न कोई, हुआ न होता नहिं होगा।।१६।।

जिन में भक्ती सदा रहे दिन-दिन जिनभक्ती सदा रहे।

जिन में भक्ती सदा रहे, मम भव-भव में भी सदा रहे।।१७।।

तव चरणाम्बुज की भक्ती को, जिन! मैं याचूं मैं याचूं।

पुनः पुनः उस ही भक्ति की, हे प्रभु! याचन करता हूँ।।१८।।

विघ्नसमूह प्रलय हो जाते, शाकिनि भूत पिशाच सभी।

श्री जिनस्तव करने से ही, विष निर्विष होता झट ही।।१९।।

-दोहा- भगवन् ! समाधिभक्ति अरु, कायोत्सर्ग कर लेत।

चाहूँ आलोचन करन दोष विशोधन हेत।।१।।

रत्नत्रय स्वरूप परमात्मा, उसका ध्यान समाधि है।

नितप्रति उस समाधि को अर्चूं, पूजूँ वंदूं नमूं उसे।।

दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।

सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।२।।<

Tags: Muni diksha vidhi
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