अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभ-धर्मस्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा:।।७।। इमानि शरीरेन्द्रियविषयोपभोगद्रव्याणि समुदयरूपाणि जलबुद्बुद्वदनवस्थित-स्वभावानि गर्भादिष्ववस्थाविशेषेषु सदोपलभ्यमानसंयोगविपर्ययाणि, मोहादत्राज्ञो नित्यतां मन्यते। न किंचित्संसारे समुदितं ध्रुवमस्ति आत्मनो ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावादन्यदिति चिन्तनमनित्यतानुप्रेक्षा। एवं १ह्यस्य भव्यस्य चिन्तयतस्तेष्वभिष्वङ्गाभावाद् भुक्तेज्झित-गन्धमाल्यादिष्विव वियोगकालेऽपि विनिपातो नोत्पद्यते। यथा-मृगशावस्यैकान्ते बलवता क्षुधितेनामिषैषिणा व्याघ्रेणाभिभूतस्य न किंचिच्छरणमस्ति, तथा जन्मजरामृत्युव्याधिप्रभृतिव्यसनमध्ये परिभ्रमतो जन्तो: शरणं न विद्यते। परिपुष्टमपि शरीरं भोजनं प्रति सहायीभवति न व्यसनोपनिपाते। यत्नेन संचिता२ अर्था अपि न भवान्तरमनुगच्छन्ति। संविभक्तसुखदु:खा: सुहृदोऽपि न मरणकाले परित्रायन्ते। बान्धवा: समुदिताश्च रुजा परीतं न परिपालयन्ति। अस्ति चेत्सुचरितो धर्मो व्यसनमहार्णवे तरणोपायो भवति। मृत्युना नीयमानस्य सहस्रनयनादयोऽपि न शरणम्। तस्माद् भवव्यसनसंकटे धर्म एव शरणं। सुहृदर्थोऽप्यनपायी, नान्यिंकचिच्छरणमिति भावना अशरणानुप्रेक्षा। एवं ह्यस्याध्यवस्यतो नित्यमशरणोऽस्मीति भृशमुद्विग्नस्य सांसारिकेषु भावेषु ममत्वविगमो१ भवति। भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीत एव मार्गे प्रयत्नो२ भवति। कर्मविपाकवशादात्मनो भवान्तरावाप्ति: संसार:। स पुरस्तात्पञ्चविधपरिवर्तनरूपेण व्याख्यात:। तस्मिन्ननेकयोनिकुलकोटिबहुशतसहस्रसंकटे संसारे परिभ्रमन् जीव: कर्मयन्त्र३ प्रेरित: पिता भूत्वा भ्राता पुत्र: पौत्रश्च भवति। माता भूत्वा भगिनी भार्य दुहिता च भवति। स्वामी भूत्वा दासो भवति। दासो भूत्वा स्वाम्यपि भवति। नट इव रङ्गे। अथवा िंक बहुना, स्वयमात्मन: पुत्रो भवतीत्येवमादि संसारस्वभावचिन्तनं संसारानुप्रेक्षा। एवं ह्यस्य भावयत: संसारदु:खभयादुद्विग्नस्य ततो निर्वेदो भवति। र्नििवण्णश्च संसारप्रहाणाय १प्रयतते। जन्मजरामरणावृत्ति२ महादु:खानुभवनं प्रति एक एवाहं न कश्चिन्मे स्व: परो वा विद्यते। एक एव जायेऽह३म्। एक एव म्रिये। न मे कश्चित् स्वजन: परजनो वा व्याधिजरा-मरणादीनि दु:खान्यपहरति। बन्धुमित्राणि स्मशानं४ नातिवर्तन्ते। धर्म एव मे सहाय: सदा अनपायीति चिन्तनमेकत्वानुप्रेक्षा। एवं ह्यस्य भावयत: स्वजनेषु प्रीत्यनुबन्धो न भवति। पराजनेषु च द्वेषानुबन्धो नोपजायते। ततो नि:सङ्गतामभ्युपगतो मोक्षायैव घटते। शरीरादन्यत्वचिन्तनमन्यत्वानुप्रेक्षा। तद्यथा-बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यपि लक्षणभेदा-दन्योऽहमैन्द्रियवंâ शरीर५मतीन्द्रियोऽहमज्ञं शरीरं ज्ञोऽहमनित्यं शरीरं नित्योऽहमाद्यन्त-वच्छरीरमनाद्यनन्तोऽहम्। बहूनि मे शरीरशतसहस्राण्यतीतानि संसारे परिभ्रमत:। स एवाहमन्यस्तेभ्य इत्येवं मे किमङ्ग, पुनर्बाह्येभ्य: परिग्रहेभ्य: इत्येवं ह्यस्य मन: समादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते। ततस्तत्त्वज्ञानभावनापूर्वके वैराग्यप्रकर्षे सति आत्यन्तिकस्य मोक्षसुखस्या१वाप्तिर्भवति। शरीरमिदमत्यन्ताशुचियोनि२ शुक्रशोणिताशुचिसंर्विधतमवस्करवदशुचिभाजनं त्वङ्मात्रप्रच्छादितमतिपूतिरसनिष्यन्दिस्रोतोबिलमङ्गारवदात्मभावमाश्रितमप्याश्वेवापादयति। स्नानानुलेपनधूपप्रघर्षवासमाल्यादिभिरपि न शक्यमशुचित्वमपहर्तुमस्य। सम्यग्दर्शनादि पुनर्भाव्यमानं जीवस्यात्यन्तिकीं शुद्धिमाविर्भावयतीति तत्त्वतो भावनमशुचित्वानुप्रेक्षा। एवं ह्यस्य संस्मरत: शरीरनिर्वेदो भवति। र्नििवण्णश्च जन्मोदधितरणाय चित्तं समाधत्ते। आस्रवसंवरनिर्जरा: पूर्वोक्ता अपि इहोपन्यस्यन्ते ३तद्गतगुणदोषभावनार्थम्। तद्यथा-आस्रवा इहामुत्रापाययुक्ता महानदीस्रोतोवेगतीक्ष्णा इन्द्रियकषाया व्रतादय:। तत्रेन्द्रियाणि तावत्स्पर्शनादीनि वनगजवायसपन्नगपतङ्गहरिणादीन् व्यवसनार्णवमवगाहयन्ति तथा कषायादयोऽपीह वधबन्धापय१श:परिक्लेशादीन् जनयन्ति। अमुत्र च नानागतिषु बहुविधदु:खप्रज्वलितासु परि२भ्रमयन्तीत्येवमास्रवदोषानुचिन्तनमास्रवानुप्रेक्षा। एवं ह्यस्य चिन्तयत: क्षमादिषु श्रेयस्त्वबुद्धिर्न प्रच्यवते। सर्व एते आस्रवदोषा: वूâर्मवत्संवृतात्मनो न भवन्ति। यथा महार्णवे नावो विवरपिधानेऽसति क्रमात् स्रतजलाभिप्लवे सति तदाश्रयाणां विनाशोऽवश्यंभावी, छिद्रपिधाने च निरुपद्रवमभिलषितदेशान्तरप्रापणं, तथा कर्मागमद्वारसंवरणे सति नास्ति श्रेय:प्रतिबन्ध इति संवरगुणानुचिन्तनं संवरानुप्रेक्षा। एवं ह्यस्य चिन्तयत: संवरे नित्योद्युक्तता भवति। ततश्च नि:श्रेयसपदप्राप्तिरिति। निर्जरा वेदनाविपाक इत्युक्तम्। सा द्वेधा-अबुद्धिपूर्वा कुशलमूला चेति। तत्र नरकादिषु कर्मफलविपाकजा अबुद्धिपूर्वा सा अकुशलानुबन्धा। परिषहजये कृते कुशलमूला सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति। इत्येवं निर्जराया गुणदोषभावनं निर्जरानुप्रेक्षा। एवं ह्यस्यानुस्मरत: कर्मनिर्जरायै प्रवृत्तिर्भवति। लोकसंस्थानादिविधिव्र्याख्यात: समन्तादनन्तस्यालोकाकाशस्य बहुमध्यदेशभाविनो लोकस्य संस्थानादिविधिव्र्याख्यात:। तत्स्वभावानुचिन्तनं लोकानुप्रेक्षा। एवं ह्यस्याध्यवस्य-तस्तत्त्वज्ञान विशुद्धिर्भवति। एकस्मिन्निगोतशरीरे जीवा: सिद्धानामनन्तगुणा:। एवं सर्वलोको निरन्तरं निचित: स्थावरैरतस्तत्र त्रसता वालुकासमुद्रे पतिता वङ्कासिकताकणिकेव दुर्लभा। तत्र च विकलेन्द्रियाणां भूयिष्ठत्वात्पञ्चेन्द्रियता गुणेषु कृतज्ञतेव कृच्छ्रलभ्या। तत्र च तिर्यक्षु पशुमृगपक्षिसरीसृपादिषु बहुषु सत्सु मनुष्यभावश्चतुष्पथे रत्नराशिरिव दुरासद:। तत्प्रच्यवे च पुनस्तदुत्पत्तिर्दग्ध-तरुपुद्गलतद्भावोपपत्तिवद् दुर्लभा। तल्लाभे च देशकुलेन्द्रियसंपन्नीरोगत्वान्युत्तरोत्तर-नोऽतिदुर्लभानि। सर्वेष्वपि तेषु लब्धेषु सद्धर्मप्रतिलम्भो यदि न स्याद् व्यर्थं जन्म वदनमिव दृष्टिविकलम्। तमेवं कृच्छलभ्यं धर्ममवाप्य विषयसुखे रञ्जनं भस्मार्थचन्दनदहनमिव विफलम्। विरक्तविषयसुखस्य तु तपोभावनाधर्मप्रभावनासुखमरणादिलक्षण: समाधिर्दुरवाप:। तस्मिन् सति बोधिलाभ: फलवान् भवतीति चिन्तनं बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा। एवं ह्यस्य भावयतो बोिंध प्राप्य प्रमादो न कदाचिदपि भवति। अयं जिनोपदिष्टो धर्मोऽिंहसालक्षण: सत्याधिष्ठितो विनयमूल:। क्षमाबलो ब्रह्मचर्यगुप्त उपशमप्रधानी नियतिलक्षणो निष्परिग्रहतालम्बन:। अस्यालाभादनादिसंसारे जीवा: परिभ्रमन्ति दुष्कर्मविपाकजं दु:खमनुभवन्त:। अस्य पुन: प्रतिलम्भे विविधाभ्युदयप्राप्तिर्पूिवका नि:श्रेयसोपलब्र्धििनयतेति चिन्तनं धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा। एवं ह्यस्य चिन्तयतो धर्मानुरागात्सदा प्रतियत्नो भवति। एवमनित्यत्वाद्यनुप्रेक्षासंनिधाने उत्तमक्षमादिधारणान्महान् संवरो भवति। मध्ये ‘अनुप्रेक्षा’ वचनमुभयार्थम्। अनुप्रेक्षा: हि भावयन्नुत्तमक्षमादींश्च प्रतिपालयति परीषहांश्च जेतुमुत्सहते।
अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्या तत्त्व का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षाएँ हैं।।७।।
ये समुदायरूप शरीर, इन्द्रिय विषय, उपभोग और परिभोग द्रव्य जल के बुलबुले के समान अनवस्थित स्वभाव वाले हैं तथा गर्भादि अवस्था विशेषों में सदा प्राप्त होने वाले संयोगों से विपरीत स्वभाव वाले हैं। मोहवश अज्ञ प्राणी इनमें नित्यता का अनुभव करता है पर वस्तुत: आत्मा के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगस्वभाव के सिवाय इस संसार में अन्य कोई भी पदार्थ ध्रुव नहीं है इस प्रकार चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस भव्य के उन शरीरादि में आसक्ति का अभाव होने से भोगकर छोड़े हुए गन्ध और माला आदि के समान वियोग काल में भी सन्ताप नहीं होता है। जिस प्रकार एकान्त में क्षुधित और माँस के लोभी बलवान व्याघ्र के द्वारा दबोचे गये मृगशावक के लिये कुछ भी शरण नहीं होता उसी प्रकार जन्म, जरा, मृत्यु और व्याधि आदि दु:खों के मध्य में परिभ्रमण करने वाले जीव का कुछ भी शरण नहीं है। परिपुष्ट हुआ शरीर ही भोजन के प्रति सहायक है, दु:खों के प्राप्त होने पर नहीं। यत्न से संचित किया हुआ धन भी भवान्तर में साथ नहीं जाता। जिन्होंने सुख और दु:ख को समानरूप से बाँट लिया है ऐसे मित्र भी मरण के समय रक्षा नहीं कर सकते। मिलकर बन्धुजन भी रोग से व्याप्त इस जीव की रक्षा करने में असमर्थ होते हैं। यदि सुचरित धर्म हो तो वह ही दु:खरूपी महासमुद्र में तरने का उपाय हो सकता है। मृत्यु से ले जाने वाले इस जीव के सहस्रनयन आदि भी शरण नहीं हैं इसलिये संसार विपत्तिरूप स्थान में धर्म ही शरण है। वही मित्र है और वही कभी भी न छूटने वाला अर्थ है, अन्य कुछ शरण नहीं है, इस प्रकार की भावना करना ही अशरणानुप्रेक्षा है। इस प्रकार विचार करने वाले इस जीव के ‘मैं सदा अशरण हूँ, इस तरह अतिशय उद्विग्न होने के कारण संसार के कारणभूत पदार्थों में ममता नहीं रहती और वह भगवान अरहंत सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग में ही प्रयत्नशील होता है। कर्म के विपाक के वश से आत्मा को भवान्तर की प्राप्ति होना संसार है। उसका पहले पाँच प्रकार के परिवर्तनरूप से व्याख्यान कर आये हैं। अनेक योनि और कुल कोटि लाख से व्याप्त इस संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्मयन्त्र से प्रेरित होकर पिता होकर भाई, पुत्र और पौत्र होता है। माता होकर भगिनी, भार्या और लड़की होता है। स्वामी होकर दास होता है तथा दास होकर स्वामी भी होता है। जिस प्रकार रंगस्थल में नट नाना रूप धारण करता है उस प्रकार यह होता है। अथवा बहुत कहने से क्या प्रयोजन, स्वयं अपना पुत्र होता है, इत्यादि रूप से संसार के स्वभाव का चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करते हुए संसार के दु:ख के भय से उद्विग्न हुए इसके संसार से निर्वेद होता है और र्नििवण्ण होकर संसार का नाश करने के लिये प्रयत्न करता है। जन्म, जरा और मरण की आवृत्तिरूप महादु:ख का अनुभवन करने के लिये अकेला मैं ही हूँ, न कोई मेरा स्व है और न पर है, अकेला ही मैं जन्मता हूँ और अकेला ही मरता हूँ। मेरा कोई स्वजन या परजन व्याधि, जरा और मरण आदि दु:खों को दूर नहीं करता है। बन्धु और मित्र श्मशान से आगे नहीं जाते। धर्म ही मेरा कभी साथ न छोड़ने वाला सदा काल सहायक है, इस प्रकार चिन्तन करना एकत्वानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस जीव के स्वजनों में प्रीति का अनुबन्ध नहीं होता और परजनों में द्वेष का अनुबन्ध नहीं होता इसलिये नि:संगता को प्राप्त होकर मोक्ष के लिये ही प्रयत्न करता है। शरीर से अन्यत्व का चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है-यथा बन्ध के प्रति अभेद होने पर भी लक्षण के भेद से ‘मैं’ अन्य हूँ। शरीर ऐन्द्रियिक है, मैं अतीन्द्रिय हूँ। शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ। शरीर आदि-अन्त वाला है और मैं अनाद्यनन्त हूँ। संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत हो गये। उनसे भिन्न वह ही मैं हूँ। इस प्रकार शरीर से भी जब मैं अन्य हूँ तब हे वत्स! मैं बाह्य पदार्थों से भिन्न होऊँ तो इसमें क्या आश्चर्य ? इस प्रकार मन को समाधानयुक्त करने वाले शरीरादिक में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती है और इससे तत्त्वज्ञान की भावनापूर्वक वैराग्य का प्रकर्ष होेने पर आत्यन्तिक मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है। यह शरीर अत्यन्त अशुचि पदार्थों का योनि है। शुक्र और शोणितरूप अशुचि पदार्थों से वृद्धि को प्राप्त हुआ है, शौचगृह के समान अशुचि पदार्थों का भाजन है। त्वचा मात्र से आच्छादित है। अति दुर्गन्ध रस को बहाने वाला झरना है। अंगार के समान अपने आश्रय में आये हुए पदार्थ को भी शीघ्र ही नष्ट करता है। स्नान, अनुलेपन, धूप की मालिश और सुगन्धिमाला आदि के द्वारा भी इसकी अशुचिता को दूर कर सकना शक्य नहीं है किन्तु अच्छी तरह भावना किये गये सम्यग्दर्शन आदिक जीव की आत्यन्तिक शुद्धि को प्रकट करते हैं, इस प्रकार वास्तविक रूप से चिन्तन करना अशुचि अनुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाला इसके शरीर से निर्वेद होता है और र्नििवण्ण होकर जन्मोदधि को तरने के लिये चित्त को लगाता है। आस्रव, संवर और निर्जरा का कथन पहले कर आये हैं तथापि उनके गुण और दोषों का विचार करने के लिये यहाँ उनका फिर से उपन्यास किया गया है। यथा-आस्रव इस लोक और परलोक में दु:खदायी है। महानदी के प्रवाह के वेग के समान तीक्ष्ण है तथा इन्द्रिय, कषाय और अव्रतरूप हैं। उनमें से स्पर्शनादिक इन्द्रियाँ वनगज, कौआ, सर्प, पतंग और हरिण आदि को दु:खरूप समुद्र में अवगाहन कराती हैं। कषाय आदिक भी इस लोक में वध, बन्ध, अपयश और क्लेशादिक दु:खों को उत्पन्न करते हैं तथा परलोक में नाना प्रकार के दु:खों से प्रज्वलित नाना गतियों में परिभ्रमण कराते हैं। इस प्रकार आस्रव के दोषों का चिन्तन करना आस्रवानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस जीव के क्षमादिक में कल्याणरूप बुद्धि का त्याग नहीं होता है तथा कछुए के समान जिसने अपनी आत्मा को संवृत कर लिया है उसके ये सब आस्रव के दोष नहीं होते हैं। जिस प्रकार महार्णव में नाव के छिद्र के नहीं ढके रहने पर क्रम से झिरे हुए जल से व्याप्त होने पर उसके आश्रय से बैठे हुए मनुष्यों का विनाश अवश्यम्भावी है और छिद्र के ढके रहने पर निरुपद्रवरूप से अभिलषित देशान्तर का प्राप्त होना अवश्यम्भावी है उसी प्रकार कर्मागम के द्वार के ढके होने पर कल्याण का प्रतिबन्ध नहीं होता है। इस प्रकार संवर के गुणों का चिन्तन करना संवरानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस जीव के संवर में निरन्तर उद्युक्तता होती है और इससे मोक्ष पद की प्राप्ति होती है। वेदना विपाक का नाम निर्जरा है यह पहले कह आये हैं। वह दो प्रकार की है-अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला। नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है वह अकुशलानुबन्धा है तथा परीषह के जीतने पर जो निर्जरा होती है वह कुशलमूला निर्जरा है। वह शुभानुबन्धा और निरनुबन्धा होती है। इस प्रकार निर्जरा के गुण दोष का चिन्तन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इसकी कर्मनिर्जरा के लिये प्रवृत्ति होती है। लोक संस्थान आदि की विधि पहले कह आये हैं अर्थात् चारों ओर से अनन्त अलोकाकाश के बहुमध्य देश में स्थित लोक के संस्थान आदि की विधि पहले कह आये हैं। उसके स्वभाव का अनुचिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है। इस प्रकार विचार करने वाले के तत्त्वज्ञान की विशुद्धि होती है। एक निगोद शरीर में सिद्धों से अनन्तगुणे जीव हैं। इस प्रकार स्थावर जीवों से सब लोक निरन्तर भरा हुआ है अत: इस लोक में त्रस पर्याय का प्राप्त होना इतना दुर्लभ है जितना कि बालुका के समुद्र में पड़ी हुई वङ्कासिकता की कणिका का प्राप्त होना दुर्लभ होता है। उसमें भी विकलेन्द्रिय जीवों की बहुलता होने के कारण गुणों में जिस प्रकार कृतज्ञता गुण का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ होता है उसी प्रकार पंचेन्द्रिय पर्याय का प्राप्त होना दुर्लभ है। उसमें भी पशु, मृग, पक्षी और सरीसृप तिर्यंचों की बहुलता होती है इसलिये जिस प्रकार चौपथ पर रत्नराशि का प्राप्त होना अति कठिन है उसी प्रकार से मनुष्य पर्याय का प्राप्त होना भी अति कठिन है और मनुष्य पर्याय के मिलने के बाद उसके च्युत हो जाने पर पुन: उसकी उत्पत्ति होना इतना कठिन है जितना कि जले हुए वृक्ष के पुद्गलों का पुन: उस वृक्ष पर्यायरूप से उत्पन्न होना कठिन होता है। कदाचित् पुन: इसकी प्राप्ति हो जाए तो देश, कुल, इन्द्रियसम्पत् और नीरोगता इनका प्राप्त होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इन सबके मिल जाने पर भी यदि समीचीन धर्म की प्राप्ति न होवे तो जिस प्रकार दृष्टि के बिना मुख व्यर्थ होता है उसी प्रकार से मनुष्य जन्म का प्राप्त होना व्यर्थ है। इस प्रकार अति कठिनता से प्राप्त होने के योग्य उस धर्म को प्राप्त कर विषय सुख में रममाण होना भस्म के लिये चन्दन को जलाने के समान निष्फल है। कदाचित् विषयसुख से विरक्त हुआ तो भी इसके लिए तप की भावना, धर्म की प्रभावना और सुखपूर्वक मरणरूप समाधि का प्राप्त होना अति दुर्लभ है। इसके होने पर भी बोधिलाभ सफल है ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है। इस प्रकार विचार करने वाले इस जीव के बोधि को प्राप्त कर कभी भी प्रमाद नहीं होता है। जिनेन्द्रदेव ने यह जो अिंहसालक्षण धर्म कहा है, सत्य उसका आधार है, विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से रक्षित है, उपशम की उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, परिग्रहरहितपना उसका आलम्बन है। इसकी प्राप्ति नहीं होने से दुष्कर्म विपाक से जायमान दु:ख को अनुभव करते हुए ये जीव अनादि संसार में परिभ्रमण करते हैं परन्तु इसका लाभ होने पर नाना प्रकार के अभ्युदयों की प्राप्तिपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होना निश्चित है ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस जीव के धर्मानुरागवश उसकी प्राप्ति के लिये सदा यत्न होता है। इस प्रकार अनित्यादि अनुप्रेक्षाओं का सान्निध्य मिलने पर उत्तमक्षमादि के धारण करने से महान संवर होता है। अनुप्रेक्षा दोनों का निमित्त है इसलिये ‘अनुप्रेक्षा’ वचन मध्य में दिया गया है। अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता हुआ यह जीव उत्तमक्षमादि का ठीक तरह से पालन करता है और परीषहों को जीतने के लिये उत्साहित रहता है।